कविता
सुनो! मुठ्ठी भर
रंग घोल दो ,
जिंदगी में ।
नही देखे रंग और रौशनी
के त्यौहार ।
एक उमर और जी लूं ,
हवाँए नई साँसों में
घोल दो।
सुनो, फीके सा
ज़ायका है
ढलते से दिनों का ,
कोई सूरज चमका दो
कहीं।
सुनो मुठ्ठी भर रंग घोल
दो,
बहती उमर में ,
ओढनी तो ओढ लूँ,
सुर्खी छाँव की।
स्रोतः सं. सुभाष चंद्र, देस हरियाणा (सितम्बर-अक्तूबर, 2016), पेज- 35