गुडगांव के आटोमोबाइल सेक्टर में मजदूरों के हालात – अजय स्वामी

रपट

गुड़गांव के हाई-वे पर बने अपार्टमेण्ट-शापिंग मालों, आईटी पार्क, साफ्टवेयर व आटो सेक्टर की कम्पनियों की चमक-दमक के कारण गुडगांव की चर्चा पूरे देश में है। अकेले हरियाणा कुल आटोमोबाइल सेक्टर के 48 प्रतिशत का योगदान दे रहा है। आज गुड़गांव-मानेसर-धारूहेड़ा-बावल से भिवाड़ी तक की औद्योगिक पट्टी देश के आटोमोबाइल कम्पनियों के सबसे बड़े केन्द्र में से एक है।

गुड़गांव-मानेसर-धारूहेड़ा-बावल-भिवाड़ी के आटोमोबाइल की अत्याधुनिक कम्पनियों की चमक-दमक के पीछे की सच्चाई है कि एक बहुत बड़ी मज़दूर आबादी से बेहद कम मज़दूरी पर आधुनिक गुलामों की तरह काम कराया जाता है। मारुति सुजुकी, हीरो मोटर, होण्डा से लेकर बजाज जैसी आटो कम्पनियाँ करोड़ों-अरबों का मुनाफा पीट रही हैं जबकि दूसरी ओर हरियाणा के आटोमोबाइल सेक्टर के मज़दूर अमानवीय परिस्थितियों में गुलामों की तरह खटने को मजबूर हैं।

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गुड़गांव-मानेसर-धारूहेड़ा-बावल में आटोमोबाइल और आटो पार्टस बनाने की करीब 1000 इकाइयों में काम करने वाले मज़दूरों की आबादी 10 लाख से ज़्यादा है जिनमें से 80 फीसदी आबादी ठेका या कैजुअल मज़दूरों की हैं जो आम तौर पर 12-12 घण्टे कमरतोड़ मेहनत के बाद बमुश्किल-तमाम आठ-दस हज़ार रुपये पाते हैं। यह स्थाई मज़दूर के वेतन से 4-5 गुना कम होता है। आटो सेक्टर के मुनाफे में मज़दूरों का हिस्सा नगण्य है क्योंकि मौजूदा तकनीक के हिसाब से आज आटो मज़दूर अपने 8 घण्टे के कार्यदिवस में केवल 1 घण्टे 12 मिनट के काम का वेतन पाता है। बाकी 6 घण्टे 48 मिनट का कार्य वह बिना भुगतान के करता है। कैजुअल और ठेका मज़दूरों के सिर पर हमेशा छँटनी की तलवार लटकी रहती है। मज़दूर के लिए श्रम-कानूनों से लेकर लेबर कोर्ट मौजूद है लेकिन सारे कानून प्रबन्धन और ठेकेदारों की जेब में रहते हैं।

श्रमिक की कार्यस्थितियों बेहद कठिन है मशीनों की रफ्तार बढ़ाकर उनसे बेतहाशा काम लिया जाता है। इसका एक उदाहरण मारुति सुजुकी का मानेसर प्लाण्ट है जहाँ इंजन शाप के ब्लाक लाईन में एक मज़दूर द्वारा अपने कार्य के लिए 46 से 52 सेकेण्ड में ही 13 अलग-अलग प्रक्रियाएँ पूरी करनी होती है। वहीं कम तनावयुक्त मानी जाने वाली सीट असेम्बली लाइन पर अलग-अलग कन्वेयर बेल्ट में आने वाली कारों पर सीट लगायी जाती है जिसमें कि 30 अलग माडलों की सीट लगानी होती है। सीट लगाने को लिए एक मज़दूर को कम्पनी द्वारा 36 सेंकेण्ड तय किये गये थे किन्तु श्रमिकों के दबाव के कारण अब ये 50 सेकेण्ड है जिसमें लगभग 15 प्रक्रियाएँ पूरी करनी होती हैं। औसतन मज़दूर 8.30 घण्टे की शिफ्ट में 530 कारों में सीट लगाते है। मज़दूरों को मशीन की तरह लगातार इन कामों को करना होता हैं, इन्हें दोहराना होता है और गति बरकरार रखनी होती है।

फैक्टरियों से बाहर भी मज़दूरों की जि़न्दगी कम नारकीय नहीं है। आटो सेक्टर में अधिकांश मज़दूर प्रवासी हैं। असल में प्रबन्धन, प्रशासन और ठेकेदार ज़्यादा से ज़्यादा प्रवासी मज़दूरों को काम पर रखना पसंद करते हैं। इस तरह वे आसानी से मज़दूरों के बीच हरियाणवी व ग़ैर-हरियाणवी या फिर राजस्थानी व ग़ैर-राजस्थानी के नाम पर उनको बाँट सकते हैं।

ज़्यादातर मज़दूरों की रिहायश औद्योगिक क्षेत्र के आस-पास बनी नयी कालोनियों और गाँवों में है। जहाँ किराये के एक-एक कमरे में 4-5 मज़दूर रहते हैं। ठेका मज़़दूरों के वेतन का एक अच्छा-ख़ासा हिस्सा कमरों के किराये पर चल जाता है।

स्वास्थ्य सुविधा के नाम लाखों मज़दूर आबादी पर केवल एक ईएसआई अस्पताल और ईएसआई डिस्पेंसरी है। यहाँ भी स्वास्थ्य सुविधाएँ बड़ी लचर हालत में हैं। यहाँ पर मज़दूरों के लिए न तो मनोरंजन केन्द्र है न ही शाम को आराम करने के लिए पार्क।

लेकिन यह भी सच है कि मज़दूर इस घुटन-भरे माहौल को चुपचाप बर्दाश्त नहीं कर रहे हैं।पिछले दस बरसों में गुड़गांव से लेकर बावल व भिवाड़ी तक मज़दूर अपने कानूनी हक़ों के लिए संघर्ष कर रहे हैं।

आज ऐसा लगता है कि गुडग़ाँव ही नहीं बल्कि देश के स्तर पर मज़दूर आन्दोलनों के दमन में विभिन्न राज्यों की सरकारें परस्पर प्रतिस्पर्धा कर रही हैं। इसके अलावा फैक्टरी-प्रबन्धन श्रमिक-आंदोलन को तोड़ने के लिए बांउसरों से लेकर बदमाशों का इस्तेमाल करता है।मज़दूरों के अधिकारों की रक्षा के लिए बना श्रम-विभाग भी मालिकों के पक्ष में खड़ा दिखता है।मज़दूरों के ज़्यादातर संघर्ष अपने कानूनी अधिकारों को लेकर होते हैं। ये हक़ श्रम कानूनों के रूप में कागज़ों पर तो दर्ज हैं लेकिन हकीकत में मज़दूर इसे लागू करने के लिए लगातार संघर्ष कर रहे हैं।

आटो सेक्टर में मज़दूर आन्दोलन के सामने चुनौती है कि पूँजीपतियों ने मज़दूरों की कारखाना-आधारित एकता तोड़ने के लिए उत्पादन प्रक्रिया को काफी हद तक बिखराने की नीति बनायी है।

साथ ही सस्ते कच्चे माल से लेकर सस्ती श्रमशक्ति के निर्बाध दोहन के लिए मालिकों ने बड़ी फैक्टरियों को तोड़कर कई छोटी-छोटी फैक्टरियों में बिखरा दिया है। आज एक कार बनाने वाले कारखाने के नीचे सैकड़ों वेण्डर कम्पनियों के मज़दूर काम करते हैं।

कारखाने के भीतर भी स्थायी, कैजुअल और ठेका की श्रेणियों में मज़दूरों का बँटवारा करके मज़दूरों की एकता को तोड़ने की कोशिश की है फैक्टरी यूनियनें सभी मज़दूरों को साथ लेने की आवाज़ उठती हैं लेकिन समझौते के वक्त कैजुअल या ठेका मज़दूरों की माँग को दबा दिया जाता है। आन्दोलन तभी सफल  हो सकता है जब  स्थायी, कैजुअल और ठेका मज़दूरों की व्यापक एकता बने।

स्रोतः सं. सुभाष चंद्र, देस हरियाणा (जुलाई-अगस्त 2016), पेज – 37

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