कविता
काठ का मन
काठ का तन
काठ सा जीवन
काठ सी बेजान
ख्वाहिशें ।
टक-टक ठुकती कींल
एक एक चाहत में।
काठ की हसरतें,
संवेदना शून्य ,काठ सी।
जमती,गलती सपनों की
फफूँदी से सड़ता ,गलता
काठ
सा मन।
विश्वास की धूप को
तरसता
काठ,
सीलन में सिसकता
काठ ,
निरंतर चल
पर काठ सा स्थिर।
स्रोतः सं. सुभाष चंद्र, देस हरियाणा (सितम्बर-अक्तूबर 2016), पेज- 35