आंगण बीच कूई राजा (लोकगीत)

मर्यादा व अनुशासन यद्यपि मौन धारण करने की अपेक्षा करते हैं, पर परिवार के विभिन्न लोगों का रवैया मन में विद्रोह  करने की खलबली मचा देता है। मन का आक्रोशन नृत्य गीतों से हंसी-हंसी में बाहर निकल जाता है। पत्नी परिवार के कुछ सदस्यों से दुखी होकर उनको डराने के लिए घर के आंगन की कूई में डूबने का नाटक करती है पर पति को बता देती है कि वह कोरा नाटक है। वास्तव में तो यह बहाना है देवरानी, जेठानी और सौत से लड़ाई करके उन्हें धान कूटने की तरह पीटने का है, क्योंंकि वे  उसकी जन्म की दुश्मन है। लड़ाई औरों से भी होगी पर मार-पिटाई की नहीं। रसीले देवर से तो नाम मात्र का सिर्फ हंस-खेल के लिए लड़ना है। यह गीत तनाव कम करने का ‘सेफ्टी वाल्व’ है। संकलनकर्ताः सुधीर शर्मा

आंगण बीच कूई राजा डूब क: मरूंगी
तू मत डरिए मैं तो औरां न: डराऊंगी

जेठ लड़ैगा पाछा फेर क: लडूंगी
आजा री जिठानी तेरे धान से छडूंगी
धान से छडूंगी तेरी घाणी सी भरूंगी
मत डरिए मैं त: औरां न: डराऊंगी

देवर लड़ैगा हंस खेल क: लडूंगी
आजा री द्योराणी तेरे धान से छडूंगी
धान से छडूंगी तेरी घाणी सी भरूंगी
तू मत डरिए राजा औरां न: डराऊंगी

सुसरा लड़ैगा घुंघट ताण क: लडूंगी
आजा री सासु तेरे धान से छडूंगी
धान से छडूंगी तेरी घाणी सी भरूंगी
तू मत डरिए मैं तो औरां न: डराऊंगी

कन्था लडैग़ा चुन्नी बांध क: लडूंगी
आजा री सौत तेरे धान से छडूंगी
धान से छडूंगी तेरी घाणी सी भरूंगी
तू मत डरिए मैं तो औरां न: डराऊंगी

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