गुम हो रहा देश का भविष्य – रामफल दयोरा

अक्सर सार्वजनिक स्थानों, बस स्टैंड व रेलवे स्टेशनों पर भीख मांगते, होटल-ढाबों व कहीं बंधुवा मजदूर के रूप में काम करते हुए ‘छोटू’ देखते हैंं। हमारी जिज्ञासु प्रवृत्ति कभी यह जानने के लिए प्रेरित नहीं हुई कि आखिर ये ‘छोटू’ बने बच्चे हैं कौन? कहां से पैदा होते हैं? कभी दो कदम आगे बढ़कर उनसे दो बातचीत करने की कोशिश नहीं की।  इनके प्रति एक ही धारणा बनी हुई है कि इनके माता-पिता पैसों के लालच में जान-बूझकर ये सब करवाते हैं। लेकिन सभी का केवल यह सच नहीं होता है।

बचपन

अक्सर सार्वजनिक स्थानों, बस स्टैंड व रेलवे स्टेशनों पर भीख मांगते, होटल-ढाबों व कहीं बंधुवा मजदूर के रूप में काम करते हुए ‘छोटू’ देखते हैंं। हमारी जिज्ञासु प्रवृत्ति कभी यह जानने के लिए प्रेरित नहीं हुई कि आखिर ये ‘छोटू’ बने बच्चे हैं कौन? कहां से पैदा होते हैं? कभी दो कदम आगे बढ़कर उनसे दो बातचीत करने की कोशिश नहीं की।  इनके प्रति एक ही धारणा बनी हुई है कि इनके माता-पिता पैसों के लालच में जान-बूझकर ये सब करवाते हैं। लेकिन सभी का केवल यह सच नहीं होता है।

हाल ही में बीती 25 मई को ‘इंटरनेशनल मिसिंग चिल्ड्रन डे’ गुजरा है। इस दौरान सोशल मिडिया में भी जमकर ट्रेडिंग  हुई। हम अक्सर अपनी बातचीत में, बच्चों संबंधी शिक्षा के विषय में कहते हैं कि बच्चे देश का भविष्य होते हैं। आदतन बोले या लिखे जाने वाले इस वाक्य को शायद ही कोई गंभीरता से लेता हो। हमारी सरकारें तो निश्चित रूप से नहीं लेती। यही वजह है कि बीते  कुछ वर्षों से बच्चों के लापता होने के मामले लगातार बढऩे की हकीकत एक बार नहीं कई बार सामने आने पर भी हमारी सरकारों ने गंभीरता से नहीं लिया है।

जुलाई 2014 में गृह मंत्रालय के द्वारा 2011 से 2014 जून तक की पेश हुई रिपोर्ट के अनुसार 3 वर्षों के बीच 3.25 लाख बच्चे लापता हुए। औसतन प्रतिवर्ष एक लाख बच्चे लापता हो रहे हैं।  एनसीआरबी (नेशनल क्राईम रिपोर्ट ब्यूरो) के अनुसार हर 6वें मिनट में देश में एक बच्चा गुम होता है। यहां ध्यान देने वाली बात ये है कि गायब होने वाले बच्चोंं में 55 प्रतिशत लड़कियां हैं, जो बहुत ही गंभीर है और गुम हुए बच्चों में से 45 प्रतिशत बच्चों का आज तक कोई अता-पता नहीं मिला है। संयुक्त राष्ट्र संघ की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में हर साल औसतन 44500 बच्चे गुम हो जाते हैं। हमारे पड़ोसी देश पाकिस्तान का यह आंकड़ा 3 हजार प्रति वर्ष है और आबादी में हमसे ज्यादा चीन में बच्चे गुम होने का आंकड़ा 10 हजार प्रति वर्ष है। इससे यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि हमारी व्यवस्था इस पर कितनी गंभीर है।

देश में राज्यवार लापता होने वाले बच्चों की संख्या महाराष्ट्र नंबर वन रहा है। जहां पिछले 3 वर्षों में 50 हजार बच्चे गुम हुए हैं। दूसरे नंबर पर मध्य प्रदेश में 24836 बच्चे गुम हुए हैं। दिल्ली 19948 व आंधे प्रदेश में 18540 गुम हुए बच्चोंं में तीसरे व चौथे नंबर पर है।

बचपन बचाओ आंदोलन के अनुसार जनवरी 2008 से 2010 तक के बीच देशभर के 392 जिलों में 1,14,480 बच्चे लापता हुए। बचपन बचाओ आंदोलन ने अपनी किताब ‘मिसिंग चिल्ड्रन आफ इंडिया’ में कहा है कि उसने ये आंकड़े 392 जिलों में आरटीआई दायर कर हासिल किए, जो पंजीकृत भी हैं और इस तरह के बच्चों की संख्या भी हजारों में है, जिनके अभिभावक अपनी परिस्थितियों के चलते स्वयं छोड़ देते हैं, ऐसे में उनकी गुमशुदगी की रिपोर्ट संभव ही नहीं।

जाहिर है कि राज्यों की कानून  व्यवस्था की मशीनरी का बच्चोंं को ढूंढने पर कोई फोकस नहीं है। जिन राज्यों ने अपने यहां लापता व्यक्तियों के ब्यूरो बनाए हैं, वहां भी बच्चों की तलाश प्राथमिकता में नहीं है।

राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग हर साल ‘एक्शन रिसर्च आन ट्रेफिकिंग इन वूमेन एंड चिल्ड्रन’ रिपोर्ट जारी करता है कि जिन बच्चों का पता नहीं लगता, वास्तव में लापता नहीं होते हैं, बल्कि उनका अवैध व्यापार किया जाता है।  बड़ी संख्या में बच्चों को यौन पर्यटन के नृशंस कारोबार में फैंक दिया जाता है। बाल बंधुआ मजदूरी करने पर मजबूर किया जाता है। उनके अंग भंग करके उनसे भीख मंगवाई जाती है। बच्चों के कीमती अंगों को निकालकर उनका कारोबार किया जाता है और उनको अपने हाल पर छोड़ दिया जाता है। बच्चों को ज्यादातर लड़कियों को दूसरे देशों में बेच दिया जाता है। पिछले दिनों एक लड़की जो मध्य प्रदेश से गुम हुई थी, वो ईरान से मिली, जो इस बात का सबूत है।

सरकारी आंकड़ों के मुताबिक दुनिया में हर साल 72 लाख बच्चे बाल दासता अर्थात बंधुआ आधुनिक गुलामी का शिकार होते हैं। इनमें से एक तिहाई बच्चे दक्षिण एशियाई  देशों के होते हैं। भारत में इस स्थिति की गंभीरता इस बात से पता चलती है कि हर साल यहां 7 लाख बच्चों की गुमशुदगी की रिपोर्ट दर्ज करवाई जाती है।

जून 2016 के पहले सप्ताह में जारी आस्ट्रेलिया आधारित मानवाधिकार समूह ‘वॉक फ्री फाऊंडेशन’ की तरफ से एक रिपोर्ट में ‘वैश्विक  गुलामी सूचकांक’ के अनुसार दुनिया  भर में महिलाओं व बच्चों समेत चार करोड़  58 लाख लोग आधुनिक गुलामी यानी बंधुआ मजदूरी, वेश्यावृति और भीख की जकड़ में हैं। रिपोर्ट के अनुसार भारत में एक करोड़ 83 लाख 50 हजार लोग आधुनिक गुलामी में जकड़े हुए हैं।

लापता और अपहृत बच्चों के मामलों में सरकार के इरादों में भी बेरूखी देखी है। पिछली सरकार के गृह राज्य मंत्री ने संसद में एक विपक्षी नेता द्वारा पूछे गए सवाल के जवाब में गुम हुए बच्चों के माता-पिता को जिम्मेवार बताया। तत्कालीन गृह राज्य मंत्री ने इस बड़ी सच्चाई को बयान करना जरूरी नहीं समझा कि बच्चों के अवैध व्यापार में लिप्त गिरोह ने देश ही नहीं, बल्कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपना नेटवर्क कायम कर रखा है।  कुछ ही दिन पहले मध्य प्रदेश के तत्कालीन गृह मंत्री का एक मिले अपहृत बच्चे के घर पहुंच कर उससे किए सवाल-जवाब चर्चा में रहे। उसने बच्चे को धमकाते हुए पूछा नशा करते हो क्या? घर से क्योंं भागे? अगर दोबारा घर से भागे तो तुम्हें और तुम्हारे घर वालों को अंदर कर देंगे।

यह बात सर्वविदित है कि प्रशासन बच्चों से जुड़े मामलों में असंवेदनशील और अकर्मण्य है। क्योंकि इतने बड़े पैमाने पर बच्चों का यूं लापता होना अपने-आप में यह बताने के लिए काफी है कि इसके पीछे बच्चों की तस्करी में लिप्त लोगों का हाथ हो सकता है।  देखने में आया कि बच्चों के लापता होने जैसे बेहद चिंताजनक विषय पर पुलिस का यह मानना रहता है कि बच्चे ज्यादातर कमजोर तबकों यानी अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति के होते हैं और इनके गायब होने  वाले बच्चे या तो कहीं भाग जाते हैं या भटक जाते हैं और कुछ समय बाद खुद वापिस लौट आते हैं। पर सच्चाई कुछ ओर है, क्योंकि विभिन्न शोध, मानवाधिकार आयोग और गैर सरकारी संगठनों के अध्ययन बताते हैं कि लापता हुए ज्यादातर मासूम बच्चे तस्करी का शिकार होते हैं। मानव तस्कारों के हत्थे चढ़े बच्चों के सामने शोषण और अपराध की अंधेरी दुनिया से बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं होता है।

ये भी सच है कि कमजोर तबकों के प्रति पुलिस का रवैया हमेशा गैर जिम्मेदाराना व उदासीन रहता है। सदियों से सामाजिक व आर्थिक रूप से पिछड़े ये लोग ना तो पुलिस तंत्र पर अपना दबाव बना पाते हैं और न ही वे कोई कानूनी सहायता हासिल कर पाते हैं। मानव तस्करी में लिप्त गिरोहों को भी यकीन होता है कि इस तबके के बच्चों को गायब करना उनके लिए ज्यादा आसान व सुरक्षित है। वे कुछ दिनों बाद हार-थककर अपने-आप चुप होकर बैठ जाते हैं क्योंकि गरीबी सहन करना और सब्र करना जल्दी सिखा देती है।

कहने को तो बाल अधिकारों को लेकर हमारे देश में कई कड़े कानून बने हुए हैं। संयुक्त राष्ट्र घोषणा पत्र में दर्ज बच्चों के सभी अधिकार सुनिश्चित कराने की वचनबद्धता भी भारत ने दी हुई है। मगर हकीकत सरेआम सड़कों पर भीख मांगते, कचरा उठाते, घरों-दुकानों में  कोल��हू के बैल की तरह पिसते नाबालिग बच्चों पर प्रशासन की नजर नहीं जा पाती।

इस भयावह स्थिति को जानते हुए भी गुम हुए बच्चों के संदर्भ में दिल्ली पुलिस के एक उच्च पदस्थ अधिकारी की ओर से एक परिपत्र भेजा गया कि गायब या अपहृत बच्चोंं के मामलों में अंतिम रिपोर्ट लगाने की समयावधि तीन साल की बजाए एक साल कर दी जाए। स्पष्ट है कि पूर्व में किसी बच्चे के गायब या अपहृत होने के बाद रिकार्ड में दर्ज रहता था। इस परिपत्र पर दिल्ली बाल अधिकार संरक्षण आयोग ने आपत्ति जताते हुए रद्द कर दिया।

बचपन बचाओ आंदोलन की सरकारी हीला-हवाली पर 2012 की एक याचिका (75/2012) बचपन बचाओ आंदोलन बनाम भारत सरकार व अन्य के मामले पर सुप्रीम कोर्ट ने टिप्पणी करते हुए कहा कि पुलिस तंत्र में गरीबों की सुनवाई नहीं होती है सिर्फ अमीरोंं की सुनवाई होती है। गरीबों के लापता बच्चों के माता-पिता को ये कहकर टाला जाता है कि कुछ समय बाद अपने-आप घर लौट आएंगे। यह ‘कुछ समय’ मानव तस्करों को अपना खेल खेलने के लिए पर्याप्त होता है।

एक रिकार्ड के अनुसार असम व पश्चिमी बंगाल से मुस्लिम व आदिवासियों के बच्चे उठाकर हरियाणा में बेचे जाते हैं और बिहार से कृषि कार्य के लिए बंधुवा मजदूर के रूप में हरियाणा में बेचे जाते  हैं, जिनसे गन्ना आदि के खेतों में काम करवाया जाता है। अप्रैल 2015 में फरीदाबाद में एक ऐसा मामला पाया गया। पुलिस ने एक धनी परिवार के घर से प. बंगाल की 14 वर्ष की रेखा मुण्डा (काल्पनिक नाम)की लड़की को मुक्त करवाया। जिसको घर में बंधक बनाकर रखा गया था। उससे सारा काम करवाया जाता था।

लेकिन इस बात से कुछ संतोष होता है कि बाल तस्करी व गुम होते बच्चों पर बीते  वर्षों में सुप्रीम कोर्ट ने कठोर व संवेदनशील रुख अपनाया है। लापता बच्चों के प्रति पुलिस की लापरवाही के संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट ने फरवरी 2013 में स्पष्ट कर दिया था कि बच्चों के  गायब होने के हर मामले को संज्ञेय अपराध के तौर पर दर्ज करना होगा और उसकी जांच करनी होगी। ऐसे तमाम लंबित मामलेे, जिनमें बच्चा अब भी गायब है, मगर एफआईआर दर्ज नहीं की गई है। उनमें एक माह के भीतर रिपोर्ट दायर करनी होगी। गायब होने वाले हर मामले में मानना होगा कि बच्चा अपहृत हुआ है और अवैध व्यापार का शिकार हुआ है। वर्ष 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने छत्तीसगढ़़ व बिहार की सरकारों को फटकार लगाते हुए पूछा था कि उन्होंने लापता बच्चों के मामलों में 2013 में दिए गए निर्देशों का पालन क्यों नहीं किया। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि मशीनी तरीके से जवाब दाखिल करने और जमीन पर कुछ नहंी करने का तमाशा बंद होना चाहिए और न्यायालय ने कठोरता से कहा कि केंद्र व राज्य सरकारें सुनिश्चित करें कि यदि बच्चे गायब होते हैं तो वे राज्य के डीजीपी और मुख्य सचिव की जवाबदेही मानते हुए उनसे जवाब तलब करे।

बच्चों को मुक्त करवाने या तलाश करने में हरियाणा पुलिस का सराहनीय कदम रहा है। केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह  ने 2015 में चलाए ‘आप्रेशन स्माइल’ के द्वारा कुल 19000 बच्चों को आधुनिक  गुलामी से मुक्त करवाया गया और उसमें हरियाणा पुलिस कुल 5366 बच्चोंं को मुक्त कराके इस आप्रेशन में  सबसे अग्रणी रही।

हरियाणा में 1 जुलाई 2015 से 31 जुलाई 2015 तक  ‘आप्रेशन मुस्कान’ चलाया गया, जिसके तहत गुम हुए बच्चों की तलाश करना था। 24 प्रशिक्षित टीमों को इस कार्य में लगाया गया। गुडग़ांव पुलिस कमिश्नर नवदीप सिंह विर्क ने बताया कि ‘मुस्कान आप्रेशन’ के द्वारा हरियाणा में (एक महीने के दौरान) ऐसे बच्चों की पहचान की गई, जो बच्चे लापता थे। अकेले गुडग़ांव से ऐसे 1094 बच्चे थे और उन्होंने बताया कि 809 बच्चों को उनके परिवार वालों से दोबारा मिलाया गया। पुलिस रिकार्ड के अनुसार प्रत्येक गुम हुए 3 बच्चों में से 2 बच्चे बिना पहचान के रह जाते हैं।

कड़े कानूनों के बाद भी देश में लापता होने वाले बच्चों की संख्या में हर साल इजाफा हो रहा है। ऐसे मामलों में  तब तक कमी नहीं आएगी, जब तक न्यायिक तंत्र व कानून लागू करने वाले महकमों में ऐसे मामलों  को प्राथमिकता ना दी जाए।

लापता बच्चों का ना मिलना उन अभिभावकों की अंतहीन पीड़ा है, जिन्हें जीवनभर अपने बच्चों से अलग होकर जीना पड़ता है। बच्चे किसी देश और समाज का भविष्य व बुनियाद होते हैं और उनके प्रति संवेदनहीनता, देश के भविष्य के लिए घातक हैं। इसलिए जरूरी है कि बच्चों के संरक्षण व उनके अधिकारों की रक्षा को पहली प्राथमिकता दें, ताकि इस त्रासदी का अंत हो।

स्रोतः सं. सुभाष चंद्र, देस हरियाणा (सितम्बर- अक्तूबर 2016), पेज- 38-39

 

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