एकला चलो, एकला चलो रे – रवीन्द्रनाथ ठाकुर

यदि तोर डाक सुने केउ न आसे
तबे एकला चलो रे, एकला चलो, एकला चलो, एकला चलो रे।
यदि केउ कथा न कय, ओरे ओ अभागा
यदि सबाई थाके मुख फिराये, सबाई करे भय तबे परान खुले
ओरे तुई मुख फुटे तोर मनेर कथा, एकला बोलो रे !ऑ
यदि सबाई फिरे जाय, ओरे ओ अभागा! ओरे ओ अभागा!
यदि गहन पथे , जाबार काले
केउ फिरे न चाय, तब पथरे कांटा
ओ तुई रक्त माखा, चरन तले एकला दलो रे
यदि आलो ना धरे ,ओरे ओ अभागा!
यदि झड़ बादले ,आन्धार राते
दुआर देय धरे, तबे बज्रानले
आपन बुकेर पांजर ज्वालिये, निये एकला चलो रे
यदि तुम्हारे बुलाने पर कोई नहीं आता, तो तुम अकेले ही चल पड़ो! रे अभागे , यदि सब लोग भयभीत हों, तुम से बात करने से भी कतरा रहे हों , तो भी चिन्ता न करो ! दिल खोल कर अपने मन से ही अपने मन की बात बोलते रहो! यदि विपत्ति के मार्ग पर तुमसे कोई सहानुभूति प्रकट न करे , कोई देखे नहीं कि तुम पीछे छूट गये हो ,तुम्हारे पैर कांटों से घायल हो गये हों, तब भी तुम कांटों को रोंदते हुए चलते रहो,चलते रहो,चलते रहो। आंधी -तूफान की काली रात में यदि तुम्हें कोई रोशनी नहीं दिखा रहा न कोई आश्रय देता हो तो भी तुम अपने अस्थिपंजर से वज्राग्नि को जला कर अग्नि पैदा करो! चलते रहो,चलते रहो, चलते रहो।

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