संवाद
विश्वविख्यात भाषा वैज्ञानिक, दार्शनिक, वामपंथी लेखक नोम चोम्स्की ने भाषाविज्ञान संबंधी कई क्रांतिकारी सिद्धांतों का सूत्रपात किया। भाषा और भाषा के विकास को लेकर उनका यह साक्षात्कार विज्ञान पत्रिका ‘डिस्कवर’ में 29 नवम्बर 2011 को प्रकाशित हुआ था। उनसे यह बातचीत ‘डिस्कवर’ के संवाददाता वेलरी रॉस ने की थी। इसका अनुवाद वरिष्ठ लेखक-पत्रकार आशुतोष उपाध्याय ने किया है।
सदियों से विशेषज्ञ यह मानते रहे हैं कि हर भाषा अनूठी होती है। फिर एक दिन 1956 में भाषाविज्ञान के एक युवा प्रोफेसर ने शीर्ष अमेरिकी शिक्षा संस्थान एमआईटी में सूचना सिद्धांत पर आयोजित एक गोष्ठी में अपना ऐतिहासिक भाषण दिया। उन्होंने तर्क दिया कि प्रत्येक अर्थपूर्ण वाक्य न सिर्फ अपनी भाषा के नियमों का, बल्कि सभी भाषाओं पर लागू होने वाले वैश्विक व्याकरण का भी पालन करता है। यही नहीं, बच्चे बड़ों की बातचीत की नकल कर या अपने बाहरी परिवेश से भाषा सीखने की बजाए भाषा में महारत प्राप्त करने की अंदरूनी क्षमता से परिपूर्ण होते हैं। यह एक ऐसी शक्ति है, जो जैविक विकास ने सिर्फ हम मनुष्यों को सौंपी है। युवा प्रोफेसर के इस क्रांतिकारी विचार ने रातों-रात भाषाविदों की सोच को बदलने की शुरूआत कर दी।
एवराम नोम चोमस्की का जन्म 7 दिसम्बर, 1928 को अमेरिकी नगर फिलाडेल्फिया में हुआ था। उनके पिता विलियम चोम्स्की हिब्रू भाषा के विद्वान थे और मां एल्सी सिमोनोफ्स्की भी विदुषी व बाल पुस्तकों की लेखिका थीं। नोम ने बचपन में ही मध्यकालीन हिब्रू व्याकरण पर अपने पिता द्वारा लिखी पाण्डुलिपी पढ़ डाली, जिसने उनके भविष्य के काम की जमीन तैयार की। सन् 1955 तक वे एमआईटी में भाषाविज्ञान पढ़ाने लगे। यहां रहकर उन्होंने अपने भाषाविज्ञान संबंधी क्रांतिकारी सिद्धांतों का सूत्रपात किया। चोम्स्की उस नज़्ारिए को चुनौती देते हें, जिससे हम आज भी खुद को देखते हैं। वे कहते हैं, ‘भाषा हमारे अस्तित्व का मूल है। हम हर वक्त भाषा में लीन रहते हैं। जब हम सड़क पर चल रहे होते हैं, तो खुद से अपनी बातचीत को रोकने के लिए जबरदस्त इच्छाशक्ति की जरूरत पड़ती है। क्योंकि खुद के साथ हमारी बातचीत निरंतर चलती रहती है।’
चोम्स्की ने राजनीति से दूरी बनाए रखने की वैज्ञानिकों की परम्परा के विपरीत सक्रिय राजनीति में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। वे वियतनाम मे अमेरिकी आक्रमण के मुखर विरोधी थे और उन्होंने 1967 के प्रसिद्ध पेंटागन विरोधी मार्च के आयोजन में भी मदद दी। जब इस आंदोलन के नेता गिरफ्तार कर लिए गए तो उन्हें जेल में प्रख्यात उपन्यासकार नॉर्मन मेलर के साथ रखा गया। मेलर ने अपनी पुस्तक ‘आर्मीज ऑफ द नाइट’ में चोम्स्की को दुबला-पतला, तीखे नाक-नक्श और खास लहजे वाला ऐसा शख्स बताया, जिसकी सोहबत में भलमनसाहत व दृढ़ नैतिक बल की महक आती है।
चोम्स्की के साथ यहां पेश की जा रही बातचीत कनेक्टीकट की पत्रकार मैरिऑन लांग के साथ कई तयशुदा बैठकों के निरस्त होने के बाद की गई। लांग बताती हैं, ‘वह चोम्स्की के लिए बहुत मुश्किल समय था। पत्नी गंभीर रूप बीमार थीं और वे उनकी सेवा में जुटे थे। इस बातचीत के महज 10 दिन पहले वे गुजर गईं। इस हादसे के बाद चोम्स्की का यह पहला साक्षात्कार होना था, लेकिन वे इसके लिए राजी हो गए। बाद में उन्होंने ‘डिस्कवर’ संवाददाता वेलरी रॉस के कई सवालों के जवाब दिए।
प्रश्न – आप इन्सानी भाषा को अनोखा गुण बताते हैं। कौन-सी बात इसे खास बनाती है?
मनुष्य दूसरे प्राणियों से फर्क हैं और इस लिहाज से सब मनुष्य मूलत: एक जैसे होते हैं। अगर अमेजन के शिकार-संग्राहक आदिवासी समुदाय के किसी बच्चे को बोस्टन में पाला-पोसा जाए तो वह भाषाई क्षमता के मामले में यहां पल-बढ़ रहे मेरे बच्चों से जरा भी फर्क नहीं होगा। इससे उलटी परिस्थिति में भी यही होगा। यानी बोस्टन का कोई बच्चा अमेजन आदिवासियों के बीच पले-बढ़े तो उनकी भाषा-बोली सहज ढंग से बोलने लगेगा। यह अनोखा इन्सानी खजाना, जो हम सबके पास है, हमारी संस्कृति व हमारे कल्पनाशील बौद्धिक जीवन के बड़े हिस्से का बुनियादी तत्व है। इसी वजह से हम योजनाएं बना पाते हैं, सृजनात्मक कलाकर्म करते हैं और जटिल समाजों का निर्माण कर लेते हैं।
प्रश्न – भाषा की इस ताकत का जन्म कब और कैसे हुआ?
अगर आप पुरातात्विक अभिलेखों को देखें तो करीब डेढ़ लाख से पचहतर हजार वर्ष पूर्व समय की एक छोटी सी खिड़की में रचनात्मक विस्फोट होता दिखाई पड़ता है। इस काल में अचानक जटिल हस्तशिल्प, प्रतीकात्मक निरूपण, आकाशीय घटनाओं का मापन तथा जटिल सामाजिक संरचनाओं जैसी सृजनात्मक गतिविधियों का विस्फोट देखने को मिलता है। प्रागैतिहासिक काल का लगभग हर विशेषज्ञ इस घटना को भाषा के अचानक उद्भव के साथ जोड़ता है। ऐसा नहीं लगता कि इस घटना का मानव के शारीरिक बदलावों से कोई संबंध है। आज के इन्सान के बोलने व सुनने के तंत्र बिल्कुल वैसे ही हैं, जैसे छह लाख साल पहले के मनुष्य के थे। मगर मनुष्य में अभूतपूर्व संज्ञानात्मक बदलाव आया है। कोई नहीं जानता क्यों?
प्रश्न – इन्सानी भाषा में आपकी दिलचस्पी कब शुरू हुई?
बहुत छोटी उम्र में मुझे अपने पिता से आधुनिक हिब्रू साहित्य एवं अन्य पाठ्य सामग्री पढऩे को मिली। 1940 के आसपास उन्हें फिलाडेल्फिया की एक हिबू्र संस्था ड्रॉप्सी कालेज से पीएच.डी. की डिग्री मिली। वे सीमेटिक थे और मध्यकालीन हिबू्र व्याकरण पर काम करते थे। मुझे याद नहीं कि मैंने अपने पिता की किताब के अधिकारिक तौर पर प्रूफ पढ़े थे या नहीं, लेकिन मैंने उसे पढ़ा जरूर था। कुछ हद तक व्याकरण संबंधी आम समझ मुझे इसी किताब से मिली, लेकिन इससे पीछे जाएं, तो व्याकरण के अध्ययन का मतलब था, ध्वनियों को व्यवस्थित करना, कालों को देखना, इन चीजों को सूचीबद्ध करना और यह देखना कि ये एक-दूसरे के साथ कैसे जुड़ती हैं।
प्रश्न – भाषाविद् ऐतिहासिक व्याकरण और विवरणात्मक व्याकरण में फर्क करते हैं। इन दोनों में क्या अंतर है?
ऐतिहासिक व्याकरण कुछ इस तरह का अध्ययन है जैसे, किस तरह आधुनिक अंग्रेजी का मध्यकालीन अंग्रेजी से विकास हुआ। किस तरह वह मध्यकालीन, प्रारंभिक व पुरानी अंग्रेजी से निकली और किस तरह वह जर्मेनिक से और जर्मेनिक उस भाषा स्रोत से विकसित हुई जिसे हम प्र्रोटो-इंडो-यूरोपियन कहते हैं और जिसे कोई नहीं बोलता। इसलिए इसे फिर से गढऩा पड़ता है। भाषाएं समय के साथ कैसे विकसित होती हैं, यह इस बात को पुनर्निर्मित करने का एक प्रयास है। आप इसे जैविक उद्विकास (बायोलॉजिकल इवोल्यूशन) के अध्ययन के समकक्ष मान सकते हैं। विवरणात्मक व्याकरण किसी समाज या व्यक्ति-विशेष के लिए मौजूदा भाषाई व्यवस्था को जानने का प्रयास है। आप इस अंतर को जैविक विकास और मनोविज्ञान के बीच फर्क की तरह देख सकते हैं।
प्रश्न – और आपके पिता के जमाने के भाषाविद्, वे क्या करते थे?
वे वास्तविक धरातल पर इस्तेमाल की जा रही भाषाई विधियों पर काम करते थे। उदाहरण के लिए अगर आप चेरोकी समुदाय के व्याकरण पर काम करना चाहते हैं, तो आप उस समुदाय के बीच जाएंगे। और स्था���ीय बोलने वालों से सूचनाएं इकट्ठी करेंगे।
प्रश्न – ये भाषाविद् किस तरह के सवाल पूछते थे?
मान लीजिए आप चीन से आए मानवशास्त्रीय भाषाविद् हैं और मेरी भाषा का अध्ययन करना चाहते हैं। पहली बात आप यह जानना चाहेंगे कि मैं किस तरह की ध्वनियों का इस्तेमाल करता हूं। और फिर आप पूछेंगे कि ये ध्वनियां एक साथ कैसे जुड़ती हैं। उदाहरण के लिए मैं ‘ब्निक’ न बोल कर ‘ब्लिक’ क्यों बोलता हूं और इन ध्वनियों को कैसे व्यवस्थित किया जाता है? उन्हें किस तरह जोड़ा जाता है? अगर आप उस ढंग को देखें, जिसके मुताबिक शब्द के ढांचे को व्यवस्थित किया जाता है, तो क्या किसी क्रिया में भूतकाल भी होता है? अगर होता है तो क्या यह क्रिया के बाद होता है या इसके पहले? या यह किसी और तरह की चीज है? और आप इसी तरह के कई और सवाल पूछते चले जाते हैं।
प्रश्न – लेकिन आप तो इस नजरिए से सहमत नहीं थे। क्यों?
मैं उस वक्त पेन यूनिवर्सिटी में था और मेरी ग्रेजुएट थीसिस का शीर्षक था-बोलचाल की हिबू्र का आधुनिक व्याकरण। इस भाषा की मेरी समझ खासी अच्छी थी। मैंने भी इस पर ठीक उसी तरह काम करना शुरू किया, जैसा हमें उस वक्त पढ़ाया जाता था। मुझे एक हिबू्रभाषी सूचनादाता मिला, जिससे मैंने सवाल पूछने शुरू किए और मुझे आंकड़े मिलने लगे। एक मौका ऐसा आया कि अचानक मुझे लगा: क्या बेहूदगी है। मैं ऐसे सवाल पूछ रहा हूं, जिनके जवाब मैं पहले से ही जानता हूं।
प्रश्न – जल्द ही आपने भाषाविज्ञान में अपने शोध की निहायत नई विधि विकसित कर ली। ये विचार कैसे जन्मे?
इससे पहले 1950 में, जब मैं हार्वर्ड में स्नातक छात्र था, यह आम धारणा थी कि अन्य मानवीय गतिविधियों की तरह भाषा भी सीखी जाने वाली आदतों का एक संग्रह है। यह उसी तरह सीखी जाती है जैसे पालतू जानवर प्रशिक्षित किए जाते हैं। यानी प्रबलीकरण के जरिए। उन दिनों यह धारणा एक तरह से अंधविश्वास की तरह व्याप्त थी। लेकिन हम दो या तीन लोग ऐसे थे, जो इस बात से सहमत थे और हमने चीजों को बिल्कुल अलग तरह से देखना शुरू किया।
खासतौर पर, हमने कुछ बनियादी तथ्यों पर गौर किया: प्रत्येक भाषा अनगिनत सुव्यवस्थित अभिव्यक्तियों को गढऩे और प्रकट करने का एक माध्यम है, जिसमें हर अभिव्यक्ति की एक अर्थगत् व्याख्या और ध्वन्यात्मक रूप है। इसलिए यहां ऐसी चीज है जिसे हम जेनरेटिव प्रोसीजर कहते हैं, अनगिनत वाक्यों या अभिव्यक्तियों को पैदा करने और उन्हें अपने विचार व स्नायुतंत्र से जोड़ने की क्षमता। हमें हर बार इस केंद्रीय गुण को ध्यान में रखकर शुरुआत करनी होती है। व्यवस्थित अभिव्यक्तियों और उनके अर्थ के बेरोक-टोक उत्पादन का गुण। हमारे ये विचार बाद में उस सिद्धांत के रूप में घनीभूत हुए जिसे आज हम बायोलिंग्विस्टिक फ्रेमवर्क कहते हैं। यह सिद्धांत भाषा को मानव जीव विज्ञान के एक तत्व के रूप में देखता है, ठीक वैसे ही जैसे हमारा दृष्टि-तंत्र है।
प्रश्न – आपका सिद्धांत है कि सभी मनुष्यों का एक ‘वैश्विक व्याकरण’ होता है। इस बात का क्या अर्थ है?
इसका मतलब इन्सानी भाषा संकाय की आनुवंशिक जड़ों से है। उदाहरण के लिए आप अपने अंतिम वाक्य पर गौर करें। यह ध्वनियों का बेतरतीब क्रम नहीं है। आपने शब्दों का अत्यंत सुनिश्चित ढांचा खड़ा किया है और इसका अत्यंत विशिष्ट भाषाई अर्थ है। इसका एक खास मतलब है, कोई दूसरा मतलब नहीं और इसकी एक खास ध्वनि है, दूसरी नहीं। बताइए, आपने यह किया कैसे? यहां दो संभावनाएं हो सकती हैं। एक, इसे एक चमत्कार मान लिया जाए। या दूसरी, आपके पास नियमों की एक आंतरिक व्यवस्था है, जो शब्दों के ढांचे और उसके अर्थ को निर्धारित करती है। मैं नहीं समझता यह एक चमत्कार की देन है।
प्रश्न – आपके भाषा-वैज्ञानिक विचारों पर शुरुआत में कैसी प्रतिक्रियाएं हुईं?
शुरु-शुरु में ज्यादातर लोगों ने हमारे विचारों को खारिज किया या इनकी उपेक्षा की। यह बिहेवियरल साइंस का दौर था, मानव क्रियाओं और व्यवहार का अध्ययन, जिसमें व्यवहार का नियंत्रण तथा रूपांतरण भी शामिल जाता है। बिहेवियरिज्म कहता है कि आप किसी व्यक्ति को मनचाहे रूप में बदल सकते हैं, बशर्ते आप उसके परिवेश व प्रशिक्षण पद्धति को ठीक से व्यवस्थित कर सकें। मनुष्य के रूपांतरण में आनुवांशिक घटक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, इस विचार को अजनबी बताकर हल्के में लिया गया। बाद में मेरे इस विधर्मी विचार को ‘इन्नेटनेस हाइपोथीसिस’ का नाम दे दिया गया और इसकी भत्र्सना में रचे गए साहित्य का ढेर लग गया। आज भी आप प्रमुख शोध पत्रिकाओं में ऐसे सूत्रवाक्य पढ़ सकते हैं कि भाषा सिर्फ संस्कृति, परिवेश तथा प्रशिक्षण का परिणाम है। एक तरह से यह धारणा हमारे सहजबोध का हिस्सा बना दी गई है। हम सब भाषा सीखते हैं, चाहे वह कितनी भी मुश्किल क्यों न हो। हम पाते हैं कि परिवेश भी अपना असर छोड़ता है।
इंग्लैंड में पलने-बढऩे वाले लोग अंग्र्रेजी बोलते हैं, स्वाहिली नहीं। और वास्तविक सिद्धांत-वे हमारी चेतना तक नहीं पहुंच पाते। हम अपने भीतर झांककर उन छुपे हुए सिद्धांतों को नहीं देख सकते, जो हमारे भाषाई व्यवहार को निर्धारित करते हैं और हम उन सिद्धांतों को भी नहीं देख सकते, जो हमें अपने शरीर को हिलाने की इजाजत देते हैं। यह भीतर ही भीतर रहता है।
प्रश्न – भाषा वैज्ञानिक इन छुपे हुए सिद्धांतों की खोज कैसे कर लेते हैं?
आप आंकड़ों को संग्रह कर किसी भाषा के बारे में जानकारी हासिल कर सकते हैं। मसलन, मेरी भाषा का अध्ययन कर रहा चीनी भाषाविद् इस बारे में मुझसे सवाल पूछ कर जवाब इकट्ठा कर सकता है। यह एक तरह का संग्रह होगा। दूसरे तरह का संग्रह यह हो सकता है कि लगातार तीन दिन तक जो कुछ मैं बोलूं उसे वह टेप करता रहे और किसी भाषा को सीखते और इस्तेमाल करते वक्त लोगों के दिमाग में जो कुछ चल रहा है, उसका अध्ययन कर आप भाषा के बारे में जांच-पड़ताल कर सकते हैं। आज के भाषाविदों को चाहिए कि वे उन नियमों व सिद्धांतों पर ध्यान देने का प्रयास करें, जिन्हें, उदाहरण के लिए, आप ठीक इस वक्त मेरे द्वारा गढ़े जा रहे वाक्यों का अर्थ निकालने और उन्हें समझने या फिर अपने वाक्यों को बनाने के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं।
प्रश्न – क्या यह व्याकरण की उस पुरानी व्यवस्था जैसा नहीं, जिसे आप पहले ही खारिज कर चुके हैं?
नहीं। व्याकरण के परम्परागत अध्ययन में आप ध्वनियों व शब्द रचना पर ध्यान देते हैं और शायद थोड़ा बहुत वाक्य विन्यास पर। पिछले 50 वर्षों के उत्पादक भाषाविज्ञान (जेनरेटिव लिंग्विस्टिक्स) में आप, मसलन, यह पूछ रहे हैं कि प्रत्येक भाषा के लिए नियमों व सिद्धांतों का वह कौन-सा तंत्र है जो व्यवस्थित अभिव्यक्तियों की अनगिनत श्रृंखलाओं को तय करता है। इसके बाद आप उन्हें एक निश्चित व्याख्या से जोड़ते हैं।
प्रश्न – हमारी भाषाई समझ के साथ क्या मस्तिष्क छवियां जुड़ी हुई हैं?
मिलान के एक ग्रुप ने हाल ही में भाषा के साथ होने वाली मस्तिष्क की क्रियाशीलता संबंधी एक दिलचस्प अध्ययन किया है। उन्होंने अपने शोधपात्रों को निरर्थक भाषाओं वाली दो तरह की लिखित सामग्री दी। इनमें एक प्रतीकात्मक भाषा थी, जिसे इतालवी भाषा के नियमों के आधार पर गढ़ा गया था। हालांकि शोधपात्र इसे नहीं जानते थे। दूसरी को वैश्विक व्याकरण के नियमों का उल्लंघन कर तैयार किया गया था। एक खास मामले में, माना आप किसी वाक्य का निषेध करना चाहते हैं, ‘जॉन यहां था, जॉन वहां नहीं था।’ कुछ निश्चित चीजें हैं, जिन्हें करने की इजाजत भाषाओं में आपको दी जाती है। आप ‘नहीं’ शब्द को कुछ स्थानों में रख सकते हैं, लेकिन कुछ अन्य स्थानों में नहीं रख सकते। इसलिए पहली मनघड़ंत भाषा में आप निषेधकारी तत्व को किसी स्वीकार्य जगह पर रखते हैं, जबकि दूसरे में आप इसे अस्वीकार्य जगह पर रख देते हैं। मिलान गु्रप ने पाया कि स्वीकार्य निरर्थक वाक्य के साथ मस्तिष्क के भाषाई क्षेत्र में सक्रियता दिखाई देती है, लेकिन अस्वीकार्य वाक्य-वे जो वैश्विक व्याकरण के नियमों का उल्लंघन करते हैं-मस्तिष्क में कोई सक्रियता पैदा नहीं करते। इसका मतलब यह हुआ कि लोग अस्वीकार्य वाक्यों के साथ भाषा की तरह नहीं, बल्कि पहेली की तरह खेल रहे थे। यह एक शुरुआती परिणाम है, लेकिन यह स्पष्ट रूप से संकेत देता है कि भाषाओं की पड़ताल से निकलने वाले भाषाई सिद्धांतों का दिमागी क्रियाशीलता के साथ गहरा रिश्ता है, जैसे कि किसी को उम्मीद और अपेक्षा हो सकती है।
प्रश्न – हाल के आनुवांशिक अध्ययन भी भाषा के बारे में कुछ इसी तरह के संकेत देते हैं। क्या यह सही है?
हाल के वर्षों में एक जीन की खोज हुई है, जिसका नाम है-फॉक्सपी2। यह जीन खास तौर पर दिलचस्प है, क्योंकि इसमें किसी किस्म का उलटफेर (म्युटेशन) होने पर भाषाई इस्तेमाल संबंधी कमजोरियां सामने आने लगती हैं। इस जीन को उस क्रिया से जोड़ा जाता है, जिसे हम ऑरोफेशियल एक्टीवेशन कहते हैं, यानी बोलते वक्त हम अपने मुंह, अपने चेहरे और जीभ को किस प्रकार नियंत्रित करते हैं। इसलिए फॉक्सपी2 का संभवत: भाषा के इस्तेमाल के साथ कोई रिश्ता है। यह जीन सिर्फ मनुष्यों में ही नहीं, बल्कि कई अन्य प्राणियों में भी पाया जाता है और अलग-अलग प्रजातियों में अलग-अलग ढंग से काम करता है। ये जीन कोई एक काम नहीं करता, लेकिन इस खोज को भाषा के कुछ पहलुओं के आनुवांशिक आधार की मौजूदगी की पुष्टि की दिशा में एक दिलचस्प शुरुआती कदम माना जा सकता है।
प्रश्न – आप कहते हैं कि जन्मजात भाषाई क्षमता मनुष्यों की विशिष्टता है, मगर फॉक्सपी2 की सतत् कई प्रजातियों में देखी गई है। क्या ये दोनों बातेें परस्पर विरोधाभासी नहीं हैं?
यह बात लगभग अर्थहीन है कि इसमें प्रजातिगत सततता है। इसमें किसी को संदेह नहीं कि मनुष्य का भाषाई तंत्र जीन, तंत्रिका तंत्र आदि पर आधारित है। भाषा के प्रयोग, समझ, अधिग्रहण और निर्माण में शामिल पद्धतियां एक स्तर तक सम्पूर्ण जंतु जगत में दिखाई देती हैं और सच कहें तो सम्पूर्ण जीव जगत में दिखाई देती हैं। कुछेक को तो आप जीवाणुओं में भी देख सकते हैं, लेकिन यह बात इसके उद्विकास या समान मूल से पैदा होने का शायद ही कोई संकेत देती है। भाषा उत्पन्न करने जैसे विशिष्ट मामले में कोई प्रजाति अगर मनुष्य के सबसे ज्यादा नजदीक कही जा सकती है, तो वह है पक्षी। लेकिन इसकी वजह समान उद्गम नहीं है। यह एक अलग परिघटना है, जिसे हम कनवर्जेन्स कहते हैं – लगभग एक जैसी व्यवस्थाओं का अलग-अलग स्वतंत्र रूप से विकास। फॉक्सपी2 खासी दिलचस्प है, मगर यह ज्यादातर भाषा के हाशिए पर रहने वाले हिस्सों का निर्धारण करती है, जैसे भाषा का (भौतिक) उत्पादन। इसके बारे में जो कुछ भी खोजा जा रहा है, उसका भाषा-वैज्ञानिक सिद्धांतों पर प्रभाव पड़ने की संभावना बहुत कम है।
प्रश्न – पिछले 20 वर्षों से आप भाषा की ‘सरलतम’ (मिनिमलिस्ट) समझ पर काम कर रहे हैंं। इसकी क्या जरूरतें हैं?
मान लीजिए भाषा बर्फ के एक फाहे की तरह है। यह प्रकृति के नियम के मुताबिक आकार ग्रहण करती, इस शर्त के साथ कि यह बाहरी निर्धारकों को संतुष्ट करती है। भाषा की खोज के बारे में इस नजरिए को मिनिमलिस्ट प्रोग्राम कहा जाता है। मैं समझता हूं, इसने कुछ महत्वपूर्ण परिणाम दिए हैं। इसने दिखाया है कि भाषा यकीनन कुछ शब्दार्थ संबंधी अभिव्यक्तियों का आदर्श हल है, लेकिन स्पष्ट अभिव्यक्ति के लिहाज से बहुत खराब तरीके से डिजाइन है। एक विशिष्ट आवाज निकाल कर आप ‘बेसबॉल’ कहते हैं, इसके लिए ‘पेड़’ नहीं कहते।
प्रश्न – भाषाविज्ञान के सामने बड़े सवाल कौन से हैं?
अब भी कई अनुत्तरित रिक्त स्थान हैं। कुछ सवाल ‘क्या’ से शुरू होने वाले हैं। जैसे – भाषा क्या है? इस वक्त आप और मैं जो कुछ कर रहे हैं, उसके नियम और सिद्धांत क्या हैं? कुछ और सवाल ‘कैसे’ से शुरू होते हैं। आपने और मैंने इस क्षमता को कैसे हासिल किया। हमारे आनुवांशिक भंडार व अनुभवों में और प्रकृति के नियमों में आखिर क्या छुपा हुआ है? और इसके बाद ‘क्यों’ से शुरू होने वाले सवाल हैं, जो सबसे कठिन हैं: भाषा के नियम ऐसे ही क्यों हैं, कुछ और तरह के क्यों नहीं? किस हद तक यह सही है कि भाषा की बुनियादी डिजाइन उन बाहरी शर्तों के अनुकूल हल पेश करती है, जिन्हें भाषा अपरिहार्य रूप से पूरा करती है? यह एक बड़ी समस्या है। भाषा की प्रकृति के बारे में जो कुछ हम जानते हैं, उसे हम किस हद तक मस्तिष्क में होने वाली क्रियाओं से जोड़कर देख सकते हैं? और अंतत: क्या भाषा के आनुवांशिक आधार के बारे में कोई गंभीर पड़ताल हुई है? इन सभी बिन्दुओं पर बेशक प्रगति दिखाई देती है, लेकिन बड़े रिक्त स्थान अब भी बने हुए हैं।
प्रश्न – हर माता-पिता इस बात पर हैरान होते हैं कि किस तरह बच्चे भाषा सीखते हैं। यह बात सहसा अविश्वसनीय लगती है कि इस प्रक्रिया के बारे में हम अब भी बहुत कम जानते हैं।
आज हम जानते हैं कि जन्म के समय एक शिशु को अपनी मां की भाषा के बारे में बहुत थोड़ी जानकारी होती है। अगर कोई दो भाषाएं जानने वाली कोई महिला उसके सामने बोले तो वह अपनी मातृभाषा और दूसरी भाषा के बीच फर्क समझ सकता है। उसके परिवेश में तमाम तरह की चीजें घट रही होती हैं, जिसे विलियम जेम्स ‘बढ़ता, उभरता विभ्रम’ कहते हैं। मगर शिशु किसी तरह इस जटिल परिवेश से खुद-ब-खुद उन आंकड़ों को छांट लेता है, जो भाषा से संबंध रखते हैं। कोई भी दूसरा प्राणी ऐसा नहीं कर पाता। एक चिम्पांजी ऐसा नहीं कर पाता। और बहुत जल्दी व स्वत: ढंग से शिशु एक आंतरिक तंत्र हासिल करने की दिशा में बढ़ जाता है। यह तंत्र अंतत: उस क्षमता के रूप में प्रकट होता है, जिसका इस्तेमाल हम इस वक्त कर रहे हैं। शिशु के दिमाग में क्या चल रहा है? मानव जीनोम के कौन से-तत्व इस प्रक्रिया में योगदान कर रहे हैं? ये चीजें कैसे विकसित होती हैं?-इन सब बातों को ठीक से समझना अभी बाकी है।
प्रश्न – उच्चतर स्तर पर अर्थ के बारे में क्या कहेंगे? जो महान गाथाएं लोग पीढ़ी-दर-पीढ़ी सुनाते आए हैं, उनके विषय बार-बार दोहराए जाते हैं। क्या यह दोहराव मनुष्य की जन्मजात भाषा के बारे में कुछ संकेत देता है?
जानी-पहचानी परीकथाओं में से एक कहानी एक खूबसूरत राजकुमार की है, जिसे कोई दुष्ट जादूगरनी मेंढक में बदल देती है। कहानी के अंत में एक सुंदर राजकुमारी आकर मेंढक को चूमती है और वह फिर से राजकुमार में बदल जाता है। हर बच्चा इस बात को जानता है कि वह मेंढक दरअसल राजकुमार है, लेकिन उन्हें यह कैसे पता चलता है? वह अपने प्रत्येक शारीरिक गुण के हिसाब से मेंढक है। कौन सी बात उसे राजकुमार बनाती है? यह पता चलता है कि यहां एक नियम काम करता है: लोगों व जंतुओं तथा अन्य जीवित प्राणियों को हम उनके एक गुण से पहचानते हैं, जिसे मनोवैज्ञानिक सततता (साइक��क कंटीन्युइटी) कहा जाता है। बच्चे उसकी पहचान एक तरह के दिमाग या आत्मा या एक ऐसे अंदरूनी तत्व के रूप में करते हैं, जो उनके भौतिक गुणों से स्वतंत्र है। वैज्ञानिक इस बात पर विश्वास नहीं करते, लेकिन हर बच्चा करता है और हम मनुष्य जानता है कि इस तरह दुनिया की व्याख्या कैसे की जाती है।
प्रश्न – आपकी बातों से ऐसा लगता है जैसे भाषाविज्ञान का विज्ञान बस शुरू ही हुआ है।
भाषा के बारे में कई ऐसे सरल विवरणात्मक तथ्य हैं, जिन्हें समझा नहीं गया है: वाक्य किस तरह अपना अर्थ हासिल करते हैं? उनकी आवाज कैसे बनती है? किस प्रकार दूसरे लोग उन्हें समझ लेते हैं, भाषा संगणना (कम्प्यूटेशन) में एक-रेखीयता (लीनियर ऑर्डर) का पालन क्यों नहीं करती? उदाहरण के लिए एक सरल वाक्य लीजिए, जैसे ‘क्या उड़ रहे गिद्ध तैरते हैं?’ आप इसे समझते हैं, हर कोई इसे समझता है। एक बच्चा इसे इस प्रश्न के रूप में लेता है कि क्या गिद्ध तैर सकते हैं। सवाल में यह नहीं पूछा जा रहा है कि क्या वे उड़ सकते हैं। आप कह सकते हैं, ‘क्या जो गिद्ध उड़ रहे हैं तैरते हैं?’ मतलब क्या इसे यह माना जाए कि गिद्ध जो उड़ रहे हैं तैरते हैं? ये वे नियम हैं, जिन्हें हर कोई जानता है, बिना सोचे-समझे जान लेता है, लेकिन क्यों? यह अब भी एक रहस्य है और इन नियमों के स्रोत मूलत: अनजान हैं।