तुम कबीर न बनना- हरभजन सिंंह रेणु

 
 

कविता

जब
मेरे दोस्त
मुझे कबीर बना रहे थे
मैं प्यादों की ताकत से
ऊंटों की शह मात
बचा रहा था
घोड़े दौड़ा रहा था
तभी
मेरे भीतर बैठा कबीर
कह  रहा था
तुम कबीर मत बनना।
ये अक्षरों
गोटियों का खेल त्याग
और मेरे साथ ताणा बुन
ध्यान दे
घर का
गुजारा चलाती
लोई का
कमाले को किसी काम लगा
धूणे पर फिरता है
उसको हटा।
कबीर बनेगा
तो लोग कहेंगे
गंगा घाट मिला
गुमनाम विधवा ब्राह्मणी का
लावारिस है।
नीरू मुस्लमान के घर पला
कबीर जुलाहा है
अंधेरे में पड़े
हमारे गुरु ने
पांव से छूकर ज्ञानी बनाया है
दिन में बुनता और गाता है
रात भर जागता और रोता है
दिल में आयी कहता है
मुंह में आयी बकता है
काशी से निकल कर मगहर आया
कहीं की मिट्टी कहीं ले आया
राम रहीम इक सार उचारे
अढ़ाई अक्षर पढ़े बेचारे।
तुम कबीर मत बनना
मैंने धीरे से कहा
ताणा तो मैं भी डाल लेता हूं
चादर तो मैं भी बुन लेता हूं।
पर
सिंह बकरी को खाता रहे
मंदिर मस्जिद लड़वाते रहें
किसी कमाल के हिस्से
चरखा सूत न आए।
लहू धब्बे धोते-पोंछते
कालिख मिट्टी बुहारते
हाथ काले हो जाएं
तो मैं क्या करूं।
मुझ से धरी नहीं जाती चादर
ज्यों की त्यों।
तो मुझे लगा
वो भी मन में सोच रहा था
कबीर को किसने कहा था
कबीर बन! कबीर बन!
पंजाबी से अनुवाद :  गीता ‘गीतांजलि’
स्रोतः सं. सुभाष चंद्र, देस हरियाणा (सितम्बर-अक्तूबर, 2016) पेज -22
 
 
 

More From Author

प्रतिकर्म -हरभजन सिंंह रेणु

भारत में भाषा बंटवारे की राजनीति – जोगा सिंह

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *