प्राण प्रतिष्ठा – उदय कुमार

कहानी

आज हरखू मिस्त्री सुबह-सवेरे चार बजे ही जाग नहा-धोकर, बेटे के ब्याह में समधियाने से भेंट में मिला सफेद ल_े का कुरता, पायजामा पहिन, सिर में ढेर सारा सरसों का तेल चुपड तथा हथेलियों पर बचा तेल हाथ-पांव पर मल तैयार बैठा था। उकडू बैठ छोटे से आईने में झांक कर कैंची से मूँछे काटता तथा जोर-जोर से कबीर के पद गाता हरखू सचमुच बंदर सा लग रहा था। आज उसका मन बहुत खुश था। आज गांव के नये मंदिर में श्री राम भगवान की मूर्ति की प्राण-प्रतिष्ठा जो होनी है। गांव के मंदिर के निर्माण कार्य में मुख्य मिस्त्री की भूमिका हरखू मिस्त्री ने ही निभायी है। मंदिर की एक-एक ईंट हरखू के हाथ की ही लगी हुई है, चबूतरे से लेकर कंगूरे तक। मई-जून की भयानक तपती दोपहर की धूंप में कबीर के पद गाता हुआ हरखू जब मंदिर के कंगूरे पर चढ कर काम करता तो, उसे लगता कि वह भगवान राम की सेना का कोई सैनिक है, तथा रावण की लँका धवस्त करने हेतु सेतु निर्माण का कार्य कर रहा है। हरखू मिस्त्री ने अपने जीवन में अनेको मकान, दुकान, भवन बनाये थे। मगर जहां और निर्माण कार्य वह ‘जिविका-उपार्जन’ के लिये करता रहा था, वहीं मंदिर निर्माण कार्य में वह भावनात्मक रूप से जुड गया था। यह कार्य उसने प्रभु की सेवा समझ कर किया था। इस कार्य के लिए मंदिर समिति के कहने पर उसने मजदूरी के 200 रूपये दैनिक में से 50 रूपये प्रभू के नाम के घटा कर मात्र 150 रूपये दैनिक पर कार्य करना मंजूर किया था। तथा करीब-करीब प्रति-दिन ही दिहाड़ी के आठ घंटो के अलावा एक-डेढ घंटे फालतू भी काम करा था। और उस फालतू काम का कोई ओवर-टाईम भी उसने नही लिया। आज भी मंदिर समिति की ओर हरखू के 1800 रूपये शेष निकलते हैं। आज उसी मंदिर में प्राण-प्रतिष्ठा का समारोह है। इसलिए हरखू का खुश होना स्वाभाविक ही है। हरखू ने एक पीतल की थाली खूब रगड़-रगड़ मांज कर चमकायी और उसमें कल शाम दुकान से खरीद कर लाया गया प्रसाद, धूप, नारियल इत्यादि बड़े जतन से सजा,वह तेज-तेज कदमों से मंदिर की ओर चल दिया। मंदिर गांव के दूसरे छोर पर था। वहां तक पहुंचते-पहुंचते हरखू को सात बज गये। मंदिर रंग-बिरंगी कागज की झंडियों व आम के पत्तों की बंदनवार से सजा अति चित्ताकर्षक लग रहा था। मंदिर में लाउड-स्पीकर से मंत्र पाठ की मधुर ध्वनि गूंज रही थी। मंदिर समिति के लोग भाग-दौड, प्रबंध में लगे थे, मंदिर के प्रांगण में भट्टी पर हलवाई प्रसाद तैयार करने में लगे थे, जिसकी सौंधी-सौंधी गंध मन को हर लेने वाली थी। मंदिर के अंदर पंडित जी तथा गांव के कुछ गण-मान्य लोग मंत्र पाठ कर विधिवत प्राण-प्रतिष्ठा का कार्य कर रहे थे। मंदिर के बाहर लोग प्रसाद के थाल सजाए प्राण-प्रतिष्ठा का कार्य पूरा होने की प्रतीक्षा कर रहे थे। कुछ बच्चे मंदिर के बाहर धमा-चौकड़ी मचा रहे थे, तथा कुछ एक-दूसरे के कंधों पर हाथ धरे खड़े प्रसाद बनने की कार्यवाही को ध्यान-पूर्वक देख, व प्रसाद की मधुर गंध का रसास्वादन कर रहे थे। हरखू प्रांगण के बाहर गेट पर खड़ा हो गया। हरखू को पूर्ण उम्मीद थी कि मंदिर समिति के लोग मंदिर निर्माण में उसके योगदान को देखते हुऐ, अवश्य थोड़ा-बहुत उसका सम्मान करेंगे। वो आते-जाते समिति के हर सदस्य को नमस्कार कर उनका ध्यान आकर्षित करने की नाकाम कोशिश कर रहा था। मगर शायद इस आपा-धापी में किसी का ध्यान हरखू की ओर नही जा रहा था, या फिर वे लोग जान-बूझ कर उसे अनदेखा कर रहे थे। उन लोगों का उपेक्षा पूर्ण व्यवहार हरखू को अच्छा नही लगा। हरखू तो सोच रहा था कि आम-दिनों की भांति ही मंदिर समिति के लोग उसके कार्य तथा मंदिर निर्माण में उसके योगदान की प्रशंसा करेंगे। खैर फिलहाल उन लोगों की इस अनदेखी का दोष उनकी अति-व्यस्तता के सिर मढ हरखू ने संतोष करा और प्राण-प्रतिष्ठा का कार्य समाप्त होने की प्रतीक्षा करने लगा। कुछ समय पश्चात प्राण-प्रतिष्ठ
ा का कार्य समाप्त कर पंडित जी तथा अन्य लोग मंदिर से बाहर आ गये। आम जन जो बाहर प्रसाद लिए खड़े थे भगवान की मूर्ति के दर्शन करने तथा प्रसाद चढाने के लिए अंदर की ओर उमड़ पड़े। उन्हीं सब के साथ-साथ हरखू भी अपनी प्रसाद की थाली लिए भीतर की ओर बढा। अभी हरखू मंदिर के द्वार के भीतर घुसने ही वाला था, कि जिन मंदिर समिति वालों का ध्यान हरखू की लाख कोशिशों के बाद भी उसकी ओर आकर्षित नहीं हो रहा था, उन्हीं लोगों का ध्यान अनायास ही ना जाने कैसे हरखू की ओर चला गया। उनमे से चार-पांच लोग तेजी से उसकी ओर लपके तथा उसकी बांह पकड़ उसे धकियाते हुऐ मंदिर के प्रांगण से बाहर घसीट लाये। द्वार के बाहर घसीट कर उन लोगों ने उसे धक्का देकर जमीन पर गिरा दिया। उसका प्रसाद बिखर गया, उसका कुरता फट गया। हरखू हैरान था। वे लोग उसे भद्दी-भद्दी गालियां देते हुए कहने लगे ‘साला अछूत, मंदिर में घुसा जाता है, पहले दिन ही मंदिर अपवित्र कर डालता’। हरखू को गिरने पर ज्यादा चोट तो नही लगी मगर घुटने और कुहनियां छिल गयी। वह धीरे से उठ कर बैठ गया। उन लोगों का अप्रत्याशित व्यवहार उसकी समझ से बाहर था। कल तक वह इसी मंदिर के कंगूरे पर चढा काम करता था। मंदिर के कंगूरे प्रांगण, चबूतरे, गर्भ-गृह, कहां-कहां उसके पैर नही पड़े? मंदिर के कण-कण में उसका पसीना समाहित था। कल तक वह और मंदिर एकाकर थे, वह मूर्ख खुद को मंदिर से अलग कर नही देख पा रहा था। भला कल तक वह मंदिर में बेरोक-टोक घूमता काम करता था, तब तो मंदिर अपवित्र नही हुआ। तब तो यह लोग कुछ नही बोले और उल्टा उसकी प्रशंसा करते रहे, तथा उसके त्याग और योगदान की सराहना भी। आज अचानक मंदिर में मूर्ति स्थापित हो जाने पर ये सब उल्टा-पुल्टा क्यों हो रहा है, हरखू सोच रहा था, वह मूर्ख शास्त्रों की बातें भला क्या जाने। क्या भगवान के मन्दिर में स्थापित हो जाने से वह इंसान नही रहा।  हरखू दो घडी धूल में बैठा सिर को हाथों से पकड़े सोचता रहा। मंदिर समिति के लोग उसे धकिया कर बुड़बुड़ाते हुए मंदिर में लौट गये। हरखू के चारों ओर उसे उसे घेरे खड़े बच्चे कौतुक से सारा तमाशा देख रहे थे। अचानक हरखू झटके से उठा तथा उसने एक हिकारत भरी नजर उन सभी लोगों तथा मंदिर पर डाली। अपनी थाली उठा उसमें अपना गिर चुका प्रसाद, नारियल आदि चुन कर रखा, तथा रोषपूर्ण मुद्रा में बुड़बुड़ाता हुआ तेज-तेज कदमों से अपने घर की ओर लौट पड़ा। घर पहुंच कर हरखू ने ओसारे में रखी चक्की को बड़े जतन से झाडा-पोंछा तथा श्रद्धापूर्वक दंडवत प्रणाम कर जोर से जयकारा लगाया ‘जय चक्की माता की’ तथा जयकारे के साथ ही चक्की के पत्थर पर पटक कर नारियल फोड़ डाला। उसकी आवाज सुन हरखू के दोनों लडके व उनकी बहुएं तथा उसकी पत्नी भी ओसारे में आ गयीं, तथा सभी आश्चर्य से उसको देखने लगे। हरखू ने बडी श्रद्धा के साथ चक्की पर धूल से सना फूल-प्रसाद चढाया। हरखू एक टांग घुटने से मोड़ दूसरी टांग पर सीधा खड़ा हो गया। किसी महान ज्ञानी विद्वान की भांति, कुछ ऐसे भाव चेहरे पर लाकर, मानो उसे आज ब्रह्म-ज्ञान की प्राप्ति हुई हो हरखू जोर से बोला ‘हे चक्की माता मंै मूर्ख क्यूं उस मंदिर की मूर्ति के फेर में पड़ कर व्यर्थ अपना अपमान करा बैठा, वह मूर्ति भी पत्थर की बनी है और तू भी पत्थर की बनी है, यदि उसमें भगवान का बास हो सकता है तो तुझ में क्यों नहीं, हे चक्की माता तेरा पिसा अनाज खाकर ही आज मेरे तन में प्राण हैं, आज से तू ही मेरा भगवान है’। हरखू के चेहरे पर इस समय परम संतोष और आनंद के भाव थे। उसने गर्व से अपने पूरे परिवार की ओर मुस्करा कर देखा, तथा एक बार फिर जोर से जयकारा लगाया ‘बोलो जय चक्की माता की’। हतप्रभ से खड़े उसके पूरे परिवार ने भी उसके पीछे-पीछे जयकारा दुहराया ‘जय चक्की ��ाता की’ तथा पूरी दलित बस्ती जयकारे से गूंज उठी।

स्रोतः सं. सुभाष चंद्र, देस हरियाणा (सितम्बर-अक्तूबर, 2016) पेज -10-11