गजलें
ये नादान दिल इतनी आफ़त में क्यूँ है
अभी तक ये तेरी मुहब्बत में क्यूँ है
खफ़़ा होने वाले तुझे क्या हुआ है,
ये नर्मी सी तेरी शिकायत में क्यूँ है
न जाने क्या डर है खुले आसमां से,
परिंदा कफ़स की हिफाज़त में क्यूँ है
अभी तक उसूलों पे कायम हूँ अपने,
ये सारा ज़माना यूँ हैरत में क्यूँ है
लकीरें अधूरी हैं हाथों में सबके,
कमी कुछ न कुछ सबकी किस्मत में क्यूँ है
तू मोमिन है तो फिर क्यूँ घबरा रहा है,
तू काफिर है तो इतनी गफ़़लत में क्यूँ है
शरीफों ने ये पूछा है मेरी जां से,
कि तू इस निरंजन की सोहबत में क्यूँ है
2
सफऱ के मुताबिक़ हवा हो न जाए,
कहीं मेरे हक़ में ख़ुदा हो न जाए
मुझे मंजि़लों की ज़रूरत नहीं अब,
कि आसान अब रास्ता हो न जाए
बहुत छटपटाई है चिडिय़ा कफ़स में,
तेरी याद दिल से रिहा हो न जाए
कि रिश्ते निभाना भी खुद में हुनर है,
कहीं कोई मुझसे खफा हो न जाए
चलो एक दूजे को दिल में छुपा लें,
किसी को हमारा पता हो न जाए
मैं मर जाऊं ना जि़न्दगी की बदौलत,
वो नज़दीक आकर जुदा हो न जाए
वो बरसात में भीगी छत पे खड़ी है,
मुझे इश्क फिर से नया हो न जाए
यूँ हर रोज़ मुझसे न बातें किया कर,
कहीं तुझको मेरा नशा हो न जाए
कि मगरूरियत उसके सर चढ़ गई है,
वो पत्थर कहीं देवता हो न जाए
‘निरंजन’ बहुत डर रहे हैं शजर ये,
कहीं साया कद से बड़ा हो न जाए