मातृभाषाओं को बचाने की जरूरत – सदानंद साही

समय आ गया है कि हम भाषा के सवाल को गंभीरता से लें। भाषा मनुष्य होने की शर्त है। इसे सिर्फ अभिव्यक्ति, संपन्न और दरिद्र जैसे पैमाने लागू करना भी ठीक नहीं है। इन्हीं मान्यताओं के चलते हम अपनी भाषिक सम्पदा को गंवाते चले आ रहे हें। हमारे औपनिवेशिक प्रभुओं ने बताया कि हमारी मातृभाषाएं असभ्य, अविकसित और दरिद्र हैं। इस औपनिवेशिक ज्ञान ने मातृभाषाओं के प्रति एक सहज अवमानना का भाव पैदा कर दिया। हम सभ्य, विकसित और सम्पन्न होने के लिए दूसरी भाषाओं का मुंह जोहने लगे और इस चक्कर में अपनी मातृभाषाओं से विमुख होते चले गए। मातृभाषाओं की जगह राष्ट्रभाषा हिन्दी हमारे सामने आई। दुर्भाग्य से हम हिन्दी को लेकर खास तरह की बेपरवाही बरतते रहे हैं। अंगे्रजी के लिए सम्मान जरूर है, लेकिन उसके मूल में भाषा प्रेम नहीं है। हमें अंग्रेजी सिर्फ रोजी-रोजगार के लिए नहीं, बल्कि प्रभुत्व और प्रभुता के लिए चाहिए।

मातृभाषा से विमुखता की प्रवृत्ति भाषा विहीनता की ओर ले जाती है। यह भाषा विहीनता हमारी मनुष्यता को विकलांग बना रही है। धीरे-धीरे हम ऐसे समाज में बदल रहे हैं, जो मातृभाषाओं से पीछा छुड़ाने को बेताब, हिन्दी के प्रति बेपरवाह और अंग्र्रेजी के सामने लाचार है। यह तथ्य हमें समझना होगा कि अंग्रेजी हो या संसार की कोई अन्य भाषा, मातृभाषा के रास्ते ही हम उस तक पहुंच सकते हैं।

मातृभाषाओं के माध्यम से हम बहुत कुछ ऐसा सीखते हैं जो हमें सामाजिक और समावेशी बनाता है। मातृभाषाओं में एक  खास तरह की सामूहिकता होती है। वह हमें समावेशी होना सिखाती है। आज दुनिया भौतिक उन्नति और विकास के पीछे पागल हो रही है, बिना यह परवाह किए कि अंत:करण का आयतन संक्षिप्त होता जा रहा है। भाषा से अंत:करण का निर्माण होता है, उसे  गहराई मिलती है। भाषा के प्रति  हमारी बेपरवाही से हमारा अंत:करण छीज रहा है। आलम यह है कि हम दिनोंंदिन भाषाई संपदा को नष्ट हो जाने दे रहे हैं।

भाषाविद् गणेश देवी के सर्वे के मुताबिक भारत में तकरीबन 900 भाषाएं बोली जाती हैंं। 1961 की जनगणना के अनुसार भारत में सोलह-सत्रह सौ भाषाएं थीं। पिछले पचास-साठ वर्षों में यह संख्या आधी रह गई है। आशंका व्यक्त की गई है कि आने वाले पचास वर्षों में इनमें से लगभग एक तिहाई भाषाएं खत्म हो जाएंगी।

भाषाओं के खत्म होने के साथ हमारा मनुष्य होना ही खतरे में पड़ गया है। भारत की भाषा बहुलता हमारी थाती है। सत्ताएं इसे समझने में नाकाम रही हैं। वे भाषा बहुलता को समस्या समझती और भाषा को वर्चस्व का हथियार बनाती हैं। वर्चस्व से जुड़ कर भाषा अपनी मूल प्रकृति -संवादधर्मिता- से अलग हो जाती और वैमनस्य पैदा करती है। इसलिए मातृभाषाओं का सवाल हमारे  मनुष्य बने रहने के सवाल से जुड़ा है।

साम्राज्य और पूंजी के वर्चस्व वाली आधुनिक दुनिया भाषाओं के बारे में बेहद असंवैधानिक हुई है। पिछली शताब्दी में दुनिया की असंख्य भाषाएं या तो विलुप्त हो गई हैं या फिर होने के कगार पर हैं। फिलहाल पूरी दुनिया में तीन हजार भाषाएं हैं। ऐसी आशंका है कि शताब्दी के अंत तक उनमें से केवल तीन सौ बचें। शायद इसीलिए उन्नीस सौ निन्यानवे मेें यूनेस्को ने मातृभाषाओं को संरक्षित और विकसित करने की जरूरत पर बल दिया और 21 फरवरी को अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस के रूप में मनाने का प्रस्ताव पारित किया। इसके लिए 21 फरवरी की तिथि इसलिए निश्चित की गई क्योंकि इसी दिन 1952 में बांग्लादेश (तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान) में ढाका विश्वविद्यालय के बांग्ला भाषा को मान्यता देने की मांग करते हुए चार प्र्रदर्शनकारी छात्र शहीद हो गए। आगे चलकर मातृभाषा के लिए शुरू हुए इस आंदोलन की परिणति बांग्लादेश के उदय में हुई।

प्रत्येक भाषा की अपनी विश्व दृष्टि होती है, अपना देशज ज्ञान, प्रतिभा कोष और साहित्य होता है, जो भाषाओं के साथ नष्ट हो जाता है। भाषाओं के नष्ट होने की एक वजह उनको बोलने वाले लोगों का जीवन स्तर है। कुछ भाषाओं के साथ पिछड़ा, गंवारू होने की चिप्पी लगा दी गई है। इसलिए लोग उन भाषाओं से अपना संबंध छिपाते हैं। यह भी नहीं कि जिन भाषाओं के बोलने वालों की संख्या कम है, उन्हीं पर खत्म होने का खतरा मंडरा रहा है। भेदभाव का शिकार होने के नाते भी भाषाओं का अस्तित्व खतरे में है।

भाषा की बहुलता हमारी थाती है, जबकि सत्ताएं भाषा बहुलता को समझने समझने की भूल करती हैं और भाषा को वर्चस्व का हथियार बनाती हैं। इसी से भाषाओं को लेकर हीनताबोध उपजता है। भाषाओं के बीच संवाद नहीं हो पाता। जबकि भाषा की प्रकृति संवादधर्मी है। इसलिए जरूरत भाषाओं के बीच वैमनस्य पैदा करने वाली शक्तियों को पहचानने और उन्हें व्यर्थ करने की है। महान अफ्रीकी लेखक न्यूंगी वा थ्यांगो कहते हैं-अनेक भाषाओं वाला विश्व  विभिन्न रंगों वाले फूलों के मैदान जैसा होना चाहिए। कोई ऐसा फूल नहीं है, जो अपने रंग या आकार के कारण दूसरे फूल से बढ़कर हो। ऐसे सभी फूल अपने रंगों और आकारों की विविधता में अपने सामूहिक पुष्पत्व को व्यक्त करते हैं। इसी प्रकार हमारी विभिन्न भाषाएं एक सामूहिकता के बोध को व्यक्त कर सकती हैं और उन्हेंं करना चाहिए। भाषाएं इस तरह मिलें जैसे नदियां मिलती हैं। हमें भाषाओं के लोकतंत्र को समझना चाहिए और उसकी अवतारणा करनी चाहिए। तभी हम भाषा की निधि को नष्ट होने से बचा सकेंगे और उसे भावी पीढ़ी को सौंप सकेंगे।

स्वाधीनता आंदोलन के साथ ही वासुदेव अग्रवाल, राहुल सांकृत्यायन, हजारी प्रसाद द्विवेदी जैसे मनीषियों ने जनपदीय आंदोलन की बात की थी। यह जनपदीय भावना भाषाई वैमनस्य नहीं, भाषाओं के सामंजस्य की बात करती है। इन मनीषियों की सोच थी कि जनपदों में विकसित हुआ साहित्य, संगीत-कला कौशल, ज्ञान-विज्ञान उपेक्षा की वस्तु नहीं है। उनमें हजारों वर्ष का मानवीय संघर्ष, अनुभव और चेतना का इतिहास संचित है। इसलिए जनपदीय साहित्य का अध्ययन और मूल्यांकन किया जाना चाहिए। देखना यह चाहिए कि इस निधि के भीतर ऐसा क्या है जो हमारे आधुनिक जीवन को बेहतर बनाने के काम आ सकता है।

हमारे विश्वविद्यालयों में देशी भाषाएं प्राय: लोक साहित्य के रूप में पढ़ाई जाती हैं। कुछ-कुछ कृपाभाव से। यह नाकाफी ही नहीं, बल्कि चिंताजनक है। अपने परिवेश की इतिहास चेतना से रहित और मातृभाषा से वंचित और भाषाई विपन्नता के शिकार हो चुके पढ़े-लिखे लोगों ने भाषा की बहुआयामी निधि को गंवा दिया है। यह निधि, यह संपदा भाषा का यह सौंदर्य कहां बचा है? गांवों में। जिसे बेपढ़ी-लिखी जनता कहा जाता है उसने इस सम्पति को बचाया है। इसलिए भी इस महान संपदा का संरक्षण और संवर्धन जनपदीय अध्ययन के रास्ते ही संभव है। भूमि, उस पर बसने वाला जन और उस जन की संस्कृति का त्रिकोणात्मक अध्ययन करना होगा। इस अध्ययन से हम यह सीख सकेंगे कि विविधता अभिशाप नहीं है। बल्कि यह पृथ्वी के साथ घनिष्ठ रूप से संबद्ध होने के कारण है। मातृभाषाओं को उपयोग और उपभोग के नजरिए से ऊपर उठकर जनपदीय अध्ययन के नजरिए से देखने-जानने  की जरूरत है।

अंग्रेजी भाषा को भारत ने कैसे बदला, लेखक-राहुल वर्मा, अनु. सौम्य मालवीय

वे एक नई ज़बान में रच बस गए हैं। वे शब्द जो प्रतिदिन की अंग्रेजी का अभिन्न हिस्सा बन चुके हैं। लूट, निर्वाण, पायजामा, शैम्पू, शॉल, बंगला, जंगल, पंडित और ठग।

इन भारतीय शब्दों की जड़ें और अंग्रेजी में पहुंचने के इनके रास्ते क्या हैं? उन्होंने ये यात्रा कैसे और कब तय की। कैसे वे लोक में बसी अंग्रेजी से ऑक्सफोर्ड इंग्लिश डिक्शनरी तक पहुंचे। और यह सब हमें भारत और ब्रिटेन के रिश्ते के बारे में क्या बताता है।

ब्रिटिश राज के बहुत पहले-उससे भी पहले जब ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारतीय उपमहाद्वीप में पहला क्षेत्र अपने अधीन किया था – दक्षिण एशियाई भाषाओं  के कुछ  शब्द, जैसे उर्दू, हिन्दी, मलयालम और तमिल के कुछ शब्द, विदेशी ज़बानों  का हिस्सा बन गए थे। एक कमाल की किताब में बोलचाल की भाषा के एंग्लो-इंडियन शब्दों, मुहावरों और वाक्यांशों की उत्पत्ति के रोचक ब्यौरे मिलते हैं। यह दो भारत प्रेमियों हेनरी यूल और आर्थर सी बर्नेल द्वारा तैयार की गई थी और ‘हॉब्सन-जॉब्सन’ द डेफिनिटिव ग्लॉसरी ऑफ इंडिया नामक यह किताब सन् 1886 में आई थी। कवि दलजीत नागरा के अनुसार ‘यह एक शब्दकोश होने के बजाए औपनिवेशिक भारत का जबरदस्त संस्मरणात्मक आख्यान है। बल्कि हम इसे एक खब्ती अंग्रेज के शब्द संसार के रूप में देख सकते हैं।’

इस किताब के हाल में ही छपे  पेपरबैक संस्करण के संपादक यह बताते हैं कि कैसे इसके कई सारे शब्द ब्रिटिश शासन से भी पहले के हैं। केट तेल्ट्सशर कहती हैं कि, ”जिंजर, पेपर और इंडिगो इंग्लिश मे ंएक बहुत प्राचीन रास्ते से दाखिल हुए।’ ये यूनान और रोम से भारत के व्यापारिक संबंधों के गवाह हैं और इंग्लिश में ग्रीक और लैटिन भाषा के मार्फत शामिल हुए।’’

”जिंजर शब्द मलयालम भाषा से आता है और ग्रीक और लैटिन के रास्ते होते हुए पुरानी फ्रेंच और पुरानी अंग्रेजी में जगह बनाता है। और अब यह पौधा और शब्द दोनों वैश्विक कमोडिटी बन चुके हैं। पंद्रहवीं सी में ये कैरेबियन द्वीप समूहों में और अफ्रीका में पहुंचा और अब यह शब्द, यह पौधा, सारी दुनिया में पाया जाता है।’

जैसे-जैसे यूरोपीय शक्तियों ने पूर्वोत्तर हिस्सोंं में अपना साम्राज्य बढ़ाया। वैश्विक व्यापार बढ़ता गया और भारतीय शब्दों की अंग्रेजी में उपस्थिति भी जोर पकड़ती गई। कई सारे शब्द पुर्तगाली भाषा के रास्ते आए। केट तेल्ट्सशर बताती हैं, ”पुर्तगालियों ने 16वीं सदी में गोवा पर शासन कायम किया और मैंगो एवं करी जैसे शब्द अंग्रेजी में पुर्तगाली भाषा के जरिए दाखिल हुए – मैंगो शब्द की शुरुआत तमिल और मलयालम के ‘मंगाई’ से हुई, फिर पुर्तगाली में इसका रूप बना ‘मंगा’ और फिर अंग्रेजी में इसके अंत में ‘ओ’ की ध्वनि जुड़ गई और यह हो गया मैंगो।’’

पर दक्षिण एशियाई शब्दों का अंग्रेजी में प्रवेश केवल पूरब से पश्चिम की सरल स्कीम के तहत ही नहीं हुआ। तेल्ट्सशर बताती हैं कि ‘आया’ दरअसल एक पुर्तगाली भाषा का शब्द है, जिसका मतलब गवर्नेस या नर्स होता है और पुर्तगाली भारत में उसे इसी रूप में प्रयोग करते थे। फिर यह भारतीय भाषाओं का हिस्सा बना और उनके रास्ते फिर अंग्रेजी में उतर गया।

और मैं आज तक इसे भारतीय भाषा का शब्द समझता था, उस अर्थ में जिसमें नई दिल्ली में मेरा पूरा परिवार इसे घरेलू मदद या बूढ़ी दाई के संदर्भ में प्रयोग  करता आया है।

हॉब्सन-जॉब्सन शब्द संग्रह में ‘चिली’ शब्द की रोचक यात्रा बयान की गई है जहां यह दर्ज किया गया है कि यह ‘लाल मिर्च का लोक प्रचलित आंग्ल-भारतीय शब्द है।’ यूल और बर्नेल के अनुसार, ‘इसमें कोई शक नहीं कि यह शब्द दक्षिण अमेरिका में चिली में से लिया गया और भारतीय प्रायद्वीप तक पहुंचा और फिर भारत तक।’

शौक और खुशबुएं

16वीं और 17वीं सदी में हिन्दी, उर्दू, तमिल, मलयालम, पुर्तगाली और अंग्रेजी के शब्द सारी दुनिया में टहल रहे थे और इस बात को  उजागर करते हुए कि कैसे भाषाएं, जैसे-जैसे संस्कृति के रूप बदलते हैं और लोग बदलते परिवेश के अनुसार जीना सीखते जाते हैं, समय के साथ विकसित होती है। इन तीन शब्दों -शॉल, कश्मीरी और पचौली जो साथ-साथ 18वीं सदी की अंग्रेजी का हिस्सा बन गए थे – के उदाहरण से उपरोक्त बात की तसदीक होती है।

तेल्ट्सशर बताती है, ‘कश्मीरी शब्द को हम ऊन से जोड़कर देखते हैं और इसका उद्गम कश्मीर में और कश्मीरी भेड़  के ऊन में है। यह शब्द शॉल शब्द से गहरे जुड़ा हुआ है। शॉल एक ऐसा शब्द जो फारसी में पैदा हुआ, उर्दू और हिन्दी के  जरिए भारत पहुंचा और फिर अंग्रेजी में दाखिल हो गया।’

वे आगे कहती हैं, ‘शॉल 18वीं और 19वीं सदी में अंग्रेजी में पहुंचा, क्योंकि अभिजन समाज में औरतों के लिए एक प्रिय और ऐश्वर्य सूचक परिधान बन गया था। अगर किसी महिला का भाई ईस्ट इंडिया कम्पनी के लिए काम करता था तो वे अपेक्षा रखती थी कि उसका भाई उसके लिए एक खूबसूरती से बुना हुआ शॉल भेजेगा। पचौली, शॉल से जुड़ा हुआ है, क्योंकि पचौली इत्र का इस्तेमाल शॉलों को ब्रिटेन ले जाते वक्त कीड़ों को दूर रखने के लिए किया जाता था। इस तरह यह तेज खूशबूदार इत्र ब्रिटेन की पसंद बन गया।’

पर पचौली ने जल्द ही अपना ग्लैमर खो दिया। तेल्ट्सशर बताती हैं, ‘उन्नीसवीं सदी के बीतते-बीतते पचौली फ्रेंच वेश्याओं और तथाकथित चरित्रहीन औरतों से जोड़कर देखा जाने लगा। इस तरह पचौली ने एक राजसी शौक  होने से लेकर और फिर असभ्य समाज का सूचक बन जाने तक का रास्ता तय किया और फिर सन् 60 तक आते-आते यह हिप्पी समुदाय से जोड़कर देखा जाने लगा।’

शब्द और उनके संसार

लन्दन में पैदा हुए, ब्रिस्टल में बसे लेखक निकेश शुक्ला का मानना है कि रोजमर्रा की अंग्रेजी में भारत के योगदान से ब्रिटिश साम्राज्य के कुछ हद तक अपने उपनिवेशों पर निर्भर होने का पता चलता है। ‘यह लाजिमी ही था कि उपनिवेशवाद के साथ ब्रिटेन स्थानीय संस्कृतियों से प्रभावित होगा और इसके असर दूरगामी होंगे। क्योंकि उपनिवेशवाद कोई एकआयामी चीज नहीं होती। जरा उन चीजों पर ध्यान दीजिए जो ब्रिटिश संस्कृति में  कॉमनवेल्थ राष्ट्रों  से आईं और यहीं की होके रह गईं जैसे चाय और भाषा भी इसी प्रक्रिया का हिस्सा रही है।

निकेश शुक्ला, जिनका ताजा उपन्यास ‘मीटस्पेस’ सोशल मीडिया और स्मार्ट फोन तकनीक की पड़ताल करता है, का मानना है कि साम्राज्य ने अंग्रेजी भाषा को वैसे ही प्रभावित किया है जैसे आज तकनीक कर रही है। उनका कहना है कि, ‘इस परिघटना को देखने का एक सीधा तरीका यह है कि इन शब्दों ने अंग्रेजी भाषा में इसलिए उथल-पुथल मचाई, क्योंकि वे अंग्रेजी का हिस्सा ही नहीं थे। उदाहरण के लिए वेरांडा (बरामदा) शब्द को लीजिए। ब्रिटेन में मौसम ठंडा रहता है अत: यहां बरामदे नहीं होते और न ही पैजामे या ढीले-ढाले सूती पतलून, क्योंकि ये गर्म मौसम के लिए उपयुक्त रहते हैं।’

वे आगे जोड़ते हुए कहते हैं कि ‘आज वाईएफआई,  इंटरनेट, गूगल, ईमेल और सेल्फी’ जैसे शब्द सारी दुनिया में फैल चुके हैं और इनके लिए कोई और शब्द दिखाई ही नहीं पड़ता। इस तरह से ये शब्द अंग्रेजी का ही नहीं, अन्य सारी भाषाओं का भी हिस्सा बन चुके हैंं। सोशल मीडिया ने भी हमारे बातचीत के ढंग को गहरे प्रभावित  किया है। मसलन अब ‘लाइक’ या ‘फॉलोइंग’ जैसे शब्दों का अर्थ ही बदल चुका है। हम कह सकते हैं कि ‘लोल’ (रुह्ररु)जैसे शब्दों के साथ तकनीक अंगे्रजी भाषा में खलबली पैदा करने वाली नयी चीज बन गई है। पर मुझे यह बेहद रोचक लगता है कि किस तरह से उपनिवेशवाद ने खुद ब्रिटेन की संस्कृति को दूसरी संस्कृतियों से रूबरू करवाते हुए अंग्रेजी भाषा में कैसे-कैसे नए दरीचे खोले हैं।

शुक्ला का प्रिय अंग्रेजी-भारतीय शब्द है ‘ब्लाएटी’, (ड्ढद्यद्बद्दद्धह्ल4)जो यह साबित करता है कि कैसे भाषा लगातार विकसित होती रहती है। वे बताते हैं कि यह शब्द प्रवासी ब्रितानियों द्वारा ब्रिटेन और अपनी मातृभूमि के संदर्भ में कुछ इस तरह प्रयोग होता है कि, ‘गुड ओल-‘ब्लायटी’। जबकि यह शब्द यूरोप के लोगों या विदेशियों के लिए प्रयोग किए जाने वाले उर्दू शब्द ‘विलायती’ से आता है। यानी यह शब्द अंग्रेजों द्वारा बिगाड़ कर घर को याद करने के संदर्भ में इस्तेमाल किया जाने लगा और इस तरह अंग्र्रेजी भाषा का हिस्सा बन गया।’

भारत का अंग्रेजी पर प्रभाव इस बात को साबित करता है कि भाषाएं हमेशा गतिमान रहती हैं और आधुनिक जगत जैसा है उसमें भूतपूर्व उपनिवेशों का भी गहरा योगदान है। तेल्ट्सशर कहती हैं, ‘शब्दों को देखना कितना अद्भुत होता है। आपको अनचीन्हे रास्ते, अनपेक्षित तरंगे और अद्भुत संगतियां स्पष्ट होने लगती हैं।’ 

आभार – समरथ सितम्बर-अक्तूबर 2015 नई दिल्ली

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