प्रभुत्व बरकरार रखने के लिए जाट संघर्ष – सुरिन्द्र एस जोधका

आलेख

हरियाणा सांप्रदायिक और जाति आधारित हिंसा के लिए जाना जाने वाला राज्य नहीं है पर बीती उन्नीस फरवरी से लेकर पांच दिनों तक यह राज्य अपने इतिहास के सबसे भयानक दंगों का गवाह बना, जिसमें तीस के करीब लोग मारे गए और करोड़ों की सम्पति फूंक दी गई, नष्ट कर दी गई। इसकी वजह जाट समुदाय के द्वारा अन्य पिछड़ा वर्ग में शामिल किए जाने और इसके तहत आरक्षण की मांग को लेकर चलाया गया आंदोलन था। प्रशासन में इस आंदोलन को लेकर असमंजस की स्थिति इसलिए बनी रही, क्योंंकि जाट समुदाय आर्थिक और सामाजिक रूप से आगे बढ़ा हुआ माना जाता रहा है।…फिलहाल तो हिंसा खत्म हो गयी है पर यह दानव कभी भी अपना सर उठा सकता है।

जाति को सबसे बेहतर ढंग से क्षेत्रीय संदर्भ में ही समझा जा सकता है। वहीं शास्त्रीय पाठों पर आधारित इसका अधिक लोकप्रिय परिप्रेक्ष्य इसे ‘वर्ण व्यवस्था’ के रूप में ग्रहण करता है जोकि श्रेणीगतता का एक स्थूल मॉडल भर है, जिसे कथित तौर पर पूरे भारत के संदर्भ में सही माना जाता है। पर इस मॉडल से स्थिति साफ होने के बजाये उलझती अधिक है। प्राचीन कृतियों से निकाले गए इस मॉडल की लोकप्रियता और स्वीकार्यता बढ़ाने में ब्रिटिश औपनिवेशक शासन की महती भूमिका थी। इस साम्राज्य ने इस मॉडल के तहत सन् 1872 में जातियों की गणना शुरू की थी। पर बावजूद तमाम रिपोर्टों के  जिनके अनुसार इस मॉडल से भारतीय उपमहाद्वीप के विभिन्न क्षेत्रों में जाति की समझ बढऩे के बजाए बाधित हो रही है। उन्होंने जाति को लेकर अपनी अवधारणा में कोई परिवर्तन नहीं किया।

बाद में समाज विज्ञानियों ने वर्ण के स्थान पर ‘जाति’ की श्रेणी का इस्तेमाल करना शुरू किया, जोकि नातेदारी पर आधारित थी और अनुभवजन्य ज्ञान के अधिक निकट थी। पर वे भी जाति को  एक अखिल भारतीय हकीकत के रूप में देखते आए जो लगभग-लगभग हर क्षेत्र  में श्रेणीगतता के उसी स्वरूप में नुमांया होती है। कालांतर में यही परिप्रेक्ष्य भारतीय राज्य द्वारा आरक्षण की नीति तय करने के लिए स्वीकार कर लिया गया और परिणामत: धीमे-धीमे संस्थानीकृत भी होता गया।

                इस परिप्र्रेक्ष्य का यह असर हुआ है कि अब स्वयं जातियां भी अपने-आपको इसी परिप्रेक्ष्य के तहत देखने लगी हैं और भारतीय सामाजिक  संरचना की इस सरकारी व्याख्या के अनुसार अपने-आपको ‘वर्ण’  श्रेणीगतता के तहत पिछड़ा हुआ मानकर आरक्षण की मांग करने लगी हैं। यहां तक कि वे राजनीतिक कार्यकत्र्ता जो जाति से लड़ने के लिए प्रतिबद्ध हैं वे भी जाति को इसी फ्रेम में रखकर देखते हैं। पर इस मॉडल की सीमाओं को समझने के लिए पंजाब और हरियाणा में जाटों के उदाहरण का उल्लेख किया जा सकता है। भारत के उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र के राजनीतिक और सामाजिक परिदृश्य पर सामान्य नजर रखने वाला भी जानता होगा कि जाट समुदाय ग्रामीण क्षेत्रों में कितना प्रभुत्वशाली समुदाय रहा है। संसदीय लोकतंत्र की स्थापना ने उन्हें क्षेत्रीय स्तर पर बेहद सशक्त बनाया है। यही नहीं वे अपने आसपास दूसरों या अन्यों से स्वयं को सामाजिक रूप से भी श्रेष्ठ समझते हैं और वे ‘अन्य’ कभी भी उनके इस दावे से मतभेद प्रदर्शित नहीं करते।

इस जाट प्रभुत्व के प्रमुख कारण रहे हैं कृषि योग्य भूमि पर उनका गहरा नियंत्रण, उनकी जनसंख्या और गांव से बाहर के उनके गहरे सम्पर्क सूत्र इत्यादि। हालांकि वे  हरियाणा की कुल जनसंख्या के चौथाई ही हैं पर फिर भी वे ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि योग्य भूमि के कम से कम तीन-चौथाई के मालिक हैं।

इस क्षेत्र में जाति व्यवस्था बेहद मजबूत है पर भारत के इस उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र में ब्राह्मणवाद की विचारधारा की कभी भी बहुत मजबूत नहीं रही। यहां पर ‘खुदकाश्त’ का मूल्य बेहद असरकारी रहा है। बल्कि इस मूल्य के आधार पर हम इस क्षेत्र के सामाजिक स्तरीकरण की संरचना को थोड़ा-बहुत समझ भी सकते हैं।

यहां पारम्परिक अर्थ में कोई जमींदार नहीं रहा है और ना ही अनुपस्थित जमींदार की श्रेणी जो भारत के अन्य क्षेत्रों में लागू होती रही है यहां कारगर रही है। जो भी व्यक्ति अपनी जमीन जोतता रहा हो और किसी अन्य की जमीन पर खेतिहर मजदूर के तौर पर काम न करता रहा हो वो जमींदार कहलाने के लायक रहा है बशर्ते वो सही जाति के अंतर्गत आता हो। यहां  तक की ग्रामीण हरियाणा में ब्राह्मण भी अपने-आप को खुदकाश्त के रूप में देखते हैं और इसलिए प्रभुत्वशाली जाटों जैसे ही लगते हैं।

सन् 60 और 70 के दशक में इस क्षेत्र में हरित क्रांति की सफलता जाटों के लिए ढेर सारी सम्पन्नता लेकर आई और उनके प्रभुत्व को और भी पुख्ता किया। हालांकि हमें यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि अन्य समुदायों की तरह जाटों मेंं भी कई तरह की श्रेणियां हैं, जहां कुछ सम्पन्न किसानों के पास बड़े-बड़े खेत हैं, वहीं ज्यादातर जाट मझोले या छोटे किसान ही हैं।

व्यवसायिक खेती में बढ़-चढ़ के भागीदारी करने के कारण जाट शहरी जीवन के काफी नजदीक आए। ना केवल वे खेती संबंधित जरूरतों के लिए आसपास के शहरों तक आने-जाने लगे, बल्कि वे अपने बच्चों को शहरी कालेजों और विश्वविद्यालयों में पढऩे के लिए भी भेजने लगे। सम्पन्न किसान तो अपनी बेटियों तक को दूर शहरों और कस्बों में स्थित विश्वविद्यालयों में पढऩे के लिए भेजने लगे।

एक अलग तरह  का खेती संकट

कर्ज के अपमान से बचने और सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति में आती निरंतर अवनति से छुटकारा पाने के लिए किसानों की आत्महत्याएं भारत के विभिन्न क्षेत्रों में पिछले दिनों में आम होती गई हैं। पर इस कृषि संकट की विभीषिका और अनुभव क्षेत्रों और समुदायों के हिसाब से अलग-अलग रहे हैं। इसे समझने के लिए यह समझना जरूरी है कि भारत का ग्रामीण परिदृश्य केवल जाति के आधार पर ही नहीं, भूमि स्वामित्व के आधार पर भी बंटा हुआ है।

उदाहरण के लिए दलितों के पास और अन्य पिछड़ा वर्ग समूह में निचली श्रेणी पर आने वाली जातियो के पास खेती लायक जमीन का स्वामित्व ना के बराबर है। हरियाणा के दो गांवों में 2009 में किया गया मेरा अध्ययन भी यही दिखाता है कि इन दो श्रेणियों के लगभग 90 प्रतिशत घर पूरी तरह से भूमिहीन है। पर आंतरिक रूप से श्रेणियों में बंटे हुए होने के बाद भी यह कहा जा सकता है कि जाटों के बीच भूमिहीन ना के बराबर हैं। इसके अलावा प्रभुत्वशाली वर्ग होने की वजह से अन्य स्रोतों और संसाधनों तक इनकी गहरी पहुंच है जबकि दलित और अन्य भूमिहीन ऐसे किसी तंत्र से कोसों  दूर है।

ऐसा नहीं है कि इस कृषि संकट से जाट अछूते रहे हैं। पीढ़ी दर पीढ़ी उनकी जमीन सिकुड़ती जा रही है। नए विकल्पों के अभाव में वे अपने पेशे में विविधता लाने के लिए और खेती छोड़ने के लिए विवश हैं। इसीलिए वे अपनी आय को अपने बच्चों को शिक्षित करने में लगा रहे हैं, ताकि वे कृषि से बाहर निकलकर किसी और क्षेत्र में सम्मानपूर्वक नौकरी कर सकें।

ऐसा भी नहीं कि यह संकट केवल आर्थिक है यह उतना ही सांस्कृतिक भी है। भारत के उत्तर-पश्चिम में बसे समुदाय अपनी जमीन जोतने को लेकर जैसा गौरव धारण करते आए हैं वह पिछले दो दशकों में जाता रहा है। उदारीकरण के बाद के भारत में जो सबसे लुभाने वाली नौकरियां हैं वे शहरी इलाकों में हैं और उनमें भी कार्पोरेट क्षेत्रों में रही हैं। हालांकि ओबीसी कोटे के तहत शामिल किए जाने से जाटों को सीधे-सीधे कार्पोरेट क्षेत्र में एंट्री नहीं मिलने वाली है पर वे ऐसा मानते हैं कि आरक्षण की बदौलत वे अपने बच्चों को आईआईटी और आईआईएम जैसे संस्थानों में पढ़ा सकते हैं, जो इस क्षेत्र में उनके प्रवेश को सुगम बना सकता है। ऐसा उन्हें इसलिए भी लगता है क्योंकि उनसे निचली सामाजिक हैसियत वाली अन्य जातियां ओबीसी सर्टीफिकेट के चलते ऐसा संस्थानों  में आसानी से दाखिला पा लेती हैं।

हालांकि हरियाणा में जाट और गुजरात  में पटेल अपने ‘शूद्र’ दर्जे का हवाला देते हुए अन्य पिछड़ा वर्ग की श्रेणी में शामिल किए जाने और उसके तहत आरक्षण मिलने की मांग करते हैं पर यह ध्यान देने योग्य है की उनकी राजनीति ओबीसी श्रेणी के अंतर्गत आने वाली गरीब, जरूरतमंद और वाकई पिछड़ी जातियों के खिलाफ खड़ी हुई है। जहां वे आरक्षण के लिए लड़ रहे हैं, वहीं उनकी लड़ाई को आरक्षण की मूल भावना के विरुद्ध भी देखा जा सकता है। उनका संघर्ष इसलिए नहीं है कि उन्हें भी समान रूप से मौके मिलें और चंद वर्गों का प्रभुत्व खत्म हो, बल्कि इसलिए है कि वे अपने खोये हुए विशेषाधिकार और प्रभुत्व को वापस पाना चाहते हैं।

अत: उनकी दबाव डालने वाली राजनीति समाज में अलगाव की स्थिति पैदा करेगी। ओबीसी श्रेणी के तहत आने पर उनको मिलने वाले फायदे उन समुदायों की कीमत पर होंगे, जिन्हें अपनी सामाजिक स्थिति के चलते वाकई इस श्रेणी में होना चाहिए। जो वाकई आरक्षण के हकदार हैं उन्हें इस श्रेणी के तहत सीमित सीटों पर जाटों से प्रतिस्पर्धा करनी होगी और बड़ी आशंका है कि वे असफल ही रहेंगे।  (साभार-समरथ, जनवरी-अप्रैल 2016)

स्रोतः सं. सुभाष चंद्र, देस हरियाणा (जुलाई-अगस्त 2016), पेज – 79-80

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