रेत से प्रौद्योगिक क्रांति की ओर – अविनाश उपाध्याय

विज्ञान-प्रौद्योगिकी

सन् 1947 में जब भारत आजादी की क्रान्ति में संलग्न था, प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में एक असाधारण क्रांति हुई। सन् 1947 में बेल लैबोरेटरी में पहली बार सॉलिड स्टेट ट्रांजिस्टर का निर्माण किया गया। इसको बनाने वालों का नाम था जॉन बारडीन, वॉल्टर ब्रेटेन, और विलियम शॉक्ले। इन्होंने पहली बार जरमेनियम तत्त्व का प्रयोग कर यह ट्रांजिस्टर बनाया था। इस ट्रांजिस्टर का नाम था बाईपोलर जंक्शन ट्रांजिस्टर। पहले से चली आ रही वैक्यूम ट्यूब आधारित उपकरणों में होने वाली कुछ मूलभूत समस्याओं को खत्म करने के लिए इस ट्रांजिस्टर का निर्माण किया गया था। वैक्यूम ट्यूब बहुत ही नाजुक उपकरण थे, जो जरा भी जोर पड़ने अथवा गिरने की स्थिति में आसानी से टूट जाते थे। साथ ही यह बहुत बड़े थे और इनसे बनाए जाने वाले उपकरण काफी गरमी पैदा करते थे। इस खोज के लिए तीनों वैज्ञानिकों को 1956 में नोबेल सम्मान से भी सम्मानित किया गया। किसे पता था कि यह खोज आने वाले समय में विश्व भर में इलेक्ट्रॉनिक की दिशा में एक क्रांति पैदा कर देगी। सन् 1958 में एक और अभियंता जिनका नाम था जैक किल्बी, ने पहली बार दो ट्रांजिस्टरों को एक आधार पर जोड़ कर पहले इन्टीग्रेटड सर्किट अथवा आई.सी. का निर्माण किया। इन्टीग्रेटेड सर्किट का अर्थ है एक आधार पर कई सारे छोटे उपकरणों का समागम कर नया सर्किट बनाना। इस कार्य के लिए जैक किल्बी को 2010 में नोबेल सम्मान से नवाजा गया। सन् 1958 में एक और भौतिक वैज्ञानिक रॉबर्ट नॉयस ने पहला सिलिकन आधारित आई.सी. का निर्माण किया। यह आई.सी. पिछली आई.सी. के मुकाबले ज्यादा अच्छी और सही ढंग से उपयोग में लाई जा सकने वाली थी। आगे चलकर इसी सिलिकन आधारित उपकरणों ने सारे इलेक्ट्रॉनिक्स बाजार पर अपना नियंत्रण कर लिया। आइए जानें कि सिलिकन कहां से और कैसे मिलता है।

सिलिकन तत्त्व मरुस्थलों में पाई जाने वाली रेत में भरपूर मात्रा में उपलब्ध है। यह विश्व में दूसरा सबसे अधिक पाया जाने वाला तत्त्व है। यह एक अर्धचालक (सेमीकन्डक्टर) है। रेत के अन्दर सिलिकन डाईऑक्साइड नाम का एक पदार्थ पाया जाता है। सिलिकन को रेत से निकालने के लिए पहले इस रेत को ट्रकों में भरकर उद्योग स्थलों तक पहुंचाया जाता है। वहां रेत को कोक (कार्बन के एक रूप) के साथ इसे 1200 डिग्री से भी अधिक तापमान पर गरम किया जाता है। इससे सिलिकन तत्त्व रेत से अलग हो जाता है। बाद में एक तेज घूमती छोटी पिंडुली को पिघले हुए सिलिकन में डाला जाता है और धीरे धीरे उसे ऊपर की ओर खींचा जाता है। ऐसा करने से सिलिकन एक बेलन का आकार ले लेता है। बाद में इसे पतली डिस्कों में काट लिया जाता है। इस एक डिस्क को वेफर का नाम दिया गया है। इस पूरी प्रक्रिया में सिलिकन की शुद्धता का विशेष ख्याल रखा जाता है। इसकी शुद्धता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि वैज्ञानिक इसे 99.999999999999 प्रतिशत शुद्ध रखते हैं। इस पूरी प्रक्रिया का नाम जोक्रैल्स्की विधि है। इस तैयार वेफर को बाद में फैब्रीकेशन लैबों में भेजा जाता है, जहां इसमें छोटे छोटे ट्रांजिस्टरों का प्रयोग करके इसे आई.सी. का रूप दिया जाता है। बाद में यही आई.सी. अपनी उपयोगिता अनुसार आपके मोबाइल फोन, कम्प्यूटर तथा अन्य उपकरणों में लगाई जाती है। इस आई.सी. में मौजूद ट्रांजिस्टरों का आकार आज की प्रौद्योगिकी में मात्र 14 नैनो मीटर रह गया है। अर्थात यह बाल की मोटाई के 1000वें हिस्से से भी कम है। यह ट्रांजिस्टर छोटी सी दिखने वाली आई.सी. में अरबों की संख्या में मौजूद होते हैं। भले ही इस प्रौद्योगिकी की शुरुआत एक छोटे ट्रांजिस्टर बनाने के साथ हुई हो और ऊपर से देखने में यह कितनी भी आसान एवं अच्छी दिखती हो गहराई में उतरने पर ज्ञात होगा कि इन उपकरणों को बनाने में वैज्ञानिकों को कितनी मुसीबतों का सामना करना पड़ता है। 14 नैनो मीटर आकार के ट्रांजिस्टर को इंसानी हाथों से नहीं बनाया जा सकता। इसके लिए अत्याधुनिक मशीनों का प्रयोग किया जाता है। जिन कमरों में इन आई.सी. का निर्माण होता है उन्हें क्लीन रूम कहा जाता है। इन क्लीन रूमों में धूल या किसी भी बाहरी कण को 10 पार्ट पर मिलियन यानी दस लाख में मात्र 10 कण रखा जाता है। यह करना बेहद मुश्किल और मंहगा है। आप को यह जान कर भी आश्चर्य होगा कि भारत में इस प्रकार की कोई भी लैब मौजूद नहीं है। यदि इन लैबों को इतना साफ  नहीं रखा जाएगा तो संभव है कि धूल या किसी अन्य पदार्थ के कण आई.सी. में मौजूद किसी ट्रांजिस्टर की जगह ले लें और आपका उपकरण सही कार्य न करे। यह खोज और इस प्रकार की बेहद संवेदनशील प्रौद्योगिकी का निर्माण वैज्ञानिकों एवं अभियंताओं द्वारा एक साहसपूर्ण कार्य था।

                दोस्तों,आप के जीवन में भी विज्ञान को समझने और ऐसी खोजों को कर सकने का भरपूर मौका मिलेगा, ऐसे समय में आप की जिज्ञासा आपको एक नई खोज को जन्म देने के लिए प्रेरित करेगी बस आप उस पथ पर अडिग बढ़ते जाएं।

स्रोतः सं. सुभाष चंद्र, देस हरियाणा (जुलाई-अगस्त 2016), पेज – 70

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