हलचल
डा. ओमप्रकाश ग्रेवाल अध्ययन संस्थान, कुरुक्षेत्र द्वारा 26 जून 2016 को डा. ओमप्रकाश ग्रेवाल स्मृति व्याख्यान-7 का आयोजन किया। विषय था ‘भारतीय लोकतंत्र: दशा और दिशा’। इसकी अध्यक्षता प्रो. टी. आर. कुण्डू ने की। इस अवसर पर मुख्य वक्ता के तौर पर प्रख्यात विचारक सुभाष गाताड़े ने जो वक्तव्य उसके अंश यहां प्रस्तुत हैं। सं.
मुझे लगता है कि हर समय का अपना मिज़ाज़ होता है। सौ साल पहले उपनिवेशवाद के खिलाफ संघर्ष चल रहे थे, राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलनों ने तत्कालीन समाजी मिज़ाज को परिभाषित करने की कोशिश की थी, अक्तूबर क्रांति और फासीवाद विरोधी आंदोलनों ने एक इंकलाबी जोश को भरने की कोशिश की थी। आज 21 वीं सदी की दूसरी दहाई में अपने समय के मिज़ाज को हम क्या कह सकते हैं ? क्या यह कहना गैरवाजिब होगा कि समय का मिज़ाज लोकतंत्र अर्थात जम्हूरियत की अवधारणा के इर्द-गिर्द परिभाषित होता है।
आखिर जनतंत्र को कैसे समझा जा सकता है ?
‘जनतंत्र मुख्यत: राज्य एवं अन्य सत्ता संरचनाओं के गठन की एक प्रणाली होता है।’ औपचारिक तौर पर वह एक ऐसी व्यवस्था होती है, जहां हर ‘पात्र सदस्य’ कानून बनाने से लेकर निर्णय लेने तक में बराबरी से हिस्सा लेता है। और जाहिर है कि किसी मसले पर सहमति न बने तो ऐसे फैसले को अल्पमत बहुमत की बुनियाद पर लिया जाता है। इन दिनों जनतंत्र की समझदारी इतनी व्यापक हो चली है कि बेहद आत्मीय दायरों से – मसलन परिवार से – प्रगट सार्वजनिक दायरों तक वह पसर चुकी है।
सवाल उठता है कि इस अवधारणा को लेकर हम क्यों गुफ्तगू कर रहे हैं ? दरअसल जनतंत्र के लिए समर्पित लोग या उसके प्रति सरोकार रखनेवाले लोग इस अवधारणा की आदर्शीकृत छवि और जमीनी धरातल पर उजागर होते उसके विपर्यय से चिंतित हैं और इस मसले पर तबादले खयालात करने के लिए व्याकुल हैं। दरअसल वह जनतंत्र की अवधारणा के बढ़ते ‘खोखले होते जाने’ से परेशान हैं और यह सोचने के लिए मजबूर है कि आखिर ऐसा क्यों हो रहा है ?
लोग सोच रहे हैं कि आखिर जनतंत्र हर ओर दक्षिणपंथी हवाओं के लिए रास्ता सुगम कैसे कर रहा है, अगर वह युनाईटेड किंगडम इंडिपेण्डस पार्टी के नाम से ब्रिटेन में मौजूद है तो मरीन ला पेन के तौर पर फ्रांस में अस्तित्व में है तो नोर्बर्ट होफेर और फ्रीडम पार्टी के नाम से आस्ट्रिया में सक्रिय है तो अमेरिका में उसे डोनाल्ड टं्रप के नाम से पहचाना जा रहा है। वैसे इन दिनों सबसे अधिक सुर्खियों में ब्रिटेन है, जिसने पश्चिमी जनतंत्र के संकट को उजागर किया है। ब्रिटेन को यूरोपीयन यूनियन का हिस्सा बने रहना चाहिए या नहीं इसे लेकर जो जनमत संग्रह हुआ, जिसमें सभी यही कयास लगा रहे थे कि ब्रिटेन को ‘अलग हो जाना चाहिए’ ऐसा मानने वालों को शिकस्त मिलेगी, मगर उसमें उलटफेर दिखाई दिया है; वही लोग जीत गए हैं। और इस बात को नहीं भुलाया जा सकता कि जो कुछ हो हुआ है उसमें प्रक्रिया के तौर पर गैर जनतांत्रिक कुछ भी नहीं है। दक्षिणपंथ के झण्डाबरदारों ने ऐसे चुनावों में लोगों को अपने पक्ष में वोट डालने के लिए प्रेरित किया है, जो पारदर्शी थे, जिनके संचालन पर कोई सवाल नहीं उठे हैं।
लोगों की चतुर्दिक निगाहें यह देख रही हैं कि अमेरीकी सेनायें जब इराक पर आक्रमण करती हैं तो वह भी ‘जनतंत्र बहाली’ के लिए होता है और जब कोई डोनाल्ड ट्रंप मुसलमानों के खिलाफ स्त्रियों के खिलाफ / आप्रवासियों के खिलाफ जहर उगलते हुए दुनिया के सबसे बड़े चौधरी मुल्क के राष्ट्रपति पद के लिए अपना दावा ठोंकते हैं तो वह भी जनतांत्रिक प्रक्रिया को आगे बढ़ाने के लिए ही होता है या किसी ब्राजिल नामक मुल्क में जब चुनी हुई राष्ट्रपति को -जिनके खिलाफ व्यक्तिगत भ्रष्टाचार के आरोप तक नहीं लगे हैं – वैश्विक पूंजी, स्थानीय अभिजातों की सहायता से अपदस्थ करती है, जिसे संवैधानिक तख्ता पलट भी कहा गया है, और उनके स्थान पर भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे लोगों को हुकूमत की बागडोर सौंपती है तो वह भी जनतंत्र के नाम पर ही किया जाता है या किसी फिलिपिन्स में राष्ट्रपति पद पर एक ऐसा शख्स – जनतांत्रिक प्रक्रियाओं के तहत – चुना जाता है, जिसे यह ‘शोहरत’ हासिल है कि मेयर के तौर पर उसके यहां सैकड़ों लोगों को अपराध नियंत्रण के नाम पर पुलिस ने फर्जी मुठभेड़ों में मार डाला और जो प्रगट तौर पर नारी विरोधी है। आप कह सकते हैं कि इन दिनों लोकतंत्र में ऐसे हिटलरकुमारों का गद्दीनशीन होना आम हो रहा है जिन पर यह आरोप लगते रहते हैं कि उन्होंने ‘विशिष्ट’ जन के संहार में भाग लिया था।
आखिर जनतंत्र के इस रूपांतरण को – जो कुल मिला कर जन के खिलाफ ही पड़ता है – कैसे समझा जा सकता है ?
गौरतलब है कि लोकतंत्र की भावी दशा एवं दिशा को लेकर खतरे के संकेत उसी वक्त प्रगट किए गए थे जब देश ने अपने आप को एक संविधान सौंपा था। संविधान सभा की आखरी बैठक में डा. आम्बेडकर की भाषण की चन्द पंक्तियां याद आ रही हैं, जिसमें उन्होंने साफ कहा था:
”हम लोग अन्तर्विरोधों की एक नयी दुनिया में प्रवेश कर रहे हैं। राजनीति में हम समान होंगे और सामाजिक-आर्थिक जीवन में हम लोग असमानता का सामना करेंगे। राजनीति में हम एक व्यक्ति – एक वोट और एक व्यक्ति- एक मूल्य के सिद्धान्त को स्वीकार करेंगे। लेकिन हमारे सामाजिक-राजनीतिक जीवन में, हमारे मौजूदा सामाजिक-आर्थिक ढांचे के चलते हम लोग एक लोग-एक मूल्य के सिद्धान्त को हमेशा खारिज करेंगे। कितने दिनों तक हम अन्तर्विरोधों का यह जीवन जी सकते हैं ? कितने दिनों तक हम सामाजिक और आर्थिक जीवन में बराबरी से इन्कार करते रहेंगे ।’’
जनतंत्र के मौजूदा स्वरूप को लेकर बेचैनी के स्वर आज की तारीख में ऐसे लोगों से भी सुनने को मिल रहे हैं जो संवैधानिक पदों पर विराजमान हैं, ऐसे लोग जिन्होंने अपने ज़मीर की बात को कहने का बार बार जोखिम उठाया है।
पिछले साल ‘राममनोहर लोहिया स्मृति व्याख्यान’ में उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी के इन शब्दों को पढ़ते हुए यह बात अवश्य लग सकती है, जब उन्होंने कहा था:
‘एक जनतांत्रिक समाज में, मतभिन्नता का स्वीकार एक तरह से बहुवचनी होने का आवश्यक अंग समझा जाता है। इस सन्दर्भ में, असहमति का अधिकार एक तरह से असहमति का कर्तव्य बन जाता है क्योंकि असहमति को दबाने की रणनीति जनतांत्रिक अन्तर्वस्तु को कमजोर करती है।.. एक व्यापक अर्थों में देखें तो असहमति की आवाज़ों की अभिव्यक्ति उन गंभीर गलतियों से बचा सकती है या बचाती रही है – जिनकी जड़ों को हम सामूहिक ध्रुवीकरण में देख सकते हैं – यह अकारण नहीं कि भारत की आला अदालत ने असहमति के अधिकार को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार – जिसे संविधान की बुनियादी अधिकार की धारा 19/1/ के तहत गारंटी प्रदान की गयी है – के एक पहलू के तौर पर स्वीकार किया है। …आज की वैश्वीकृत होती दुनिया में और ऐसे तमाम मुल्कों में जहां जनतांत्रिक ताना-बाना बना हुआ है, असहमति को स्वर देने में नागरिक समाज की भूमिका पर बार-बार चर्चा होती है और साथ ही साथ उसके दमन या उसे हाशिये पर डालने को लेकर बात होती है।’’
उन्होंने यह भी कहा कि
”असहमति और विरोध के लिए और कोई भी बात उतनी जानलेवा नहीं दिखती जितना यह विचार कि सभी को बाहरी एजेण्डा तक न्यूनीकृत किया जा सकता है ..यह विचार कि जो मेरे नज़रिये से इत्तेफाक नहीं रखता वह किसी दूसरे के विघटनकारी एजेण्डा का वाहक है, अपने आप में घोर गैरजनतांत्रिक विचार है। वह नागरिकों के प्रति समान सम्मान से इन्कार करता है क्योंकि वह उनके विचारों के प्रति गंभीर होने की जिम्मेदारी से आप को मुक्त कर देता है। एक बार जब हम असहमति के स्रोत को विवादित बना देते हैं फिर उनके दावों की अन्तर्वस्तु पर गौर करने की आवश्यकता नहीं रहती ..इसका असहमति पर गहरा प्रभाव पड़ता है।’’
हम अख़बार की कतरनों पर निगाह डालें और खुद समझें कि जनतंत्र की क्या शक्ल बन रही है। अख़बारों की कतरनें आखिर क्या बताती हैं ? दरअसल आज हम इस सम्भावना से रू-ब-रू हैं कि जनतंत्र के रास्ते किस तरह बहुसंख्यकवाद का शासन कायम हो सकता है। दो साल पहले सम्पन्न चुनाव इस बात की एक झलक दिखलाते हैं कि ‘हम’ और ‘वे’ की यह गोलबन्दी किस मुक़ाम तक पहुंच सकती हैै। निचोड़ के रूप में कहें कि अगर आप के विश्व दृष्टिकोण में ‘अन्य’ कहे गये समुदायों, समूहों के लिए कोई जगह नहीं भी हो, आप उन्हें सारत: दोयम दर्जे के नागरिक बनाना चाहते हों, तो भी कोई बात नहीं, आप ‘हम’ कहे जा सकने वाले समुदाय को गोलबन्द करके सिंहासन पर बिल्कुल जनतांत्रिक रास्ते से आरूढ हो सकते हैं।
आज से ठीक 66 साल पहले देश को संविधान सौंपते वक्त जिस किस्म के भारत के निर्माण का तसव्वुर किया गया था, जिसकी कल्पना की गयी थी, उससे बिल्कुल अलहदा पसमंजऱ फिलवक्त़ हमारे सामने है।
आप सभी जानते ही हैं कि यह एक ऐसी संसद है जहां सबसे बड़े अल्पसंख्यक समुदाय का सबसे कम प्रतिनिधित्व दिखता है। और पहली दफा एक ऐसी पार्टी हुकूमत में आयी है, जिसके 272 सांसदों में से महज दो सदस्य अल्पसंख्यक समुदायों से हैं, और जोर देने वाली बात यह है कि देश के सबसेे बड़े अल्पसंख्यक समुदाय का एक भी सदस्य उसमें नहीं है।
निश्चित ही यह महज खास समुदाय विशेषों की उपस्थिति या कम उपस्थिति या अनुपस्थिति से जुड़ा मामला नहीं है। यह विभिन्न रूपों में प्रतिबिम्बित हो रहा है।
पहले आप सत्य को उद्घाटित करने के लिए लिखते थे, आप तथ्यों को जुटाते थे और सत्यान्वेषण करते थे, इस बात की फिक्र किए बिना कि इसकी वजह से किस संगठन, किस समुदाय की ‘भावनाएं आहत होंगी।’ और अब ‘आहत भावनाओं का खेल’ इस मुकाम पर पहुंच गया है कि कई चर्चित किताबें लुगदी बनाने के लिए भेज दी गयी हैं और कई अन्य को लेकर उसी किस्म का खतरा मंडरा रहा है।
अध्ययन के मुताबिक साल के शुरूआती तीन महिनों में ही 19 लोगों पर राजद्रोह के 11 मामले दर्ज किए गए जबकि विगत दो वर्षों में इसी कालखंड में ऐसा एक भी केस दर्ज नहीं हुआ था। डिफेमेशन अर्थात बदनामी के नाम पर भी दर्ज मामलों में छलांग दर्ज की गयी जहां इन तीन महिनों में 27 केस दर्ज हुए तो विगत साल महज 2 केस दर्ज हुए थे। 2016 में सेन्सरशिप की घटनाओं में भी उछाल देखा गया जबकि वर्ष 2015 के पहली तिमाही में महज दो केस हुए थे जबकि 2016 की प्रथम तिमाही में 17 मामले दर्ज किए गए।
अगर हम बेहद ठंडे दिमाग से देखने की कोशिश करें तो आप यह भी महसूस कर सकते हैं कि जनतंत्र के लिए जिस चैलेंज की हम बात कर रहे हैं, वह एक तरह से आपातकाल द्वारा उपस्थित चुनौती से भी कई गुना बड़ा है। आपातकाल, जब मोहतरमा इंदिरा गांधी ने जनान्दोलनों से आतंकित होकर ‘आन्तरिक सुरक्षा का हवाला देते हुए’ नागरिक आज़ादियों को, जनतांत्रिक अधिकारों को सीमित किया था, हजारों लोगों को जेल में ठंूसा था, तब कम-से-कम यह दिख रहा था कि किस किस्म के अधिनायकवादी कदमों से हम रू-ब-रू हैं, मगर आज ऐसे कोई प्रत्यक्ष अधिनायकवादी कदम नहीं हैं, मगर जनतंत्र के आवरण में बहुसंख्यकवाद की यह ऐसी दस्तक है जिसे लोकप्रिय समर्थन हासिल है।
विडम्बना यही है कि जनतंत्र के सम्मुख खड़ी बहुसंख्यकवाद की चुनौती महज भारत तक सीमित नहीं है। यूं तो दक्षिणपंथ का उभार वैश्विक है, मगर दक्षिण एशिया के इस हिस्से में बहुसंख्यकवाद का बोलबाला बढ़ रहा है।
यह एक किस्म का विचित्र संयोग कहा जा सकता है कि जहां हम भारत की सरजमीं पर साम्प्रदायिक ताकतों की बढ़त के बारे में लोकतंत्र के बहुसंख्यकवाद में रूपांतरण पर गौर कर रहे हैं, दक्षिण एशिया के इस हिस्से में स्थितियों कमोबेश एक जैसी दिखती हैं जब बहुसंख्यकवादी ताकतें – जो किसी खास धर्म या नस्ल से जुड़ी हुई – उभार पर दिखती हैं। म्यांमार/बर्मा, बंगलादेश, श्रीलंका, मालदीव, पाकिस्तान, आप किसी मुल्क का नाम लें और देखें कि किस तरह जनतांत्रिक ताकतें धीरे-धीरे हाशिये पर की जा रही हैं और बहुसंख्यकवाद की आवाज सर उठा कर बोल रही है।
बहुत कम लोगों ने कभी इस बात की कल्पना की होगी कि अपने आप को बौद्ध – जिसे अहिंसा का पुजारी समझा जाता है – का अनुयायी बतानेवाले लोग अपने मुल्क में अल्पसंख्यकों की तबाही एवं उनके कत्लेआम को अंजाम देने में मुब्तिला मिलेंगे। म्यांमार की घटनाएं इसी कड़वी हकीकत की ताईद करती हैं, जिसे हम रोहिंग्या मुसलमानों की त्रासदी के रूप में भी देख रहे हैं।
मेरी समझ से तीन ऐसी बड़ी चुनौतियां जनतंत्र के रास्ते में खड़ी है जिन्हें ‘वैश्विक पूंजी, सदा झुकने के लिए तैयार राष्ट राज्य और अधिनायकवादी समुदाय’ के तौर पर चिन्हित किया जा सकता है। अगर हम इन चुनौतियों को ठीक से समझें तो एक नयी जमीन तोड़ने की जरूरत समझ में आती है। यह अलग बात है कि जनतंत्र की दिक्कतों को दूर करने के लिए ऐसे-ऐसे विकल्प भी हमारे सामने पेश होते हैं कि कई लोग दिग्भ्रमित होते दिखते हैं।
पिछले दिनों एक विचार चक्र के दौरान युवाओं के एक समूह के साथ बात करने का मौका मिला था, मैंने वहां मौजूद सहभागियों से यही जानना चाहा कि उनके हिसाब से जनतंत्र के सामने किन-किन किस्म की चुनौतियों से हम आज रू-ब-रू हैं ? आम तौर पर जैसा होता है पहले किसी ने जुबां नहीं खोली, मगर थोड़ी ही देर बाद अधिकतर लोगों ने अपनी बात रखी।
एक बेहद छोटे मगर मुखर अल्पमत का कहना था कि भारत जैसे पिछड़े मुल्क में, जो इतने जाति, समुदायों, सम्प्रदायों में बंटा है, वहां जनतंत्र कभी पनप नहीं सकता। उनके लिए इसे ठीक करने का एक ही नुस्खा था कि मुल्क की बागडोर – कम-से-कम दस साल के लिए – एक डिक्टेटर के हाथों में सौंप दो, सब कुछ ठीक हो जाएगा। मैने पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान – जो हमारे साथ ही आजाद हुआ था – से लेकर अन्य कई मुल्कों का जिक्र किया, जिन्हें भारत की तरह तीसरी दुनिया के देशों में ही शुमार किया जा सकता है, जो लगभग उसी दौरान आजाद हुए, मगर जहां लोकतंत्र कभी जड़ जमा नहीं सका, और उनके साथ भारत की तुलना करने को कहा !
मगर वह मानने को तैयार नहीं थे। वह इसी बात की रट लगा रहे थे कि एक ‘अदद डिक्टेटर’ क्यों समस्याओं को ठीक कर सकता है।
वैसे जानकार बता सकते हैं कि एक डिक्टेटर की यह ख्वाहिश समूचे भारतीय समाज के प्रबुद्ध हिस्से में विचित्र ढंग से फैली दिखती है, जिसका एक पैमाना हम हिटलर – जो अपनी कर्मभूमि में आज भी एक तरह से ‘बहिष्कृत’ है – की आत्मकथा ‘माइन काम्फ अर्थात मेरा संघर्ष’ की भारत के बुक स्टॉलों या पटरी पर लगी दुकानों के बीच ‘लोकप्रियता’ से देख सकते हैं।
एक स्वीडिश राजदूत ने भारत यात्रा के बारे में अपने अनुभवों को साझा करते हुए कहीं लिखा था कि ‘उसे यह देख कर हैरानी होती है कि भारत में किताबों की प्रतिष्ठित दुकानों में भी हिटलर की आत्मकथा देखने को मिलती है, और पुस्तक विक्रेताओं के हिसाब से उनके खरीदार कम नहीं हो रहे हैं। एक तानाशाह के लिए मुन्तजिऱ कहे जा सकने वाले लोगों में से एक तबका उन अभिजातों का दिखता है, जिन्हें यह बात सख्त नापसन्द है कि गरीब गुरबा या दमित-उत्पीडि़त तबके के लोग भी इन दिनों सियासत में दखल बना रहे हैं।
बातचीत का सिलसिला आगे बढ़ा फिर वे जो ‘अदद डिक्टेटर’ के हिमायती थे, उन्हें छोड़ कर कइयों ने ‘संस्थागत जनतंत्र’ बनाम ‘ प्रत्यक्ष जनतंत्र’ की बात छेड़ी। उनका कहना था कि संसदीय व्यवस्था के रूप में हमारे यहां जो संस्थागत जनतंत्र हमारे यहां साठ साल से आकार लिया है, वही समस्याओं की जड़ में है; जिसमें सहभागी को पांच साल में या नियत समय में एक बार वोट डालने का और अपने शासक चुनने का अधिकार मिलता है, राज्य के रोजमर्रा के संचालन में, नीति-निर्धारण में उसकी अप्रत्यक्ष भागीदारी ही बन पाती है।
उनका कहना था कि राज्यसत्ता के संचालन में लोगों की इस औपचारिक सी भागीदारी को समाप्त कर उसे अगर ठोस शक्ल देनी हो तो ‘प्रत्यक्ष जनतंत्र’ बेहतर तरीका हो सकता है। इसके अन्तर्गत हर मोहल्ला अपना खुद का घोषणा-पत्र तय करेगा, शासन एवं विकास के हर पहलू पर पूरा नियंत्रण कायम करेगा, जहां लोग अपने ‘भले’ के हिसाब से निर्णय लेंगे, और समुदाय के जीवन में बसे सांस्कृतिक मूल्यों एवं नैतिक मानदण्डों की हिमायत करेगा और उन्हें व्यवहार में लाएगा।
मैंने उनसे यह समझाने की कोशिश की सम्पत्ति, सत्ता एवं जाति, धर्म, नस्ल आदि के आधार पर बंटे एक विशाल समाज में, जहां अभी भी व्यक्ति के अधिकार की अहमियत पूरी तरह से स्थापित नहीं हो सकी है, जहां वह अगर अपने हिसाब से रहना चाहे, प्यार करना चाहे या जिन्दगी बसर करना चाहे तो उसे तमाम वर्जनाओं से गुजरना पड़ता है, जहां अपनी सन्तानें अगर अपनी मर्जी से शादी करना चाहें तो पंचायतों के फैसलों के नाम पर उनके मां बाप उन्हें खुद खतम करते हों, या जहां ‘हम’ और ‘वे’ की भावना इतने स्तरों पर, इतनी दरारों पर उजागर होती हो और जहां उत्पीडि़त समुदायों को प्रताडित करने के लिए पुलिस बल पर आतंक मचाने या दंगा कराने की बात बहुत अजूबा न मालूम पड़ती हो, वहां पर उनका नुस्खा कैसे काम करेगा ?
मेरी समझ से यह एक सख्त/स्ट्रांग जनतंत्र की अवधारणा थी जिसमें ‘राज्यसत्ता का विकेन्द्रीकरण किया गया हो और बेहद सक्रिय नागरिक स्थानीय स्वशासन संस्थाओं के माध्यम से उसका संचालन करते हों।’
कइयों ने उन तमाम बातों का जिक्र उन्होंने किया, जो उनके दैनंदिन जीवनानुभव पर आधारित थी। यह तमाम ऐसी परिघटनाएं, बातें थी जिनसे उनका रोज का साबिका पड़ता है या मीडिया के माध्यम से आए दिन उनके इर्दगिर्द बहस मुबाहिसा होता रहता है। उनके मुताबिक अगर जनतंत्र इन समस्याओं का समाधान कर सके तो वह सुचारू रूप से चल सकता है।
समस्याओं को लेकर उनके बहुमत का यही मानना था कि अगर प्रणालियां ठीक से चलने लगें, कानून ठीक से काम करे तो इन चुनौतियों से निजात पायी जा सकती है। लुब्बोलुआब यही था कि जनतंत्र की प्रणाली – फिर चाहे न्यायपालिका हो, कार्यपालिका हो, विधायिका हो – ठीक से काम करने लगें तो सब कुछ बेहतर हो जाएगा। कहीं भी इस बात की ओर संकेत नहीं था कि एक पिछड़े समाज में जनतंत्र के आरोपण में और एक विकसित समाज में जनतंत्र के आगमन में क्या कोई अन्तर हो सकता है या नहीं। और क्या ऐसी प्रणालियां सामाजिक बनावट की छाप से स्वतंत्र रह सकती हैं ? शायद प्रत्यक्ष जनतंत्र का सम्मोहन ‘आप’ की फौरी सफलता में भी दिखता है।
गौरतलब है कि संसद-विधानसभा की जनतंत्र की प्रातिनिधिक प्रणाली के बरअक्स एक सघन सहभागितापूर्ण ग्रासरूट जनतंत्र का विचार कइयों को आकर्षित करता रहा है। चाहे ग्राम स्वराज्य के नाम पर हो या ‘मोहल्ला कमेटियां’ हो उनके जरिए राज्य के विकेन्द्रीकरण की बात – जो एक तरह से मजबूत अर्थात स्ट्रॉग डेमोक्रेसी में परिणत होती है – के तहत सक्रिय नागरिक स्थानीय स्वशासन के माध्यम से सत्ता संचालन करेंगे, यह बात कही जाती है। विडम्बना यही है कि सहभागितापूर्ण जनतंत्र बनाने के इस ‘आकर्षक’ दिखनेवाले विचार पर अधिक चर्चा यहां के प्रबुद्ध तबके में भी नहीं हो सकी है।
अगर हम जनतंत्र के समक्ष खड़ी चुनौतियों से जूझना चाहते हैं और औपचारिक जनतंत्र से वास्तविक जनतंत्र कायम करना चाहते हैं, व्यक्ति के अधिकार को सुनिश्चित करना चाहते हैं, तो उस दिशा में पहला कदम उन तमाम सम्मोहनों से मुक्ति का होगा, जिनको लेकर प्रगतिशील, जनपक्षीय ताकतों के अन्दर भी दिग्भ्रम मौजूद हैं।
इस मामले में एक जबरदस्त सम्मोहन भारत की पारम्पारिक संरचनाओं को लेकर है, जो व्यक्ति के अधिकार के निषेध पर टिकी हैं और समुदाय के अधिकार को वरीयता प्रदान करती हैं। अगर उत्तर भारत के कुछ इलाकों में खाप पंचायतों के रूप में वह उजागर होती हैं तो बाकी जगहों पर जातिगत पंचायतों के रूप में वह प्रगट होती हैं। ऐसे तमाम समुदायों को जनमानस में भी जो वैधता मिली है, उसे प्रश्नांकित करने की जरूरत है। भारत जैसे तीसरी दुनिया के देशों में जनतंत्र को मुकम्मल बनाने के लिए यह आंतरिक लड़ाई आवश्यक ही नहीं अनिवार्य है।
हम इस बात को नहीं भूल सकते कि भारत में जनतंत्र का जिस तरह आरोपण औपनिवेशिक कालखण्ड में हुआ, उसके चलते ऐसी तमाम संरचनाओं से रैडिकल विच्छेद मुमकिन नहीं हो सका। इसलिए भारतीय व्यक्ति भले ही ऊपरी तौर पर जनतंत्र की बात करे, व्यक्ति के अधिकार के सम्मान मगर अन्दरूनी तौर पर वह अपने अपने समुदायों की पहचानों के साथ ही अपने आप को नत्थी पाता है। यह अकारण नहीं कि यहां किसी वर्चस्वशाली जाति को आरक्षण प्रदान करने के लिए चलने वाले आन्दोलन अधिक जल्दी समर्थन जुटा पाते हैं, मगर जीवन यापन के साधनों की दिक्कतें या रोजगार की अनुपलब्धता या सार्वजनिक सेवाओं में लगातार की जा रही कटौती जैसे बहुमत के मसलों पर चले आन्दोलनों के लिए समर्थन जुटा पाना टेढी खीर बनता है।
जनतंत्र को सुनिश्चित करने के लिए धर्मनिरपेक्षता एक आवश्यक मूल्य है। धर्मनिरपेक्षता का अर्थ ‘राज्य एव धर्म का अलगाव’ अर्थात धर्म की न केवल राज्य के संचालन में बल्कि समाज के संचालन से दूरी। लुब्बेलुआब यही कि आप की धार्मिक पहचान आप के अधिकारों के हनन या उन्हें वरीयता प्रदान करने का जरिया नहीं बन सकती, न ही वह आप के साथ किसी भेदभाव या विशेषाधिकार का सबब बनती है। आजादी के बाद से भारत में धर्मनिरपेक्षता को लेकर किसी न किसी स्तर पर संघर्ष जारी है, फिर चाहे वह नीतियां बनाने के रूप में हो या जमीनी स्तर पर साम्प्रदायिक ताकतों के – ऐसी ताकतों को जो धर्म की राजनीति में दखलंदाजी को वरीयता प्रदान करती हैं – खिलाफ संघर्ष चलाने के रूप में हो। यह भी स्पष्ट है कि उसकी तमाम सीमाएं रही हैं, जिसके चलते आज राजनीति के शीर्ष पर हम ऐसी ताकतों को पाते हैं जो भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाना चाहती हैं। मुझे लगता है कि हमें उन सीमाओं को समझने की, र��खांकित करने की जरूरत है ताकि हम ऐसी जनतंत्र का निषेध करनेवाली ताकतों पर हावी हो सकें।
मेरा मानना है कि इस देश की प्रगतिशील ताकतों ने धर्मनिरपेक्षता की समूची लड़ाई को राज्य तक केन्द्रित किया है, नीतियां बनाने पर जोर दिया मगर समाज के धर्मनिरपेक्षीकरण को लेकर वह गाफिल रहे। और वह समूचा दायरा चाहे हिन्दू साम्प्रदायिक या मुस्लिम साम्प्रदायिक या अन्य यथास्थितिवादी या प्रतिक्रियावादी समूहों की सक्रियताओं का अखाड़ा बना रहा, जिन्होंने रोज रोज की अपनी कार्रवाइयों से या वैकल्पिक संस्थाओं के निर्माण के जरिए – चाहे स्कूल हो या कालेज हों – शेष समाज के गैर-धर्मनिरपेक्षीकरण अर्थात डिसेक्युलरायजेशन के एजेण्डा पर अमल जारी रखा। क्या हम अपनी इस गलती से सीख नहीं सकते हैं ताकि इस दिशा में नयी जमीन तोड़ सकें।
चाहे पारम्पारिक समुदाय हों या पूंजी हो यह दोनों ही व्यक्तिगत अधिकारों के निषेध पर टिके हैं। पारम्पारिक समुदायों के जनतंत्र निषेध के खिलाफ हमारी लड़ाई जहां एक आन्तरिक लड़ाई कही जा सकती है, वहीं पूंजी के शासन के खिलाफ लड़ाई एक बाहरी लड़ाई कही जा सकती है।
यूं तो सहजबोध में यही बात हावी रहती है कि पूंजीवाद एवं जनतंत्र एक दूसरे के पूरक रहे हैं। यहां तक कि जनतंत्र की व्यापक स्वीकार्यता और अमल के दौर को पूंजीवाद के इतिहास के समकक्ष देखा जा सकता है।
लाजिम है कि अगर जनतंत्र को मुकम्मल बनाने के लिए पूंजी के शासन को चुनौती देना अनिवार्य है और साथ ही साथ यह जरूरी है कि हम वैकल्पिक समाज का तसव्वुर/कल्पना भी करते रहे। पूंजी के शासन को समाप्त कर जिस समतामूलक समाज की स्थापना करना चाहते हैं, उसके बारे में विचार विमर्श/तबादले खयालात जारी रखें। मेरी समझ से यह वैकल्पिक समाज एक समाजवादी समाज ही होगा। इसका स्वरूप कैसा होगा, वह समाजवाद के पुराने प्रयोगों से किस तरह अलग होगा, यह भी स्पष्ट करने की जरूरत निश्चित ही बनी रहेगी। अन्त में, मानवता के व्यापक हिस्से के भविष्य को अगर अधिकाधिक सुनिश्चित करते जाना है, मानवीय आजादी पर लगी तमाम बन्दिशों को समाप्त करते जाना है तथा मानवीय आजादी के दायरों का अधिकाधिक विस्तार करते जाना है तो इसके बिना कोई विकल्प नहीं है।
स्रोतः सं. सुभाष चंद्र, देस हरियाणा (जुलाई-अगस्त 2016), पेज – 65 से 68