कबीर का नजरिया

कबीरा खड़ा बजार में लिए लुकाठी हाथ
जो घर जालैआपना वो चलै हमारे साथ

                20 जून 2016 को कबीर जयंती के अवसर पर ‘देस हरियाणा’ पत्रिका की ओर से डा. ओमप्रकाश ग्रेवाल अध्ययन संस्थान,कुरुक्षेत्र में ‘कबीर का नजरिया’ विषय पर परिचर्चा आयोजित की।  परिचर्चा के लिए कबीर साहित्य व दर्शन के मर्मज्ञ विद्वान डा. सेवासिंह का ‘देस हरियाणा’ में प्रकाशित लेख ‘मैं कासी का जुलहा बूझहु मोर गियाना’ पढ़ा गया।

                ज्यों वंचितों-पीडि़तों-दलितों में चेतना का विस्तार हुआ, त्यों-त्यों कबीर चेतना का विस्तार होता गया। कबीर मध्यकाल के सर्वाधिक चेतन व क्रांतिकारी रचनाकार के तौर पर स्थापित होते गए। कबीर ने वर्चस्वी विचार के पाखंड की परतों को व्यावहारिक जीवन के अनुभवों से उड़ा दिया था। भारतीय समाज में वैज्ञानिक नजरिये, अंधविश्वास के शोषणकारी चरित्र, श्रम व श्रमिक की गरिमा को प्रतिष्ठित किया। दमनमूलक सत्ता के खिलाफ संघर्षोंं की विरासत का नाम कबीर है। अहंकार की पोटली बांधकर कोई कबीर-चेतना धारण नहीं कर सकता।

                इस परिचर्चा में ओमप्रकाश करुणेश, ओम सिंह अशफाक, डा. महावीर रंगा, डा. रवीन्द्र गासो, इंदर सिंगला, हरपाल शर्मा,सुनील कुमार थुआ, डा. जसबीर सिंह ‘भारत’, राजेश कासनिया, विरेन्द्र कुमार, इकबाल सिंह, पवन थुआ,  कुलदीप कुमार, दीपक राविश, ज्योति, टिंकु, नरेन्द्र आजाद, धर्मेन्द्र सैनी, विपुला ने भाग लिया।

एक त्वचा हाड़ मल मूत्र, एक रूधिर एक गुदा
एक बूंद तैं सब जग उपज्या, को बामण को सूदा।।

पाहन पूजै हरि मिलै तो मैं पूजूं पहाड
तातै यह चाक्की भली, पीस खाए संसार।।

पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ, पंडि़त भया न कोय
ढाई आखर प्रेम का पढ़ै सो पंडित होय।।

प्रस्तुति : डा. सुभाष चंद्र

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