लोकनाद’ का पैगाम : अनुभव व सबक – मोहन रमणीक

 

सांस्कृतिक हलचल

24 अप्रैल 2016 को रोहतक के डेंटल कॉलेज ऑडिटोरियम में अहमदाबाद की संस्था ‘लोकनाद’ से चारुल और विनय की गायक जोड़ी ने ‘सप्तरंग’ द्वारा आयोजित प्रोग्राम में उपस्थित लोगों के बीच गाए अपने गीतों से बहुत कुछ साबित कर दिया। वाद्य-यन्त्र के नाम पर बस एक डफ, हाथों से बजते घुंघरू, और गीतों में अभिव्यक्त भावना के मुताबिक गले से निकलते स्वर के उतार-चढ़ाव  इस से अधिक कुछ नहीं चाहिए लोगों तक संगीत के माध्यम से अपना सन्देश पहुंचाने के लिए। जो असर ये गीत छोड़ गए, वह आम तौर पर कम ही देखने को मिलता है। सब गीतों की विषय-वस्तु हमारे समाज की मौजूदा समस्याओं के इर्द-गिर्द या एक बेहतर समाज की परिकल्पना को अभिव्यक्त कर रही थी। ‘मनोरंजन’ का कोई सामान नहीं था, फिर भी शायद ही कोई था जो दो घण्टे चले प्रोग्राम से उठ कर गया, और गया भी तो लौटा न हो, क्योंकि जो उठा वह किसी मजबूरी या हाजत के चलते ही उठा। करीब 300 लोगों को बैठाने की सामथ्र्य वाला सभागार लगभग भरा हुआ ही रहा आखिऱ तक।

                 ‘लोकनाद’ के हर गीत के साथ  एक संदेश था, लेकिन नैतिकता का पाठ नहीं था, बल्कि दिल को छूने और मस्तिष्क को सोचने पर मजबूर करने वाला,तर्क और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के आधार पर पहुंचता सन्देश था।

                 हरियाणा में दो ही महीने पहले हुई हिंसा का शिकार हुए लोगों की याद में दो मिनट के मौन के बाद बात शुरू हुई बच्चों से और स्वतंत्र भारत के पहले सपने से जिस के तहत किसी को भूखा नहीं रहना था, जबकि आज भी हर दिन 4000 से अधिक बच्चे भूख से मरते हैं। पहले गीत के मर्मस्पर्शी शब्द थे

बच्ची है नन्ही सी, सुन्दर है परियों सी
जिस दिन से भूखी है, वो 14 नवम्बर थी

                यह गीत गाया गया तो हवा में लहराती बस आवाज थी, डफ और घुंघरू भी नहीं थे। मानो उन का बजना भी उस हिंसा की याद दिलाएगा जिसे हिंसा माना ही नहीं जाता।  16 हजार किसानों द्वारा आत्महत्या और मिलों-कारखानों, शीशा-पटाखा-कालीन उद्योगों, ईंट के भ_ों-पुलों-सड़कों पर काम करते 2 करोड़ बच्चों की अवस्था को हिंसा के खाते में नहीं जोड़ा जाता। अहमदाबाद के रेल्वे स्टेशन पर रात को सोते, एक प्लेट्फ़ॉर्म से दूसरे तक डंडों से खदेड़े जाने वाले बच्चों के साथ होने वाला व्यवहार भी इस खाते में नहीं आता और न ही यह सच्चाई कि रात को एक बजे के बाद वहां पहुंचने वाली राजधानी एक्सप्रेस का रईसों द्वारा छोड़ा गया खाना उन के लिए भरपेट भोजन की ‘पार्टी’ है। जहां रात को सोए, सुबह वहीं पर उठना और पूरी थाली भर कर स्वच्छ भोजन खा पाना उन के लिए दुर्लभ है। धरातल पर सामाजिक-विज्ञान के इस सबक से उपजता है लापता बचपन का गीत जिस में बच्चा कहता है-

                चाय केतली अब न जाऊं
मैं न हाथ जलाऊं

                झाडू-पोछा-कपड़ा-बरतन
कभी न करने जाऊं

                छोटी-छोटी उंगलियों से
ना कारपेट बनाऊं

                कपड़े पर न रंग लगाऊं
न जूते चमकाऊं

                कल्पना कीजिए इस गीत की, हेक समेत तीव्र गति पंजाबी लोकसंगीत की टप्पा शैली के एक गीत के रूप में, और आप समझेंगे मनोरंजन और खेल-कूद के लिए लालायित उस बच्चे की भावना-‘ओएएएए …. रेती का वो ढेर भी दे दो अपना महल करूंगा/ टिप-टिप करते पानी में मैं छप-छप खूब करूंगा’

हाथों के मूल्य का महत्व तब और गहरा जाता है जब इस गीत के माध्यम से बताया जाता है कि :

                ‘इन्सां पैरों पे खड़े हुए
दो हाथ तभी आज़ाद हुए
इन दो हाथों की मेहनत से
धीरे-धीरे आबाद हुए’

                एकलव्य के अंगूठे की अहमियत तब स्पष्ट होती है जब एहसास होता है कि इन्सान और चिम्पैंज़ी के डी.एन.ए. में 98.5 प्रतिशत समानता है। हमारा अंगूठा है जो हमें चिम्पैंजी से अलग करता है। हम अंगूठे को प्रत्येक उंगली से छू सकते हैं, वह ऐसा नहीं कर सकता। हम मु_ी भी बना सकते हैं। हाथ से कुछ भी सृजन करना हो, लिखना, सिलाई, कढ़ाई, बुआई, घर के काम-तो अंगूठे के बिना यह सम्भव नहीं और चिम्पैंजी के चरण से इन्सान के चरण तक पहुंचने में हमें 9 लाख साल लगे, क्योंकि चिम्पैंजी के प्राचीनतम कंकाल 32 लाख साल पुराने हैं, और इन्सान द्वारा बनाए गए प्राचीनतम औजार 23 लाख साल पुराने। लिपि 8000 साल पुरानी है और अपनी विकास-यात्रा में मस्तिष्क और बुद्धिमता का इस्तेमाल करने वाले इस इन्सान ने दुनिया भर में 1,20,000 किस्म के चावल ईजाद किए हैं (भारत में 40,000 तरह के और छतीसगढ़ में 21,000 तरह के)। गीत बताता है कि इन हाथों तथा मस्तिष्क का मालिक, जिस की समृद्ध परम्परा में कबीर जुलाहा और रैदास मोची और बुल्लेशाह का गुरू अराईं किसान भी हैं, आज कहने को मजबूर है।

रहूं क्यूं भूखे पेट रे, कि मेरे लिए काम नहीं
मेरी न जिन्दगी चले कि मेरे लिए काम नहीं

                धीमे स्वर में शुरू हुआ गीत इन्सान के हाथों से होने वाले कामों का वर्णन करता, गति पकड़ता,शिखर छूते ऊंचे और फिर मद्धम ऊंचे स्वर तक पहुंचता, हौसले से समाप्त होता है-

लड़ेंगे तब तक रे कि जब तक काम नहीं

                अभी आप इस गीत की गायकी के जादू से निकले भी नहीं कि एक नया गीत आता है और उस से पहले, एक सारगर्भित टिप्पणी। एक ओर वे लोग जिनके हाथों को काम करने की इच्छा रखने पर भी काम मय्यसर नहीं और दूसरी ओर वे जिनके हाथों को आग को हवा देने के सिवा कुछ काम नहीं। यहाँ तक कि जिस आग का आविष्कार 14 लाख साल पहले किया गया भोजन पकाने के लिए, जिस दियासिलाई की ईजाद 1856 में स्वीडन में की गई अंधेरे को प्रकाश में बदलने के लिए, कब सोचा होगा उन आविष्कारकों ने कि इन्हीं साधनों को इस्तेमाल किया जाएगा इन्सानों द्वारा इन्सानों को जीवित जलाने के लिए-धर्म के नाम पर, क्योंकि 1985 के अहमदाबाद दंगों के दौरान लिखा गीत कहता है

                मंदिर मस्जिद गिरजाघर ने
बांट लिया भगवान को

और इसी के चलते

                शैतानों ने डेरे डाले
इन्सानों के भेस में

                लेकिन अगली बात प्यार की थी, क्योंकि इन्सान का इतिहास घृणा का ही नहीं मोहब्बत का भी रहा है। ऐसी मोहब्बत का, जिस ने संघर्ष करते हुए सब दीवारों को तोड़ा है। जाति-धर्म-समुदाय की बेडिय़ों को फोड़ा है। चारुल-विनय ने यह प्यार का गीत समर्पित किया उन युवाओं को जिन्होंने इन बन्धनों को कुछ न समझ कर एक-दूसरे का साथ देना तय किया। बिछड़े यार को मिलाने की इल्तिजा करता यह गीत दो इन्सानों की बात से और धर्मों, रिवाजों, मुल्कों से ऊपर उठ कर पूरी दुनिया में प्यार की बात पर आ कर समाप्त होता है।

                रब्बा यार मिला दे रे
मेरा बिछड़ा यार मिला दे रे
सब को प्यार सिखा दे रे
मेरा बिछड़ा यार मिला दे रे

                लोक के नाद का यह ‘लोकनाद’ सन्देश आशा की बात करते तीन और गीतों पर आ कर सिमटा। सूचना के अधिकार का गीत-

                मेरे सपनों को जानने का हक रे
क्यों सदियों से टूट रहे हैं

                इन्हें सजने का नाम नहीं

                 राजस्थान के एक छोटे से गांव देवडुंगरी से शुरू हुए सूचना का अधिकार अभियान का गीत था। उस अभियान का गीत जो अंत में सूचना का अधिकार कानून बनवाने तक पहुंचा। गीत का कमाल यह है कि जानने के हकों की एक लम्बी सूची ��ात्र प्रतीत होता यह गीत असल में वंचित आमजन की ही नहीं, इन्सान द्वारा पर्यावरण से किए गए खिलवाड़ की भी गाथा है। गीत इस आह्वान के साथ समाप्त होता है कि

                अब हक के बिना भी क्या जीना
ये जीने के समान नहीं।

                शांति का समय युद्ध के समय से बेहतर होता है’ 400 साल पहले अंग्रेज़ दार्शनिक फ्रांसिस बेकन की बात याद दिलाते हुए विनय कहते हैं कि यह बात इसलिए महत्वपूर्ण है कि शांति के दिनों में बच्चे मां-बाप को शमशान ले जाते हैं, युद्ध में मां-बाप बच्चों को। 40,000 साल पुरानी कब्रों में फूलों के अवशेष मिले हैं – यानी मृतकों की देह पर तब भी फूल चढ़ाए जाते थे। आज भी हम मुर्दों पर फूल चढ़ाते हैं, लेकिन जीवित लोगों के लिए बम-गोली-हथियार तैयार रखते हैं। इसीलिए गीत के माध्यम से यह कहना आवश्यक हो गया है कि

                ‘इन लकीरों ने हम को सताया बहुत
इन लकीरों ने हम को लड़ाया बहुत
इन लकीरों ने हम को जलाया बहुत
इन लेकीरों ने हम को रुलाया बहुत
आओ लकीरें मिटा दें’

                ‘लकीरें’ यानी दिलों को अलग करने वाली भावनाएं, इन्सानियत को बांटने वाली बातें।

                प्रोग्राम का अन्त सभागार में उपस्थित लोगों के हाथों में मोमबत्तियों की रौशनी के बीच गीत ‘इन्सान हैं हम’ से हुआ। मंगल ग्रह पर जा कर जीवन तलाशने की बजाए हम इसी धरती पर नवजीवन का संचार क्यों न करें? अपने मसलों के हल निकाल कर जीवन को संवारें। साढ़े चार करोड़ साल पुराने इस ब्रह्मांड में जीवन पनपा साढ़े तीन करोड़ साल पहले और बिना पूंछ का बंदर 50 लाख साल पहले और धर्म की बात करें तो ईसाइयत को 2016 साल हुए हैं, इस्लाम को 1400 साल से कुछ अधिक, सिख धर्म को 550 साल से कुछ अधिक और ऋग्वेदिक काल भी साढ़े तीन हज़ार साल ही पुराना है। यानी पूरे जीवन को एक साल मान लें तो धर्म के नाम का तो मुश्किल से आधे मिनट का समयकाल बनता है। फिर धर्म के नाम पर द्वेष और लड़ना-मरना क्यों?

                हिंदू या मुसलमान, सिख हैं,
ईसाई हैं या पारसी हैं हम
प्यार से, ऐतबार से,
आज से कहें इन्सान हैं हम
यहूदी हैं, बुद्ध हैं, जैन हैं,
आस्तिक या नास्तिक हैं हम
चार हों या हज़ार हों
मिल के कहें इन्सान हैं हम।

                विनय महाजन और चारुल भरवाड़ा पेशेवर गायक नहीं हैं। विनय आइ.आइ.एम., अहमदाबाद से स्नातकोत्तर, कृषि इंजीनियर हैं और चारुल आर्किटेक्ट हैं। 30 साल हो चले हैं उन्हें लोगों से मिलते, उनके संघर्षों और अभियानों से सीखते, लोगों के बीच ही शोध कार्य करते हुए उन्हीं के गीत स्वयं लिखते और गाते। अच्छी आवाज़ हो, लगन हो, तो मेहनत से संगीत में महारत हासिल की जा सकती है, फिर चाहे औपचारिक संगीत-प्रशिक्षण न भी मिला हो। न्यूनतम वाद्य-यन्त्रों के साथ दिल और मस्तिष्क, दोनों को छू जाने वाले, सरल भाषा के गीत इस ‘आधुनिक’ दौर में भी गहरा प्रभाव छोड़ सकते हैं। बिना भाषणबाज़ी के, वार्तालाप और बातचीत के माध्यम से लोगों तक असरदार तरीके से बात पहुंचाई जा सकती है।

स्रोतः सं. सुभाष चंद्र, देस हरियाणा (जुलाई-अगस्त 2016), पेज- 55 से 56

 

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