देश की स्वतंत्रता से पहले बहावलपुर रियासत के गांव कोरावाली (अब पाकिस्तान में) में एक हिंदू बिश्नोई भूमिपति और व्यापारी परिवार में 3 जून 1930 के दिन पैदा हुए चौधरी भजनलाल का राजनीतिक सफर 1962 में आदमपुर (हिसार) पंचायत समिति के अध्यक्ष के रूप में शुरू हुआ था। इस समय की पंजाब विधानसभा के स्पीकर हरबंस लाल की प्रेरणा से उन्होंने राज्य की राजनीति में कदम रखा। उनका यह सफर 1968 के मध्यावधि चुनाव में आदमपुर विधानसभा क्षेत्र से कांग्रेस टिकट मिलने से शुरू हुआ। उन्हें टिकट दिलवाने में उन्हीं की जाति के पूर्व विधायक मनीराम गोदारा की महत्वपूर्ण भूमिका रही थी, जिन्हें 1967 के चुनाव के बाद दल-बदल करने के कारण 1968 के मध्यावधि चुनाव में कांग्रेस का टिकट नहीं मिल सकता था।
विधायक बनने के बाद मुख्यमंत्री बंसीलाल ने बिश्नोई जाति को प्रतिनिधित्व देने के लिए भजनलाल को मंत्रिपरिषद में शामिल कर लिया और वह शीघ्र ही उनके विश्वासपात्र मंत्री बन गए। 1972 के विधानसभा चुनाव के बाद चौधरी बंसीलाल ने उन्हें दूसरी बार मंत्री बनाया। लेकिन 1975 तक मुख्यमंत्री उन्हें अपने लिए एक भावी चुनौती के रूप में देखने लगे और उन्हें मुख्यमंत्री के इशारे पर लगाए गए आरोप के कारण मंत्रिमंडल से त्यागपत्र देना पड़ा।
1975 से 1977 तक का आपातकाल का समय उन्होंने चुपचाप रह कर काट लिया, किंतु 1977 के लोकसभा चुनाव से पहले वह अनुसूचित जातियों के राष्ट्रीय नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री बाबू जगजीवनराम के द्वारा बनाए गए राजनीतिक दल कांग्रेस फॉर डेमोक्रेसी में शामिल हो गए। 1977 के लोकसभा चुनाव के बाद कांग्रेस फॉर डेमोक्रेसी का जनता पार्टी में विलय होने के बाद चौधरी भजनलाल भी इसके सदस्य बन गए और इसी के प्रत्याशी के रूप में वह 1977 में आदमपुर से विधायक चुने गए।
1977 के विधानसभा चुनाव के बाद चौधरी देवीलाल के द्वारा बनाए गए मंत्रिमण्डल में उन्हें दो बार मंत्री रहने के अनुभव होने के बावजूद स्थान नहीं मिला। इसी से नाराज होकर उन्होंने रुष्ट धड़े में सक्रिय भूमिका निभानी शुरू कर दी थी, लेकिन जनसंघ धड़े से मुख्यमंत्री का केंद्र में प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई और गृहमंत्री चौधरी चरण सिंह में टकराव होने के बाद चौधरी देवीलाल ने उन्हें अपने मंत्रिमण्डल में शामिल कर लिया। उसके बाद वह देवीलाल के विरूद्ध जनता पार्टी के विधायकों की लामबंदी का कार्य प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई, केंद्रीय मंत्री बाबू जगजीवन राम एवं समाजवादी धड़े के जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष चंद्रशेखर के संरक्षण से करते रहे और अंततः वह जनता पार्टी के विधायकों के बहुमत को भारत दर्षन के लिए ले गए ताकि मुख्यमंत्री चौधरी देवीलाल उनसे संपर्क न साध सकें। गौरतलब है कि यह गुर चौधरी भजनलाल ने आदमपुर पंचायत समिति का अध्यक्ष बनने के लिए सीखा था।
28 जून 1979 के दिन उन्होंने जनता पार्टी विधायक दल के नए नेता के रूप में मुख्यमंत्री पद की शपथ ली थी। गौरतलब है कि उनके चयन में केंद्र के जनता पार्टी के नेताओं द्वारा गठित एक तीन सदस्य कमेटी ने सहायता की। उस कमेटी में संगठन कांग्रेस के धड़े के लोकसभा सदस्य चौधरी इंद्र सिंह, जनसंघ धड़े के चौधरी मुख्तियार सिंह और कांग्रेस फॉर डेमोक्रेसी धड़े के कृष्णकांत शामिल थे। इन्हें चौधरी भजनलाल, चौधरी रिजक राम और लाला बलवंत राय तायल में से एक को चुनने का कार्य सौंपा गया था।
इस समिति ने चौधरी भजनलाल के पक्ष में निर्णय दिया क्योंकि जाट सदस्य इंद्र सिंह और मुख्तियार सिंह नहीं चाहते थे कि किसी जाट को चौधरी देवीलाल का उत्तराधिकारी चुना जाए क्योंकि इससे उनका अपना प्रभाव कम होता था। लाला बलवंत राय तायल के पक्ष में वह इसलिए नहीं थे क्योंकि उन्हें अड़ियल स्वभाव वाला माना जाता था। कमेटी में केवल कृष्णकांत ही उनके पक्षधर थे। गौरतलब है कि अनुसूचित जाति के सबसे कद्दावर नेता चौधरी चांदराम का समर्थन भी उनके साथ ही था क्योंकि वह चौधरी देवीलाल से नाराज हो गए थे। जनता पार्टी के विधायक दल का नेता चुने के बाद भजनलाल 28 जून 1979 के दिन पहली बार हरियाणा के मुख्यमंत्री बने थे।
मुख्यमंत्री बनने के बाद उन्हें पहली चुनौती जनता दल में विभाजन और चौधरी चरण सिंह के प्रधान मंत्री बनने के बाद मिली थी, लेकिन उन्होंने जनता पार्टी के विधायकों पर अपनी पकड़ बनाए रखी और लोकदल हरियाणा विधानसभा में बहुमत प्राप्त नहीं कर पाया। दूसरी चुनौती उन्हें चौधरी चांदराम से मिली, जिनका अनुसूचित जाति के जनता पार्टी विधायकों पर बहुत प्रभाव था। तीसरी चुनौती उन्हें 1980 के लोकसभा चुनाव में श्रीमती इंदिरा की कांग्रेस की विजय और जनता पार्टी की हार से मिली। उस समय उन्होंने अपने मंत्रिमण्डल और जनता पार्टी के विधायकों को कांग्रेस में शामिल करवा लिया। केवल जनसंघ के विधायक उनके साथ कांग्रेस (आई.) में नहीं गए।
इसके बाद उन्हें एक बड़ी चुनौती 1982 के विधानसभा चुनावों के बाद मिली। इन चुनावों में कांग्रेस (आई.) 90 में से केवल 36 स्थान ही जीत पाई थी और विधायकों का बहुमत लोकदल-भाजपा गठबंधन के नेता चौधरी देवीलाल के साथ था। इस बार सत्ता में बने रहने के लिए हरियाणा के राज्यपाल जी.डी. तपासे का साथ मिला, जिन्होंने इस तर्क पर चौधरी भजनलाल को दूसरी बार मुख्यमंत्री पद की शपथ दिला थी कि वह हरियाणा विधानसभा में सबसे बड़े राजनीतिक दल के नेता हैं। मुख्यमंत्री बनने के बाद उन्होंने 36 के आंकड़े को दल-बदल की कला का प्रयोग करते हुए 63 में बदल दिया था। किंतु पंजाब समझौते के विरूद्ध चौधरी देवीलाल के न्याय युद्ध पर काबू पाने में वह सफल नहीं हो पाए।
इस स्थिति में प्रधान मंत्री राजीव गांधी ने उनके बजाए केंद्रीय मंत्री चौधरी बंसीलाल को मुख्यमंत्री बना कर हरियाणा में भेज दिया और 5 जून 1985 के दिन भजनलाल को मुख्यमंत्री पद से त्यागपत्र देना पड़ा, पर वह केंद्रीय मंत्रिमण्डल में शामिल कर दिए गए। किंतु 23 जून 1991 के दिन चौधरी भजनलाल तीसरी बार हरियाणा का मुख्यमंत्री बनने में सफल हुए क्योंकि 1991 के हरियाणा विधानसभा चुनाव में चौधरी देवीलाल, लाला बनारसीदास, मास्टर हुकम सिंह और ओम प्रकाश चौटाला के सरकारों के कार्यकालों (20 जून 1987 से 10 मई 1991 तक) में ग्रीन ब्रिगेड (लोकदल-बहुगुणा, जनता दल-समाजवादी जनता पार्टी की युवा इकाई) की गतिविधियों और श्री ओम प्रकाश चौटाला की नेतृत्व शैली से राज्य की जनता के आक्रोश ने व्यापक रूप ले लिया था। वी.पी सिंह की राष्ट्रीय मोर्चा की सरकार और चंद्रशेखर की अल्पमतीय सरकार के कार्यकाल में चली राजनीतिक अस्थिरता ने भी हरियाणा में कांग्रेस की इस विजय में भूमिका निभाई थी।
हरियाणा में कांग्रेस की इस विजय के बाद चौधरी भजनलाल ने तीसरी बार 23 जून, 1991 के दिन मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। इस बार वह हरियाणा कांग्रेस विधायक दल के चुनाव में हरियाणा कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष और चौधरी छोटू राम के नाती चौधरी वीरेंद्र सिंह को हराने में सफल रहे थे। सुनने में आता है कि मुख्यमंत्री बनने के बाद उन्होंने प्रधानमंत्री पी. वी. नरसिम्हा राव को लोकसभा में बहुमत स्थापित करने में भी योगदान दिया था। चयन के इस तीसरे कार्यकाल में चौधरी भजनलाल के मंत्रिमण्डल की छवि अपेक्षाकृत बिगड़ गई थी। यद्यपि उन पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच करने कांग्रेस की कमेटी ने उन्हें दोषमुक्त कर दिया था, लेकिन उनकी सरकार की छवि निरंतर बिगड़ती गई। उनके पुत्रों-चंद्र मोहन और कुलदीप बिश्नोई पर भी यह आरोप लगने लगे कि वे सत्ता के अनौपचारिक केंद्र बन गए हैं। परिणाम यह हुआ कि 1996 के हरियाणा विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को बहुत कम सीटें मिलीं और राज्य में चौधरी बंसीलाल के नेतृत्व में हरियाणा विकास पार्टी और भाजपा की मिली-जुली सरकार बनी। इस सरकार के 4 जुलाई 1999 के दिन हट जाने के बाद भी कुछ समय तक तो चौधरी भजनलाल हाशिए पर बने रहे, किंतु 2005 के हरियाणा विधानसभा चुनाव में उनकी हरियाणा प्रदेश कांग्रेस कमेटी की अध्यक्षता के समय ही कांग्रेस को स्पष्ट बहुमत प्राप्त हुआ।
यू.पी.ए. की प्रधान और कांग्रेस की अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी ने उनकी पी. वी. नरसिम्हा राव के प्रति वफादारी से नाराज होकर उनके बजाए लोकसभा सदस्य भूपेंद्र सिंह हुड्डा को कांग्रेस विधायक दल का नेता और हरियाण का मुख्यमंत्री बनवा दिया। यद्यपि भजनलाल के बड़े बेटे को उपमुख्यमंत्री बनाया गया था और भजनलाल हरियाणा प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष बने रहे थे, किंतु उन्होंने 2009 के लोकसभा चुनाव से पहले हरियाणा जनहित कांग्रेस नामक क्षेत्रीय दल का गठन कर लिया था। 2009 के लोकसभा चुनाव में वह इसी दल के प्रत्याशी के रूप में लोकसभा के सदस्य चुने गए। किंतु 2009 के विधानसभा चुनाव में इस दल को विशेष सफलता नहीं मिल सकी और इसके अधिकतर विधायक कांग्रेस में शामिल हो गए। तीन जून 2011 के दिन हरियाणा की राजनीति के इस चाणक्य का स्वर्गवास हो गया।