हरियाणा के जननायक चौधरी देवीलाल – चौधरी रणबीर सिंह

सिरसा जिले के बड़े भूमिपति परिवार में ग्राम तेजाखेडा में 25 सितम्बर 1914 के दिन जन्मे चौधरी देवीलाल का हरियाणा की राजनीति में अद्वितीय स्थान रहा है। स्कूली शिक्षा के समय ही वह राष्ट्रीय आंदोलन में शामिल हो गए थे। इनके इस निर्णय का कारण जहां महात्मा गांधी के व्यक्तित्व के प्रभाव को माना जा सकता है, वहीं दूसरा कारण उनके परिवार के विरोधी श्योकरण सिंह के यूनियनिस्ट पार्टी के समर्थन को माना जा सकता है। गौरतलब है कि इस पार्टी के नेता किसानों के हितों की रक्षा के लिए अंग्रेजी सरकार का समर्थन करते थे। वह 1952 में सिरसा चुनाव क्षेत्र से कांग्रेस के टिकट पर पंजाब विधानसभा के सदस्य चुने गए थे। 1952 से 1957 तक के कार्यकाल में उन्होंने तीन महत्वपूर्ण भूमिकाएं निभाई। सर्वप्रथम तो पंजाब विधानसभा में भाषायी आधार पर अलग हरियाणा राज्य की मांग उठाई। दूसरे, उन्होंने पंजाब की तत्कालीन सरकार के शहरी पृष्ठभूमि के मुख्यमंत्री भीमसेन सच्चर को हटवा कर उनके स्थान पर ग्रामीण पृष्ठभूमि के नेता सरदार प्रताप सिंह कैरों को पंजाब का मुख्यमंत्री बनवाने में भी सफलता पाई। तीसरे, कैरों मंत्रिमण्डल में उन्होंने मुख्य संसदीय सचिव के रूप में कार्य किया।

1957 में विधानसभा चुनाव में कुछ आरोपों के कारण उन्हें कांग्रेस का टिकट नहीं मिला था, फिर भी उन्होंने कैरों के विरोधियों द्वारा चलाए गए हिन्दी सत्याग्रह (1957-59) का समर्थन करने के बजाए कैरों के साथ खड़े रहने का कार्य किया। 1959 में सिरसा विधानसभा के लिए उपचुनाव में उन्होंने कांग्रेस उम्मीदवार के रूप में बहुत बड़े अंतर से जीत हासिल की। इसके बाद वह कैरों के समर्थन से पंजाब प्रदेश कमेटी के अध्यक्ष चुने गए थे। लेकिन कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष यू एन. धेबर के विरोध के कारण उन्हें यह पद ज्ञानी गुरमुख सिंह मुसाफिर के लिए छोड़ना पड़ा और उपाध्यक्ष के पद से ही संतोष करना पड़ा था।
किंतु 1962 के पंजाब विधानसभा चुनाव से पहले ही उनके मुख्यमंत्री प्रताप सिंह कैरों से मतभेद हो गए थे। उन्हें यह डर था कि कहीं यह उनके उम्मीदवार को हरवाने के लिए तो नहीं किया जा रहा।

1962 के लोकसभा और विधानसभा चुनाव से पूर्व उन्होंने कांग्रेस से त्यागपत्र दे दिया और लोकसभा चुनाव लड़ने के लिए प्रोफेसर शेर सिंह के क्षेत्रीय दल, हरियाणा लोक समिति और संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के साथ मिल कर एक साझा मोर्चा बनाया, जिसने न केवल हिसार और सोनीपत-झज्जर लोकसभा चुनाव क्षेत्रों में कांग्रेस के प्रत्याशियों को हराया, बल्कि इन जिलों में कांग्रेस के कई बड़े नेताओं को भी विधानसभा चुनाव में पराजित करवाया।

चुनाव के बाद प्रोग्रेसिव इनडिपेंडेंट पार्टी के नेता के तौर पर उन्हें पंजाब विधानसभा में विपक्ष का नेता चुना गया था। इस भूमिका को वहन करते हुए उन्होंने दो महत्वपूर्ण कार्य किए। पहला यह कि मुख्यमंत्री प्रतापसिंह कैरों के विरूद्ध सत्ता के दुरूपयोग के आरोप की जांच के लिए दास आयोग की नियुक्ति में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका थी। इसी आयोग के द्वारा दोषी पाए जाने पर कैरों को त्यागपत्र देना पड़ा था। दूसरे, पंजाबी सूबे की मांग पर नए सिरे से विचार करने के लिए गठित सरदार हुकम सिंह की अध्यक्षता में 1965 में बनी पार्लियामेन्टरी कमेटी ऑन पंजाबी सूबा के समक्ष अलग हरियाणा राज्य के निर्माण के लिए जोरदार आवाज उठाई। इस कार्य के लिए बनी सर्वदलीय कमेटी की अध्यक्षता की भूमिका भी उन्हें सौंपी गई थी।

इस कमेटी ने मांग की कि पंजाब के हिंदी भाषी क्षेत्रों, देहली के केंद्र शासित क्षेत्र, उत्तर प्रदेश के मेरठ और आगरा मंडलों तथा राजस्थान के भरतपुर, अलवर और धौलपुर क्षेत्रों को मिला कर हरियाणा राज्य का गठन किया जाए। यदि यह संभव न हो तो पंजाब के हिंदी भाषी क्षेत्र को अलग करके हरियाणा का राज्य बना दिया जाए। इस दूसरे विकल्प को मान लिया गया। इसके बाद चौधरी देवीलाल फिर से कांग्रेस में शामिल हो गए।

हरियाणा के अलग राज्य बनने की पूर्व संध्या में हुए हरियाणा प्रदेश कांग्रेस से कमेटी के चुनाव में उन्होंने पंजाब प्रदेश कांग्रेस कमेटी के प्रधान पंडित भगवत दयाल शर्मा का विरोध किया, क्योंकि पंडित जी पंजाब के पुनर्गठन के खिलाफ थे। लेकिन इस चुनाव में उनकी जीत हुई और वह सर्वसम्मति से हरियाणा कांग्रेस विधायक दल के नेता चुने गए और राज्य के पहले मुख्यमंत्री बने।

1967 के हरियाणा विधानसभा चुनावों में पंडित जी ने चौधरी देवीलाल को कांग्रेस का टिकट नहीं मिलने दिया, पर उनके बदले प्रताप सिंह कैरों को यह अवसर प्रदान कर दिया। चुनाव के बाद पंडित भगवत दयाल शर्मा के विरूद्ध चौधरी देवीलाल के नेतृत्व में इसलिए विद्रोह हो गया क्योंकि उन्होंने परंपरागत नेताओं को मंत्रिमंडल में शामिल नहीं किया था। इसके बाद, चौधरी साहब ने स्पीकर के चुनाव में कांग्रेस के उम्मीदवार दलसिंह को हरवाने और राव बिरेंद्र सिंह को जितवाने में प्रमुख भूमिका निभाई थी। लेकिन थोड़े समय के बाद ही राज्य सभा के लिए संयुक्त विधायक दल के उम्मीदवार के सवाल पर उनके और मुख्यमंत्री के बीच मतभेद पैदा हो गए तथा उन्होंने पंडित भगवत दयाल शर्मा से हाथ मिला लिया। इसके बाद, हरियाणा की राजनीति ‘आया राम, गया राम की राजनीति बन गई और राज्यपाल बी.एन. चक्रवर्ती की सिफारिश पर हरियाणा में 20 नवंबर 1967 को राष्ट्रपति शासन लागू हो गया।

1968 के विधानसभा चुनाव में उनके बड़े बेटे ओम प्रकाश चौटाला को विधानसभा का टिकट दिया गया, परंतु वह चुनाव हार गए। लेकिन वह उपचुनाव जीत कर विधायक बनने में सफल रहे। 1968 से 1971 तक चौधरी देवीलाल, बंसीलाल की कांग्रेस सरकार को समर्थन देते रहे, लेकिन 1972 के विधानसभा चुनाव से पहले उनका मुख्यमंत्री की निरंकुश शैली के कारण मोहभंग हो गया। उन्हें इन चुनावों में तोशाम और आदमपुर में बंसीलाल और भजनलाल के हाथों हारना पड़ा तथा उन्होंने राजनीति से दूरी बना ली। लेकिन पंजाब के अकाली नेता प्रकाश सिंह बादल के द्वारा उत्साहित किए जाने के बाद 1974 में उन्होंने गेहूं की जबरन खरीद के विरूद्ध किसान आंदोलन की कमान संभाल ली। इसके बाद वह महम चुनाव क्षेत्र से विधायक चुने गए और चौधरी चरण सिंह के भारतीय लोकदल में सक्रिय हो गए। 1975 में आपातकाल में जय प्रकाश नारायण के संपूर्ण क्रांति आंदोलन में सक्रिय होने के कारण उन्हें आपातकाल में जेल में नजरबंद कर दिया गया।

1977 के लोकसभा चुनावों के समय वह जनता पार्टी के हरियाणा में सबसे महत्वपूर्ण नेता के रूप में उभरे और 1977 में हरियाणा विधानसभा चुनाव के बाद 20 जून 1977 के दिन हरियाणा के मुख्यमंत्री बने, पर गुटबंदी के चलते संगठन कांग्रेस, जनसंघ एवं समाजवादी धड़ों के विरोध के कारण वह बहुमत खो बैठे और 25 जून 1979 के दिन उन्हें मुख्यमंत्री पद से त्यागपत्र देना पड़ा।

1980 के लोकसभा चुनावों में चौधरी देवीलाल ने कृषक जातियों का गठबंधन बना कर लोकदल को हरियाणा के दस लोकसभा चुनाव क्षेत्रों में से पांच में सफलता दिलवाई। इस प्रसंग में अमेरिकी विद्वान प्रोफेसर पॉल वालेस के अनुसार देवीलाल ने जाटों, सैनियों, रोडों, गुर्जरों और राजपूत जातियों का एक गठबंधन स्थापित किया। यद्यपि 1982 के हरियाणा विधानसभा में कांग्रेस को 90 में से केवल 36 स्थान मिले थे और बहुमत का समर्थन चौधरी देवीलाल के लोकदल भाजयो गठबंधन के पास था, लेकिन राज्यपाल जी.डी. तपासे ने यह तर्क देकर कांग्रेस के नेता भजनलाल को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलवा दी कि वह हरियाणा विधानसभा में बड़े दल कांग्रेस (आई.) के नेता हैं। लेकिन, 1985 के पंजाब समझौते के खिलाफ चौधरी देवीलाल के न्याय युद्ध के चलते उनकी जगह चौधरी बंसीलाल को 5 जून 1985 के दिन मुख्यमंत्री बना दिया गया। वह भी इस आंदोलन को नहीं दबा सके, जिसने हरियाणा की राजनीतिक संस्कृति को दासता-संस्कृति से भागीदारी-आधारित राजनीतिक संस्कृति वाली बना दिया। 1987 के विधानसभा चुनाव के बाद चौधरी देवीलाल हरियाणा के दूसरी बार मुख्यमंत्री बने। लेकिन, अब उन्होंने राष्ट्रीय राजनीति में रुचि लेना शुरू कर दिया। 1989 के लोकसभा चुनाव के बाद उन्होंने वी.पी. सिंह को प्रधानमंत्री बनवाया और वह उप-प्रधानमंत्री बनाए गए। मतभेदों के चलते उन्होंने राष्ट्रीय मोर्चा सरकार गिरवा दी और चंद्रशेखर को प्रधानमंत्री बनवा दिया और खुद उप-प्रधानमंत्री बन गए। 1991 में लोकसभा चुनाव हारने के बाद उन्होंने राजनीति से संन्यास ले लिया। उनका स्वर्गवास 6 अप्रैल 2001 के दिन हुआ था।

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