शब्दों का खेल -सुशीला बहबलपुर

कविता

कितना सुंदर, दर्द भरा
व निराला है
शब्दों का खेल
इस प्राणी जगत में
अगर शब्द न होते
तो कुछ न होता
ज्ञान, संज्ञान से हम
होते अनभिज्ञ
न कोई अमीर होता
न कोई गरीब होता
न कोई छोटा न कोई
बड़ा होता।
न कोई मालिक न कोई
नौकर होता।
बेचारे शब्द भी करते हैं गुलामी
कलम चलाने वालों की
शब्दों को मनचाहे रूप में
तोड़-मरोड़़ दिया जाता है।
फिर भी नहीं निकलती है।
आह इनके मुख से
जाने क्या-क्या और रचेगा।
शब्दों का खेल
इस भूमण्डल पर
हालांकि बनी है ये कविता भी
शब्दों के ही खेल से।


स्रोतः सं. सुभाष चंद्र, देस हरियाणा (जुलाई-अगस्त 2016) पेज-28
 

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