प्रताप सिंह दौलता का जन्म रोहतक जिले के चिमनी गांव के एक मंझले भूमिपति परिवार में 13 अप्रैल, 1918 के दिन हुआ था। यद्यपि उनका गोत्र कादियान था, लेकिन वह अपने नाम के आगे दौलता लिखते थे क्योंकि उनके दादा का नाम दौलत सिंह था। बेरी और रोहट से शुरूआती शिक्षा प्राप्त करने के बाद, उन्होंने पंजाब विश्वविद्यालय (लाहौर, अब पाकिस्तान में) से बी.ए. और एल.एल.बी. की परीक्षा पास की थी। लाहौर उन दिनों प्रगतिशील राष्ट्रीय आंदोलन का केंद्र था, इसलिए वहां रहते हुए उन पर साम्यवादी विचारधारा का प्रभाव पड़ा था।
शिक्षा पाने के बाद उन्होंने रोहतक से वकालत शुरू की और भारतीय साम्यवादी पार्टी में शामिल हो गए। उन्होंने पुराने रोहतक जिले में, जिसमें झज्जर और सोनीपत भी शामिल थे, किसानों और मजदूरों को संगठित करना शुरू कर दिया। इस उद्देश्य से उन्होंने “कमाऊपूत” नामक साप्ताहिक पत्रिका का प्रकाशन आरंभ किया। गौरतलब है कि उन दिनों में पूरे जिले के शहरों में कांग्रेस का प्रभुत्व था, ग्रामों में जमींदार पार्टी का कृषक जातियों पर और विशेष तौर पर जाटों में प्रभाव था क्योंकि रोहतक चौधरी छोटू राम की कर्मभूमि रहा था और शहरी क्षेत्र के पंजाबियों पर जनसंघ का प्रभाव था क्योंकि वह विभाजन के समय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की भूमिका से बहुत प्रभावित थे और जनसंघ का निर्माण इसी के राजनीतिक मंच के रूप में डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने 1950 में किया था।
ऐसी प्रतिकूल परिस्थितियों में प्रताप सिंह दौलता ने 1957 के लोकसभा चुनावों में झज्जर, सोनीपत क्षेत्र से भारतीय साम्यवादी दल के उम्मीदवार के तौर पर चुनाव लड़ा और कांग्रेस के दिग्गज नेता और इंडियन चैम्बर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री के पदाधिकारी घमंडी लाल बंसल को हराने में सफलता पाई। तब के बाद से आज तक हरियाणा क्षेत्र के अलग राज्य बनने से पहले और उसके बाद कोई भी साम्यवादी लोकसभा का सदस्य नहीं बन पाया है। अतः दौलता की इस जीत को आश्चर्यजनक माना जा सकता है। उन्होंने इसे बड़ी मेहनत और सूझबूझ से प्राप्त किया था। इस कार्य में उन्होंने खाप पंचायतों, विशेषकर दहिया खाप पंचायत का समर्थन लिया और इसे पाने के लिए उन्होंने रतनगढ़, सोनीपत के एक प्रतिष्ठित दहिया नेता चौधरी केहर सिंह के लड़के कॉमरेड हुकम सिंह को राई विधानसभा क्षेत्र से साम्यवादी दल का उम्मीदवार बनवाया था।
किंतु साम्यवादी दल से उनके मतभेद 1959 में उस समय हो गए थे, जब उन्होंने मोहनगढ़, नरवाणा में जमीन खरीदी और उसका कब्जा लेते हुए उनका मुजारों से टकराव हो गया था। नतीजा यह कि उन्हें साम्यवादी दल ने सदस्यता से बाहर कर दिया। उसके बाद उन्होंने मार्क्सिस्ट कॉ-ऑर्डीनेशन कमेटी स्थापित की, लेकिन उनका यह प्रयोग सफल नहीं हो सका। अतः उन्होंने कांग्रेस में शामिल होने का निर्णय लिया। 1962 का लोकसभा चुनाव दौलता ने रेवाड़ी-सोनीपत चुनाव क्षेत्र से कांग्रेस के उम्मीदवार के रूप में लड़ा, लेकिन हरियाणा लोक समिति के उम्मीदवार और प्रसिद्ध आर्य समाजी नेता जगदेव सिंह सिद्धांती ने उन्हें हरा दिया। चुनाव हारने के बाद उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और अपनी मजाक करने की शैली को बनाए रखा।
जब उनकी हार की खबर सुन कर उनकी पत्नी ने रोना शुरू कर दिया तो दौलता ने उन्हें ढांढस बंधाने के लिए कहा था- “वह अकेले ही तो नहीं हारे हैं। इन चुनावों में झज्जर विधानसभा क्षेत्र से प्रोफेसर शेर सिंह भी हारे है, जिन्हें अजेय समझा जाता है। लेकिन, यह सुन कर भी जब उनकी पत्नी शांत नहीं हुई तो दौलता ने उन्हें कहा कि ‘अगर तुम्हें जीतने वाले की बहू बनने का ही ज्यादा शौक है तो बाबा (जगदेव सिंह सिद्धांती) का लत्ता ओढ़ लो और उसकी पत्नी बन जाओ।’
1967 में वह कांग्रेस टिकट पर बेरी से विधानसभा के सदस्य बने थे, लेकिन विद्रोह करके राव बिरेंद्र सिंह के साथ चले गए तथा उनके द्वारा मंत्रिमंडल में शामिल किए गए। लेकिन, 1968 के मध्यावधि चुनाव में उसी क्षेत्र से वह कांग्रेस के प्रत्याशी ब्रिगेडियर रण सिंह से हार गए। हार का कारण पूछे जाने पर उन्होंने कहा- “कांग्रेस ने मेरे मुकाबले में एक झबरू कुत्ता खड़ा कर दिया था, जिसने मुझे बुरी तरह फफेड़ दिया।” चुनाव के बीच में जब वह वोट मांगने किसी मतदाता के घर गए तो उसने उनका नाम सुनने के बाद भी कपाट नहीं खोले तो कहने लगे- “मैं हूं काणा।” इस पर उसने उन्हें अंदर बुला लिया। गौरतलब है कि उनकी एक आंख कमजोर थी। एक और मतदाता के यह कहने पर कि वह उनको इसलिए वोट नहीं देगा क्योंकि मंत्री बनने के बाद उनका दिमाग खराब हो गया था। इस पर दौलता ने कहा- जब तुम्हारा दिमाग खाद की देरी पर खड़ा होते हुए खराब हो सकता है तो मेरा दिमाग मंत्री बनने और कार में बैठने के बाद खराब होना स्वाभाविक था। 1972 का हरियाणा विधानसभा चुनाव दौलता ने निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में जीता था, लेकिन 1977 में वह हार गए और राजनीति के संन्यास ले लिया। 23 मई 1985 के दिन उनका देहांत हो गया, लेकिन आज तका उन्हें हाजिर जबाबी और अपने ऊपर मजाक करने के लिए याद किया जाता है। दौलता साहब के प्रसंग में यह उल्लेखनीय है कि सोवियत यूनियन के तत्कालीन प्रधानमंत्री मार्शल बुल्गानिन के व्यक्तित्व से इतने अत्यधिक प्रभावित थे कि उन्होंने उनकी 1954 की भारत यात्रा के समय उन्हें देहली में मिलने की इच्छा पूरी की। इतना ही नहीं, उन्होंने अपने बड़े बेटे का नाम बुल्गानिन सिंह दौलता रख दिया था। साम्यवादी दल छोड़ने के बाद भी वह बुल्गानिन के भक्त बने रहे थे। इस पुस्तक के लेखक को दौलता साहब से मिलने का अवसर 1965 में उस समय प्राप्त हुआ, जब वह किरोड़ीमल कॉलेज के प्रिंसिपल डा. सरूप सिंह की छोटी बेटी के शादी समारोह में शामिल होने देहली आया हुआ था। वहां से वह दौलता साहब की कार में ग्रीनपार्क गया था। रास्ते में उसने उनसे पूछा कि पंजाब सरकार द्वारा नियुक्त हरियाणा डेवलपमेंट कमेटी का हरियाणा को क्या लाभ होगा? तो उन्होंने अपने चिर-परिचित अंदाज में कहा कि इसके अध्यक्ष पंडित श्रीराम शर्मा बेकार बैठे थे, उन्हें काम मिल गया है।