राजकुमारी सुमित्रा देवी का जन्म 28 अगस्त 1908 को 1957 के भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के नायक, राव तुलाराम के पौत्र राव बलबीर सिंह के घर में रामपुरा हाउस, रेवाड़ी में हुआ था। उनके पिता स्वतंत्रता से पूर्व पंजाब विधान परिषद और पंजाब विधानसभा के सदस्य रहे थे तथा उन्हें उनके द्वारा प्रथम विश्व युद्ध में दिए गए योगदान के उपलक्ष्य में अंग्रेजी सरकार द्वारा ‘ऑर्डर ऑफ ब्रिटिश एम्पायर की उपाधि दी गई थी। इतना ही नहीं, विन्स्टन चर्चिल ने उन्हें इस विषय में ब्रिटिश सम्राट के द्वारा की गई प्रशंसा के बारे में एक पत्र के माध्यम से जानकारी भी दी थी। इसी उपलक्ष्य में उन्हें ‘ऑनरेरी कैप्टन’ का रैंक तथा राव बहादुर की उपाधि दी गई थी। जिस समय राजकुमारी सुमित्रा देवी निर्विरोध विधायक, रेवाड़ी पंजाब विधानसभा क्षेत्र से 1957 में पंजाब विधानसभा की सदस्य चुनी गई थीं, उनके भाई कैप्टन राव बिरेंद्र सिंह पंजाब विधान परिषद के सदस्य थे और सरदार प्रताप सिंह कैरों के मंत्रिमण्डल में उपमंत्री थे।
ऊपर बतलाए गए तथ्यों से यह भ्रम होना स्वाभाविक है कि राजकुमारी सुमित्रा देवी अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि के कारण ही निर्विरोध विधायक बनी थीं और उनकी इस अद्वितीय उपलब्धि में उनका अपना कोई व्यक्तिगत योगदान नहीं था। जबकि सच्चाई यह है कि वह अपने गुणों और अपनी योग्यता से यह सम्मान प्राप्त करने में सफल हुई थीं।
राजकुमारी सुमित्रा देवी ने इंटरमीडिएट प्रभाकर और विदुषी की परीक्षाएं पास की हुई थीं। वह महात्मा गांधी के निकटस्थ सहयोगी श्री जमनालाल बजाज की बेटी और गुजरात के पूर्व राज्यपाल श्रीमन् नारायण की पत्नी श्रीमती मदालसा की निकट मित्र एवं सहपाठी रही थीं। विधायक बनने से पूर्व रामपुरा (रेवाड़ी) की सर्वसम्मति से ऐसे समय में ग्राम पंचायत की सरपंच चुनीं गई थी, जब किसी महिला द्वारा यह पद प्राप्त करना लगभग असंभव माना जाता था और सरपंच के तौर पर उन्होंने अपने पंचायत क्षेत्र के सामाजिक और आर्थिक विकास में तथा विशेष तौर पर महिलाओं की स्थिति सुधारने का उल्लेखनीय कार्य किया था। झगड़ों का निपटारा भी बहुत ही न्यायपूर्ण ढंग से किया गया था। इस सब से उनका सम्मान न केवल रामपुरा में, बल्कि पूरे रेवाड़ी क्षेत्र में बढ़ गया था।
बाईजी के नाम से संबोधित की जाने वाली राजकुमारी सुमित्रा देवी ने एक ऐसे समय में अविवाहित रहने और ब्रह्मचारिणी का जीवन जीने का निर्णय लिया था, जब ऐसा करने की दक्षिणी हरियाणा के समाज में कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। दूसरे शब्दों में, उन्होंने शुरू से ही समाज सेवा को अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया था। इसी की पूर्ति के लिए उन्होंने महल छोड़ कर रामपुरा के भगवत भक्ति आश्रम में रहने का निर्णय लिया था।
गौरतलब है कि यह आश्रम उनके पिता राव बलवीर सिंह ने बनवाया था। बाईजी ने इस आश्रम को 500 एकड़ भूमि दान में दी ताकि लड़कियों की शिक्षा के लिए स्कूल खोला जा सके और वहां स्थित गौशाला को सुचारू से चलाया जा सके। आश्रम में उन्होंने महिलाओं को अध्यापिका के योग्य बनाने के उद्देश्य से एक जूनियर बेसिक ट्रेनिंग स्कूल भी स्थापित किया और इसके लिए रामपुरा जागीर से अपने हिस्से में आने वाली जमीन बेच कर एक ट्रस्ट की स्थापना की। उन्होंने अनुसूचित जातियों की महिलाओं की शिक्षा के लिए एक पाठशाला तथा एक बाल कल्याण केंद्र और निःशुल्क डिस्पेंसरी की स्थापना की थी तथा आंखों के मुफ्त ऑपरेशन करने के लिए कई कैम्पों का आयोजन भी किया था। उन्होंने नेत्रहीनों की सहायता के लिए संत परमानंदजी महाराज के साथ मिल कर आश्रम में नेत्रहीन सहायता मिशन की स्थापना भी की थी।
समाज सेवा के उद्देश्य से ही उन्होंने श्री गुलजारीलाल नंदा द्वारा स्थापित भारत सेवक समाज में सक्रिय भूमिका निभाई थी तथा पंजाब सोशल वेलफेयर बोर्ड की पांच परियोजनाओं को मेवात के पिछड़े क्षेत्र में शुरू करने का कार्य भी किया था। समाज सेवा में योगदान के लिए उनकी ख्याति का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि 1978 में रेवाडी शहर में आयोजित एक जनसभा में इंदिरा गांधी ने कहा था कि वह हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री राव बिरेंद्र सिंह को बहुत बाद में जानने लगी थीं, जबकि राजकुमारी सुमित्रा देवी को बहुत पहले से जानती थीं क्योंकि बाईजी उनकी बुआ श्रीमती रामेश्वरी नेहरू की मित्र रही थीं। यही कारण है कि वह केवल 1957 में पंजाब विधानसभा की निर्विरोध सदस्य चुनी गईं। गौरतलब है कि हरियाणा क्षेत्र से आज तक कोई भी व्यक्ति पंजाब विधानसभा या अलग राज्य बनने के बाद हरियाणा विधानसभा का निर्विरोध सदस्य नहीं बन सका है।
“राजकुमारी सुमित्रा देवी 1962 और 1967 के चुनाव में कांग्रेस पार्टी के टिकट पर जीत कर रेवाड़ी विधानसभा क्षेत्र से विधायक बनीं और 1968 के हरियाण्टरा विधानसभा के मध्यावधि चुनाव में विशाल हरियाणा पार्टी के टिकट पर जीत दर्ज की थी। लेकिन बदले हुए राजनीतिक परिपेक्ष्य में उन्हें जाटूसाना क्षेत्र से 1972 और रेवाड़ी क्षेत्र से 1977 में विधानसभा के चुनाव में हार का मुंह देखना पड़ा था।
गौरतलब है कि बाईजी को उनकी समाज सेवा के लिए भारत सरकार द्वारा पदमश्री की उपाधि से सम्मानित किया गया था। उनका स्वर्गवास 7 दिसंबर 1995 के दिन हुआ था, लेकिन आज तक उनकी याद में किसी विद्यालय या महाविद्यालय की स्थापना हरियाणा सरकार द्वारा नहीं की गई है। किंतु पूरा अहीरवाल समाज उन्हें बहुत ही श्रद्धा के साथ आज भी याद करता है क्योंकि बाईजी की समाज सेवा की चर्चा पुरानी पीढ़ी के लोगों के द्वारा रेवाड़ी जिले के ग्रामों में अक्सर की जाती है। उन्होंने ऐशोआराम तथा सुख-समृद्धि के बजाए सादगी से रह कर समाज सेवा को अपने जीवन का लक्ष्य बनाया था। इस पुस्तक के लेखक को 1955-56 में बाईजी की जीवन शैली को निकट से देखने का अवसर मिला। उसने पाया कि वह निःसंदेह एक साध्वी थीं। राजकुमारी सुमित्रा देवी से लेखक की आखिरी मुलाकात 31 दिसंबर 1981 के दिन भगवत भक्ति आश्रम, रामपुरा में हुई थी। उन दिनों वह अपनी माता रानी निहाल कौर के साथ रह रही थीं। बहुत मना करने पर भी उन्होंने लेखक और उसके साथी प्रेम सिंह के लिए खुद चाय बनाई और घर के बनाए बिस्कुट्स खिलाए।