पंडित श्रीराम शर्मा का जन्म पुराने रोहतक जिले के झज्जर कस्बे में 1 अक्टूबर 1899 के दिन एक अति-प्रतिष्ठित ब्राह्मण परिवार में हुआ था। वहां से मैट्रिक पास करने के बाद उन्होंने उच्च शिक्षा देहली में प्राप्त की तथा लोकमान्य बालगंगाधर तिलक के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर स्वतंत्रता आंदोलन में कूदने का निर्णय किया। अपनी शिक्षा अधूरी छोड़ कर महात्मा गांधी के आह्वान पर उन्होंने असहयोग आंदोलन 1921 में भाग लिया, जिस कारण उन्हें एक साल की जेल की सजा हुई। उसके बाद उन्होंने 1930 और 1931 में सविनय अवज्ञा आंदोलन में भाग लिया और ढाई वर्ष तक कारावास में रहे। 1941 के व्यक्तिगत सत्याग्रह में भागीदारी के कारण उन्हें डेढ़ साल की सजा हुई और भारत छोड़ो आंदोलन में भाग लेने के लिए उन्हें तीन वर्ष जेल में काटने पड़े।
गौरतलब है कि उन्होंने हरियाणा क्षेत्र में स्वतंत्रता आंदोलन को ऐसे समय में नेतृत्व दिया, जब चौधरी छोटू राम के प्रभाव के कारण यहां यूनियनिस्ट पार्टी का बोलबाला था और यहां का अभिजात वर्ग अंग्रेजों के प्रति वफादार था। कांग्रेस को जीवित रखने के लिए उन्होंने जनसंपर्क की रणनीति अपनाई। एक भजन मंडली हर रोज गांव में जाकर लोगों को इकट्ठा करती थी और उसके बाद पंडित जी अपने ओजस्वी भाषणों के द्वारा उन्हें कांग्रेस को समर्थन देने के लिए प्रेरित करते थे।
राष्ट्रीय आंदोलन को मजबूत करने के लिए उन्होंने पत्रकारिता का सहारा भी लिया और रोहतक से “हरियाणा तिलक” नामक साप्ताहिक पत्र प्रकाशित करना शुरू कर दिया। जब 1941 में सरकार ने इसके प्रकाशन पर रोक लगा दी तो उन्होंने इसका नाम बदल कर इसे मेरठ से प्रकाशित करना शुरू कर दिया था (डॉ. बालकृष्ण कौशिक, “हरियाणा के प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी”, करनाल, 2013)।
1937 में वह रोहतक-हिसार और गुड़गांवा के दक्षिणी शहरी चुनाव क्षेत्र से पंजाब विधानसभा के सदस्य चुने गए और सदन में उन्होंने एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने सरकार के दमन के विरूद्ध पुरजोर आवाज उठाई। 1946 में वह दूसरी बार उसी चुनाव क्षेत्र से विधायक बने और पहले की तरह ही पंजाब विधानसभा में सक्रिय रहे, लेकिन स्वतंत्रता के बाद 1952 तक पंजाब कांग्रेस में श्रीमसेन सच्चर और गोपीचंद भार्गव के बीच गुटबंदी के कारण उनकी उपेक्षा होती रही। उन्हें मंत्रिमण्डल में शामिल नहीं किया गया। उनके बजाए कैप्टन रणजीत सिंह और चौधरी लहरी सिंह को मंत्रिमण्डल में स्थान मिलता रहा। 1952 में पंडित जी के सोनीपत से पंजाब विधानसभा सदस्य चुने जाने के बाद भीमसेन सच्चर ने उन्हें अपने मंत्रिमण्डल में शामिल कर लिया परंतु सत्यपाल गुट से जुड़े होने के कारण 1953 में उन्हें मंत्रिमण्डल से अलग कर दिया गया। इसके बाद वह रूष्ट कांग्रेसियों द्वारा बनाई गई गांधी जनता पार्टी में शामिल हो गए पंजाब सरकार की जन-विरोधी नीतियों के विरूद्ध प्रचार करने लग गए। 1954 में उन्होंने जमींदार पार्टी, समाजवादी पार्टी और गांधी जनता पार्टी के हरियाणवी सदस्यों का हरियाणा प्रांन्त फ्रंट बनाया तथा हरियाणा राज्य के निर्माण के लिए समालखा, सोनीपत और रोहतक में हरियाणा राज्य बनाने के पक्ष में सम्मेलन किए। इनका उद्देष्य इस मांग के पक्ष में जनसमर्थन जुटाने का था।
1956 में रिजनल फॉर्मूला लागू हो जाने के बाद हरियाणा प्रान्त फ्रंट का कांग्रेस में विलय हो गया। कांग्रेस ने उन्हें 1957 के पंजाब विधानसभा चुनाव में टिकट नहीं दिया और वह हरियाणा प्रांत फ्रंट के उम्मीदवार के तौर पर चुनाव हार गए। इसके बाद 1957-58 में पंडित श्रीराम शर्मा ने आर्य समाज के द्वारा चलाए गए हिंदी रक्षा आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसमें भाग लेने के कारण उन्हें जेल भी काटनी पड़ी।
1960 में प्रताप सिंह कैरों ने उन्हें पंजाब सरकार की तरफ से राव बिरेंद्र सिंह के विरूद्ध जांच के संबंध में एक सदस्यीय कमेटी के लिए नियुक्त किया। इस समिति को राव बिरेंद्र सिंह के विरूद्ध सत्ता के दुरूपयोग के द्वारा अपने विरोधियों को दबाने के आरोपों की जांच करने के लिए कहा गया। शर्माजी ने अपनी जांच में राव साहब को दोषी माना। इसी का सहारा लेते हुए प्रताप सिंह कैरों ने राव बिरेंद्र सिंह से त्यागपत्र मांगा और इन्कार करने पर उनकी सिफारिश पर पंजाब के तत्कालीन राज्यपाल श्री नरहरि विष्णु गाडगिल ने राव साहब को मंत्रिमण्डल से बर्खास्त कर दिया। उन्हें हटाए जाने का वास्तविक कारण यह था कि वह चौधरी देवीलाल के समर्थक थे, जिनके साथ प्रताप सिंह कैरों का झगड़ा हो गया था। गौरतलब है कि कैरों के इशारे पर दी गई रिपोर्ट के कारण पंडित श्रीराम शर्म की स्थिति कमजोर हो गई थी। इसीलिए, वह 1962 का पंजाब विधानसभा चुनाव भी हार गए थे।
1965 में पंजाब सरकार के द्वारा उन्हें हरियाणा डेवलपमेंट कमेटी का अध्यक्ष बनाया गया। कमेटी ने 1966 में दी गई अपनी रिपोर्ट में बतलाया था कि हरियाणा के साथ विकास प्रक्रिया ही नहीं, राजनीतिक भागीदारी और नौकरियों की भर्ती में भी भेदभाव किया जाता है। उनके द्वारा सौंपी गई इस रिपोर्ट के कारण अलग हरियाणा राज्य के निर्माण की मांग को बल मिला।
पंडित श्रीराम शर्मा ने इसके बाद राजनीति से संन्यास ले लिया था और उनकी गतिविधियां उनके द्वारा स्थापित देश सेवा आश्रम तक सीमित रह गई थी। इसे हम एक विडंबना ही कह सकते हैं कि उन्हें इस महत्वपूर्ण योगदान के बावजूद हरियाणा सरकार ने इस महान स्वतंत्रता सेनानी और कर्मठ नेता को पूरी तरह भुला दिया है। विश्वविद्यालयों को तो छोड़िए, किसी कॉलेज या स्कूल का नाम भी उनके नाम पर नहीं रखा गया।गौरलतब है कि पंडित श्रीराम शर्मा न केवल एक राजनीतिक नेता थे, बल्कि एक प्रबुद्ध लेखक भी थे। उनकी पुस्तकें “हरियाणा का इतिहास” एवं “मेरी जीवन कहानी” इस क्षेत्र के इतिहास, समाज, संस्कृति और राजनीतिक पहलुओं को समझने के लिए बहुत सहायक हैं।