चौबीस नवम्बर, 1881 के दिन गढ़ी सांपला (रोहतक) में एक छोटे भूमिपति जाट परिवार में जन्मे चौधरी छोटू राम को निसन्देह 20वीं शताब्दी का सबसे महान हरियाणावी कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा। झज्जर के सरकारी मिडिल स्कूल में शिक्षा प्राप्त करने के बाद उन्होंने मैट्रिक और स्नातक स्तर की शिक्षा देहली में ली और वकालत की पढ़ाई इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हासिल की। उच्च शिक्षा के दिनों में ही उन्हें ग्रामीण और शहरी जीवन में विद्यमान गुणात्मक अंतर का ज्ञान देहली में रहते हुए ही हो गया था। इस तथ्य की पुष्टि उनके द्वारा सेन्ट स्टीफन कॉलेज की मैगजीन में लिखे एक लेख से होती है।
चौधरी छोटू राम को व्यापारी और साहूकार वर्ग के द्वारा किसानों के शोषण का गहन ज्ञान रोहतक में वकालत करने के दिनों में हो गया था। अतः इस शोषण को समाप्त करने के उद्देष्य से उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल होने का निर्णय 1912 में ही ले लिया था। उनके नेतृत्व के गुणों को पहचानते हुए उन्हें 1916 में जिला कांग्रेस कमेटी का अध्यक्ष बना दिया गया था। लेकिन, महात्मा गांधी के असहयोग आन्दोलन की रणनीति को किसान वर्ग के लिए घातक समझते हुए उन्होंने 1920 में कांग्रेस छोड़ने का फैसला ले लिया। कांग्रेस का विकल्प उन्हें 1923 में सर फजले हुसैन द्वारा स्थापित यूनियनिस्ट पार्टी के रूप में मिला। यह राजनीतिक दल आन्दोलन के तरीके के बजाए अंग्रेजी सरकार से ग्रामीण और किसान वर्ग के हितों को बढ़ावा दिलवाने के लिए संवैधानिक तरीकों के प्रयोग में विश्वास रखता था।
इस दल में शामिल होने के बाद छोटू राम ने हरियाणा के जाटों की लामबन्दी यूनियनिस्ट पार्टी के लिए शुरू कर दी। इस कार्य के लिए उन्होंने ‘जाट गजट’ नामक साप्ताहिक पत्र निकाल कर और अंग्रेजी तथा उर्दू के समाचार पत्रों में लेख लिख कर पत्रकारिता का सहारा लिया। इस कार्य के लिए उन्होंने परम्परागत तिला का प्रयोग करते हुए भजनीकों और जन-गायकों का सहारा भी लिया। यह रणनीति उन्होंने आर्य समाज के नेताओं से सीखी थी। जब उन्हें लगा कि मात्र जाटों के समर्थन से सत्ता प्राप्त नहीं की जा सकती तो उन्होंने सम्पूर्ण ग्रामीण समाज तथा सभी किसान जातियों के समान सामूहिक हितों की दुहाई देकर सभी किसान जातियों का समर्थन यूनियनिस्ट पार्टी के लिए प्राप्त करने में सफलता पाई।
चौधरी छोटू राम मात्र हिन्दू किसान जातियों के समर्थन को अपने उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए पर्याप्त नहीं मानते थे, इसलिए उन्होंने न केवल मुस्लिम, हिन्दू और सिख किसान जातियों की लामबन्दी यूनियनिस्ट पार्टी के समर्थन में शुरू कर दी, बल्कि हिन्दू महासभा, अकाली दल और कांग्रेस के जनाधारों में सेंध लगानी भी कॉले शुरू कर दी।
इन उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए अंग्रेजी सरकार द्वारा पंजाब लैंड ऐलियेशन एक्ट (1900) के कृषक और गैर-कृषक जातियों के विभाजन का भी भरपूर लाभ उठाया गया। औपनिवेशिक शासन के द्वारा विधान परिषद की सीटों, नौकरियों में भर्ती और शिक्षा संस्थानों में दाखिले के लिए प्रावधनों का भरपूर प्रयोग भी चौधरी छोटू राम के द्वारा किया गया था।
अपने ग्रामीण और किसान एजेण्ड़ों को बढ़ावा देने के लिए उन्होंने भारतीय राज्य अधिनियम (1919) के द्वारा प्रांतो में स्थापित दोहरे शासन का भी भरपूर प्रयोग किया। 1923 में वह पंजाब विधान परिषद के सदस्य भी चुने गए तथा उन्हें पंजाब मंत्रिमंडल में भी शामिल कर लिया गया। इन दोनों संस्थाओं का प्रयोग उन्होंने अपने एजेंण्डे को बढ़ावा देने के लिए किया। किन्तु, 1926 में उन्हें मंत्रिमंडल में उनके अडियल रवैये और बड़बोलेपन के कारण शामिल नहीं किया गया। किंतु चौधरी छोटू राम ने इस असफलता को भी अवसर में बदल दिया। उन्होंने दिन-रात मेहनत कर यूनियनिस्ट पार्टी का आधार बढ़ाने का कार्य किया और उसी योगदान के लिए उन्हें फजले हुसैन के बाद पार्टी में दूसरा स्थान प्राप्त हो गया
उनके कठोर परिश्रम का लाभ यूनियनिस्ट पार्टी के भारतीय राज्य अधिनियम, 1935 के द्वारा स्थापित प्रान्तीय स्वायत्ता के ढांचे को मिला। पार्टी ने 1937 के चुनावों में न केवल मुस्लिम लीग को हराया, बल्कि कांग्रेस-अकाली गठबंधन और हिन्दू महासभा को भी अधिक सीटें नहीं जीतने दी। परिणामस्वरूप पंजाब में सर सिकन्दर हयात खान के नेतष्त्व में 1937 के चुनाव के बाद यूनियनिस्ट सरकार बनी और चौधरी छोटू राम को इस सरकार में विकास मंत्री बनाया गया। अपनी राजनीतिक शक्ति का भरपूर प्रयोग करते हुए उन्होंने किसानों को कर्ज से मुक्ति दिलवाने के लिए प्रभावशाली कानून बनवाए, जिन्हें किसान वर्ग ने सुनहरे कानूनों का नाम दिया। जबकि उनके आलोचकों ने उन्हें काले कानून बतलाया। किंतु चौधरी छोटू राम का राजनीतिक कद 1940 में मुस्लिम लीग के द्वारा पाकिस्तान का प्रस्ताव पास करने के बाद बढ़ा। अपने खराब स्वास्थ्य की परवाह न करते हुए उन्होंने दिन-रात इसका विरोध हर मंच से किया। अब उनका आलोचक भी उनकी प्रशंसा करने लगे, जो पहले उन्हें छोटू खान कहते थे।
चौधरी छोटू राम की मृत्यु 9 जनवरी 1945 के दिन हो गई। लेकिन आज भी विभिन्न राजीनतिक दल उनके विचारों पर चलने का दम भरते हैं। दयाल सिंह कॉलेज, करनाल के डॉ. कुशलपाल ने कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के राजनीति शास्त्र विभाग में किए गए पी.एच.डी. शोध कार्य में यह विचार व्यक्त किया है कि चौधरी छोटू राम की विरासत का चौधरी देवीलाल की राजनीति पर प्रभाव पड़ा है। लेकिन वस्तुतः दोनों की राजनीति में गुणात्मक अंतर है। जहां चौधरी छोटू राम ने संवैधानिक तरीकों का प्रयोग किया, वहीं चौधरी देवीलाल की राजनीति को प्रमुखतः जन-आंदोलनों की राजनीति कहा जा सकता है। चौधरी छोटू राम को इटली के प्रसिद्ध विद्वान ग्रामशी की अवधारणा का प्रयोग करते हुए जैविक बुद्धिजीवी भी कहा जा सकता है, जिसने जीवन पर्यंत किसान वर्ग के हितों के लिए अपनी लेखनी और राजनीति का प्रयोग किया था।