(दिनांक 15 नवंबर 2022 को हिन्दी विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र में जनजाति गौरव दिवस पर विचार-गोष्ठी का आयोजन किया गया है। यह दिवस बिरसा मुंडा की जयंती के अवसर पर मनाया जाता है। कार्यक्रम में मुख्य वक्ता के रूप में देस हरियाणा पत्रिका के संपादक प्रो. सुभाष चन्द्र और मुख्य अतिथि के रूप में कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के कला एवं भाषा संकाय के अधिष्ठाता प्रो. बृजेश साहनी ने भाग लिया। ब्रजपाल ने संचालन किया तथा जसबीर सिंह ने धन्यवाद ज्ञापित किया – सं.)
बिरसा मुंडा का जन्मदिन 15 नवंबर 1875 को हुआ था। बिरसा मुंडा भारतीय स्वतंत्रता सेनानी, धार्मिक नेता और छोटा नागपुर पठार क्षेत्र के मुंडा जनजाति के लोक नायक थे। संथाल, तामार, कोल, भील, खासी और मिज़ो जैसे आदिवासी समुदायों ने कई आंदोलनों के माध्यम से भारत के स्वतंत्रता संग्राम में मजबूती से भाग लिया था। आज़ादी के लिए संथाल विद्रोह, खासी विद्रोह, फूकन एवं बरुआ विद्रोह, भूटिया लेप्चा विद्रोह, पलामू विद्रोह, खरवाड़ विद्रोह आदि अनेक ऐसे आंदोलन हैं, जिन्होंने अंग्रेज़ी शासन की नींव हिला दी। उन्होंने 19वीं शताब्दी के अंत में ब्रिटिश शासन के दौरान आधुनिक झारखंड और बिहार के आदिवासी क्षेत्रों में एक भारतीय जनजातीय आंदोलन का नेतृत्व किया। मुंडा विद्रोह 1899-1900 में रांची के दक्षिण में बिरसा मुंडा के नेतृत्व में सबसे महत्त्वपूर्ण आदिवासी आंदोलनों में से एक था। मार्च 1900 में अपनी गुरिल्ला सेना के साथ अंग्रेजों से लड़ते हुए मुंडा को चक्रधरपुर के जामकोपाई जंगल में गिरफ्तार कर लिया गया। कुछ महीने बाद, 9 जून को हिरासत में रहते हुए उनका निधन हो गया। बिरसा मुंडा ने नारा दिया था हमारी धरती, हमारी राज और उलगुलान जिंदाबाद।
शुरुआत में हिन्दी विभाग की शोधार्थी अंजू ने आदिवासी समाज के जीवन, संघर्ष, जिजीविषा के साथ-साथ उनके साहित्य में जीवन दर्शन के बारे में विस्तृत जानकारी दी। उन्होंने बताया आदिवासी साहित्य शौर्य और विद्रोह का साहित्य है। आज हम आदिवासी समाज के बारे में जब हम चर्चा करते है तो हमें असभ्य प्रतीत होने वाले, कंद मूल खाने वाले और शरीर पर छाल लपेटे हुए व्यक्ति की तस्वीर को आदिवासी समझते है और हम सभ्यता के नाम पर अपने आपको सुसंस्कृत मानव समझते है लेकिन इसके उलट आदिवासी समाज प्रकृति का संरक्षण कर रहा है और हम प्रकृति का दोहन कर रहे है। आज के वर्तमान परिप्रेक्ष्य में मानव बीमारियों से गिरा हुआ है और बड़े-बड़े वैज्ञानिक हमें प्रकृति के नज़दीक जाने को बोल रहे है लेकिन जो प्रकृति के नज़दीक है उन्हें हम विकास के नाम पर विस्थापित कर रहे हैं। जब किसी समाज में विस्थापन होता है उसके साथ विस्थापित होती है उनकी भाषा, संस्कृति और सभ्यता।
प्रो. बृजेश साहनी ने कहा लिखित साहित्य से अधिक महत्त्वपूर्ण होता है मौखिक साहित्य। लेकिन ब्रिटेन के नवजागरण ने हमें बताया की लिखित साहित्य, मौखिक साहित्य से आगे है और वहीं से ज्ञान को वर्गीकरण करने और विभाजित करने की परंपरा का विकास हुआ जिससे चिन्तन बहुत सारी चीजें छूट गयी। एक विषय के व्यक्ति को दूसरे विषयों ज्ञान होना आवश्यक है।
दुनिया को हम कैसे देखते है, कैसे जानते है, इसके लिए दर्शन में ज्ञानमीमांसा है। मूल निवासी दुनिया को अलग तरह से देखते है। मूल निवासी लेखक कहता है हमारा निर्माण इस दुनिया में हुआ और इसी में हमने जीना है। मूल निवासियों के साहित्य में किसी भी प्रकार विभाजन हमें देखने को नहीं मिलता उसमें मानव, पशु और प्रकृति में कोई विभाजन नहीं है लेकिन पाश्चात्य चिंतन इसको हमेशा बांटकर ही देखता है।
वस्तुओं और विचारों को नया आकार कैसे देना है यह समझ हमें मूल निवासियों और आदिवासियों का साहित्य देता है। मुख्यधारा के साहित्य में लेखक अकेला ही सब कुछ है और मूल निवासी साहित्य में लेखक पुरी कम्यूनिटी का प्रतिनिधित्व करता है। अपने दैनिक जीवन में आम-आदमी किस तरह है प्रकृति का दोहन हो रहा है जो आज विश्व की सबसे बड़ी समस्या है इसका समाधान हमें आदिवासियों के जीवन से सीख सकते है।
प्रो. सुभाष चन्द्र ने कहा की पूरी दुनिया में शोषण, अत्याचार, विस्थापन की त्रासदी की विरासत साझी है और हमारे पालन पोषण, हमारे पूर्वग्रहों और हमारे परिवेश से हमारी धारणा बनती है अगर हम उनको न तोड़े तो वह हमारे विकास में बाधक बनती है। आज मनुष्य सुन्दर वस्त्र पहनकर अपने आपको सभ्य मानते है और विकास के क्रम में सबसे अग्रिम मानते है लेकिन यह देखने की आवश्यकता है कि जो समस्या सभ्य समाजों में है क्या वह समस्या आदिवासी कहे जाने वाले समाज में भी है जैसे दहेज की समस्या, भ्रूण हत्या, लैंगिक असमानता आदि। डॉ. सुभाष चन्द्र ने बिरसा मुंडा, तिलका मांझी आदि के माध्यम से आदिवासियों के इतिहास और जीवन के संघर्ष के बारे में बताया। इस मौके पर हिन्दी विभाग के शोधार्थी और विद्यार्थी मौजूद थे।