यह 21 वीं सदी का चौबीसवाँ वां वर्ष है जब एक कवि प्रेम के पक्ष में प्रार्थना करने की जहमत उठा रहा है । एक ऐसे समय में जब प्रेम करने वालों की संख्या बेतरह गिरती जा रही हो या प्रेम के नाम पर ‘बेडरूम’ के एमएमएस बनाकर एक दूसरे को आत्महत्या करने के लिए जलील किया जा रहा हो, ऐसे समय में हिन्दी कविता एक उम्मीद के रूप में दिखाई देती है । पिछले दिनों सेतु प्रकाशन से कुंदन सिद्धार्थ का कविता संग्रह ‘प्रेम के पक्ष में प्रार्थना’ प्रकाशित हुआ है । यह कवि का पहला स्वतंत्र काव्य संग्रह है और यह बात हिन्दी कविता का पाठक अच्छे से जानता है कि एक कवि के लिए उसके पहले काव्य संग्रह के क्या मायने होते हैं । बहुत सहेजकर और लोगों के राय-मशविरे के बाद ही छपने के लिए भेजा जाता है । कुंदन सिद्धार्थ के इस काव्य संग्रह को पढ़कर भी ऐसा ही महसूस होता है ।
कविता संग्रह को खोलकर देखने से पहले दिमाग में कुछ प्रश्न उठने स्वाभाविक हैं । कवि को क्या पड़ी है कि वो अपने पहले संग्रह में ही प्रेम के पक्ष में खड़ा हुआ दिखना चाहता है ? क्या वो प्रेम को कविता के लिए अपरिहार्य मानता है या फिर एक साधारण पाठक को कविता के जरिए प्रेम को जीवन का सर्वाधिक जरूरी तत्व समझाना चाहता है ? ‘प्रेम के पक्ष में प्रार्थना’ क्या यह शीर्षक उपयुक्त जान पड़ता है जब कविता को या तो क्रांति की इबारत लिखने का एक औजार बनाने की कवायद की जा रही हो या फिर राजनीतिक दुराग्रहों को पेश किया जा रहा हो, ऐसे समय में प्रार्थना शब्द का अभिप्राय क्या वही रह जाता है जो कवि समझ रहा है या वो अपने पाठकों को समझाना चाहता है ? असल में जब हम इस संग्रह से गुजरते हैं तो पता चलता है कि प्रेम और प्रार्थना दोनों ही शब्दों के अपने खास मायने हैं और दोनों ही शब्द समय से मुठभेड़ करते दिखाई देते हैं । चूंकि प्रार्थना को भी उतना ही दूषित कर दिया गया है जितना प्रेम को इसलिए इस संग्रह का शीर्षक अपने आप में एक खूबसूरत क्रिएटिविटी बन गई है ।
इस संग्रह में बहुतेरी कविताएं ऐसी हैं जो कवि की संवेदनात्मक अनुभूतियों को ऐसे अंदाज में बयां करती हैं कि पाठक हैरानी के साथ मुस्कुरा उठता है । वह खम ठोंक के मुस्कुराने की क्रिया को सबसे सुंदर दृश्य में बदलने का दावा करते हुए लिखता है –
“मैं मुस्कुराया
वह मुस्कुरायी
यह संसार का सबसे सुंदर दृश्य था
जिसे अबतक नहीं देखा गया था कहीं ...” (चिंतित तितली)
काव्य संग्रह का शीर्षक प्रेम के पक्ष में संबोधित है और निश्चित ही कवि न केवल अपने जीवन से जोड़कर इस विषय की कविताओं का निर्माण करता है बल्कि उसके पिटारे में ऐसा कुछ भी है जो दूसरे प्रेमियों को सुखद सा लगता है । ‘तुम और मैं’ कविता में कवि स्वानुभूति को दर्शाता हुआ कहता है –
“कविताएं लिखते रहो, तुम बोले
तुम हो तो हैं कविताएं, कहा मैंने...”
यहाँ अभिधात्मक रूप से कवि अपनी कविता के स्त्रोत को प्रेम से जोड़ने की चेष्टा कर रहा है जो एकदम सफल प्रतीत भी होती है । प्रेम का अस्तित्व कविता के लिए अनिवार्य तत्व शुरू से ही समझा गया है । आदिकवि वाल्मीकि के मन में भी कविता का अंकुर तभी फूटता है जब प्रेम में मग्न क्रौंच पक्षी के जोड़े में से एक, शिकारी के बाण से आहत होकर अपने प्रेमी से विलगा जाता है । यहाँ कविता के लिए दो स्थितियाँ हैं एक है प्रेम और दूसरी मृत्यु । ये दोनों ही स्थितियाँ कविता के लिए उपजाऊ जमीन जैसी समझी जाती रही हैं । हिन्दी कविता में महाकवि निराला इसके अप्रतिम उदाहरण हैं जो ‘जूही की कली’ से होते हुए ‘सरोज स्मृति’ तक पहुंचते हैं । कवि इस बात की तसदीक एक दूसरी कविता में करता है, वह प्रेम को मनुष्य के निर्माण की संभावना का प्रथम कदम बताते हुए लिखता है –
“प्रेम करना
मनुष्य होने की यात्रा में
उठाया गया
पहला कदम है” (मनुष्य की गरिमा)
यह एक कवि का प्रेम ही हो सकता है कि उसका वितान अपनी पसंद की स्त्री से बढ़कर बहुत सारी खूबसूरत चीजों तक पहुँच जाता है । कभी वो अपने प्रेम को मुंडेर पर बैठी गोरैया के माध्यम से प्रकट करना चाहता है तो कभी आँगन में महकते आम्र मंजरियों की सुगंधित सुहास से । प्रेम शै ही ऐसी है जो मनुष्य की दृष्टि को विस्तार देती है न कि संकुचित करती है । इसलिए कवि बहुत शिद्दत के साथ प्रेम के पक्ष में खड़ा दिखाई दे रहा है, प्रेम को संभाले हुए है, प्रेम के पक्ष में प्रार्थना कर रहा है, प्रेम में मुस्कुरा रहा है, प्रेम में वसंत और आषाढ़ के मौसमों में अपनी देह तर कर रहा है, प्रेम को अचरज की तरह देख रहा है, प्रेम में खुशी ढूंढ रहा है, प्रेम में पंछी बन गया है, प्रेम में नदी बन गया है; कवि के पास प्रेम के अनेक रंग है, रंगबिरंगा प्रेम । लेकिन यह सर्वविदित है कि प्रेम अकेला नहीं आता वह आता है खुशी के रंगों के साथ लेकिन जब जाता है तो अवसाद और यातना देकर । प्रेम केवल खुशी देता तो क्या प्रेम होता ! उसमें विरह की तड़पन भी होती है, यादों की एक गठरी हमेशा सिर पर लदी हुई प्रतीत होती है । कवि के पास है वो सब जो प्रेम को मुकम्मल बनाता है । बेबसी की एक तस्वीर पेश करती हुई ये पंक्तियाँ देखिए –
“तुम उदास थे
और मैं कुछ नहीं कर सकता था
कि हर लूँ उदासी
मेरा होना कितना व्यर्थ था
तभी जाना ...”
ऐसी बेबसी है कि जान जाती है । प्रेम के सिर्फ एक पक्ष को देखकर उसके प्रति लालायित रहना मनुष्य की अपरिपक्वता की निशानी होती है । बहुत बार वह हड़बड़ी में गलत कदम उठा लेता है । प्रस्तुत काव्य संग्रह में कवि इस खतरे की तरफ भी संकेत करता है कि प्रेम के एक तरफ खुशियां हैं तो दूसरी तरफ विरह की बरछियाँ । वह लिखता है –
“दुख नहीं जाना प्रेम का
तो कुछ नहीं जाना
पक नहीं पाये
रह गए कच्चे ।” (दुख)
‘अधूरा प्रेम’ शीर्षक कविता में कुंदन सिद्धार्थ अधूरे छूटे प्रेम की विवशता जाहिर करते हुआ लिखता है –
“अधूरा छूट गया प्रेम
भटकेगा इस सुनसान में
उसकी आत्मा जो अतृप्त रह गयी ...।”
अधूरा रहना प्रेम की नियति मान कर स्वीकार कर लिया जाता है,अक्सर कहा जाता है कि प्रेम कभी पूरा नहीं होता । यह स्वीकार्यता उन सामाजिक स्थितियों के आगे सरेंडर करने की विवशता जाहिर करती है जो प्रेम में बाधक होती हैं । यह मनुष्य के प्रति बेहद क्रूर षड्यन्त्र जैसा प्रतीत होता है । हालांकि कुंदन सिद्धार्थ इस संग्रह की कविताओं में उन परिस्थितियों का जिक्र नहीं करता जिसके कारण प्रेम छूट गया था, वह प्रेम के दुख को जाहिर करके ही सिर्फ इतिश्री कर लेता है और कुछ सवाल पाठकों की तरफ ही उछाल देता है –
“सिर्फ आदमी की दुनिया में
आखिर क्यों हैं प्रेम में इतनी शर्तें ?
आखिर क्यों हैं प्रेम में इतनी दीवारें ?” (प्रेम-पाठ)
ये जो प्रश्न कवि ने उठाए हैं, ये सदियों पहले के प्रश्न हैं । ये आज के प्रश्न नहीं हैं कि पाठक समझें ये दीवारें आज ही (उनके समय में) उठी हैं । प्रेम के मध्य ये दीवारें उठाने वाले लोग कौन हैं और क्या कारण है कि हमारे समाज में प्रेम करना इतना भयावह एक्सपीरियंस बन गया है कि लोगों को अपनी जान देनी पड़ जाती है । इन सारे सवालों का मुहँ वापिस कवि की तरफ ही मोड दिया जाए तो बेहतर रहे ।
प्रस्तुत काव्य-संग्रह के अंत में कुछ मिथकों को झकझोरती हुई कविताएं भी हैं हालांकि उनका मूल स्वर भी प्रेम ही है । एक कवि मिथकीय पात्रों व उनकी चरित्र, उनके क्रियाकलापों को उस दृष्टि से नहीं देख पाता जैसा एक आम आदमी उनके बारे में सोचता है । यही कुंदन सिद्धार्थ ने अपनी इन कविताओ में जाहिर किया है । उनकी कविताओं का स्वर इन मिथकीय पात्रों के प्रति श्रद्धा व्यक्त न करते हुए उनपर सवालों की बौछार करना है । इस कड़ी में एक उल्लेखनीय कविता है ‘क्षमा-पत्र’ जिसमें महाभारत के मुख्य पात्र भीष्म पितामह के चरित्र पर सवालों का ऐसा चक्रव्यूह बना दिया गया है जिससे निकल पाना असंभव है । यह अपेक्षाकृत लंबी कविता चार भागों में विभक्त है और चारों में ही अलग-अलग घटनाओं के द्वारा भीष्म उर्फ देवव्रत को इतिहास के कठघरे में खड़ा करने का प्रयास सफल होता दिखाई दे रहा है । पहले भाग में कवि देवव्रत द्वारा अपने कामान्ध पिता के समर्थन में ली गई प्रतिज्ञा पर प्रश्नचिह्न लगाते हुए लिखता है –
“सुनें गंगा !
कामान्ध पति द्वारा किये गए अपमान
और आपके पुत्र का उसका साथ देने के लिए
पूरी मनुष्यता की ओर से मैं आपसे क्षमा माँगता हूँ ।”
इस कविता के दूसरे भाग में भीष्म द्वारा अम्बा, अम्बिका , अंबालिका के बलात बर्बर अपहरण को केंद्रित किया गया है । ध्यातव्य है कि भीष्म ने इनका अपहरण अपनी शौर्य शक्ति को दिखाने व अपने भाई राजा विचित्रवीर्य की वासना पूर्ति के लिए किया था । इसके तीसरे भाग में कवि ने उस घटना का जिक्र किया है जिसमें द्रौपदी को वस्त्रहीन करने की कोशिश की गई थी व उसी सभा में बैठे भीष्म सत्ता की कुर्सी से बंधे विवश नजर आए थे । कुंदन इन तीनों ही घटनाओं से यह सिद्ध करने में सफल रहे हैं कि हमारी चेतना में उन लोगों को श्रेष्ठ सिद्ध कर दिया गया है जो स्त्री को केवल उपभोग्य समझते थे । हमारी माइथोलॉजी ऐसे तथाकथित महापुरुषों से भरी हुई है और यह भी एक कारण हो सकता है कि हमारे समाज में प्रेम का कॉन्सेप्ट हमेशा से इतना विकृत कर दिया गया है । इस कविता के आखिर भाग में कवि सीधा सीधा भीष्म पितामह की महानता को चुनौती देते हुए लिखता है –
“इतिहास में तुम्हारी इस कुत्सित उपस्थिति के लिए
पूरी मनुष्यता की ओर से मैं इतिहास से क्षमा माँगता हूँ ।”
इसी स्वर की एक कविता और इस काव्य संग्रह में संकलित है जिसका शीर्षक है ‘कैसे क्षमा कर दूँ एकलव्य’ । एकलव्य हिन्दू मैथोलॉजी का एक ऐसा पात्र है जिसके प्रति अनेक हिन्दी कवियों ने अपनी सहानुभूति दिखाई है लेकिन कुंदन सिद्धार्थ अपनी एक अलग दृष्टि से एकलव्य वाले पूरे दृश्य को देखते हैं । यह कविता इन पंक्तियों से आरंभ होती है ‘तुम पर दया नहीं आती, क्रोध उपजता है एकलव्य’ । एकलव्य पर क्रोध, पढ़कर पाठक एकदम से हैरान रहना स्वाभाविक है । आखिर कवि उनपर क्रोध क्यों कर रहा है, इसके पीछे क्या वजहें हो सकती है ? चूंकि पाठक ने इस कहानी में आचार्य द्रोण को विलेन समझकर क्रोध किया है लेकिन कुंदन सिद्धार्थ एकलव्य को ही क्रोध का पात्र बता रहे हैं । जब हम कविता के दूसरे पहरे पर जाते हैं तो कुछ कुछ स्पष्ट हो जाता है –
“तुम पहचान नहीं पाये
कि जिसे तुम गुरु मानकर पूजते रहे
वह शिष्यहन्ता है, गुरु नहीं ....”
कवि यहाँ द्रोण को कठघरे में तो खड़ा करता ही है लेकिन एकलव्य की नासमझी पर उसे गुस्सा भी आ रहा है । यहाँ एक शब्द ‘शिष्यहंता’ अपने अर्थ के कारण, गुरु द्रोण की महानता के चीथड़े कर देता है । एकलव्य की चुप्पी के प्रति कवि खीज से भर जाता है । वह चाहता है कि जब द्रोण ने एकलव्य से अंगूठा मांगा तो उसे उसका प्रतिकार करना था, तुरंत विरोध करना था बल्कि कवि तो स्पष्टता के साथ कहता है कि एकलव्य को द्रोण को गुरु मानने से ही इंकार कर देना चाहिए था । कवि बहुत तीखे शब्दों में द्रोण को सत्ता के साथ सुख चाहने वाला भाड़े का टट्टू कह रहा है । ‘भाड़े के टट्टू को, गुरु समझने की भूल कर बैठे एकलव्य, यह भूल तुम्हारी श्रद्धा पर भारी पड़ गयी’ । यहाँ कवि न्याय के प्रति आश्वस्त होना चाह रहा है, ऐसा न्याय जिसमें कोई भी व्यक्ति किसी के भी प्रति श्रद्धावनत होकर स्वयं के साथ कोई अन्याय न कर बैठे । इसलिए ही कवि एकलव्य की चुपचाप अंगूठा देने की घटना के प्रति क्षोभ व गुस्से में भर जाता है । वह एकलव्य को इसके लिए धिक्कारता हुआ कह उठता है –
“काश तुम लड़ते यद्ध उस शिष्य हंता से
यही न होता कि मारे जाते
अंगूठा कटवाकर जिस तरह मारे गये
उचित होता कि अनाचार के विरुद्ध लड़कर मारे जाते
वह मृत्यु इस मृत्यु से श्रेयस्कर होती”
इस प्रकार यह कविता अपनी बेहतर मानवीय संवेदना व एक अलग दृष्टि के कारण महत्त्वपूर्ण बन गई है । यद्यपि इसमें द्रोण व एकलव्य दोनों के ही प्रति कठोर शब्दों का प्रयोग किया गया है तथापि यह मनुष्यता की दृष्टि से एकदम उपयुक्त है ।
और अंत में, कुंदन सिद्धार्थ को इस काव्य संग्रह के लिए शुभकामनाएं । निश्चित रूप से उनकी कविता एक बेहतर मानवीय अभिव्यक्ति बन पायेंगी, एक बेहतर समाज के निर्माण में; जहां प्रेम को बड़े स्तर पर स्वीकार्यता मिल पाये, सहायक हो सकेंगी इसी उम्मीद के साथ ।
कपिल भारद्वाज
हिसार, हरियाणा
9068286267
कविता ने जब भी प्रार्थना की प्रेम और मानवीयता के पक्ष में की यही कविता का मूल धर्म है और एक कवि का कर्तव्य ।
सार्थक टिप्पणी । बेशक एक कवि के लिए उसके पहले संग्रह पर पाठकीय टिप्पणी बहुत मायने रखती है । “महाभारत एक बेहतरीन व्यंग्य रहा होगा, जिसे बड़ी चालाकी से दिव्यता में डुबो दिया गया है । ताकि आदर्शों से भरे इस महादेश में अपने को श्रेष्ठ समझे जाने का वहम तमाम लोग पाले रखें ।” कुंदन सिद्धार्थ जी को हार्दिक शुभकामनाएं । लिखते रहें । 💐💐💐