अहीरवाल के अजेय नेता राव बलबीर सिंह – चौधरी रणबीर सिंह

हरियाणा के गुरुग्राम, रेवाड़ी और महेंद्रगढ़ जिले अहीर-बहुल उपक्षेत्र होने के कारण अहीरवाल कहलाते हैं। इस क्षेत्र में अहीर जाति का प्रभुत्व है, जो कि अपने नाम से पहले राव की उपाधि लगाती है और नाम के पीछे अपनी जाति के उपनाम यादव का प्रयोग करती है। हरियाणा के अपेक्षाकृत आर्थिक रूप से पिछड़े इस क्षेत्र की यह जाति अपने आपको कृष्ण का वंशज होने का दावा करती है। गौरतलब है कि इसी जाति के राजा तुलाराम ने 1857 के भारत के पहले स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। किंतु यह सराहनीय काम ही जाति के लिए औपनिवेशिक काल में एक अभिशाप बन गया था।

योद्धा होने के बावजूद अहीर जाति के युवकों को अंग्रेजी सेना में भर्ती नहीं किया जाता था, जबकि दूसरी लड़ाकू जातियों- जाटों और राजपूतों को यह गौरव प्राप्त था। ऐसी परिस्थितियों में अहीरों की सेना में भर्ती राव तुलाराम के पौत्र राब बलबीर सिंह के सजग प्रयासों से ही शुरू हो पाई थी। उन्हें इस योगदान के लिए प्रथम महायुद्ध के समय अंग्रेजी सरकार के द्वारा ऑनरेरी रिक्रूटिंग ऑफिसर नियुक्त किया गया और कैप्टन की उपाधि भी दी गई। इसका नतीजा यह हुआ कि अहीरवाल के शुष्क क्षेत्र के युवकों को रोजगार मिलने लगा और इस जाति के सामाजिक स्तर में भी महत्वपूर्ण विकास हुआ। राव बलवीर सिंह को अंग्रेजी सरकार द्वारा राव बहादुर की उपाधि भी दी गई। परिणामस्वरूप वह औपनिवेशिक काल में अहीरवाल के सबसे प्रभावशाली राजनेता के रूप में उभरने में सफल रहे। उपरोक्त तथ्य की पुष्टि इससे होती है कि राव बलबीर सिंह 1920, 1925 और 1933 में हुए चुनावों में गुड़गांव सामान्य ग्रामीण चुनाव क्षेत्र से पंजाब विधान परिषद के सदस्य चुने गए। भारतीय राज्य अधिनियम (1935) के लागू होने के बाद 1937 में वह पंजाब विधानसभा के सदस्य चुने गए। उनकी इस विजय को इस परिप्रेक्ष्य में देखना होगा कि 1923 से 1945 तक हरियाणा में यूनियनिस्ट पार्टी का प्रभुत्व था और चौधरी छोटू राम को हरियाणा क्षेत्र का सबसे प्रभावशाली नेता माना जाता था। लेकिन, वह भी इन्हें हरा नहीं सके। यह भी उल्लेखनीय है कि राव बलबीर सिंह का संबंध हिन्दू महासभा से था, जिसका पंजाब प्रांत में और विशेष तौर पर हरियाणा क्षेत्र में बहुत ही कम प्रभाव था।

अब यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि राव बलबीर सिंह को अहीरवाल का अजेय नेता बनाने में किन कारकों की भूमिका रही। इस प्रसंग में पहली बात तो यह है कि राव तुलाराम का पौत्र होने के कारण उन्हें अहीरवाल का राजा समझा जातो था। दूसरे, वह इस उप-क्षेत्र के सबसे बड़े जागीरदार थे। तीसरे, जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है, उनका अहीरों की सेना में भर्ती में योगदान रहा। इसी कारण उन्हें अंग्रेजों से न केवल राव बहादुर की उपाधि मिली थी, बल्कि उन्हें औपनिवेशिक शासन का पूरा संरक्षण भी प्राप्त था। राव बलबीर सिंह के नेतृत्व के विकास में उनके द्वारा रामपुरा (रेवाड़ी) में भगवत भक्ति आश्रम की स्थापना करना मुख्य सहायक तत्व रहा। इसी कारण उन्हें अहीरवाल के लोग एक बहुत ही धार्मिक व्यक्ति मानने लगे और उनके कट्टर समर्थक बन गए थे। तीसरा कारण उनके द्वारा आश्रम में गऊशाला का निर्माण करना रहा। यहां यह बतलाना आवश्यक है कि उस क्षेत्र के लोग भी शेष हरियाणा के लोगों की तरह ही गऊ को अपनी माता मानते हैं और उसकी पूजा करते हैं। इस संदर्भ में एक अन्य कारण राव बलबीर सिंह के द्वारा शिक्षा संस्थानों की स्थापना करना रहा। उन्होंने न केवल अहीर हाईस्कूल, रेवाड़ी की स्थापना की बल्कि रामपुरा आश्रम में महिलाओं की शिक्षा की व्यवस्था भी की। इस पिछड़े क्षेत्र के लोगों को महिला शिक्षा के लिए प्रेरित करने के लिए उन्होंने अपनी दो लड़कियों सुमित्रा देवी और सुविद्या देवी को भी उसी पाठशाला में दाखिल करवाया था।

अहीरवाल उप-क्षेत्र में राव बलबीर सिंह की राजनीति की विरासत आज तक कायम है। 1957 में उनकी बेटी राजकुमारी सुमित्रा देवी कांग्रेस के टिकट पर रेवाड़ी विधानसभा क्षेत्र से निर्विरोध पंजाब विधानसभा की सदस्य बनीं। वह 1962 में भी इसी चुनाव क्षेत्र से पंजाब विधानसभा की सदस्य निर्वाचित हुईं। 1967 में भी इसी चुनाव क्षेत्र से कांग्रेस के टिकट पर हरियाणा विधानसभा की सदस्य बनीं और 1968 में उन्होंने विशाल हरियाणा पार्टी के उम्मीदवार के रूप में यहां से विजय प्राप्त की। यह पार्टी उनके भाई राव बिरेंद्र सिंह ने 1967 में स्थापित की थी।

राव बलबीर सिंह के पुत्र राव बिरेंद्र सिंह 1953 और 1959 में पंजाब विधान परिषद के सदस्य चुने गए थे। 1956 में मुख्यमंत्री प्रताप सिह कैरों ने उन्हें उपमंत्री बना दिया था और 1957 में उन्हें मंत्रिपरिषद का सदस्य बना दिया था, लेकिन मतभेदों के कारण 1961 में उन्हें मंत्री पद से तत्कालीन राज्यपाल नरहरि विष्णु गाडगिल ने मुख्यमंत्री कैरों की सलाह से पदच्युत कर दिया था। लेकिन इस बात से अहीरवाल क्षेत्र में सरदार प्रताप सिंह कैरों और कांग्रेस के प्रति बहुत नाराजगी हो गई थी। इसीलिए 1962 के विधानसभा चुनाव से पहले कैरों ने उनसे सुलह की और चुनाव के बाद उन्हें पंजाब सरकार में रक्षा सलाहकार नियुक्त कर दिया गया था।

 1967 में वह न केवल हरियाणा विधानसभा के सदस्य बने, बल्कि इसके स्पीकर भी चुने गए थे। इसके बाद उन्हें संयुक्त विधायक दल के नेता के रूप में मुख्यमंत्री बना दिया गया था। किंतु ‘आया राम, गया राम’ की राजनीति के कारण मात्र छह मास के बाद ही उनकी सरकार को बर्खास्त कर दिया गया और विधानसभा भंग कर दी गई। वह 1968 में दो विधानसभा चुनाव क्षेत्रों से विधायक चुने गए और उन्हें विपक्ष का नेता नियुक्त किया गया। 1971, 1980, 1984, 1989 में वह लोकसभा के सदस्य चुने गए। 1980 से 1984 तक और 1989 से 1991 तक राव बिरेंद्र सिंह केंद्र सरकार में कैबिनेट मंत्री रहे। इस समय राव बलबीर सिंह के बड़े पौत्र राव इंदरजीत सिंह गुरुग्राम से लोकसभा सदस्य हैं और केंद्रीय मंत्रिमण्डल में राज्यमंत्री, स्वतंत्र प्रभार हैं। इससे पूर्व वह 2005, 2009 और 2014 में लोकसभा के सदस्य चुने गए थे। उनके सबसे छोटे पौत्र यदुवेंद्र सिंह भी 2005 से लेकर 2014 तक हरियाणा विधानसभा के सदस्य रहे हैं। इन तथ्यों से सिद्ध होता है कि राव बलबीर सिंह की राजनीतिक विरासत आज भी कायम है।

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