कविता
कभी
बरबादी के गम में
डूबे
लाचार, बेबसी का
घूंट पीते बूढ़े
कभी
दुर्याेधन की
महत्वाकांक्षा का शिकार
धृतराष्ट्र बन जाते
बूढ़े
कभी
द्रोण
कभी
भीष्म की तरह
मूक हो जाते
बूढ़े
कभी पुत्र मोह में
छोड़ जाते हैं
प्राण
कभी
घर का ताला है
ममता का प्याला है
वट वृक्ष की छांव
हैं बूढ़े….।