हरियाणा में वामपंथ: एक नज़र – सुरेन्द्र पाल सिंह

वाम या लेफ्ट संज्ञा की उत्पति का इतिहास सन 1789 की फ़्रेंच रिवोल्यूशन से है। फ्रांस की नेशनल असेंबली में क्रांति के पक्षधर बाईं ओर बैठते थे र राजशाही के समर्थक दाईं ओर। इस प्रकार से उन्हें लेफ्ट और राइट या लेफ्टिस्ट और राइटिस्ट के नाम से जाना जाने लगा।

सन 1917 में रूस की क्रांति ने पूरी दुनिया में एक व्यापक असर छोड़ा और बाकी देशों में उपनिवेशवाद के खिलाफ़ आजादी के आंदोलनों में रूस की क्रांति से प्रेरणा लेते हुए वामपंथी समूहों ने नौजवानों, किसानों, मजदूरों को लामबंद करना शुरू कर दिया।
सन 1857 के विद्रोह को निर्मम रूप में कुचले जाने के बाद ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध एक लंबे अरसे तक हरियाणा के इलाके में एक सदमे वाली खामोशी रही। पहले विश्वयुद्ध के दौरान गदर आंदोलन, उसके बाद कॉन्ग्रेस की गतिविधियां और अनेक पॉकेट्स में औद्योगिक और रेलवे मजदूर तबकों के पैदा होने के बाद एक नई चेतना की जमीन तैयार होने लगी। इन परिस्थितियों में हरियाणा के कुछ इलाकों में वामपंथी रुझानों के उभार और सक्रियता का इतिहास अत्यन्त रोचक है।

कीर्ति किसान पार्टी:

10 मार्च 1929 को रोहतक में अर्जुन लाल सेठी की अध्यक्षता में तीसरा प्रांतीय सम्मेलन हुआ जिसमें सोहन सिंह जोश (गुरुद्वारा लिबरेशन मूवमेंट और बाद में मेरठ षड्यंत्र केस, क्विट इंडिया मूवमैंट में जेल काटने वाले और भगतसिंह के सहयोगी), जवाहर लाल नेहरु भी शामिल हुए थे।

21 फरवरी 1930 को गांव बरवा (थाना सिवानी) में कीर्ति किसान पार्टी की एक कॉन्फ्रेंस में 100 से 150 लोगों ने हिस्सा लिया जिसमें दरांती हथौड़े वाला लाल झंडा फहराया गया। इस कॉन्फ्रेंस में लाहौर से मूलराज आए थे और अध्यक्षता के. ए. देसाई ने की थी। रूसी क्रांति से प्रभावित इस कॉन्फ्रेंस में पंचायती राज सिस्टम की स्थापना का प्रस्ताव पारित किया गया।

सरकारी गुप्त रिपोर्ट के अनुसार, ” यह गांवों में कीर्ति किसान पार्टी और बोल्शेविक विचारों का प्रथम नियोजित प्रयास है और यह उल्लेखनीय है कि इस उद्देश्य के लिए प्रांतीय तथा स्थानीय राजनैतिक कार्यकर्ता एकजुट हो चुके हैं।”

इन्हीं दिनों गांधीजी के नेतृत्व में सविनय अवज्ञा आन्दोलन की ब्यार बह चली थी। ब्रिटिश सरकार ने के. ए. देसाई, हमीर सिंह, मांगें राम, जगदीश राय जाट, पतराम और मूलराज मेहता को गिरफ्तार कर लिया। इसके खिलाफ़ हिसार जेल के गेट के बाहर रोष प्रदर्शन हुआ और शाम को कटला रामलीला के मैदान में क़रीब 300 लोगों द्वारा विरोध सभा की गई। बाद में गिरफ्तार किए गए नेताओं को 6 से 9 महीनों की सजा दी गई।

27–28 जुलाई 1931 को हिसार में कीर्ति किसान पार्टी की डिविजनल कॉन्फ्रेंस संता सिंह कनैडियन की अध्यक्षता में हुई जिसमें सी. पी. आई. की संकीर्ण रणदिवे लाइन को स्वीकार कर लिया गया जिसके मुख्य बिंदु इस प्रकार से थे:

1. ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ़ संघर्ष करते हुए पूर्ण स्वतंत्रता।
2. जागीरदारों, साहूकारों और फैक्ट्री मालिकों की संपत्ति को मजदूर किसानों को सौंपना।
3. भूमिकर और साहूकारों द्वारा दिए गए कर्जों की समाप्ति।
4. फैक्ट्रियों, बैंकों और रेलवे का राष्ट्रीयकरण।
5. आठ घंटों का काम, न्यूनतम वेतन और बुढ़ापा पेंशन।
6.  कॉन्ग्रेस की पूंजीपतियों की पार्टी के तौर पर आलोचना।

सन् 1934 में ब्रिटिश सरकार ने कीर्ति किसान पार्टी को अवैध घोषित कर दिया और इसके कार्यकर्ता कॉन्ग्रेस और सोशलिस्ट पार्टी में काम करने लग गए।

नौजवान भारत सभा:

सन 1926 में लाहौर में नौजवान भारत सभा सक्रिय हुई और सन 1928 में भगतसिंह और सोहन सिंह जोश ने मशवरा करके इसके पुनर्निर्माण और प्रसार का फैसला लिया।

चौथे दशक की शुरुआत में रोहतक, हिसार, सिरसा, भिवानी, हांसी, कैथल, अम्बाला में सैकड़ों नौजवान इसके सदस्य बने। जुलाई 1931 में हिसार में संपन्न इसकी डिविजनल कॉन्फ्रेंस की अध्यक्षता शिवदत्त रंगा ने की और इसमें अजमेर से अर्जुन लाल सेठी, रावलपिंडी से मो. अफजल और धर्मवीर कोहली, मुल्तान से मूलराज और सुंदरलाल, लायलपुर से रिछपाल सिंह ने शिरकत की थी।
शुरुआती जलूस  मार्क्सवादी – लेनिनवाद जिंदाबाद, रूस की सोवियत सरकार जिंदाबाद के नारों के साथ निकाला गया। भूमिकर, अम्बाला में रायबहादुर गंगाराम की फैक्ट्री में मजदूरों पर दमन, हांसी फैक्ट्री में 12–12 घंटे काम की आलोचना की गई। अतंत: कीर्ति किसान  की तरह सन 1934 में नौजवान भारत सभा को भी अवैध घोषित कर दिया गया।

कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया:

सन् 1932–33 में महाराजा अलवर के खिलाफ़ वहां के किसानों के संघर्ष में मेवात से सैय्यद मुतालबी फरीदाबादी और चौधरी अब्दुल हयी ने हिस्सा लिया। सन 1934 में गुड़गांव में सीपीआई की जिला इकाई का गठन किया गया जिसके सेक्रेटरी सैय्यद मुतालबी फरीदाबादी चुने गए और जिला कमेटी के सदस्य बने ; गुड़गांव से पतराम और नत्थुराम, नगीना से कॉ. जियाउद्दीन, घोडाचली से कॉ. अब्दुल हयी।

कुछ ही समय बाद सन् 1934 में सीपीआई पर भी बैन लगा दिया गया जो सन 1942 तक लागू रहा। इस दौरान ये नेता कांग्रेस में काम करते रहे और कॉ. मुतालबी तो कांग्रेस की राज्य कार्यकारिणी के सदस्य भी चुने गए। 1936–37 में पलवल में जागीरदार विरोधी संघर्ष में इन्होंने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। 1942–43 में रिवाड़ी में सीपीआई की स्थापना हुई। कॉ. निजामुद्दीन रेलवे जंक्शन पर मजदूरों के नेता, कॉ. प्रभुदयाल उर्फ काला, कॉ. बाबूलाल चौबे, कॉ. फक्कड़ किसानों के नेता के रूप में उभरे। इसी दौर में नगरपालिका के सफाई कर्मचारियों को भी संगठित किया गया।

सन 1938 में अम्बाला में किसानसभा सक्रिय हुई और कलसिया रियासत में छछरौली में सैकड़ों किसानों ने गिरफ्तारियां दी। जागीरदारी के खिलाफ़ 1940 में पांच हज़ार किसानों ने कन्धों पर कस्सी, कुल्हाड़ी, तंगलियां रखकर जलूस निकाला। इसी दौरान कालका में सीपीआई ने एक गुप्त कार्यालय चलाना शुरू कर दिया जहां से ’लाल ढिंढोरा’ अख़बार निकाला जाता था।
दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान 23 जुलाई 1942 को सीपीआई से बैन हटा लिए जाने के बाद अम्बाला में लोकयुद्ध नाम से एक जलसे का आयोजन किया गया।

1943 में पार्टी के नेताओं की गिरफ्तारियां हुई और इसी दौरान तरावड़ी, हांसी, करनाल में इनकी गतिविधियां बढ़ी। यूपी से आए अब्दुल अज़ीज़ ने हांसी के एक मन्दिर में पुजारी के रूप में रहते हुए काम किया। बंगाल से आए राजेंद्र दत्त निगम यहां सक्रिय रहे।
सन् 1944 तक यमुनानगर, कालका, फरीदाबाद, गुड़गांव, रिवाडी जैसे केंद्रों पर मजदूरों को लामबंद करने में सीपीआई की मुख्य भूमिका रही।

सन् 1945 में मई दिवस मनाया गया जिसमें राशन और कपड़े की कमी के खिलाफ़ जोरदार आवाज उठाई गई। यमुनानगर में किसान एक चौथाई गन्ना अपना गुड़ बनाने के लिए के संघर्ष में जीते और गन्ना मिल में पांच रुपए वेतन वृद्धि भी हासिल की। कलसिया रियासत को खत्म करने के लिए गांव-गांव जलसे-जलूस का जोरदार सिलसिला चलाया गया।

आज़ादी से पहले एक महत्वपूर्ण आयोजन रिवाड़ी में 23 अक्तूबर 1946 को कॉ. के एम अशरफ़ की अध्यक्षता में राजनैतिक कांफ्रेंस के नाम से किया गया। इस कांफ्रेंस में किसान, मजदूर, प्रजामण्डल के प्रतिनिधियों ने जागीरदारी ख़त्म करने, अछूतों को जमीन बांटने, न्यूनतम वेतन चालीस रुपए, ऑनरेरी मैजिस्ट्रेट, जैलदार, लंबरदार जैसे ओहदों को समाप्त करना, आज़ादी और पंचायती राज आदि प्रस्ताव पास किए गए।

आज़ादी के बाद:

जहां जहां फैक्ट्रियां बनती गई मजदूर तबके के उभार के साथ साथ ट्रेड यूनियनों में सीपीआई संचालित एआईटीयूसी का दबदबा लंबे समय तक चला। फरीदाबाद, गुड़गांव, हांसी, हिसार, भिवानी, अम्बाला, यमुनानगर, पानीपत आदि पॉकेट्स में ट्रेड यूनियन गतिविधियां निरंतर चलती रही। सन् 1937 में यूनियनिस्ट पार्टी की सत्ता के दौरान सर छोटू राम की अगुवाई में साहूकारी के खिलाफ जो गोल्डन एक्ट्स बनाए गए उनसे किसानसभा की लोकप्रियता कम हुई और इसका असर काफी लम्बे समय तक रहा। इसके बावजूद किसान सभा ने 1946–47 में हिसार जिले में मुजारों को मालिकाना हक दिलवाने को सफल मोर्चे लगाए। भंबूर और कुत्ताबढ़ गांव इसके उदाहरण हैं। 1956–57 में भाखड़ा नहर वाले इलाकों में बैटरमेंट टैक्स के विरुद्ध भी जुझारू आंदोलन लड़ा गया। 1970 के दशक में सरप्लस जमीन पर कब्जा करो मोर्चा भी सफल रूप से लगाया गया। नतीजे के रूप में सिरसा के इलाके में दर्जनों पंचायतों में सीपीआई प्रत्याशी जीत कर आए। नौजवानों में एआईवाईएफ और छात्रों में एआईएसएफ ने कुछ पॉकेट्स में अपनी उपस्थिति जारी रखी।

सन् 1964 में सीपीआई को संशोधनवादी जताते हुए पार्टी दोफाड़ हुई और सीपीआईएम नाम से एक नई पार्टी वजूद में आई। धीरे धीरे सीपीआई के तमाम जनसंगठनों के टुकड़े होने लगे और यूथ में डीवाईएफआई, छात्रों में एसएफआई, ट्रेड यूनियन में सीटू बहुत तेजी से उभरे।

एक दौर में एसएफआई का राज्य के विश्विद्यालयों की निर्वाचित यूनियनों में अच्छा खासा प्रभाव रहा। छात्रों के अनेक संघर्षों में इसने अगुवाई की और सीपीआईएम की लीडरशिप में भी एसएफआई से अनेक एक्टिविस्ट होलटाइमर के रूप में निकले। एमरजेंसी के दौरान भी एसएफआई के कुछ नेता जेल में रहे।

पिछली सदी के आखिरी दसक में पूर्ण साक्षरता मिशन के माध्यम से राज्य के बुद्धिजीवी वर्ग में सीपीआईएम ने विज्ञान मंच के सहारे एक बड़ी पैठ बनाई जिसकी छाप आज भी बरकरार है। कर्मचारी संगठनों में भी लंबे अरसे तक सीपीआईएम का दबदबा अन्य पार्टियों से जुड़े संगठनों से कहीं अधिक है।

चुनावी राजनीति में राज्य में वामपंथ का दखल नगण्य ही रहा है। सीपीआई और सीपीआईएम दोनों पार्टियों से विधायक बने भी तो गठबंधन के ही सहारे। स्थानीय निकायों और ग्राम पंचायतों में भी वामपंथी उम्मीदवार वोटर की पसंद नहीं बन पाए। आज़ादी से पहले नारनौल में महाराजा पटियाला और लोहारू के नवाब के विरुद्ध प्रजामंडल आंदोलन में सक्रिय समाजवादी पार्टी का आज़ादी  के बाद अनेक प्रान्तों में  उभार उल्लेखनीय रहा जिसका असर हरियाणा के हिसार लोकसभा क्षेत्र से अपने बूते पर समाजवादी पार्टी का सांसद बनना, एमरजेंसी के दौरान दर्जनों कार्यकर्ताओं द्वारा स्वयं जेल में जाना, सन 1977 में जनता पार्टी की टिकट से एक दो विधायक बनने का रिकॉर्ड है। रेलवे में आज भी इनकी ट्रेड यूनियन मजबूत स्थिति में है।

सन 1967 में सीपीआईएम से ही हथियारबंद क्रांति को व्यग्र एक धड़ा सक्रिय हो उठा और सन 1969 में उन्होंने एक नई पार्टी सीपीआईएमएल का गठन किया जिसके दर्जनों टुकड़े बहुत तेज गति से वजूद में आते गए। नक्सलवादी नाम से पुकारे जाने वाले इस आंदोलन में देश के अनेक राज्यों में सैकड़ों नौजवानों ने अपनी जान दी। पंजाब में भी इसकी गतिविधियां रही लेकिन हरियाणा में इसका प्रभाव नगण्य ही रहा।

अपने आपको एकमात्र असली कम्युनिस्ट पार्टी होने का दावा करने वाली पार्टी एसयूसीआई भी कर्मचारियों, मजदूरों और नौजवानों में अपने कुछ पॉकेट्स बनाए हुए है विशेषकर रोहतक और दक्षिणी हरियाणा में।

वर्तमान स्थिति:

राज्य में जहां कहीं भी आन्दोलन की सरगर्मियां दिखाई दे वहां समर्थन या नेतृत्वकारी भूमिका में वामपंथी कार्यकर्ता तैयार मिलते हैं। लेकिन इनके जनसंगठनों का राजनीतीकरण आज भी बहुत दूर की कौड़ी है। उदाहरण के लिए जिस लोकसभा क्षेत्र में किसानसभा की सदस्यता 50 हजार थी वहां किसानसभा के नेता को प्रत्याशी के रुप में मात्र 5 हज़ार वोट मिल पाए। फैक्ट्रियों के बंद होने के साथ साथ और ठेकेदारी प्रथा के चलते ट्रेड यूनियनों के पारंपरिक केंद्र तेजी से सिमटते जा रहे हैं। सूचना क्रांति के इस दौर में नई किस्म के उभरते हुए वर्गों में वामपंथियों के पारंपरिक औजार प्रभावहीन होते जा रहे हैं। नए और प्रभावी औजार गढ़े जाने के प्रयास कहीं दिखाई नहीं दे रहे हैं। यह भी उल्लेखनीय है कि जातिगत समाज की विशिष्ट सामाजिक और सांस्कृतिक सरंचना में वर्ग संघर्ष की अवधारणा के सहारे क्रांति करने के विचार पर शिद्दत से पुनर्मूल्यांकन की आवश्यकता है। सोवियत का टूटना, चीन में समाजवाद की बजाए पूंजीवाद की पराकाष्ठा, यूरोप में कम्युनिस्ट देशों द्वारा पूंजीवाद में पलटी मारना, बंगाल, त्रिपुरा में जबरदस्त झटका, कितने ही प्रांतों में चिंताजनक रूप में कम्युनिस्ट पार्टियों का सिकुड़ जाना – ये तमाम पक्ष हरियाणा के वामपंथ पर भी अपना प्रभाव छोड़ रहे है जिनकी एक गंभीर और ईमानदार मूल्यांकन की दरकार है।

संदर्भ: ’हरियाणा में स्वतंत्रता से पूर्व भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का उदय एवम गतिविधियां: एक विश्लेषणात्मक अध्ययन’ – रामेश्वरदास।
(Journal of Haryana Studies; Kurukshetra University kurukshetra)
[Vol. XXI, No. 1&2, 1989]
2. कॉ. बालदेवराज बख्शी का श्रद्धांजलि पत्र। 
सुरेन्द्र पाल सिंह -
जन्म – 12 नवंबर 1960 शिक्षा – स्नातक – कृषि विज्ञान स्नातकोतर – समाजशास्त्र सेवा – स्टेट बैंक ऑफ इंडिया से सेवानिवृत लेखन – सम सामयिक मुद्दों पर विभिन्न पत्र- पत्रिकाओं में लेख प्रकाशित सलाहकर – देस हरियाणा 
कार्यक्षेत्र – विभिन्न संस्थाओं व संगठनों के माध्यम से – सामाजिक मुद्दों विशेष तौर पर लैंगिक संवेदनशीलता, सामाजिक न्याय, सांझी संस्कृति व साम्प्रदायिक सद्भाव के निर्माण में निरंतर सक्रिय, देश-विदेश में घुमक्कड़ी में विशेष रुचि ऐतिहासिक स्थलों, घटनाओं के प्रति संवेदनशील व खोजपूर्ण दृष्टि । 
पताः डी एल एफ वैली, पंचकूला मो. 98728-90401

More From Author

हरियाणा की राजनीति का बदलता स्वरूप – प्रोफेसर रणबीर सिंह

जनरल शाहनवाज खान

3 thoughts on “हरियाणा में वामपंथ: एक नज़र – सुरेन्द्र पाल सिंह

  1. इस लेख में जाने अनजाने हरियाणा में लम्बे समय से काम कर रहे महिला आन्दोलन का नोट नहीं लिया गया है। उल्लेखनीय है कि इस आन्दोलन ने अपनी जुझारू कार्य शैली व निरन्तर सकरंियता की वजह से ना केवल हरियाणा बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर लैंगिक समानता के लिहाज से रणनीतिक महत्व के मुद्दे उठाए हैं।
    स्वतंत्रता से पहले व बाद में मुझे लगता है अवश्य कोई ना कोई महिलाएं उल्लेखित मुहिमों का हिस्सा रही होंगी। इस पहलू को भी और रिसर्च करने की जरूरत लगती है। कुल मिलाकर अति स्वागत योग्य प्रयास।

  2. @Jagmati Sangwan : आपकी टिप्पणी उल्लेखनीय है। विमर्श होगा तो अनेक कमियां सामने आएगी और तब निश्चित रूप से इस आलेख में आवश्यक संशोधन भी हो पाएंगे।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *