अपना लिखा भेजने में अमित मनोज के भीतर गहरा संकोच है। देस हरियाणा अमित मनोज से उनकी ये अप्रकाशित कविताएँ प्राप्त कर सका, इसके लिए हम अच्छा महसूस कर रहे हैं।
मृत्यु श्रृंखला की इन कविताओं में जीवन गूंजता है, इधर का जीवन। ये कविताएँ अमित मनोज का मृत्यु के साथ संवाद है। यह संवाद उनकी मजबूत भावनाओं को उद्घाटित करता है। हम मृत्यु को भुलाकर जीवन से कट जाते हैं, कुछ भी करते हैं जीते नहीं हैं। जीता वही है जिसे मृत्यु याद है। मृत्यु जीवन का हिस्सा है। लोर्का को लगता था कि ‘हर ठहरे हुए पाँव की जोड़ी में मृत्यु पहले से ही बसी हुई है’ और शायद इसलिए वह नींद में भी मृत्यु को याद करता था। नेरुदा कहते थे ‘मृत्यु हडियों के भीतर है / जैसे कि खालिस आवाज।’ अमित का कवि भी चाहता है कि वह मृत्यु को याद रखे, हमेशा। जो अगर भूले तो दोबारा वह जीवन में लौटे नहीं। ओक्तोवियो पाज ने लिखा है कि ‘एक सच्चा कवि जब अपने आप से बात कर रहा होता है वह दूसरों के साथ संवाद कर रहा होता है।’ आदमी यदि मृत्यु को इस तरह याद रखे तो जाहिर तौर वह मनुष्य बना रहे।
प्रस्तुत हैं अमित मनोज की कविताएँ –
मृत्यु कैसे आएगी पास मेरे
हँसती-मुस्कुराती
रोती-बिलखती
कुछ कहेगी आकर
या दबोच लेगी मुझे
-चलो, बहुत हुआ
पड़े हो कब से !
मृत्यु नींद की तरह होगी क्या
कि आने के बाद भी उठ जाऊँगा
अलार्म सुनकर
या पत्नी की डाँट से
-क्या सोते ही रहोगे आज
सूरज देखो चढ़ आया कितना ?
या बोलेगी बिटिया
-खड़े हो जाओ पापा
देखो ससुराल से आ गई मैं
कहेगा बेटा
-टहल आओ जाओ
पार्क में पात्र तुम्हारे घूम रहे
मृत्यु कैसी होगी
आएगी किस रूप में
नहाती हुई
बनाती हुई जूड़ा
जल्दी चलो अमित मनोज ओ !
कइयों के पास जाना है मुझे
मृत्यु आकर बैठ जाएगी छाती पर मेरी
या तकिया धर देगी मुँह पर
और छोड़ेगी नहीं
साँस घुटने तक मुझे
चाकू होगा क्या मृत्यु के हाथ में
आएगी और घोंप देगी सीने में मेरे
बोलने न देगी चूँ तक
खाली करो इस धरती को
बहुत भारी हुई तुम्हारी देह
सड़क पर मिलेगी मुझे
या राह में खड़ी करेगी इंतज़ार मेरा
बैठी होगी पगडंडी पर
किसी पेड़ तले या पानी के सोते पर
कहाँ-कहाँ तक करेगी निगरानी मेरी
जब भी होऊँगा अकेला या भीड़ में
ले जाएगी मुझे कान पकड़ कर
और कर न पाऊँगा मैं
कुछ भी तो
पहला तो नहीं हूँ मैं
मृत्यु पास आएगी जिसके
न आख़री कि मेरे बाद
भूल ही जाएगी किसी के पास जाना
जब भी दुख में होऊँगा घना
कामना करूँगा मृत्यु की
आ जाओ ओ सखी देखो
अकेला हुआ मैं कितना !
मृत्यु रंगीन होगी या श्वेत
या होगी श्याम रंग की
या कि पारदर्शी
कोई खास रंग ओढ़कर आएगी
भयभीत हो या निर्भीक
धूर्त, चालाक या होकर मतलबी
अर्थ के साथ कि बे-अर्थी
आँखें तरेरती या बंद आँखों
शोर मचाती या चुपचाप
पाँव दबे बिल्ली-सी
या किलकोतरी की तरह
अँधेरे में दूर तक देखती
किस भाषा में बतियाएगी मुझसे मृत्यु
कौन-सी मैं सीखूँ लिपि
कहाँ रुकूँ, कहाँ चलूँ
बोलूँ कैसे किस स्वर में
किस दिशा में सोऊँ मुँह कर
कितने तालों रहूँ मैं भीतर
मृत्यु के वक़्त
घास-सा होऊँगा मैं
या ठूँठ
सच बोल रहा होऊँगा
या झूठ
किसको कह पाऊँगा
मृत्यु ख़ास यार मेरी
कोई भय नहीं
उससे मुझे
मृत्यु तो आनी है
मैं अनिश्चित हूँ
मृत्यु निश्चित
मृत्यु
नाचती आएगी कि नचाएगी
एक टाँग पर मुझे
लेगी चुंबन
या आकर बैठेगी गोद में मेरी
बन शिशु
इठलाती-सी
फसल-सी होगी मृत्यु कि
पकने के बाद अन्न सारा ले आएगा
बोरों में भर किसान
बेचेगा मंडी में लाइन लगा
या कमीशन से बिचौलियों को
कूटेगा कूल्हे अपने
देखो-देखो
मृत्यु को
बेच दिया मैंने
मृत्यु बाजरे के दाने-सी
या गेंहूँ की तरह बीच पेट में
लगाए हुए एक चीरा
या कि सरसों का एक दाना
मसलो तो फैला दे
चिकनाई यहाँ-वहाँ
मृत्यु अन्न हो कौन-सा
भूख लगे जब याद आए
मृत्यु की ही
मृत्यु शनि महाराज के तेल में है
या सात मिर्चों और नींबू की लड़ में
रात भर जागकर पिरोया था जिन्हें
घर भर ने
कई डोलियाँ भरेंगी
और सिक्के भी कई डूबते मिलेंगे
डोली के भीतर
चमक आएगी धोते हुए
गृहिणी के चेहरे पर
तेल सने सिक्के
छौंका जाएगा साग
भक्तों के तेल से
कुनबा बैठेगा सारा
मार आलथी-पालथी
और भूल जाएगा
मृत्यु भी
रहती है कहीं
मृत्यु गेंद है जो
टप्पे खाते आएगी पास मेरे
या हथेली वह
जो उछालेगी देर तक मुझे
मृत्यु उधड़ेगी कितनी दफा
और कौन है जो सी देगा उसे चौकस
मृत्यु फिर आएगी टप्पे खाती
और उछ्लेगी देर तक
हथेली पर मेरी
मृत्यु शहद-सी है कि छत्ते-सी
या मधुमक्खी जो साथ रखे फिरती है डंक
जब भी भाँपती है खतरा कोई
मारती है बेख़ौफ़ हो
छत्ते में रहती हैं कितनी ही मधुमक्खियाँ
और शहद कितना सारा कच्चा-पक्का
डंक उन्हीं मधुमक्खियों में रहते हैं सुरक्षित
चूसती हैं जो फूलों के मकरंद
कोई आता है एक दिन
और तोड़ ले जाता है
मृत्यु से बेख़ौफ़ हो
शहद का छत्ता
नींद की तरह मृत्यु हो
रोज आए और चली जाए
बिन कुछ कहे
जब भी भूलें हम उसे
वह आए और ले जाए हमें
हमेशा के लिए
मृत्यु करवट हो
जब भी मिले न चैन
ले लूँ
बदलूँ रात भर
कई-कई बार
याद जब भी उसकी
सताए
मृत्यु भड़बूज्जे का भाड़
बना देगी सबका भूगड़ा
कोई खिलेगा
कोई होगा अधखिला
कोई कहेगा
मुझको दुबारा से भून दो मृत्यु
खिल नहीं पाया मैं
ठीक से
मृत्यु कब होती होगी अकेली
कि जाऊँ मैं पास उसके
और करूँ एकालाप
स्वागत में वह हो खड़ी
पूछे हँस-हँस हाल-चाल मेरा
मैं जो कुछ कहूँ
सुने वह
गर्दन हिला-हिला
मृत्यु माने मुझको दोस्त
और मेरे लिए
दे-दे अपनी जान
मृत्यु जीवन का ऊपरला पाट
पीस दे गाले में चक्की के जो डले
गति तेज कि मंद
जीवन का जीवन उतना
जितना वह चाहे
दाने गाले में
पिसना जिनका तय
यह मृत्यु पर है
कितनी तेज वह चक्की चलाए
मृत्यु उड़ता एक परिंदा
बैठे जहाँ-जहाँ
छोड़ दे पंजों की छाप
फल-फूल-पत्तियाँ
देखें मृत्यु तो
हिल-हिल जाएँ
मेघा कितने
धरती पर नाचें
अंबर कितने
मृत्यु को बाँचें
मृत्यु का चाक
है कौन जो घुमाता है
दिन-रात
भाँडे कितने
बनते-उतरते
किसमें कितनी देर ठहरेगा द्रव्य
कौन कितना सहेगा
रास्ते की चोटें
किसका कब उतरेगा मुलम्मा
कब कोई बीच में ही जाएगा तिड़क
कौन शामिल होगा किसकी
शव-यात्रा में
किसको छूएगा कोई दूजा हाथ
कब तक चलेगा
मृत्यु का चाक
मृत्यु नाम एक शहर का
बस जाते सब जिसमें
लौटता न कोय
कितना बड़ा शहर वह
सबको लेता समा
हर कहीं उगे होंगे वहाँ
मृत्यु के पेड़
देखते होंगे बाशिंदे
मृत्यु के फूल
चखते होंगे
मृत्यु के फल
भूख मिटाने को
रहती होगी गंध फैली मृत्यु की ही
मृत्यु के शहर में
मृत्यु वसंत की रुत
देती सबको खिला !
मृत्यु जीवन का बीज
रोपें जहाँ उग जाए !
मृत्यु एक नटनिया
फिरे बार-बार
साँसों की रस्सी पर
अधर-पधर
मृत्यु गहरी एक छलांग !
लौटने न देती किसी को भी
प्रिय-अप्रिय, आम-ख़ास
सबसे रहती एक-सी
मृत्यु नवयौवना
चलती मदमाती
छूट-छूट जातीं
यौवन की फुलझड़ियाँ
तलाशती संग-साथ
मिले कोई सखा तो
घुट-घुट बतलाए
गाए गीत
स्वर में मिला स्वर
मचकाए पींग
ऊँची-ऊँची
मृत्यु भागकर मींचती है आँखें
पूछती है बिन बोले बताओ तो
हूँ मैं कौन
मिंची आँखों वाला लेता है
किसी-किसी के नाम
मुस्कुराती है मृत्यु
हटाती है हाथ
हो जाती है आकर सामने खड़ी
ओ तुम हो बैरन !
सोचा ही नहीं था
तुम आओगी ऐसे
एक दिन
(अमित मनोज)
कोथल कलां, महेंद्रगढ़-123028 (हरि.)
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