मोलकी – टेक चन्द

कहानी

कहने को दिल्ली, पर दिल्ली-हरियाणा बार्डर से सटा गांव। बोली, बाना, रिवाज और लोग सब हरियाणवी। हल्की गर्मियों की सांझ चार बजे का समय है।
मोहल्ले में सब अपने रोजमर्रा के काम निपटा रहे हैं। औरतें भैसों को नहलाकर उनका खूंटा बदल रही हैं। कहीं उनका गोबर तसले में भरकर, सिर पर रखकर फेंकने जा रही हैं। आठ-दस-बारह साल की लड़कियां झाडू बुहारी कर रही हैं। कहीं गैस तो कहीं लकड़ी, उपलों का चूल्हा जल रहा है। मर्द, कोई नौकरी से आ गया है तो कोई आने वाला है….संभवत: पी कर आए। लड़के, निठल्ले से खेल-कूद और गुटबाजी में व्यस्त हैं। बालक गलियों में कुदान मारते कुत्तों और सुअरों के साथ स्पर्धा सी कर रहे हैं। इनको तेज हॉर्न देती मोटर साइकिलें भी आ-जा रही हैं। मकानों के छज्जों के नीचे तथा चौतरों-चबूतरों पर जमी ताश की महफिलों की जोडिय़ां धूप कम होते ही खुले में ही बाजियां लगा रही हैं। गांव-घर और गलियों में लड़के ज्यादा हैं, लड़कियां लगभग नहीं हैं, यदि हैं तो चूल्हे-चौके के बावजूद पढऩे-लिखने की कवायद में जुटी।
इसी मोहल्ले में रहती है माया। तीन जवान पर खाली बेटे, पति रामचन्दर उद्योग विहार (इंडस्ट्रियल एरिया) की फैक्ट्री में चौकीदार पर पियक्कड़, लापरवाह। इसलिये लोग बच्चों को माया के ही कहते।
‘माया का छोरा मोल की ले आया’
‘कौण सा? बीच वाला? वो तै पहलां ही मोल की ले आया था… इब के बड्डा वाला ले आया…?’
‘आंय हा ऽ ऽ… यो तै बड़ा जुलम होया… ईब बिचारी पहलड़ी के करेगी…? दूसरी कित तै ल्याया माया का…?’’
‘बेरा ना बेब्बे… चाल देख कै आवैं… माया कै चाल्लैं…’
सारे मोहल्ले की औरतों में लगभग यही चर्चा थी।
मर्दों में भी ऐसी ही बातें हो रही थीं।
‘ओर भई धरमबीर…? सुणा है के तेरे ताऊ का छोरा एक ओर मोलकी घरवाली ले आया सै…?
‘हाँ चाच्चा ले तै आया है…’
‘कित तै ल्याया…? पहलड़ी तै बिहार की थी न रै… अर यो…’
‘यो वाली… शैद (शायद)… झैरखंड… या उड़ीसा-पुडि़सा… की है चाच्चा…’
‘कितणे रपिये मैं…?’ स्वर नरम और बदला हुआ था
‘बेरा ना चाच्चा…’ आवाज़ में शरारत तैर गई
‘तू ऐ बूझ लिये चाच्चा… कितणे म्हं… अर तेरी खात्तर तै कोई बुड्ढी-ठेरी पाँच-सात हजार मैं आ जावैगी…’
कहकर उसने जोर का बनावटी ठहाका लगाया साथ ही पूछने वाला मां की गाली ना दे यह जानकर जोर से भागा। फिर भी कुछ शब्द कानों में पड़ ही गए।
‘मेरी खात्तर तै तेरी मां बी चाल जावेगी… फिरी मैं तेरी मां…’
लगभग हर उम्र का यही हाल था। सब जानना चाहते थे कि कहाँ से? कितने में? ओर बात बण ज्यावेगी के…? वगैरह, माया का आंगन औरतों से भरा हुआ था। लगभग सौ-सवा सौ गज के आयताकार प्लॉट में एक तरफ दो कमरे बने हुए थे। अगल-बगल बने कमरों के आगे लोहे की चद्दरों से बना बरामदा सा छा रखा था। आगे कच्चा आँगन, उसमें एक शहतूत का मंझोला जवान-सा पेड़ और नीम का बुढ़ा दरख्त। नीम के इर्द-गिर्द औरतों का जमघट लगा था। वहीं नीम के भारी तने से सटी प्लास्टिक की कुर्सी पर बैठी थी, दुल्हन सी बनी एक सोलह-सत्रह साल की लड़की।
गेहुआं सा रंग, बड़े छापे की लाल साड़ी, बिवाई फटे थप्पड़ों से पांवों में सस्ती सैंडिल, बेेमेल सी नेल पॉलिश, पांव कुर्सी के नीचे खिसकते, जगह खोजते से। बेचैन हाथ बार-बार साड़ी के पल्लू को सिर पर लेने का प्रयास करते, पॉलिस्टर का होने से पल्लू फिर-फिरफिसल जाता। नाक सुड़कती, पसीने की खारी-खारी गंध को सस्ते तीखे सेंट से दबाने का अहसास कराती महक। बीच-बीच में बेचैन नजऱों को ऊपर उठाती और खड़ी औरतों के घेरे को बेधकर अन्दर के कमरे की तरफ  देखकर सहम सी जाती। अन्दर से झगड़ने की आवाज़ें आ रही थीं, माया, मंझला लड़का और पहले वाली पत्नी की आवाजें बाहर आ रही थीं। कभी माया का डाँटता सा स्वर, कभी लड़के की गुर्राती आवाज़, कभी पुरानी दुल्हन की रोते-सुबकते चीख-पुकार।
‘कपार फोर दे दारी के… मर के हमऊं घर बनाएं… अऊर मलकिनियां ऊ-बने… बच्चा ना हुई तो हमार का कुसूर… हम कब मना किन्ह डाग्दर को दिखाइबे को… अपना तो दवा करवाता नहीं…’
‘चुप्प रह हरामजादी… देही तोड़ दूंगा साली की… तेरी मा…’ और फिर धमाधम उठा-पटक की आवाजें। तेज चीख।
‘छोरे मान ज्या… नास हो ज्यावेगा… अरै कती ए सरम भाझरी सै के…’ माया का आशंकित स्वर।
”हड़े ए धरती का बिचाला बणा राख्या सै… अपणे बालकां नै तै देखती कोन्या दुनिया… आ गी यहां चौधरण बण कै… इनके बालक घर म्हं ऐ तै ना ला रे… राख तै राखी है… पड़े रहवै हैं दिन रात नट कलोनी म्हं…’ बड़बड़ाती माया बीच-बीच में बाहर आती, टिन से छा कर बने बरामदे में रखे मटके से पानी भर ले जाती…कभी सूती कपड़ा फूंककर उसकी राख ले जाती संभवत: सिर फूट गया होगा बहू का। औरतें कनखियों से हँस रही थीं। आसपास की छतें भरी हुई थीं। बच्चे खास तौर पर बारह तेरह साल की लड़कियां अपनी छत की मुंडेर पर औंधी सी लेटी माया के आँगन में झांक रही थीं, मानों सीधा प्रसारण देख रही हों। बड़ी बूढिय़ां उन्हें बनावटी स्वर में डांट-डांटकर भगा रही थीं। और फिर आसपास की औरतों को देखते ही मुँह दबाकर हंसती। छोटे बच्चे मन-वाणी के इस भेद के अभ्यस्त थे।
‘नीच्चै मर ज्या… अर चून उसण ले (आटा गूंध ले) आंवता होवैगा तेरा बाप… फेर गाल (गाली) देवैगा…’
‘ऐ छोरी तलै पड़ ले… के तमासा बणा राख्या सै… चाल चूल्हा बाळ (जला) ले… चाह चढ़ा ले… दाद्दा की चाह ना गई सै पिलाट (प्लॉट) मैं आज …’’
‘थारी मां नाच्चै सै हड़ै (यहां)… चाल्लो भाज्जो (भागो)’ माया आंगन में प्रकट हुई और छतों की तरफ देखकर चिल्लाई। कुछ बच्चे पीछे हट गए। माया का सिर नीचे होते ही खिलखिलाते फुसफुसाते फिर मुंडेरों पर चिपक लिये।
माया पैंतालीस-पचास के फेर में है, इकहरा चटकेदार शरीर है, लेकिन लगती जवान है। उसके मुकाबले पति रामचन्दर झुग्गियों में चौबीसों घंटे मिलने वाली सस्ती व मिलावटी पी पीकर बेहद बूढ़ा और लगभग माया का बाप लगता है। माया, सस्ती भड़कीली लिपस्टिक, बड़ी बिन्दी, मांग में ढेर सारा सिन्दूर, पांवों में गुलाबी आलता, (महावर) और चालू फैशन के सूट में बच्चों की मां कम उनकी बहन ज्यादा लगती। माया दनदनाती सी आँगन में आई, नीम की तरफ बढ़ी तो औरतों की भीड़ काई की तरह फटती सी चली गई। माया सीधी नीम नीचे प्लास्टिक की कुर्सी पर घबराई सी बैठी नववधु के करीब आई। वह और घबरा गई।
‘ऐ! इसनैं तेरे तै ना बताई थी अक पहलां ही एक ब्याह हो रहया सै इसका…?’
माया के सवाल पर नववधु और डर गई। हकबकाकर इधर उधर देखने लगी और रूंआसी होकर कुर्सी से उठ गई। भीड़ में से एक नई सी बहू दुभाषिये की तरह आगे आई।
‘बूझती है… आपको सतीस की मैरिज… शादी का पता ना था के… वाक्य पूरा करते-करते बहू भी स्थानीय टोन में आ गई
‘सादी… किया… मंदिर में…’ वह लडख़ड़ाती सी पहली बार बोली
‘नाम के है तेरा…?’ माया ने झुंझलाकर पूछा
‘दादा को बीस हजार टका दिया…’ माया का अगला सवाल वह सुन नहीं पाई और पहले जवाब के साथ यह भी नत्थी कर दिया।
‘चुप कर हरामजादी!’ माया ने चिल्लाकर पैसे वाली बात दबा देनी चाही।
‘नाम… मामूनी…’ वह किसी तरह बोल पाई। लेकिन नाम सुनने के लिये माया रूकी नहीं तुरन्त अन्दर की तरफ लपकी। अन्दर से फिर मारपीट की आवाजें आने लगी थीं। पहली दुल्हन बाहर आना चाह रही थी। सबने देखा वह दरवाजे पर प्रकट सी हुई और फिर बाल पकड़कर भीतर घसीट ली गई। दरवाजे की चौखट को कसकर पकड़े हुए उसका हाथ फिसलता हुआ सा कोठरी के अंधकार में लुप्त होता चला गया। मोहल्ला भर यहीं जमा हुआ था। लेकिन धीरे-धीरे भीड़ छंटने लगी थी इस मोहल्ले, गाँव और खासकर बॉर्डर पार के गांवों का लगभग यही हाल था। बेरोजगार, निठल्ले और बुढ़ाती उम्र के लड़कों का ब्याह नहीं हो पा रहा था। कुछ घर से ���ुगाड़ कर, कुछ बेच-कमा कर, दूसरे राज्यों से दुल्हन खरीदकर ला रहे थे। मंदिर में शादी की रस्म अदा होती, जिसका खर्च दूल्हा उठाता और दुल्हन के बाप को दस-बीस हज़ार नकद देकर मोल-सा चुका कर दुल्हन को विदा करा लाता। नकद, मोल की होने के चलते इनके अपने नाम गुम से गए। नाम और सम्बोधन तक ‘मोल की’ हो गए।
सांझ गहराकर रात की स्याही में गुम हो रही थी, तमाशबीन औरतें कई-कई बार अपने घरों का चक्कर लगा चुकी थीं। खा-पीकर बच्चों को संभाल आतीं और फिर मुफ्त का मनोरंजन।
ऐसे ही एक छत से झांकती कुछ टीका-टिप्पणी सी करती धन्नो से माया उलझ पड़ी, ‘ऐ धन्नो! तू तै सरम कर! सारा गाम जाणैं सै के तेरा आदमी अर छोरा सारी हाण वहां नटां की बस्ती मैं पड़े रहवै सैं… म्हारा कम तै कम घर तै बसा रहया सै…’
‘रहण दे! तू भी बोल्लै…’ धन्नों मुंडेर पर से कूदने को हुई और चीखी। वह कह तो माया को रही थी पर सुनाना सबको चाहती थी। ताकि वो सब सुन लें जो आंगन गली और आसपास की छतों पर मौजूद थीं। साथ ही वह चाहती थी कि अपने-अपने घरों की पैडिय़ों (सीढिय़ों), चौंतरों-चबूतरों पर दो-तीन-चार की जोडिय़ों में बैठे बीडिय़ां फंूकते, ‘पीते-खाते’ कान-ध्यान यहां लगाए मर्द भी सुन लें। धन्नों फाड़-खाने वाले हाव-भाव से दहाड़ी ”म्हारा लुगाई के साथ तै रहवै सै… तेरा बड्डा छोरा हिजड़ी के साथ रहण लग रहया… उस्से की कमाई खावै… अर छोट्टे आला तै आप्पे रांडिया हो रहया सै… ना वा मरदां मैं ना लुगाइयां मैं… हांडै जावै सै ब्याह-बरातां मैं छोरियां के लत्ते पहर कै नाचता… आच्छी लीक काढ्ढी…’ हाथ नचाते हुए पैंतरा बदल-बदलकर बोलते हुए लग रहा था कि वह माया के आंगन में अब कूदी कि तब कूदी।
आगे दोनों महिलाएँ एक-दूजी को उघाड़ती-पछाड़ती रहीं और आसपास की औरतें टेक सी देती रही।                ‘आं हे… साच्ची?’
‘ओह… हो ऽ ऽ’!
‘ठीक कहवै सै बहाण…’
‘हाँ सुणी तै हमने बी सै…’
‘चच्च्ची… ची… बड़ा जुलम…’
दी जा रही टेक की ऐड़ को माया और धन्नो समझने लगीं जल्द ही दोनों एक ही पाले में आ गईं और फिर बिना नाम लिये गाँव-मोहल्ले की छींटम-छींट करने लगीं, लपेटने लगीं।
‘म्हारे नै तै मोलकी ल्या कै घर बसा लिया… अर उनका के जो उनपै धन्धा करवाण लाग रे सैं…’
‘ऐ करवाण वालां नै तै अपणी ब्याही ल्यायी लुगाई बी डोर पै लगा राखी सै… उन तै तौ धन्धे वाली चोखी… मरद तै दारू-सराप (शराब) प्याऐ जाओ अर आप यारां के साथ गुलछर्रे उड़ाए जाओ… गाम नै ना दिखै हमनैं तै दिखै है के मरद बैठक मैं बोतल खोल कै बैठ ज्यां अर लुगाई भीत्तर की कोठड़ी मैं किसे-किसे नै लिये पड़ी रहवै… घर ऐ रंडी खान्ना बणा राख्या सै… बहार जाण की के जरूत…?’
‘हाँ लोग पोत्ते-पोत्तियां अर धेवते-धेवतियाँ के हो लिये फेर बी मोलकी ल्या रे हैं… कोई पिलाट मैं बसा राखी सै कोई झुग्गियाँ मैं गेर राखी सै हमनैं के नां बेरा…?’
धन्नों और माया की हर बात तीर की तरह कलेजों में लग रही थी। पिघला शीशा बन कानों में जा रही थी। भीड़ छंटने लगी। जैसे तीर-गोली खाकर सिपाही मैदान छोड़ते जाएं। गली में बीड़ी फूंकते मर्द उठ उठकर गालियाँ बुदबुदाते चल दिये… कोई खेत तो कोई चौपाल की ओर। मुंडेरों पर जमी लड़कियाँ औरतें अपने-अपने घरों में उतरने लगीं। एक तीर से कई-कई शिकार हो रहे थे। अब नीम के नीचे प्लास्टिक की कुर्सी पर बैठी दुल्हन के आस-पास पाँच-सात बच्चे (लड़के) ही बचे थे।
‘भाज्जो हड़े तै! थारी माँ नाच्चै सै यहाँ? हडै ए धरती का बिचाला सै…’ माया ने धमकाया तो बच्चे खिलखिलाते से भाग खड़े हुए।
‘ऐ चाह-पाणी तै प्या दे बिचारी भूखी-तिसाई (प्यासी) होवैगी… सारा दिन हो लिया… सै तै किसे की बहाण बेट्टी… बेमात्ता नैं किस्मत ए इसी लिख राखी थी जिब…’ धन्नों भीगे स्वर में बोली। माया का मन भी पसीज गया। उसके चेहरे पर ममता सी तैर गई। मटके की तरफ बढ़ी, पहुँचती तब तक उसका लड़का बाहर निकल आया और सीधा कुर्सी के पास आकर बोला-
‘चाल!’
दुल्हन में जैसे जान सी आई और दुखती सी देह के साथ उठ खड़ी हुई।
चौबीस-छब्बीस साल का संवलाता-सा यह लड़का लगभग पाँच फुट सात-आठ इंच लंबा पतला सा था। लेन-देन में मिलने वाले सस्ते कपड़ों का सैट सिलवाकर पहना हुआ था। क्रीम कलर की पैंट और पीली-सुनहरी चमकती धारियों की क्रीम सी ही पूरी बाजू की शर्ट, जिसमें जगह-जगह बीड़ी के पतंगे गिरकर तिल-मस्से जैसे छेद बने हुए थे। बैल-बाटॅम सी पैंट पर गोल्ड स्टार के स्पोर्टस शूज, शर्ट टंगाकर रखी थी। चमड़े की चौड़ी लाल बैल्ट कसकर बांध रखी थी। कमर पतली थी, पैंट-शर्ट फूलकर लिफाफा सी हो गई थीं। आश्चर्यजनक रूप से बाल सीधे काले और घने थे जो किसी भी फैशन पसन्द शहरी के लिये ईर्ष्या का विषय हो सकता था।
लड़के ने दुल्हन का हाथ पकड़ा और घर-आँगन से लगभग खींचता हुआ सा बाहर ले चला। गली लोगों से भरी थी। हाथ छोड़कर वह आगे-आगे हो लिया, दुल्हन पीछे-पीछे चलने लगी।
‘बिहारण है…?’
‘बंगालण लाग्गै…’
‘मंदरासण सी लाग्गै सै…’
‘हैं!? वे तै काले होवै से…’ मध्धै परदेस की लाग्गै…’ औरतों की कानाफूसी सरेआम बयान हुई जा रही थीं लड़का तेज चल रहा था। वह इन गलियों का अभ्यस्त था। दुल्हन पीछे ठोकर खाती लडख़ड़ाती सी चल रही थी। आसपास देखती तो पाँव गड्डे में पड़ जाता और नीचे देखती तो लड़का किस गली मुड़ता देख नहीं पाती।
‘कित ले ज्यावैगा?’
‘किते तै राखेगा…’
‘नटां की बस्ती मैं किराये पै राख देगा…’
‘हां वहां ए बसेगी ईब तै…’
औरतें कयास लगा रही थीं और मामले का पटाक्षेप जान घरों में घुस रही थीं। टी.वी. सीरियल का टाईम भी हुआ जा रहा था।
इधर माया की सरगर्मी आंगन में बढ़ चली थी। चूल्हा जला दिया। एल्युमिनियम का बड़ा पतीला हैंडपंप से भरा और गर्म होने को चूल्हे पर रख दिया। औसारे (बरामदे) में रखी गैस पर छोटा पतीला चढ़ा दिया और आवाज़ लगाई।
‘चाल हे! पाणी निवाया हो लिया है नहा ले! चाह बणा री हूँ… गरम-गरम चाह पी लिये…’ अन्दर से आ रही हल्की कराहटों से लापरवाह सी माया खाट पर बैठकर प्याज छीलने-काटने लगी, और बीच-बीच में आवाज़ भी लगाने लगी –
‘ऐ उठ बी ले… गया नै ईब तै उसनै छोडण… चाल रोट्टी बी बणाणी है.. बीर-मरद मैं कहासुणी तै होत्ती रहवै है… चाल… गाम मैं हर घर की यो ही कहाणी है… तू के न्यारी राणी राजकमारी सै किते की…?’ प्याज की जलन से माया की आँखों का काजल बह चला। मुंडेरों पर बैठे इक्का दुक्का बच्चों के लिये माया का ‘रोना’ कुतुहल का विषय था। ‘चार साल हो लिये… एक आध बालक-नान्हा हो जात्ता तै छोरा क्यूं ल्यांवता दूसरी मोल की…? बंसबेल तै चालती… कोई दीवा बालण वाला हो जात्ता तै…’ माया कभी प्यार से तो कभी रूखे गले से बड़बड़ाए जा रही थी।                ‘अन्दर के कमरे से बहू बाहर आई। एकदम वैसी जैसी अभी आंगन में कुर्सी पर बैठी थी। मानो वही थोड़ी बूढ़ी होकर आ गई। लडख़ड़ाई तो चौखट को पकड़ लिया मैला कुचैला सूट, चेहरे पर नोच खसोट और नील के निशान थे। सिर पर पुरानी सूती चुन्नी पट्टी के तौर पर बंधी थी। मंझोला सा कद, कमजोर देह और लडख़ड़ाते कदमों से वह नीम की तरफ  बढ़ी, जहां…पांच फुटी दीवार की ओट को टीन से ढंक दिया गया था। लकडिय़ाँ और सूखी टहनियाँ उस पर पड़ी थीं।
‘सिर पै लत्ता तै ले ले… कती ए सरम भाग री सै…?’
माया ने झिड़की दी।
रात तक चीजें सामान्य सी होने का आभास देने लगीं। तब तक कई लड़के माया के मझले लड़के को पूछकर जा चुके थे। कई औरतें आईं और हवा लेकर गईं –
‘कहां तै?’
‘कितणे की…?’
‘पहलड़ी कितणी कमेरी सै फेर दूसरी क्यूं ल्याया?’
‘आजकाल तै एकै ना निभती… दूसरी नै किस तरियां पुगावैगा (निभावेगा)…’
‘म्हारे बिकरम की बी बात बणवा देता किते…? जो लागेगा दे दूंगी… अर भाड़ा-खर्चा बी…? वगैरह-वगैरह।
देर रात तक मंझला पीकर लौटा बरामदे में एक झटोल सी खाट में पिये पड़े बेसुध रामचन्दर की बगल वाली खाट पर पसर गया। आहिस्ता से एक कमरे का दरवाजा खुला। उसकी पत्नी थी।
‘ख्…खा…ना…?’ टूटती पिटी सी आवाज़ में पत्नी ने पूछा। उसने भद्दी सी गाली दी और लेट गया। दरवाजे से लौटकर वह अपनी खाट की तरफ  बढ़ गई, बगल के कमरे से खांसने की जनाना आवाज़ आ रही थी, यह माया थी जो बीड़ी पी रही थी और खांस रही थी। माया उठकर बाहर आई, खर्राटें भरते, थूक बुदबुदाते से पति को देखा… करवटें बदलते बेटे को देखा, अन्दर के कमरे में खाट पर बैठी बहू को देखा और आंगन में बनी ओट की तरफ  बढ़ गई। सुबह हुई और दिन फिर अंगड़ाई लेकर चल पड़ा।
रामचन्दर को उठते ही तलब लगी और सांसियों की झुग्गियों की तरफ  निकल लिया। माया बोलती बकती रह गई कल की राड़ पर बात करना चाहती थी, पर रामचन्दर लक्ष्य सा साधकर निकलता चला गया। मझला लड़का फिर पत्नी से उलझ पड़ा और बस्ती की तरफ  चल पड़ा। रह गईं माया और बहू।
माया बरामदे में खाट पर बैठी थी, बहू प्लास्टिक की एक चौकी पर। दोनों स्टील की गिलासियों में चाय पी रही थीं और चाय में डुबो-डुबोकर रस खा रही थीं
‘तो हमहूं का करें…? बच्चा ना हुई तो हमरी का गल्ती?’
‘ऊपर से ऊ…’
‘करणा के है… घर तेरा है… तू रह ठाठ तै…? माया ने उसे अनुभव-पगी सलाह दी। इसमें आदेश भी था।
‘धक्के खा कै आवैगा तै यहां ए… वो पड़ी रहवैगी किते किराये-सिराये पै… किते फैकटरी-वैकटरी मैं लाग ज्यावैगी तै और आच्छा…’ कहते-कहते माया ने छत की तरफ  देखा। छोटा लड़का अपनी गूदड़ी-चद्दर कांख में दबाए लकड़ी को सीढ़ी से नीचे उतर रहा था। पतले नाज़ुक शरीर का यह लड़का माया की छाया लग रहा था, लड़की होती तो ऐसी ही होती।
‘चाह दिये छोरे नै…!’ माया ने बहू को आदेश दिया तो वह अपनी गिलासी की चाय में अधखाया रस डूबा छोड़कर उठ गई और गैस-चूल्हे की तरफ  बढ़ गई। छोटा लड़का सफेद टी-शर्ट और जींस की निक्कर पहने था। उम्र उन्नीस-बीस पर गोरे-गोरे हाथ पाँवों पर बाल नहीं थे। वह माया के साथ खाट पर पांयताने की तरफ बैठ गया। कंधे तक के लंबे बाल जिनमें रंगी हुई सुनहरी लटें भी थीं, उंगलियों से कंघी सी कर गर्दन के पीछे ले जाने लगा खाट के सिरहाने की रस्सियों में से दबी पड़ी एक रबर बैंड उठाई, दाँतों में दबाई और दोनों हाथों से एक गुत सी बनाकर उनमें डाल दी। उसके नाज़ुक, लरजते हाथों द्वारा की जा रही इस कार्यवाई को माया निहारे जा रही थी, फिर तन्द्रा सी तोड़ बहू को लक्ष्य कर बोली ‘चोखी सी गरम कर दिये चाह… कदे भाप उठते ई घाल कै दे दे…।’
सुबह के दस बजे हैं। माया के घर में अज़ीब सी शांति है। आसपास के घरों की औरतें अपनी-अपनी पैडिय़ों पर बैठी हैं। मुश्किल से सात-आठ फुट चौड़ी यह गली माया के एक घर बाद बन्द हो जाती है। ये बन्द गली के आखिरी मकान हैं। यहां से आगे कोई नहीं जाता। इस कारण अच्छा खासा साझा चौक आँगन सा बन गया है। औरतें छतों-छत संवाद करती हैं तो पैडिय़ों पर बैठकर मजलिस सी बना लेती हैं। इन पैडिय़ों के नीचे नालियाँ भी बहती हैं। ज्यादातर ने पैडिय़ाँ इस प्रकार बना रखी हैं कि नालियाँ ढंक जाए, लेकिन गंध तो रहती ही है जो इन्हें तो नहीं बाहर से आने वालों को महसूस होती है। मक्खियां भी मंडरा रही है औरतें बैठी बातें कर रही हैं, गली में खेलते बच्चों पर निगाह भी रख रही हैं। महंगी होती सब्जियों, बढ़ते किरायेदारों, लड़के-लड़कियों के बदलते चाल-चलन, मोबाइल में घुसे रहने और माँ-बाप से लगातार झगड़कर मोबाइल माँगने से होती हुई ‘मोलकी’ दुल्हनों पर बातें हो रही थीं।
‘आँ ऐ माया! बेबे बुरा तै मानिये मत पर इसका के बणेगा जो छोहरा नई मोलकी ले आया…?’ पारो बोली
‘बेरा ना बेबे राम जी के करवावेगा…? हम तै सांझ तै रोण-पीटण लाग रे हैं… अन्न का दाणा तक ना जा लिया पेट म्हं…’ कहते-कहते माया की पलकें गीली हो गईं और आवाज़ भीगने लगी।
‘ऐ माया! दिखे कदे महैंदर वाली ना हो ज्या… दो-दो राखण के चक्कर मैं मुस्से (चूंहे) मारण की गोली खा ली थी पुरार कै (पिछले साल)… ऐ बेबे…’ शकुंतला जेठानी।
‘ऐ मर जाणा ऐ आच्छा इस दुर्गत तै… वहां बस्ती मैं बिरहमा के नै तै धंधे पै ही बिठा दी… ब्याह कै ल्याया था… थी तै अपणी इज्जत… अर ल्या कै बेस्या बणा दी…’ मिसरी ने बात जोड़ी
‘ऐ म्हारी है तै घणी कमेरी… सारा घर सिंभाल लिया… जै परमातमा कोई जिंगड़ा (बच्चा) दे देत्ता तै…’ माया ने आसमान की ओर देखकर बात अधूरी छोड़ी और माथा पकड़ लिया। बाकी औरतों ने भी समर्थन सा किया।                ‘हां ऽ ऽ…’
‘ठीक कहवै सै बहाण…’
‘कोई ना; टेक राखेगा पिरमातमा…’
इसी तरह दिन बीत रहे थे। इस गाँव और आसपास के गाँवों में लोग मोलकी दुल्हन लाते रहे। वे खूब कमेरी होतीं। घर भर को सजाती-संवारती, संभालती लेकिन वो मान-सम्मान अर्जित नहीं कर पातीं जो जाति, गोत्र, देखकर और परंपरागत रीति-रिवाज़ों से ब्याहकर लाई गई को मिलता। लेकिन मोलकी लाना ही ज्यादा संभव और सरल था परंपरागत न तो जीवन रह गया था न ब्याह हो रहे थे। कई जगह तो दूसरी आने पर मोलकी की भूमिका सिमटकर नौकरानी वाली हो गई थी। कहीं इन्हें धंधे में धकेल दिया गया था तो कहीं ये किसी फैक्ट्री में जा लगी जहां सुपरवाईजर और फोरमैन इन्हें नोच-खसोट रहे होते।
जिस घर में अगर बड़ा लड़का मोल की लाया वहाँ छोटों को रोकने टोकने वाला कोई नहीं होता। बाप की हालत यह कि वह खुद ही अपने तीन-तीन, चार-चार, प्रतिरूपों के सामने निस्तेज, बेदम और बेअसर नजऱ आता। चौपाल, ताश और शराब की शरण जाने का यह सरलीकृत बहाना था। यही हाल सुभाष और उसके परिवार का हुआ। सुभाष का घर इसी मोहल्ले में माया से एक दो गली छोड़कर था। गलियां क्या थीं बरगद की जडें़ सी थीं, एक में से दूसरी निकलती।
चार-चार जवान बेटों (जिनमें बड़े का ब्याह हो गया था, एक बच्चा भी था) के होते हुए भी सुभाष फिसल गया। तेजी से बसती जा रही कच्ची बस्ती के बाहर सड़क पर एक ऐसी ही छोड़ी हुई मोलकी चाय बनाती थी सुभाष वहीं जमने लगा।

                ‘इसका आदमी दारू पी कै मर ग्या… दूसरा था… पहलड़ा तै खेड़ा गाम का था ट्रक डलेवर… वाहे ल्याया था इसनै मोलकी… इब चाह की दुकान कर ली…’ वहीं पेड़ के नीचे ताश खेलते, चाय का आर्डर करते लोग बतियाते।
‘है तै इबे जुवान… किस तरियां उमर कटेगी…’ सुभाष टोह सी लेते हुए सवाल करता
‘कमाण तै लाग री सै… दिन मैं चाह, बीड़ी-सिकरट अर गुटका तंबाकू बेच लेवै… अर सांझ नै… चमड़े का जहाज चाल्लै…’ सामने वाला सुभाष को भद्दा सा इशारा करता
‘हाँ ऽऽ’ सुभाष यकीन न करने वाला लंबा हुंकारा भरता। धीरे-धीरे सुभाष वहाँ जमने लगा और सांझ होते-होते ‘चाहवाली’ (चायवाली) से रमने भी लगा। घर-प्लॉट, गली, चौपाल छोड़कर सुभाष वहीं पाया जाने लगा।
कोई रिश्तेदार आता तो सुभाष कहीं और नहीं ‘चाहवाली के छप्पर’ में बरामद होता। यूं तो सुभाष ‘पीता-खाता’ नहीं था लेकिन यही शौक ‘लत’ से भी बुरा लग गया।  जवान होते बालकों को भी रास्ता मिल गया बूढ़ी होती विमला उद्योग विहार की फैक्ट्रियों में मसाला पैकिंग का काम करती और बाकी तीन बच्चों और अपना पेट पालती। बड़ा वाला सुभाष की बदनामियों का बहाना कर अलग हो गया। लेकिन चोरी छिपे एक विधवा या छोड़ी हुई दो बच्चों की मां किरायेदारनी से जा लगा। वह घरों में झाडू बर्तन कर गुजर कर रही थी। घर में क्लेश बढ़ गया कभी बड़े की शादी में उसकी साली से छोटे रमेश की हाँ सच हो गई थी, बड़े-बूढ़ों ने हास-परिहास में हाथ पकड़वा कर फेरे से भी करवा दिये थे। तब दोनों स्कूली बालक ही थे। पर अब वे मना कर गए।
रमेश एक दिन एक किरायेदारनी को ले भागा। कई दिन खोजे गए नहीं मिले। पैसे खत्म हो गए तो लौट आए। रमेश की ससुराल वालों को पता लगा तो थोड़ी ना-नुकर के बाद गौना कर बेटी को विदा किया। जिसे लेकर भागा था उसे किराये पर रख छोड़ा और एक फैक्ट्री में लगवा दिया। लोग कहते भी थे ”भाई भेजणी पड़�� ससुराल वाला नै! ना तै भाज जात्ती किते, कई आशक पाल लिये थे रिमेस की घरवाली नै … पीहर म्हं…’ पहले भाई की साली थी लेकिन अब वह पत्नी के तौर पर रहती है। लेकिन लोग बताते हैं कि रमेश को नित नई का चस्का लग गया है।
‘रमेस तै घर का नास करण लग रहया सै… बारा बाट होण वाला सै ईब तै…’ कभी-कभी घर आए सुभाष से विमला घर की दिक्कत साझा करती।
‘कही तै मन्नैं बी थी… पर कहमते ही सीधा सिर पै आवै सै… ईब बुढ़ाप्पे म्हं अपणी बेजती तै करवाणी ना मनैं…’ कुल्ला करते रुककर सुभाष कहता
‘बेजती तै नूं बी होण लाग री सै गाम-रिस्तेदारी म्हं, के बाब्बू-बेट्टा एक्के डोर पै लाग रे सैं… बुढ़ाप्पे म्हं’
‘तन्नैं तै सारी हाण ये ही कुरचला-कुरचली भावै सै…’
गुस्से में सुभाष मोरी पर कुल्ला करते हुए वहीं से स्टील का गिलास ज़मीन पर दे मारता और तेजी से गली में निकल जाता।
‘मेरी बात तै ईब कुुरचला-कुरचली ए लागेगी… उस्से के भीतर म्हं घुसा रहिये… वाहे पार तार देगी…’
बाहर निकलते सुभाष के कानों में शब्द टूट-टूटकर आते लेकिन अर्थ एकदम स्पष्ट नंग-धड़ंग सा दिलो-दिमाग में बैठा होता।
‘रै रमेस तेरा दोस्त आया था जिब तू घर ना था घर म्हं…’ एक दिन विमला ने रमेश से कहा
‘हां…!’ मुश्किल से खाना गटकते हुए उसने कहा।
‘पर तेरे पाच्छे तै क्यूं आवै सै…? अर आवै तै बहू धोरै क्यूं घुसा रहवै सै चुबारे म्हं…?’ गाम मैं रूक्का पड़ रहया सै के सभास के छोरे की बहू तै…’
तेरा तै दमाग खराब सै…? कहकर वह खाने की थाली उठाकर चौबारे की सीढिय़ाँ चढऩे को गली में निकल लिया। जीना बाहर से था। सिलसिला आगे बढ़ता रहा। शुरू में अलग-अलग ‘दोस्त’ आए लेकिन जल्द ही एक फिक्स सा हो गया। रमेश घर में हो या न हो उसका तथाकथित दोस्त आता, बाहर ही बाहर जीने से ऊपर जाता और कुछ वक्त बाद रौब से खांसता सा गली में उतर कर चलता बनता। कोई कुछ ना कहता… सबके घर शीशे के बने थे, और जिनके नहीं बने थे उनके बन रहे थे। मोहल्ले में बातें होतीं मगर कानाफूसी में।
”आं ऐ! सुणी है के यो जो मुच्छल सा आवै सै रमेस की घरवाली का पहलां का जाण-पिहचाण का सै…’ एक औरत ।
सुणी तै हमनैं बी थी अक उसके गैलां (साथ) पकड़ी गई थी खेत्तां म्हं  – दूसरी औरत।
‘अरै भाई! यो सुभास का तै मौज ले रहया सै दो-दो मोल की ले आया… एक घर म्हंं तै दो झुग्गी म्हं…’
‘घंटा मौज ले रहया सै… अपणी तै संभलती बी कोन्या… सारी हाण वो जाट का उसकी लुगाई नै गोड्डे ज्या सै… अर जो दूसरी दो-दो झुग्गियाँ मैं राख राखी सै उनपै धन्धा करवावै सै… ले रहया सै मौज…’ दूसरे ने ईष्र्या मिश्रित गुस्से में कहा।
‘ओ हो ऽऽ’ जिब्बे तै ऽऽ… कुछ काम धन्धा तै करता कोन्यां अर बढिय़ा पहरै खावै अर मोट्टर सैकलां पै घूम्मैं…’
हां भई घूम्मेगा ही… चमड़े के जहाज जो चाल रे सैं उसके…’
‘चमड़े का जहाज किसा होवै सै भाई…?’ एक ने अनजान भाव से पूछा तो उसकी नादानी को मूर्खता मान सारे ठठाकर हंस दिये। मानो मोहल्ले का दाय लौटा रहे हों।
ये ठहाके चौपाल को बेधकर पूरे मोहल्ले में गूंज उठते। रमेश के खर्च और ऐश बढ़ते गए। उसने अपने हिस्से का प्लॉट जो बीस-पच्चीस गज था, बेच मारा। घर में खूब मारपीट और क्लेश हुआ। सुभाष को इससे कोई मतलब नहीं रह गया था। वह पूरी तरह चायवाली के साथ रहने लगा था। कई बार उसकी भी झड़प तीनों लड़कों पत्नी और बहू से हुई थी। बाद में पता चला कि सुभाष भी एक टुकड़ा बेचना चाहता था लेकिन विमला के गहने ही बेच पाया। दिन गुजरते रहे। विमला बहुत जल्दी बुढ़ा गई। गाँव वालों के शब्दों में –
‘बिमला तै अरड़ दे सी नै बैठगी…’
‘क्यूं ना बैठ ज्या बेब्बे…? आदमी तै बुढ़ाप्पे मैं छोड़ के भाज ग्या… अर उलाद बी निकम्मी लिकड़ी… हराम के बीज नै बहू बी रंडी बणा दी…।’
‘ठीक कहवै बहाण इतणे दुखां मैं तै आच्छे-आच्छे बैठ ज्या वा तै बिचारी लुगाई सै…’
‘ची.च च…च…’
मोहल्ला एक था, दुख अनेक थे, बातें खूब सारी थीं। यहाँ का जीवन खिसक रहा था, बाहर की दुनिया सरपट दौड़ रही थी। मोबाइल फोन, मोटर साइकिलों, कारों, ए.सी. और सुख-सुविधाओं का मायाजाल नशीला हुआ जा रहा था। पास के उद्योग विहार में हजारों फैक्ट्रियों में लाखों मज़दूर मशीनों के पुर्जे बने हुए थे और इस तरह आसपास के गाँवों में किराये पर रहते। गाँव गायब हो गया किराये के भारी-भारी कलस्टर बन गए थे। कच्ची-पक्की बस्तियाँ बसती-भरती जा रही थी। चायवाली ने थोड़ी आगे जाकर पास के गाँव की ज़मीन पर बसती कच्ची कॉलोनी में तीस गज का पक्का मकान बना लिया। नीचे चाय की दुकान, ऊपर रहने का। सुभाष पूरी तरह वहीं रहने लगा। अक्सर ग्राहकों को चाय पकड़ाता, कप-प्लेट धोता और चायवाली से डांट खाता मिल जाता गांव वालों को, चायवाली और भी धन्धों में लग गई थी।
कोई गांव वाला कहता –
‘रै सभाष क्यूं बेजती सहवै है, गल्ती हो ली सो हो ली भड़वागिरी छोड़! अर चाल गाम म्हं…’
‘ना भाई! गल्ती तै बणगी है! पर ईब तै गलती निभाणी सै…
थोड़े दिन तै बचे हैं फेर राम मालक…’ कहता सुभाष फिर चाय के जूठे कप उठाकर होदी सी बनी जगह पत्थर की पटिया पर बैठकर बाल्टी के पानी से धोने लगता…
रामचन्दर पी-पीकर टी.बी. का मरीज हो गया है। चौपाल पर बैठा खांसता खून थूकता रहता है। माया के बनाव श्रृंगार में कोई कमी नहीं आई है। मोल की बहू ने उसे माँ की तरह संभाल रखा है। माया का मंझला ट्रकों पर जाता है, कई-कई महीनों में आता है और जरूरतमंदों को मोलकी दिलवाने में खासी दलाली खाता है। रमेश कई बार पुलिस में पकड़ा गया, कर्ज में डूबा, क्लेश और मारपीट में रहा और एक दिन मोलकी की झुग्गी में पंखे से लटका पाया गया। गाँव वालों ने साथ दिया पुलिस केस न होने दिया और गाँव लाकर अंतिम संस्कार कर दिया।
लेकिन जीवन था कि थमने का नाम नहीं ले रहा था। मोलकी के प्रति लोगों में अब भी सम्मोहन भरा आकर्षण बरकरार था।
… एक बात जो रह गई…
माया के छोटे लड़के ने अपने जैसे ‘लड़कों’ का शहरी ग्रुप ज्वॉइन कर लिया है और होटलों में रहता, नाचता है। कभी-कभी घर गली में दीखता है
रमेश की घरवाली के पास आने वाला उसका दोस्त अब लगभग वहीं रहने लगा है। विधवा होकर वह अब और सुखी हो गई है। रमेश का दोस्त उसकी विधवा का अब अघोषित और सर्व स्वीकार्य सा पति है। उसने विमला के घर में सब तरह की सुविधाओं का सुख कर दिया है। रमेश की विधवा अब खूब निखर-संवर गई है और अक्सर कहती है –
‘बहोत कष्ट उठा कै रामजी नै सुणी है अर (और) ये आच्छे दिन देखण नै मिले हैं… अब आत्मा मैं सीळक पड़ी है… तनसुख सो मन सुख… आत्मा सो परमात्मा…’

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