भगत सिंह की कुरबानी पर आल्हा गाने निकला हूँ – शैलेन्द्र सिंह

भगत सिंह की कुरबानी पर आल्हा गाने निकला हूँ,
आज़ादी के दर्पण की मैं धूल हटाने निकला हूँ।

शत-शत कोटिक नमन लेखनी भगत सिंह की करनी को,
ऐसा बालक जनने वाली वीर प्रसूता जननी को।

जब जनता को साँसों का ही बन्धन भारी लगता था,
भँवरों को भी कलियों का अभिनन्दन भारी लगता था।

उगते पौधों का जीवन भी जब माली को भार लगा,
खिलते कुसमों का दर्शन भी जब माली को खार लगा।

जब सपनों के परकोटे भी बेबस हो कर डहते थे,
छोटे-छोटे बच्चे भी जब तन पर कोड़े सहते थे।

जब सूरज ने घुटने टेके बुझे पतंगों के आगे,
जब सोने की चिड़िया रोई भूखे-नंगों के आगे।

जब पायल की छन-छन भी थी चीख-चीख बेहाल हुई,
ये भारत भू जब गोरों के हाथों थी कंगाल हुई।

जब चरखे की भाषा भी थी नहीं सुहाई शासन को,
जब भारत माँ के आँचल से बदबू आई शासन को।

जब हिंसा की थी गोरों ने सारी सीमा पार करी,
तभी हमारे वीरों ने थी हाथों में तलवार धरी।

उन तलवारों की झनकारों का अजय रोष था भगत सिंह,
कुचली जनता की ललकारों का विजय घोष था भगत सिंह।

दशम् गुरू के बाजों का भी स्वाभिमान था भगत सिंह,
इंकलाब की बोली का भी अमर गान था भगत सिंह।

भारतीयों की पीड़ा से वो उपजा था बन चिंगारी,
घोर अंधेरी रजनी में वो आया था बन उजयारी।

उस सिंहों के वंशज को निज धर्म निभाना आता था,
साहस बो कर धरती से बंदूक उगाना आता था।

भगत सिंह को आज़ादी का मोल चुकाना आता था,
एक धमाके से गोरों का तख्त हिलाना आता था।

उस जज्बे के अम्बर को मैं शीष झुकाने निकला हूँ,
भगत सिंह की कुरबानी पर आल्हा गाने निकला हूँ।

जब डायर की अत्याचारी चाह देश में गूँजी थी,
जलियाँ वाले बाग की वो आह देश में गूँजी थी।

जब चरखे की तकली तक भी चुप्पी साधे बैठी थी,
जैसे-तैसे आँखों पर वो पट्टी बाँधे बैठी थी।

जब गोरों ने निर्दोषों को बर्बरता से मारा था,
हिंसा आगे जब बापू का असहयोग भी हारा था।

साइमन द्रोही नारों के जब भाव देश में उफने थे,
लाला जी के खून सने जब घाव देश में उफने थे।

इंकलाब की भाषा में तब गोरों का मुँह मोड़ दिया,
असैम्बली में भगत सिंह ने सरेआम बम फोड़ दिया,

कानों वाले बहरों ने जब अपनी आँखें मीची थीं,
तभी लहू से भगत सिंह ने पावक रेखा खींची थी।

साहस का ये एक धमाका बलिदानी उद्बोधन था,
दिन-दिन पिसती जनता का ये गोरों को सम्बोधन था।

भारत माँ के रंग बसंती चोले का ये गर्जन था,
यही धमाका इंकलाब के टोले का भी तर्जन था।

जलते उपलों के बीजों का सचमुच ही ये परचम था,
यही धमाका गंगा-जमुनी तहज़ीबों का संगम था।

कुरबानी की बल वेदी पर फूलों की था ये ढेरी,
वीरों का था विजय तिलक ये आज़ादी की रणभेरी।

मानस की चोपाई था ये ज्वार गीत था गीता का,
मर्यादा का तिनका था ये रावण के घर सीता का।

बलिदानों का पथ भगत सिंह कहीं त्याग कर गये नहीं,
सरेआम बम फोड़ा पर वे कहीं भाग कर गये नहीं।

वे वीरदत्त बाबू भी तो भगत सिंह के संगी थे,
वहीं सभा में इंकलाब गा डटे रहे वे जंगी थे।

उन वीरों को गोरों ने फिर डरते-डरते पकड़ लिया,
देश धर्म के दीपों को था हथकड़ियों में जकड़ लिया।

हिम्मत के उन शिखरों पर मैं फूल चढ़ाने निकला हूँ।
भगत सिंह की कुरबानी पर आल्हा गाने निकला हूँ।

गोरों ने की बर्बरता पर झुके नहीं वे मस्ताने,
डाल दिये फिर हवालात में आज़ादी के दीवाने।

लाहौरी षड़यंत्र का था केस चलाया गोरों ने,
धोखा देने का वीरों को जाल बिछाया गोरों ने।

निष्ठुरता की वही पुरानी रीत निभाई गोरों ने,
भगत सिंह को फासी की थी सजा सुनाई गोरों ने।

राजगुरू सुखदेव वीर भी इंकलाब की थाती थे,
फाँसी की थी सजा मिली वे आज़ादी की बाती थे।

झूठ- मूठ की बात बना कर गोरों ने की मनमानी,
वीरदत्त बाबू को भी भेज दिया काले पानी।

फाँसी की सुन भगत सिंह ने कर तल मल बाहें खोली,
हर्षित हो कर इंकलाब की बोल रहे थे वे बोली,

थर-थर-थर-थर काँपे गोरे इंकलाब की बोली से,
दुबके चूहे पूँछ दबा कर शेरों वाली टोली से।

थी वीरों की फाँसी से वे धधकी जनता की आँखें,
टप-टप-टप-टप टपके आँसू झपकी जनता की आँखें।

था डिम-डिम-डिम डमरू बोला तांडव करते शंकर का,
डगमग-डगमग धीरज डोला केशव वाले चक्र का।

भगत सिंह से एक बार थी जननी माँ मिलने आई,
छाले लोरी की थपकी के जननी थी सिलने आई।

देख लाल का मुखड़ा थी माँ नहीं रोक पाई खुद को,
हिचकी भर-भर आँसू टपके नहीँ टोक पाई खुद को।

बोली माता बेटा रे क्या सच-मुच ही तू जाए गा?
माँ की ममता ख़ातिर भी क्या कभी नहीं तू आएगा?

तेरे जैसा लाल बता मैं और कहाँ से लाऊँगी?
जिन हाथों में झूला उन से कैसे कफन उढाऊँगी?

माँ के बेबस प्रश्नों के मैं घाव गिनाने निकला हूँ।
भगत सिंह की कुरबानी पर आल्हा गाने निकला हूँ।

भगत सिंह तब बोले है क्यों फूट-फूट कर रोई माँ?
आज़ादी के बीजों की हैं मैने फसलें बोई माँ।

नहीं मिटे हैं नहीं मिटेंगे इंकलाब लाने, वाले,
एक गया तो लाखों होंगे आफताब लाने वाले।

हिम्मत के उन दीपों कों माँ अपनी ढाल समझ लेना,
भारत माँ के हर बेटे को अपना लाल समझ लेना।

मेरी फाँसी से जननी माँ बिलकुल भी मत घबराना,
माँ मेरी है कसम तुझे तू शव लेने भी मत आना।

धीरज वाले बाँध कहीँ माँ तड़-तड़-तड़-तड़ टूट पड़ें?
तेरी इन दो आँखों से ही सातों सागर फूट पड़ें।

जो फाँसी मंगल पाँडे के संकल्पों की भाषा थी,
अशफ़ाकउल्ला की आँखों में आज़ादी की आशा थी।

वो ही फाँसी तेरा बेटा हँसते-हँसते चूमे माँ,
आज़ादी का परवाना बन इंकलाब गा झूमे माँ।

बेटे की माँ लाश देख कर बिलकुल भी तुम मत रोना,
लल्ला-लल्ला लोरी का शव कंधों पे भी मत ढोना।

बलिदानों की बुनियादों पे जब आज़ादी आएगी,
जब खादी ही आज़ादी को गिरवी रख मुस्काएगी।

मजदूरों की चीखोंं को भी शोर कहेगा शासन जब,
लाल किले का सच्चाई से दूर रहेगा भाषण जब।

इस बलिदानी भू पे तब मैं एक बार फिर आऊँगा,
माँ काले अंग्रेजों से मैं अपना देश बचाऊँगा।

ज्यों दिन बीते दुगना-तिगना जोश बढ़ा मतवालों में,
हँसते-हँसते फाँसी चूमी भारत माँ के लालों ने।

आज़ादी की बल वेदी पर वे प्राणों को होम चले,
इंकलाब के आह्वान का अतुलित पीकर सोम चले।

भगत सिंह! गुलशन से अब फिर माली की गद्दारी है,
भारत माँ की छाती पे बेटों ने ठोकर मारी है।

फिर से आजा वीर तुझे मैं आज बुलाने निकला हूँ,
भगत सिंह की कुर्बानी पर आल्हा गाने निकला हूँ।
शैलेन्द्र सिंह चैनत, हिसार के रहने वाले हैं. स्वयं दृष्टिबाधित हैं और हाल फिलहाल ब्लाइंड रिलीफ एसोसिएशन, दिल्ली में हिंदी अध्यापक के तौर पर सेवारत हैं. शैलेन्द्र सिंह बचपन से गीत और कविताएँ लिखते हैं तथा हाल फिलहाल अपने पहले उपन्यास पर काम कर रहे हैं. 
सम्पर्क- 9467090170

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