कविता,क्या तुम नहीं जानती कि मैं कभी तुमसे अलग नहीं हो सकता? क्या मैं अपने अंतर में जन्म लेने वाली सभी खुशियों, सभी आंसुओं से अलग हो सकता हूँ?
रसूल हमजातोव
कपिल भारद्वाज का काव्य संग्रह वर्ष 2021 में छपा। ये वो समय था जब लम्बे अरसे बाद मनुष्यता ने अपनी दुर्बलता और तुच्छता का एहसास किया। एक कठिन दौर ने इंसानियत की सारी मूर्त–अमूर्त उपलब्धियों पर प्रश्न चिह्न खड़ा कर दिया। इधर हरियाणा में एक गंभीर साहित्यिक का पहला कविता संग्रह छपना ऐसे विपरीत वक्त में एक सुखद घटना थी। कविता संग्रह छपा “फिर देवता आ गए” नाम से। कुछ कविताएँ फिलर जैसी होने के बावजूद यह संग्रह हैरान करने वाला है।
हरियाणा के समतल इलाके में उपजी कविता तटस्थ होने से इतनी दूर? इतनी प्रतिबद्ध कि कहीं-कहीं लाउड होने का भ्रम होने लगे। इधर की कविता से एकदम न्यारी भाषा; न्यारा मुहावरा। तबियत से कवि होने का सहज दावा –
कविता लिखने से पहले ही, कवि का दर्जा पाने वाला, शायद पहला हूँ मैं (पहले ही)
अपने काव्य कर्म के प्रति गहरी संजीदगी बरतने वाला कोई रचनाकार ही ऐसी उद्घोषणा कर सकता है। ऐसा मनुष्य, कठिन समय में भी जिसके भीतर बारिश में नहाने का साहस बचा हो, जिसकी आवारा सीटी में कविता का संगीत हो। ऐसा कवि इधर है, और कविता लिख रहा है; यह है आश्चर्य से भरने वाला।
यह काव्य संग्रह इस बात का प्रमाण है कि प्रेम आदमी को दृष्टि देता है। संग्रह की बहुतेरी कविताएँ प्रेम के इर्द-गिर्द बुनी गई हैं; जिया हुआ प्रेम किन्तु पाया ना जा सकने वाला प्रेम। कवि कविता और प्रेम, दोनों को ही टाल नहीं सकता। इसी कवायद में वह कविता और प्रेम में अद्वैत कायम करने की पहली कोशिश करता है किन्तु कविता प्रेम से इक्कीस ही ठहरती है। यह जानते हुए भी कि यह इतना सहज नहीं है, वह अपनी प्रेमिका से प्रश्न करता है-
क्या तुम मेरे साथ लिखने बैठोगी कभी
सारे कामों को एक तरफ रखकर
सारे नातों को भूलकर (इतना सहज नहीं)
कई कविताओं में यह उद्घाटित होता है कि कपिल के यहाँ कविताकर्म किस हद तक एक कवि के लिए मायने रखता है और कविता, वह आदमियत के पक्ष में कितना व्यापक हस्तक्षेप करती है। कपिल के यहाँ कविता व्यक्ति की आदमियत की सशक्त पहरेदार है। वह उसे हत्यारा होने से/ बटमार शिकारी होने से बचाती है-
यदि मैं कविताएँ नहीं लिखता तो
एक हत्यारा होता
या कोई बटमार शिकारी
...
मैं पीठ पर गोली खाने से ज्यादा
कविताओं कि गोद में सर रखकर
मरना ज्यादा पसंद करता हूँ (यदि मैं कविताएँ नहीं लिखता तो...?)
कविता के लिए इतना प्रेम आज खोजना बड़ा मुश्किल भरा काम हो सकता है। कवि का अपनी प्रेयसी को कविताकर्म की अहमियत समझाने की कोशिश दरअसल कविता में जनवादी प्रतिबद्धता को बचाने की कवायद है। जनवादी प्रतिबद्धता का अर्थ जनवादी कविता लिखना नहीं अपितु अपने जीवन मूल्यों में जनवादी होना है। जनवादी कविताओं में अंततः समता-बंधुता के मूल्यों से उपजा जीवन-विवेक ही तो परिणत होता है।
चूंकि कवि जनवादी मूल्यों के पक्ष में खड़े होने की कीमत जानता है, अतएव कपिल कविता लिखने को उतना सहज कर्म नहीं मानते-
कविता लिखना
मानो, बच्चे का जन्मना
नहीं, मृत्यु के स्पंदन को महसूस करना (कविता लिखना)
कविता लिखने के लिए मरने का साहस होना भी कपिल के यहाँ एक अनिवार्य कसौटी है और आदमी महज बंदूक की गोली से ही नहीं मरता, मध्यमवर्गीय आदमी की मानसिकता से उपजा द्वंद्व भी समय से पहले उसे मृत्यु तक ले जाता है। कवि जानता है कि सही देखने की जिद में आँखें जख्मी हो जाती हैं। मुक्तिबोध भी बखूबी वाकिफ थे इस मध्यमवर्गीय मानसिकता से। उन्होंने लिखा था कि अगर मध्यमवर्गीय आदमी विचारों को गुहावास नहीं देता तो बच्चों के भीख मांगने की नौबत तक आ जाती है- वे खतरनाक थे/ (बच्चे भीख मांगते)/ खैर यह न समय है/जूझना ही तय है। कपिल के यहाँ यह अनुभव के रूप में दर्ज है –
मैंने रोशनी को भीख मांगते देखा है, तिमिर से
जिसके माथे की सिलवटें पढ़ सकता था कोई भी
... मेरे दिल को चूहे कुतर गए
फकीर बनता बनता भिखारी बन गया (आत्म ब्यान-1)
आखिर ऐसा क्या है जिससे परिवर्तन के विचार समाज के लिए असहनीय हो जाते हैं? कौन सी ऐसी चीज है जो उन्हें एक ही ढर्रे पर धकेलती रहती है? इसके जवाब के लिए कपिल समाज की आस्था को शक की नजर से देखते हैं। इसी प्रक्रिया में हम पाते हैं कि कपिल की कविता का तमाम संघर्ष देवत्व की होड़ में निरंतर पिछड़ रही मनुष्यता के लिए है। लोग समुदाय बनाते हैं और अपने लिए देवताओं का निर्माण करते हैं। उन देवताओं को वे अपनी आस्था सौंप देते हैं। इस प्रक्रिया में धीरे धीरे आस्था और विश्वास एक दूसरे के पर्याय हो जाते हैं। जिस चीज का जवाब उनके पास नहीं है उसकी संतुष्टि के लिए अपने देवताओं के इर्दगिर्द कहानियां बुनते हैं। उन कथाओं के सहारे नैतिकता खोजते हैं और उसे निरन्तरता में स्थापित करके रखना चाहते हैं। इसके बाहर किए गए तमाम नैतिक प्रयास योजनाबद्ध तरीके से अनैतिकता की श्रेणी में खिसका दिए जाते हैं। सवाल करने वाले लोगों को चूंकि अब जहर पिलाना और जिन्दा जलाना उतना आसान नहीं रह गया है, अतः तथाकथित समाज सामूहिक रूप से उसके खिलाफ सक्रिय हो जाता है।
ऐसे क्षण में जब नैतिकता के दायरे में किए गए सारे प्रयास अंततः सड़क पर भीख मांगने की अनंत आह में तब्दील हो जाते हैं, मनुष्य के लिए अपरिहार्य हो जाता है कि वह अपनी आस्था के लिए कोई नया मूल्य ढूंढे और देवताओं को ख़ारिज कर दे। हाली पानीपती का शेर याद आता है; फ़रिश्ते से बेहतर है इंसान बनना / मगर इसमें पड़ती है मेहनत ज्यादा। एक मध्यमवर्गीय भारतीय के लिए स्वतंत्रता की पहली कसौटी है कि वह अपनी आस्था आदिम सामुदायिक विश्वासों को ना सौंपे। उन विश्वासों में, जिनकी वजह से हर आदमी देवता होना चाहता है और आदिम देवताओं की कथाओं के जरिए अपनी अनैतिकता के पक्ष में औचित्य खोज लेता है। कवि इस सम्बन्ध में स्पष्टता के साथ घोषणा करता है-
मेरा कोई ईश्वर नहीं है
न ही कोई इष्टदेव/ जिनसे सुख की कामना कर सकूँ
आत्महंताओं के इस युग में
जब हर आदमी/ देवता बनने के ख़्वाब बुनता
अपनी ही पुत्री के नितम्बों से छेड़छाड़ करता
रसहीन, गंधहीन, रूपहीन
जीवन की व्यापकता से व्याकुल
सिरे से ख़ारिज / तब ईश्वर से घृणा स्वाभाविक है (ईश्वर की लाश सड़ रही है)
अत्यधिक आस्थावान व्यक्ति से नैतिकता की उम्मीद लगाना व्यर्थ होता है। आस्थावान के लिए असहमति बर्दाश्त करने लायक चीज नहीं होती। अंधी आस्था तर्क के आगे जीत जाना चाहती है, या तो सीधे-सीधे नहीं तो हिंसा के जरिए। चूंकि इस संग्रह का शीर्षक ही इस देवताओं के आगमन से मुठभेड़ करता है तो यहाँ यह प्रश्न करना लाजमी हो जाता है कि क्या आस्था नैसर्गिक है या इसका निर्माण योजनाबद्ध तरीके से किया जाता है? क्या एक ही तरह का आचरण सदा के लिए ‘अच्छा और ठीक’ बना रह सकता है? बकौल डी।सी। चट्टोपाध्याय, प्लेटो इस विषय में अपने ग्रन्थ ‘संविधान’ में इसकी चर्चा करता है-
“और मान भी लिया जाए कि यह बात सच नहीं यद्यपि हमारे तर्कों ने इसे सच सिद्ध कर दिया है-फिर भी क्या कोई कानून-निर्माता, जो अपने काम में थोड़ा भी चौकस हो और जो नौजवानों से एक उपयोगी झूठ बोलने को तैयार हो, इससे अधिक लाभदायक कोई झूठ गढ़ सकेगा, इससे अधिक उन नौजवानों को इस बात पर राजी करने में समर्थ कि उन्हें सदा स्वेच्छा से सत् का ही आचरण करना चाहिए ?
- सच एक अच्छी और टिकाऊ वस्तु है, लेकिन लोगों को उस पर विश्वास कराना सरल नहीं।
- अच्छा, क्या लोगों को काडमॅस की दन्तकथा में और ऐसी ही अविश्वसनीय दूसरी दन्तकथाओं में विश्वास कराना कठिन पड़ा था ?
- आपका आशय कौन-सी दन्तकथा से है ?
- वही ड्रेगन (यूरोपीय दन्तकथाओं के पशु-पक्षियों की आकृतिवाले दानव-विशेष-अनु।) के दाँत बोने और उससे योद्धाओं के प्रकट होने की। यह कैसा शिक्षाप्रद दृष्टान्त है एक क़ानून-निर्माता के निकट नौजवानों का हृदय जीतने की उसकी क्षमता का यह दिखाता है कि आवश्यकता केवल इस बात की है कि वह पहले तो एक ऐसी मान्यता खोज निकाले जो शासन के लिए उपयोगी हो और फिर अपने तमाम साधनों का प्रयोग करके ऐसी स्थिति पक्की कर ले कि सब लोग जीवन-भर अपनी बातचीत में, अपनी कहानियों में, अपने गीतों में उसी सुर पर तान छेड़ें।” (भारतीय दर्शन- सरल परिचय)
प्लेटो की यह चर्चा देवताओं के विषय में काफी कुछ स्पष्ट कर देती है। आगे भी वह इस विषय में मिस्र का उदाहरण देते हुए समझाता है कि किस तरह वहां के लोगों ने अपने बीच में प्रचलित गीतों को उनकी देवी ईसस द्वारा रचित मान लिया है और उसकी वजह से शासन में किस तरह सहायता हो रही है। यह स्थिति आज भी ज्यों की त्यों बरक़रार है। भारत में लोक देवी-देवताओं को सिलसिलेवार ढंग से खत्म करते हुए नए ब्रांड के रूप में देवता/ईश्वर स्थापित किए जा रहे हैं। संचार के तमाम साधन लोगों की आस्था को कैप्चर करने में लगे हुए हैं। आस्था के जरिए बड़े से बड़े व्यक्ति-समूह पर भी आसानी से शासन किया जा सकता है और इसी वजह से समय के शुरुआत से ही शासन और हिंसा का सबसे बड़ा कारक रही है। नामवर सिंह ने पाश के बारे में बात करते हुए लिखा है कि “लोहा केदारनाथ अग्रवाल ने भी ‘देखा’ था। धूमिल को लोहे का ‘स्वाद’ मालूम था। लेकिन पाश ने तो लोहा ‘खाया’ था।” अब कपिल को चौथा कवि मानना चाहिए जिसे लोहे की ‘असलियत’ पता है। कपिल लोहे का जिक्र हिंसा के एक प्रतीक के रूप में करते हैं। हिंसा के इस इस दौर में, जब सृजन का उद्देश्य भी कुछ लोग गांधी की मूर्तियों को तोड़ने के लिए दर्शकों को उत्साहित करना मानते हैं (मराठी नाटक मी नाथूराम बोलतोय के रचनाकार प्रदीप दलवी के ब्यान के सन्दर्भ में), कपिल की कविता कहती है-
जिस दिन मानव ने लोहे की खोज की
उस दिन जीसस के लिए कीलें बन गई थी
और गांधी के लिए गोली (लोहा)
जीसस और गांधी दोनों ही करुणा और अहिंसा के प्रतीक हैं। पहले के साथ जुड़ी हिंसा की कथा में भी देवताओं/ईश्वर सम्बन्धी मान्यता से उपजे द्वेष का बड़ा हाथ था और दुसरे के साथ घटित हिंसात्मक घटना में भी। यह महज चंद प्रभावशाली लोगों तक सीमित नहीं रहती, इसके व्यापक नुकसान का अंदाजा तब होता है जब यह राजनीति से होते हुए आम लोगों के जीवन में प्रवेश करती है या जब एक आधुनिक परिवार का संचालन सदियों पुरानी मान्यताओं से होने लगता है। यह इस समाज की क्रूर सच्चाई है जिसपर कपिल की कविता की भी नजर है-
सिर्फ टोपी देखकर भी हत्या हो रही है
या गमछे का रंग देखकर भी
बढ़ी हुई दाढ़ी या तिलकधारी हत्यारों से सुसज्जित है ये महादेश
एक हत्यारे ने अभी अभी
भावना के कुशल हथियार से/अपनी जन्मी संतान की खुशियों की
हत्या कर दी है (हत्यारे)
यह आदिम आस्था धीरे-धीरे व्यक्तिगत जीवन के निर्णयों में भी हस्तक्षेप करने लगती है और लोग अपने विश्वासों के लिए भावना को भी एक कुशल हथियार के रूप में बरतने लगते हैं। यह कैसे होता है? यह होता है तब जब एक संस्कृति पिता-माता और गुरु जैसे मनुष्यों के साथ देव का उपसर्ग जोड़कर उन्हें एक असामान्य दर्जा देती है और संवाद को कठिन बनाते हुए मानवीय सबंधों में एक खास किस्म की तानाशाही पनपने के अवसर पैदा करती है। एक बनी बनाई परिपाटी पर रेंगते हुए परिवारों में पसरी हुई संवादहीनता के चलते असहमति के लिए कोई अवसर नहीं होता, चाहे प्रश्न करने वाली फिर अपनी संतान ही क्यों ना हो। नई पीढ़ी जिसकी आस्था स्वतंत्रता, समता और बंधुता जैसे मूल्यों में है उसके लिए आस्था जैसी ठहरी हुई चीज कोई काम की वस्तु नहीं हो सकती। ऐसे में कवि की यह घोषणा प्रासंगिक हो जाती है-
देवताओं तुमसे एक चाह है मेरी
कि इस खूबसूरत धरा को छोड़ दो
हमारे रहने लायक (हमें सब मालूम है)
वर्तमान हिंदी कविता में कपिल की कविता प्रतिबद्धता के साथ छद्म देवत्व के खिलाफ और मनुष्यत्व के पक्ष में खड़ी है। कपिल की कविता हमें मनुष्य के रूप में देवता दिखना चाह रहे लोगों के प्रति सचेत करती है। उनका जीवन में आना एक दुर्घटना की तरह होता है। देवता दिखना चाह रहे लोग मनुष्य को मनुष्य के रूप में स्वीकार नहीं कर सकते। सहज होने से वो कोसों दूर होते हैं। प्रेम उनके लिए अपने आप में पूर्ण नहीं, प्रेम को उपयोगिता के खांचे में रखकर परखते हैं। देवता होने के बोझ तले मनुष्यता के सरे ख़्वाब कुचल दिए जाते हैं-
एक रेला आया/ मित्र अमित्र
अपनों के रूप में पराए/मनुष्य वेश में देवते
सब बिखर गया, ख़्वाब कुचले गए
ख़्वाब देखने वाली आँखों को
दीमकों ने चाट लिया
धुंध है, अजाब है, नफरतें बेहिसाब हैं
क्षय होती मनुष्यता है, देवते लाजवाब हैं। (फिर देवता आ गए)
हमें यह सवाल करना चाहिए कि क्या विज्ञान और तकनीक के लिहाज से इस विकसित समय में सच में हमें प्राकृतिक घटनाओं के सबंध में या जानकारियों के अभाव में अन्धविश्वास की हद तक मिथकीय चरित्रों का सहारा लेना चाहिए? प्रेम जैसे शुद्ध अनुभूति के विषय को अंधी आस्था के आगे घुटने टेकने पड़ते हैं क्योंकि श्रद्धा अनुभव को नकारती है। श्रद्धावान के यहाँ बराबरी की भी गुंजाइश नहीं। जो किसी को निराधार ही बड़ा माने बैठा है वह किसी को छोटा भी अवश्य ही माने बैठा होगा। बिना प्रेम समता की बात नहीं की जा सकती। प्रेम किन्तु ‘सीस उतारै हाथि करि’ की मांग करता है। ऐसे में कविता का इन आदिम मूल्यों और आस्थाओं की प्रासंगिकता पर सवाल उठना लाजमी है। महान नीत्शे याद आता है। वह कहता था “सब मूल्यों का पुनर्मूल्यांकन करो। दुनिया के प्रति सच्चे बनो। जो आपको अलौकिक आस्थाएँ प्रस्तुत करते हैं, उन्हें बिलकुल मत सुनो।” (सोफी का संसार) यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि कपिल की कविता स्थापित मूल्यों के पुनर्मूल्यांकन की कविता है जो हमसे दुनिया के प्रति सच्चे बने रहने का आग्रह करती है और अंधी आस्थाओं के खिलाफ निर्भीक होकर मोर्चा संभालती है।
कई कविताओं की शुरुआत बेहद आत्मनिष्ठ और उसका स्वर लाउड लगता है किन्तु कवि का जो निजी है वह भी अंततः व्यापक मनुष्यता की ही बात करता है। मनुष्य कैसे हुआ जाता है? सहजता से। जो प्राप्य है जीवन में, उससे दूर भागकर नहीं बल्कि उसे स्वीकार करके। प्रेम जैसे विषय का इस देश में कोई दर्शन नहीं, बस कहानियां हैं। जो अनुपलब्ध है, अप्राप्य है उसकी भरी पड़ी हैं किताबें। जबरदस्त शब्दावली, आतंकित करने वाले घनघोर ज्ञान की मोटी मोटी पोथियाँ। भीतर झांको, ये पाओगे-वो पाओगे। ठिकाने सर का हर आदमी जानता है यह ढकोसला है। प्रेम जैसा मूल्य कोई नहीं और रोटी जैसी हकीकत। स्त्री दोनों का ही स्त्रोत है। यही ईमानदार स्वीकारोक्ति कपिल की कविता में मिलती है-
जन्म से कविता लिखने तक स्त्री हो जाने की
पीड़ा से भरी है मेरी जीवन यात्रा (एक कवि का आखरी प्रेम सन्देश)
इस समाज में ऐसा क्या है कि हर रचनाकार स्त्री हो जाना चाहता है? या स्त्री के भीतर ही ऐसा क्या है? अभी हाल ही में पढ़ी सपना भट्ट की कविताएँ याद आती हैं। सपना भट्ट की कविता प्रेम की ‘मृसण गाढ़ी स्मृतियों’ से लबालब है। वह एक स्त्री की कविता है। प्रकृति का विधान है कि ऐसी गाढ़ी संवेदना स्त्री को ही प्राप्य है, जो पुरुष उस स्तर पर प्रेम को महसूसता है वह स्वाभाविक ही स्त्री हो जाना चाहेगा। कबीर जैसा अक्खड़ भी स्त्री हो जाना चाहता था – “बिरह जिलानी मैं जलौं, जलती जलहर जाऊँ।” एक सैनिक का आखिरी प्रेम सन्देश’ कविता में कवि उस सैनिक का द्वंद्व चित्रित करता है जिसने कबीर और मीरा को पढ़ा है। यह प्रेम का एहसास इतना गहरा है कि सैनिक दुश्मन को मारने से पहले सोचता है कि –
तुम्हारे साथ के लम्हें मुझे
कमजोर तो नहीं बनाते / लेकिन
शायद मरने वाला किसी का प्रेमी हो
... झील सी नीली आँखों का आकर्षण है यहाँ
लेकिन वर्दी पे लगे फीतों नें
हमारे मनों से निकाल बाहर कर दिया है
कबीर और मीरा को (एक सैनिक का आखिरी प्रेम सन्देश)
कबीर और मीरा का जिक्र यहाँ अनायास ही नहीं आया है- एक परम्परा है जो आपसी प्रेम के लिए संघर्ष करती है। दूसरी तरफ एक ठहरे हुए लोगों का समूह है जो परिवर्तन के खिलाफ झूठ और भय पैदा करता है। यथास्थिति में उसका फायदा निहित है। इस भय के नीचे प्रेम योजनाबद्ध तरीके से कुचला दिया जाता है-
इन्हीं देवताओं / अप्सराओं का एक झुण्ड
कतार में चलती दीमकों की मानिंद
जब से देखा गया है / धरती के हर कोने पर
प्रेम एक अँधेरी खोह में, डरकर छुप गया है (जर्जरित श्रद्धा)
ऐसा क्यों होता है? क्योंकि वे जानते हैं कि “सच्चा क्रांतिकारी प्रेम की मज़बूत भावनाओं से निर्देशित होता है” चे ग्वेरा के साथ ही खुर्शीद अकबर का शेर याद आता है – “साहिल से सुना करते हैं लहरों की कहानी / ये ठहरे हुए लोग बगावत नहीं करते।” कबीर और मीरा प्रतीक हैं उस परम्परा के जिन्होंने समन्दर के बीच जाकर लहरों का हाल जाना। कबीर जानते थे झूठ उन सरहदों का जो जाति-धर्म की थी, मीरा उस झूठी सरहद से वाकिफ थी जो लिंग पर आधारित थी, कपिल की कविता जानती है कि देशों की सरहदें झूठी हैं। वो महज लोगों के मस्तिष्क में हैं और अधिकतर सरहदों के निर्माण का आधार वे आस्थाएँ हैं, जो उन्होंने भिन्न-भिन्न कथाओं को सौंपी हैं। कुदरत ने कोई सरहद नहीं बनाई। कुदरत ने मनुष्य के भीतर प्रेम बनाया है जो उसे युद्ध के भयावह क्षेत्र में भी अमानवीय नहीं होने देता और उसके भीतर पसरे मवाद को हटाकर चांदी से रंगे पिघलते क्षणों की स्मृति बनाए रखता है। प्रिय संग बिताए प्रेम के गहनतम क्षणों को इतनी शिद्दत से याद रखने के लिए वाकई स्त्री की सी संवेदना–अनुभूति चाहिए।
इसके अलावा इस संग्रह की दो चार कविताएँ अपने वर्तमान की राजनीति का ब्यौरा देती हैं जो कि उनकी राजनीतिक पक्षधरता की परिचायक भर हैं। खैर, कुल मिलाकर कपिल की कविताएँ हरियाणा के साहित्यिक परिवेश में एक अलग धारा की पृष्ठभूमि तैयार करते हुए बेहद संजीदगी से हस्तक्षेप कर रही हैं। यदि कवि के ‘संत्रास’ की प्रवृत्ति वस्तुनिष्ठ बनी रहती है तो जाहिर तौर पर भविष्य में कुछ और बेहतरीन काव्य संग्रहों की अपेक्षा की जा सकती है।
Tanu Saini
बहुत सुंदर। “अत्यधिक आस्थावान व्यक्ति से नैतिकता की उम्मीद लगाना व्यर्थ होता है।” Amazing. All the best Sir 🙂
Abishek Kaushal
आपका ये लेख बहुत ही परिचयात्मक रूप से कपिल के काव्य-संग्रह ‘फिर देवता आ गए’ की मूल संवेदना और प्रासंगिकता के पक्षों को सहृदय से छूते हुए आगे बढ़ा है। रचनाकार का विवेक और मानवता के लिए प्रेम उनकी कविताओं में दिखाई पड़ रहा हैं।
आपने लेख का जो शीर्षक लिया है वो काव्य संग्रह के भाव पक्ष को गहनता से जांच परख के रखा हैं। बाकि आपकी कृति व कृतिकार का मूल्यांकन करने की दृष्टि निखरी-निखरी सी जान पड़ती हैं। आप इस काम को जारी रखिए शुभकामनाएं
ईशम सिंह
जैसा कि महानतम दार्शनिक फ्रेंज़ काफ़्का लिखते हैं ‘पुस्तक को हमारे भीतर जमे हुए समुद्र के लिए कुल्हाड़ी का कार्य करना चाहिए।’
मान्य.कपिल भारद्वाज अपने काव्य में मनुष्यता को बचाने में, जड़त्व के खिलाफ लड़ते हैं फिर चाहे आगे आदमी आये या सामंत/पूंजीवाद/अंधश्रद्धा से प्रेरित देवता।
Kapil
शुक्रिया डॉ साहब ।
Sumit Kumar
बहुत खूबसूरत और ध्यान देने योग्य लेख ! कामयाब ????
Rajender Kumar
बेहतरीन रचना. बहुत बहुत मुबारक हो.
Rajender Kumar
Useful
Jai pal Ambala City teacher jaipalambala62@gmail.com
स्थापित मूल्यों के पुनर्मूल्यांकन का आग्रह
कविताओं का मूल स्वर है। पुस्तक पर लिखी गई विवेचना इन कविताओं की रचनात्मक दृष्टि तक जाकर अपनी बात कहती है।
Kapil
थैंक्स सर ।