बुद्ध की कहानी और शिक्षा – जवाहर लाल नेहरु

बुद्ध की कहानी

बुद्ध की कहानी ने मुझे बचपन में ही आकर्षित किया था और मैं युवा सिद्धार्थ की तरफ खिंचा था, जिसने बहुत-से अन्तद्वंद्वों, दुःख और तप के बाद बुद्ध का पद हासिल किया था। एडविन आर्नल्ड की किताब ‘लाइट ऑव एशिया’ मेरी एक प्रिय पुस्तक बन गई। बाद में जब मैंने अपने सूबे में बहुत-से दौरे किये, तब मैं बुद्ध की कथा से सम्बन्ध रखनेवाली बहुत-सी जगहों पर, अपने यात्रा-मार्ग से हटकर भी, जाना पसन्द करता था। इनमें से ज्यादातर मुकाम या तो मेरे ही सूबे में हैं या उसके नजदीक हैं। यहीं (नेपाल की सरहद पर) बुद्ध का जन्म हुआ, यहीं वह घूमते-फिरते रहे, यहीं गया (बिहार) में उन्होंने बोधि वृक्ष के नीचे बैठकर ज्ञान प्राप्त किया, यहीं उन्होंने अपना पहला उपदेश दिया और यहीं वह मरे।

जब मैं उन देशों में गया, जहाँ बौद्ध धर्म अब भी एक जीता-जागता और खास धर्म है, तब मैंने जाकर मन्दिरों और मठों को देखा और भिक्खुओं और आम लोगों से मिला और यह जानने की कोशिश की कि बौद्ध धर्म ने जनता के लिए क्या किया। उसने उन पर क्या असर डाला, किस तरह की छाप उनके दिमागों और चेहरों पर छोड़ी और मौजूदा जिन्दगी की उन पर क्या प्रतिक्रिया हुई? बहुत कुछ ऐसा था, जिसे मैंने नहीं पसन्द किया। बौद्ध धर्म के बुद्धिवादी नैतिक सिद्धान्तों पर इतना कूड़ा-करकट जमा हो गया है, इतने कर्मकांड, इतने विधि-विधान और बुद्ध की शिक्षा के बावजूद, इतने आधिभौतिक सिद्धान्त और जादू-टोने तक इक‌ट्ठा हो गए हैं कि क्या कहा जाए! और बुद्ध के सतर्क कर देने पर भी उन्हें ईश्वर माना गया है और उनकी बड़ी-बड़ी मूर्तियाँ बन गई हैं, जिन्हें मैंने मन्दिरों में और जगहों में अपने सिर की ऊँचाई से भी ऊपर स्थापित देखा है। उस वक्त मैंने मन में सोचा कि अगर वह इन्हें देखते तो क्या कहते! बहुत-से भिक्खु अनपढ़ लोग हैं, बल्कि घमंडी हैं, क्योंकि वे यह चाहते हैं कि उनके सामने माथा झुकाया जाए, अगर उनके सामने नहीं, तो उनके भेस के सामने। हर एक देश में धर्म के ऊपर कौमी खासियतों की छाप पड़ी हुई थी और इसने उनके जुदा-जुदा रीति-रिवाजों और रहन-सहन के अनुसार रूप बना रखा था। यह सब स्वाभाविक ही था और शायद एक लाजिमी विकास था। लेकिन मैंने बहुत-कुछ ऐसा भी देखा, जिसे मैंने पसन्द किया। कुछ मठों में और उनसे लगे हुए विद्यालयों में ध्यान और शान्ति से अध्ययन करने का वातावरण था। बहुत-से भिक्खुओं के चेहरों पर शान्ति, सौम्यता, ओज और दया और तटस्थता का भाव मिला, और संसार की चिन्ताओं से मुक्ति दिखाई दी। क्या ये सब बातें आज की दुनिया में अपनी ठीक जगह रखती हैं या महज उससे बच निकलने का एक तरीका है? क्या इनका जिन्दगी के निरन्तर संघर्ष से इस तरह मेल नहीं हो सकता कि ये उसके भद्देपन को, उसकी लोलुपता को, उसके हिंसा भाव को, कम कर सकें?

बौद्ध धर्म का निराशावाद मेरे अपनी जिन्दगी के नजरिये से मेल नहीं खाता, न जिन्दगी और उसके मसलों से भागने की उसकी प्रवृत्ति मेरे अनुकूल पड़ती है। अपने दिमाग के किसी छिपे कोने में मैं काफिर हूँ और जिस तरह से काफिर जिन्दगी और प्रकृति को उमंग के साथ देखता है, उसी तरह मैं भी देखता हूँ और जिन्दगी में जिन संघर्षों का सामना करना पड़ता है, उनसे घबड़ाता नहीं हूँ। जो कुछ मैंने अनुभव किया है, या अपने चारों ओर देखा है, वह चाहे जितना तकलीफ और दुःख पहुँचानेवाला रहा हो, उससे मेरे इस नजरिये में फर्क नहीं पड़ा है।

क्या बौद्ध धर्म निष्क्रियता और निराशावाद सिखाता है? इसकी व्याख्या करनेवाले ऐसा कह सकते हैं और इस धर्म के बहुत-से अनुयायियों ने यही अर्थ निकाला है। मुझमें उसकी बारीकियों पर गौर करने या उसकी बाद की जटिलताओं और आधिभौतिक विकास पर फैसला देने की योग्यता नहीं है। लेकिन जब मैं बुद्ध का ध्यान करता हूँ, तो इस तरह के विचार मेरे मन में नहीं उठते, न मैं यही समझता हूँ कि निष्क्रियता और निराशावाद की बुनियाद पर ठहरे हुए किसी धर्म का आदमियों की इतनी बड़ी संख्या पर जिसमें काबिल-से-काबिल लोग हो गए हैं, इतना गहरा असर पड़ सकता है।

जान पड़ता है कि बुद्ध की वह कल्पना, जिसे अनगिनत प्रेमपूर्ण हाथों ने पत्थर और संगमरमर और काँसे में गढ़कर साकार किया है, हिन्दुस्तानियों के विचारों और भावों की प्रतीक है, या कम-से-कम उसके एक जिन्दा पहलू की प्रतीक है। कमल के फूल पर शान्ति और धीर, वासनाओं और इच्छाओं से परे, इस दुनिया के तूफान और कशमकश से दूर, वह इतने ऊपर इतने दूर मालूम पड़ते हैं कि जैसे पहुँच से बाहर हों। लेकिन जब फिर उन्हें देखते हैं, तो उस शान्ति अडिग आकृति के पीछे एक आवेग और मनोभाव जान पड़ता है, जो अनोखा है और उन आवेगों और मनोभावों से, जिनसे हम परिचित हैं, ज्यादा जोरदार है। उनकी आँखें मुँदी हुई हैं, लेकिन चेतना की कोई शक्ति उनके भीतर से दिखाई देती है और शरीर में एक जीवनी-शक्ति भरी हुई जान पड़ती है। युग पर युग बीतते हैं, फिर भी बुद्ध इतने दूर के नहीं जान पड़ते हैं, उनकी वाणी हमारे कानों में कुछ धीमे स्वर से कहती जान पड़ती है और यह बताती है कि हमें संघर्ष से भागना नहीं चाहिए, बल्कि धीर नेत्रोंसे उसका सामना करना चाहिए और जिन्दगी में विकास और तरक्की और भी बड़े अवसरों को देखना चाहिए।

सदा की तरह आज भी व्यक्तित्व का असर है, और जिस आदमी ने इनसान के विचारों पर अपनी वह छाप डाली हो, जो बुद्ध ने डाली, जिसमें आज भी हम उनकी कल्पना में कोई जीती-जागती, थर्राहट पैदा करनेवाली चीज पाते हैं, वह आदमी बड़ा ही अद्भुत आदमी रहा होगा- ऐसा आदमी, जो बार्थ के शब्दों में “शान्त और मधुर प्रभुता की सजी हुई मूर्ति था, जिसमें सभी प्राणियों के लिए अपार करुणा थी, जिसे पूरी नैतिक स्वतंत्रता मिली हुई थी जो सभी तरह के पक्षपात से अलग था।” और उस कौम और जाति में, जो ऐसे विशाल नमूने पेश कर सकती है, अक्लमन्दी और भीतरी ताकत की कैसी गहरी संचित निधि होगी।

बुद्ध की शिक्षा

इन राजनैतिक और आर्थिक इंकलाबों के पीछे, जो हिन्दुस्तान की शक्ल ही बदल रहे थे, बौद्ध धर्म का जोश था। पुराने मतों से इसका संघर्ष और धर्म के मामलों में निहित स्वार्थों से इसकी लड़ाई चल रही थी। बहस और मुबाहसे (जिनका हिन्दुस्तान में हमेशा शौक रहा है, से कहीं बढ़कर लोगों पर असर था एक ज्वलन्त और बड़े व्यक्तित्व का और उसकी याद दिलों में ताजा थीं। उसका सन्देश पुराना था, फिर भी बहुत नया था और जो लोग ब्रह्म ज्ञान की बारीकियों में उलझे हुए थे, उनके लिए मौलिक था। इसने विचारशील लोगों की कल्पना पर कब्जा कर लिया, यह लोगों के दिलों के भीतर गहरा पैठ गया। बुद्ध ने अपने चेलों से कहा था, “सभी देशों में जाओ और इस धर्म का प्रचार करो। उनसे कहो कि गरीब और दीन, अमीर और कुलीन, सब एक हैं और इस धर्म में सभी जातें इस तरह आकर मिल जाती हैं, जिस तरह की नदियाँ समुन्दर में जाकर मिलती हैं। “उनका सन्देश सभी के लिए दया और प्रेम का सन्देश था। क्योंकि इस दुनिया में नफरत का अन्त नफरत से नहीं हो सकता, नफरत प्रेम करने से हो जाएगी। और आदमी को चाहिए कि गुस्से को विनम्रता के जरिये और बुराई को भलाई के जरिये जीतें।”

भले काम करने का और अपने ऊपर संयम रखने का यह आदर्श था। “आदमी लड़ाई में हजार आदमियों पर विजय हासिल कर सकता है, लेकिन जो अपने ऊपर विजय पाता है, वही सबसे बड़ा। विजयी है।” जन्म से नहीं, बल्कि कर्म से ही आदमी शूद्र या ब्राह्मण होता है।” पापी की भी निन्दा उचित नहीं, क्योंकि “जो पापियों से जानबूझकर कड़े शब्द कहता है, वह मानो उनके पाप-रूपी घाव पर नमक छिड़कता है।” दूसरे के ऊपर विजय पाना ही दुःख का कारण होता है- “विजय नफरत उपजाती है, क्योंकि विजित दुखी होता है।”

अपने इन सब उपदेशों में उन्होंने धर्म का प्रमाण नहीं दिया न ईश्वर या किसी दूसरी दुनिया का हवाला दिया। वह बुद्धि और तर्क और अनुभव पर भरोसा करते हैं और लोगों से कहते हैं कि सत्य को अपने मन के भीतर खोजो। कहा जाता है कि उन्होंने कहा, “किसी को मेरे बताए नियमों का आदर की वजह से न मान लेना चाहिए, उसकी परख पहले इस तरह कर लेना चाहिए, जैसे तपाकर सोने की परख की जाती है।” सच्चाई के न जानने से सभी दुःख उपजते हैं। ईश्वर परब्रह्म है या नहीं, इसके बारे में उन्होंने कुछ नहीं बताया है। न वह उससे इकरार करते हैं, न इनकार। जहाँ जानकारी मुमकिन नहीं वहाँ हमें अपना फैसला नहीं देना चाहिए। एक सवाल के जवाब में बताया जाता है कि बुद्ध ने यह कहा था, “अगर परब्रह्म से मतलब है किसी उस चीज से, जिसका सभी जानी हुई चीजों से कोई सम्बन्ध नहीं, तो किसी तर्क से उसका अस्तित्व या वजूद सिद्ध नहीं किया जा सकता। यह हम कैसे जान सकते हैं कि दूसरी चीजों से असम्बद्ध चीज कोई है भी या नहीं? यह सारा विश्व-उसे हम जिस रूप में जानते हैं- सम्बन्ध का एक सिलसिला है; हम कोई ऐसी चीज नहीं जानते, जो बिना सम्बन्ध के है या हो सकती है।” इसलिए हमें अपने को उन चीजों तक महदूद रखना चाहिए। जिनका हम अनुभव कर सकत हैं और जिनके बारे में हमें पक्की जानकारी है। इसी तरह बुद्ध ने आत्मा के अस्तित्व के बारे में भी कुछ नहीं कहा है। वह इससे भी न इकरार करते हैं और न इनकार। वह इस सवाल में पड़ना ही नहीं चाहते और यह एक बड़ी अचरज की बात है, क्योंकि उस जमाने में हिन्दुस्तानियों के दिमाग में आत्मा और परमात्मा, एकेश्वरवाद, अद्वैतवाद और दूसरे आधिभौतिक सिद्धान्त समाये रहते थे। मगर बुद्ध ने सभी तरह के अधिभौतिकवाद से अपने विचारों को हटाया। लेकिन प्रकृति के नियम के स्थायित्व में और एक व्यापक हेतुवाद में उनका विश्वास है और इस तरह हर एक वाद की स्थिति अपने से पहले की स्थिति का नतीजा है, अच्छे काम का सुख से और बुरे काम का दुःख से स्वाभाविक सम्बन्ध है।

हम अनुभव की इस दुनिया में शब्दों या भाषा का इस्तेमाल करते हैं और कहते हैं कि ‘यह है’ या ‘यह नहीं है।’ लेकिन जब हम सतही पहलुओं के भीतर बैठते हैं, तो इनमें से एक भी सम्भव है, सही न हो और जो कुछ हो रहा है, उसको बयान करने में हमारी भाषा ही नाकाफी हो। ‘सत्य’ है और ‘नहीं है’ के बीच में या इनसे परे कहीं भी हो सकता है। नदी बराबर बहती है और हर क्षण एक-सी मालूम पड़ती है, फिर भी पानी बराबर तब्दील होता रहता है। इसी तरह आग है, लौ जलती रहती है और अपना आकार भी कायम रखती है, फिर भी वही लौ हमेशा नहीं रहती, बल्कि क्षण-क्षण में बदलती रहती है। इसी तरह जिन्दगी भी बराबर बदलती रहती है और अपने सभी रूपों में वह एक धारा की तरह है जिसे हम ‘होने की प्रक्रिया’ कह सकते हैं। असलियत कोई ऐसी चीज नहीं है, जो कायम रहनेवाली और नबदलने वाली हो, बल्कि वह एक रोशन ताकत है, जिसमें तेजी है और रफ्तार है और जो नतीजों का एक सिलसिला है। समय की धारणा महज एक खयाल है, जो जिस-किसी घटना के आधार पर व्यवहार के लिए बना लिया गया है। हम यह नहीं कह सकते कि कोई एक चीज किसी दूसरी चीज का कारण है, क्योंकि ‘होने की प्रक्रिया’ में कोई अंश ऐसा नहीं है, जो स्थायी हो या न बदलने वाला हो। किसी वस्तु का तत्त्व उसमें निहित नियम में है, जो उसे किसी दूसरी कहलाई जानेवाली वस्तु से जोड़ता है। हमारे शरीर और हमारी आत्माएँ क्षण-क्षण में बदलती रहती हैं; उनका अन्त हो जाता है और उनकी जगह पर कोई चीज जो उन्हीं-जैसी, लेकिन उनसे मुख्तलिफ होती है यह जगह ले लेती है, और फिर वह भी चली जाती है। एक मायने में हम हरदम मर रहे हैं और हरदम फिर से जन्म ले रहे हैं, और यह सिलसिला एक अटूट अस्तित्व का आभास देता है। यह एक सतत परिवर्तनशील अस्तित्व का सिलसिला है। हर चीज बस एक प्रवाह है, आन्दोलन है और परिवर्तन है। हम लोग भौतिक घटनाओं को एक नपे-तुले ढंग से सोचने और उनकी व्याख्या करने के इतने आदी हो गए हैं कि हमारे दिमागों के लिए यह सब समझ सकना मुश्किल है। लेकिन यह बड़ी मार्के की बात है कि बुद्ध का यह फलसफा हमें आजकल के भौतिक विज्ञान की धाराओं और दार्शनिक विचारों के इतना निकट ले आता है।

बुद्ध का ढंग मनोवैज्ञानिक विश्लेषण का ढंग था और यहाँ भी यह देखकर अचरज होता है कि आज के विज्ञान की नई-से-नई खोजों के कितने निकट उनकी सूझ-बूझ थी। आदमी की जिन्दगी पर विचार और जाँच बिना किसी स्थायी आत्मा के लिहाज के होती है, क्योंकि अगर किसी ऐसी आत्मा की सत्ता है भी, तो वह हमारी समझ से परे है; मन को शरीर का अंग, मानसिक शक्तियों की एक मिलावट समझा जाता था। इस तरह से व्यक्ति मानसिक स्थितियों की एक गठरी बन जाता है; ” आत्मा विचारों का महज एक प्रवाह है।” “जो कुछ भी हम हैं, या जो कुछ भी हमने सोचा है, उसका नतीजा है।”

जिन्दगी में जो दुःख और व्यथा है, उस पर जोर दिया गया है और बुद्ध ने जिन ‘चार बड़े सत्यों’ का बखान किया है, उनमें यह दुःख, उसके कारण, उसे खत्म करने की सम्भावना और उसके लिए उपाय बताए गए हैं। अपने चेलों को उपदेश देते हुए, कहा जाता है कि बुद्ध ने कहा था, “जब तुमने युगों के दौर में इस (दुःख) का अनुभव किया, तुम्हारी आँखों से इतना पानी बहा है; जब तुम इस (जिन्दगी की) यात्रा में भटके हो और तुमने शोक किया है या तुम रोये हो, क्योंकि जिस चीज से तुम नफरत करते रहे हो, वह तुम्हें मिली है और जिस चीज की तुम ख्वाहिश करते रहे हो, वह तुम्हें नहीं मिली है, वह सब तुम्हारे आँसुओं का पानी चारों बड़े समुन्दरों के पानी से ज्यादा रहा है।”

दुःख की इस हालत का अन्त कर देने से निर्वाण प्राप्त हो सकता है। ‘निर्वाण’ है क्या? इसके बारे में लोगों में मतभेद रहा है, क्योंकि एक ऐसी हालत का, जो अनुभव से परे हैं, किस तरह से हमारे सीमित दिमागों की भाषा में बयान हो सकता हैं? कुछ लोग कहते हैं कि यह केवल विनाश हो जाना है, बुझ जाना है। लेकिन बुद्ध ने, कहा जाता है कि इससे इनकार किया है; और यह बताया है कि यह एक अत्यन्त क्रियाशीलता की अवस्था है। यह झूठी इच्छाओं के मिट जाने की हालत हैं, न कि अपने मिट जाने की, लेकिन इसका बयान केवल नकारात्मक शब्दों में किया जा सकता है।

बुद्ध का बताया हुआ रास्ता मध्यमार्ग है और यह अपने को यातना देने और विलास में डुबा देने के बीच का रास्ता है। शरीर को तकलीफ देने के अनुभव के बाद उन्होंने कहा है कि जो आदमी अपनी ताकत खो बैठता है, वह ठीक रास्ते पर नहीं चल सकता है। यह मध्यमार्ग आर्यों का अष्टांग मार्ग कहलाया। इसके अंग हैं-ठीक विश्वास, ठीक आकांक्षाएँ, ठीक वचन, ठीक कर्म, ठीक आचार, ठीक प्रयत्न, ठीक वृत्ति और ठीक आनन्द। इसमें अपने विकास का सवाल है, किसी की कृपा का नहीं। और अगर आदमी इस दिशा में अपना विकास करने में कामयाब होता है, तो उसके लिए कभी हार नहीं, “जिसने अपने को वश में कर लिया है, उसकी जीत को देवता भी हार में नहीं बदल सकते।”

बुद्ध ने अपने चेलों को वे बातें बताईं, जो उनके विचार में वे लोग समझ सकते थे और जिन पर वे आचरण कर सकते थे। उनके उपदेशों का यह मकसद नहीं था कि जो कुछ भी है, उसकी व्याख्या की जाए, बल्कि जो कुछ भी है, उसका पूरा- पूरा दिग्दर्शन कराया जाए। कहा जाता है कि एक बार उन्होंने अपने हाथ में कुछ सूखी पत्तियाँ लेकर अपने प्रिय शिष्य आनन्द से पूछा कि हाथ की इन पत्तियों के अलावा क्या और भी कहीं पत्तियाँ हैं। आनन्द ने जवाब दिया, ‘पतझड़ की पत्तियाँ सभी तरफ गिर रही हैं, और वे इतनी हैं कि उनकी गिनती नहीं हो सकती।” तब बुद्ध ने कहा, “इसी तरह मैंने तुम्हें मुट्ठी भर सत्य दिये हैं, लेकिन इनके अलावा कई हजार और सत्य हैं, इतने कि उनकी गिनती नहीं हो सकती।”

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