पुस्तक समीक्षा
पुस्तक : जीतेंगे हम
लेखक : साबिर हुसैन
प्रकाशक : राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत
पृष्ठ-56
मूल्य : रु. 90.
स्वतंत्रता आंदोलन की चेतना से सराबोर बाल उपन्यासिका
किताब पाठकों में पैदा कर रही देश भक्ति की भावना
कहानियाँ सदा से पाठकों और श्रोताओं को संस्कारित करने का जरिया रही हैं। घर के बड़ों के पास बैठ कर कहानियाँ सुनने और सुनाने का दौर बीत गया है। लेकिन कहानियों की कमी नहीं है, जिन्हें पढऩा और सुनना बच्चों ही नहीं बड़ों के लिए भी कमाल का अनुभव होगा। आज हम बात कर रहे हैं स्वतंत्रता आंदोलन की पृष्ठभूमि पर साबिर हुसैन द्वारा लिखी गई बाल उपन्यासिका ‘जीतेंगे हम’ की। यह उपन्यासिका स्वतंत्रता आंदोलन की पृष्ठभूमि पर लिखी गई है। आज जब नई पीढ़ी में आजादी के आंदोलन की चेतना लुप्तप्राय: हो गई है, ऐसे में यह किताब बहुत महत्वपूर्ण कार्य करती है। आजादी के दीवानों से परिचित करवाते और उस समय के वातावरण का जीवंत खाका खींच कर उपन्यासिका बच्चों और युवाओं में देशभक्ति का जज्बा पैदा करने में सफल होती है।
उपन्यासिका काल्पनिक होते हुए भी स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़ी है। महात्मा गाँधी ने भारत छोड़ो आंदोलन चलाया तो गांव-गांव में आंदोलन को फैलाने के लिए किस तरह से कितने ही अज्ञात लोगों ने कार्य किया। कहानी में एक गांव है, जहां पर अंग्रेज भक्त जमींदार रायबहादुर सत्येन्द्र सिंह का दबदबा है। उसके लठैत लोगों पर मनमर्जी से जुल्म करते हैं। लेकिन वहीं सत्येन्द्र सिंह की बेटी मीनाक्षी और बेटा संजीव उससे बिल्कुल अलग हैं। वे दोनों अपने पिता के व्यवहार को अच्छा नहीं मानते। अंग्रेजी शासन की जुल्म ज्यादतियों को भी गलत मानते हैं और देश को आजाद करवाना चाहते हैं। इसके लिए शहर में पढ़ाई कर रही मीनाक्षी अपने छोटे भाई को स्वतंत्रता सेनानियों की कहानियों की किताबें देती है। जिसे संजीव गांव के बच्चों और युवाओं को पढक़र सुनाता है ताकि लोगों में अंग्रेजी शासन को भगाने के प्रति जागरूकता पैदा हो। संजीव मीनाक्षी दीदी की दी हुई 1857 के स्वतंत्रता आंदोलन के बहादुर राजा नाहर सिंह और वहाबी आंदोलन को स्वतंत्रता आंदोलन की दिशा में मोडऩे वाले मौलवी अहमदुल्ला की कहानी सुनाता है। भगत सिंह के बारे में जिज्ञासा प्रकट करने पर मीनाक्षी संजीव को उनकी कहानी सुनाती है। कहानियों के इस माहौल में लोगों में आजादी की चेतना पैदा हो रही है। आंदोलन अपने चरम पर है। एक तरफ क्रांतिकारी गतिविधियां हैं तो दूसरी तरफ गांधी जी के नेतृत्व में सुराजी आंदोलन।
संजीव द्वारा लोगों को शांतिपूर्ण ढ़ंग से कहानी सुनाए जाने को भी पुलिस बर्दाश्त नहीं करती है। शिकायत किए जाने पर जमींदार का बेटा होने के बावजूद पुलिस द्वारा संजीव को थप्पड़ मारा जाता है। पिता संजीव को भी शहर में बूआ के घर पर भेज देते हैं ताकि वह अपनी बहन के साथ वहीं रह कर पढ़ाई कर सके। मीनाक्षी भी वहीं रह कर पढ़ाई कर रही है। जमींदार पिता की इच्छा है कि बेटा पढ़ाई करके बड़ा अफसर बने। मीनाक्षी का क्रांतिकारी आंदोलन से जुड़े संगठन-आजादी के दीवाने से संपर्क है और वह उसकी औपचारिक सदस्य भी है। एक दिन मीनाक्षी संजीव को भी उस गुप्त स्थान पर लेकर जाती है, जहां से संगठन की गतिविधियां संचालित की जाती हैं। संगठन द्वारा लोगों को एकजुट किया जा रहा है। भारत छोड़ा आंदोलन का आगाज होने जा रहा है। उसके लिए इतवार को होने वाली सभा के पर्चे गांव तक पहुंचाने के लिए शहर से गांव जाता है और गांव के लोगों को इसकी सूचना ही नहीं देता, प्रेरित भी करता है। कलेक्टर की जुल्म-ज्यादतियों का सबक सिखाने के लिए आजादी के दीवाने द्वारा उसके सरकारी आवास पर तिरंगा फहराने की योजना बनाई जाती है। तिरंगा फहराने के बाद पर्चे भी बांटे जाते हैं। पुलिस का दमन चक्र शुरू हो जाता है। इतवार को हुई सभा में कलेक्टर के आदेश पर लोगों पर लाठी चार्ज कर दिया जाता है। पुलिस द्वारा गोलियां चलाई जाती हैं। उसमें 22 लोग मारे गए और सौ से अधिक घायल हो गए। स्कूल से छुट्टी लेकर संजीव उसमें हिस्सा लेता है। उसका फूफा भी आंदोलन में हिस्सा लेता है और उसे वहां पर चोट लग जाती है। फूफा अहिंसावादी विचारों को मानने वाले हैं, वहीं संजीव ईंट का जवाब पत्थर से देने में यकीन करता है। वह फूफा के साथ बातचीत में कहता है कि जिस कलेक्टर के आदेश पर पुलिस दमन कर रही है, उस कलेक्टर को मार देना चाहिए। आजादी के दीवाने समूह की बैठक में फिर से संजीव और मीनाक्षी हिस्सा लेते हैं। उस समूह में क्रांतिकारी गतिविधियों को और तेज करने की योजना बनाई जाती है। लोगों को उन गतिविधियों के लिए तैयार करने के लिए पर्चे छाप कर बांटने की जिम्मेदारी तय होती है। लखनऊ से बंदूक लाना तय होता है। संजीव गांव में जाकर पर्चे बांटने में अपना योगदान देता है। अचानक पुलिस मौके पर पहुंच जाती है। जिन लोगों के हाथ में पर्चे थे, उनसे पूछताछ होती है। वहां पर लोग पुलिस का विरोध करते हैं और फिर पुलिस को मौके से भागना पड़ता है। आंदोलन तेज होता जा रहा है। उधर, कलेक्टर को मारने के प्रयास में सुरेन्द्र पकड़ा जाता है। कलेक्टर के नेतृत्व में अंग्रेजी शासन द्वारा चौराहे पर स्वतंत्रता सेनानी सुरेन्द्र को डाकू बताकर फांसी दी जाती है। यह बहुत दर्दनाक दृश्य था। संजीव खुद भी इस दृश्य को देखने के लिए मौजूद था। उसके लिए किसी व्यक्ति को मरते देखना पहला अनुभव था। उसके मन में गहरा आक्रोश था। अगले दिन वह गांव गया और पिता की पिस्तौल निकाल कर उसमें छह गोलियां भरकर बैग में छिपा कर रख ली। शहर में आकर उसने पता किया कि अंग्रेज कलेक्टर अक्सर इतवार को आरडी इंटर कॉलेज के मैदान में क्रिकेट खेलने आता है। वहां पर पुलिस का पहरा भी था। संजीव वहां पर जाकर देखता है। एक इतवार वह कमर में पिस्तौल बांध कर मैदान पहुंचता है। माहौल बनाता है और अचानक गेंद उठाने के लिए नीचे झुके कलेक्टर पर गोलियां दाग देता है। कलेक्टर की मौत के बाद पुलिस संजीव को पकड़ लेती है। उसे मारपीट कर घायल कर दिया जाता है। फिर उसे भी एक चौराहे पर ले जाकर फांसी दे दी जाती है। यहां पर जमींदार सत्येन्द्र सिंह भी पुलिस की गिरफ्त में है। भाई की शहादत पर मीनाक्षी लोगों को जागरूक बनाती है। वह कहती है कि अंग्रेज आजादी के दीवानों को सरेआम मृत्युदंड देते रहेंगे और हम देखते रहेंगे। इससे लोग उठ खड़े होते हैं। पुलिस उन्हें डराती है। लेकिन अब लोग डरते नहीं। साहस व अंग्रेजी क्रूरता का जवाब देने का यह सिलसिला गांव से शहरों में फैलता जाता है। एक तरफ लोगों की क्रांतिकारी गतिविधियों में हिस्सेदारी और दूसरी तरफ सुराजी अहिंसक आंदोलन के आगे लोगों का इरादा है-जीतेंगे हम। आखिर लोगों के विश्वास की जीत होती है और अंग्रेजों को देश छोड़ कर जाना पड़ता है।
पाठकों को आजादी की लड़ाई के बहुआयामी स्वरूप से अवगत करवाती किताब का आकर्षण पार्थ सेनगुप्ता के चित्रों से कईं गुण बढ़ गया है। बहुत ही शानदार चित्रों से सुसज्जित किताब को हाथों में लेकर बाल पाठकों का मन हर्षित हो जाता है। किताब में सुभाष चन्द्र बोस की आजाद हिंद फौज, शहीद भगत सिंह, चन्द्रशेखर आजाद, अशफाक उल्ला खां और महात्मा गांधी के आंदोलन का दर्शन और चेतना को बहुत ही अच्छे ढ़ंग से पिरोया गया है। ऐसी किताबों की आज हमारे बाल, किशोर व युवा पाठकों को बहुत ज्यादा जरूरत है।
आपने पूरी कथा कह दी। हालांकि बच्चों को पूरी पुस्तक पढ़नी है और उससे प्रेरणा भी लेनी है। इस पुस्तक की प्रासंगिकता उस समय और बढ़ जाती है जब उसे आज के संदर्भ में जोड़कर देखा जाए तो लगता है कि बाहरी हालात बदले हैं, पर धीरे धीरे अंदर से हालात वही होती जा रही है। अतः इस पुस्तक को आज के संदर्भ से भी जोड़कर देखा जाना चाहिए, बताया और समझाया जाना चाहिए, तभी इस पुस्तक की सार्थकता है।
अच्छी समीक्षा और पुस्तक से परिचित करवाने हेतु आभार, बधाई।