उन्नीसवीं सदी के समाज विचारक और दार्शनिक लुडविग फायर बाख ने मनुष्य की सामाजिक ऐतिहासिक भूमिका पर विचार करते हुए एक बहुत दिलचस्प बात की थी- मनुष्य वही होता है जो वह खाता है। एरिक फ्राम और जार्ज लुकाच सहित बीसवीं सदी के कई बड़े बुद्धिजीवियों ने इस टिप्पणी को लेकर फायर बाख का मजाक उड़ाया कि मनुष्य वही होता है जो वह खाता है यानी मनुष्य का व्यक्तित्व रसोई में निर्धारित होता है, गोभी खाने से गोभी जैसा या नूडल्स जैसा हो जाता है। इत्तफाक से फायर बाख इन आलोचकों के समय तक जीवित नहीं थे।
मगर हम इस बात को दूसरे ऐतिहासिक संदर्भ के साथ रख कर देखे तो फायर बाख की उक्त टिप्पणी एक सांस्कृतिक विद्रूप को भी उजागर करती है। गौतम धर्मसूत्र में लिखा है कि शूद्र जूठन खाएं। किसी समाज में बहुत बड़ी संख्या में ऐसे लोग हों, जिनकी नियति धार्मिक आदेश द्वारा यह निर्धारित कर दी गयी हो कि वे कुछ अन्य लोगों के जूठन ही खाएंगे, तब उन लोगों का व्यक्तित्व कैसा बनेगा ?
भारत में शूद्र जातीय लोगों को समूची जिदगी जूठन खाकर ही गुजारनी होती हैं। कितने मध्यवर्गीय सवर्ण यह कल्पना कर सकते होंगे कि सारी जिदगी चूहे खाकर गुजारना कैसा होता है? धर्म आदेशों के कारण ही सड़कों, गली-मोहल्लों में मरने बाले जानवरों का गोश्त खाना कैसा होता है? गांधी ने पूना के एक भाषण में चमड़े का काम करने वाले लोगों को सलाह दी थी कि वे मरे जानवर का गोश्त न खाएं। वे क्या यह मुर्दा जानवर शौक की वजह से खाते हैं? गांधी के प्रिय धर्मों के आदेश के कारण वे यह खाने को मजबूर होते हैं।
शूद्र जाति के बहुत से लोग खेसारी दाल खाते हैं और यह खाकर बीमार पड़ते हैं, मर जाते हैं, दर्दनाक मौत। लोग जगह-जगह से आमों की गुठलियां इकट्ठा करते हैं जो ज्यादातर सड़ जाती हैं। उन्हीं को खाकर लोग जिंदा रह पाने की कोशिश में उल्टियां करते हुए मरते हैं। इन सबका क्या मतलब निकाला जाना चाहिए?
क्या भारत में धर्म आदेशों के आधार पर करोड़ों लोगों को जूठन से लेकर चूहे, मुर्दे का गोश्त या सड़ी गुठलियां सिर्फ इसीलिए नहीं खिलायी जातीं कि ये करोड़ों शूद्र जातीय लोग मनुष्यों के बजाय कीड़े-मकोड़ों में तब्दील हो जाएं? मैं अपने बुद्धिजीवी मित्र विभूति नारायण राय से इसी मुद्दे पर बात कर रहा था। उन्होंने भी कहा कि भारत के समाज में निश्चय ही फायर बाख की यह बात सही है कि भोजन समाज में मनुष्य के व्यक्ति को आकार देता है। सवर्ण समुदाय यह चाहता रहा है कि जिन्हें यह शूद्र मानता है, उनका किसी तरह का सांस्कृतिक विकास न हो। शूद्र समुदाय संस्कृति, संस्कार और उद्यम से वंचित रहे, इसकी अचूक गारंटी भारत में यही रही है कि उसे न्यूनतम पौष्टिक या स्वास्थ्य और सुरूचि वाले भोजन से वंचित रखा जाए।
प्राचीन भारत में जहां हर वर्ग के भोज्य पदार्थों का जिक्र है, वहां शूद्र समाज को खाने के लिए जो जूठन मिलती थी, उसका जिक्र पाणिनी ने किया है। उसे भूक्तोज्झित अन्न कहा जाता था। भक्ष्याभक्ष्य विचार करते हुए अनेक स्मृतियों और गुह्यसूत्रों में लिखा गया है कि शूद्र चूंकि खराब और अशुद्ध खाना खाते हैं, इसलिए उनके संस्कार भ्रष्ट होते हैं। इसका यह अर्थ भी निकलता है कि समाज में जिसे संस्कार भ्रष्ट करना हो, उसे जूठन या सड़ा-गला खाना खिलाओ। अच्छा, स्वादिष्ट और शुद्ध भोजन उसे उपलब्ध ही न होने दो। ग्राम्शी जैसे विचारक संभवतः भारतीय हिंदू-शास्त्रीय इतिहास से परिचित नहीं थे वरना वे फायर बाख की इस स्थापना को गंभीरता से लेते कि मनुष्य उस भोजन का निर्मित होता है, जो उसे उपलब्ध होता है।
हिन्दी में एक कहावत है-‘अक्ल घास चरने गयी।’ इसका सीधा अर्थ है कि मनुष्य समझदारी में बैल जैसा है, जरूर यह उम्दा भोजन नहीं, घास खाता होगा। कामसूत्र में जिन चौसठ कलाओं का जिक्र है, उनमें एक कला है तरह-तरह के स्वादिष्ट भोजन बनाना। जहाँ शूद्र जातीय लोग मरे जानवर, चूहे या जूठन जैसी गलीज़ खाने को मजबूर किए जाते हैं, वहीं सवर्ण कुलीन, लेज़र क्लास का आदमी किन भोज्य पदार्थों का आनंद ले, इसकी सूची वात्स्यायन के कामसूत्र में खीर से शुरू होती है। इस लम्बी सूची में फल भी है और तरह-तरह की बूटियाँ भी हैं। यूरोपीय समाज में भी गरीब जनता और उसे गरीबी में धकेलने वाले समृद्ध कुलीनों के खान-पान में गहरा अंतर है। जान केनेथ गालब्रेथ की किताब ‘दि एफ्लुएंट सोसाइटी’ में हर्जर्ट स्पेंसर को उद्योगपतियों द्वारा दी गयी दावत तथा ऐसे ही दूसरे प्रसंग उक्त बात के सबूत हैं, लेकिन उस पेशेवर सामाजिक क्रूरता के बावजूद उक्त समाज में धार्मिक आदेश ऐसे नहीं हैं, जिनमें समाज के बहुत से लोग हजारों बरस पीढ़ी-दर-पीढ़ी जूठन या मरा जानवार ही खाएं।
विख्यात बुद्धिजीवी मीरा नंदा ने अपने एक लेख में आरएसएस की आधिकारिक विचारधारा की पुष्टि में गांधी का एक उद्धरण दिया है-‘इसे ध्यान से देखना चाहिए कि वर्ग कोई मानवीय खोज नहीं है, वह प्रकृति का अपरिवर्तनीय नियम है। वर्ण का नियम हिन्दू संतों की विशेष खोज है, उसका सार्वभौमिक महत्व है (वर्णाश्रम धर्म, 1962 पू. 13)।’ देश में घृणित जातिवाद समाप्त क्यों नहीं होता, यह जानने के लिए इतना काफी है।
दलित-विमर्श को धार देता हुआ एक विचारोत्तेजक लेख