हिन्दुस्तानी संस्कृति का अटूट सिलसिला – जवाहर लाल नेहरु

इस तरह शुरू-शुरू के दिनों में हम एक ऐसी सभ्यता और संस्कृति का आरम्भ देखते हैं, जो बाद के युगों में बहुत फली-फूली और पनपी और बावजूद बहुत-सी तब्दीलियों के बराबर कायम रही। बुनियादी आदर्श और मुख्य विचार अपना रूप ग्रहण करते हैं और साहित्य और फलसफा, कला और नाटक और जिन्दगी के और धन्धे इन आदर्शों से और लोकमत से प्रभावित होते हैं, जो बाद में उगकर बढ़ते ही रहे और आजकल की वर्ण-व्यवस्था के रूप में उन्होंने सारे समाज और सभी चीजों को जकड़ लिया। यह व्यवस्था एक खास युग की परिस्थितियों में बनी थी और इसका उद्देश्य समाज का संगठन और उसमें सम-तौल पैदा करना था, लेकिन इसका विकास कुछ ऐसा हुआ कि यह उसी समाज के लिए और इनसानी दिमाग के लिए कैदघर बन गई। आखिरकार तरक्की के दामों हिफाजत खरीदी गई।

फिर भी बहुत दिनों तक यह व्यवस्था कायम रही और सभी दिशाओं में तरक्की करने की प्रेरणा इतनी जोरदार थी कि उस व्यवस्था के चौखटे के भीतर भी यह सारे हिन्दुस्तान में और पूरबी समुन्दरों तक फैली और इसकी पायदारी ऐसी थी कि यह हमलों के धक्के बार-बार सहकर भी जिन्दा रही। प्रोफेसर मैकडानेल अपने ‘संस्कृत साहित्य के इतिहास’ में हमें बताते हैं कि “हिन्दुस्तानी साहित्य का महत्त्व समग्र रूप से उसकी मौलिकता में है। जिस वक्त यूनानियों ने ईसा की पहले से चौथी सदी के अन्त में पश्चिमोत्तर में हमला किया, उस वक्त हिन्दुस्तानी अपनी कौमी संस्कृति कायम कर चुके थे और इस पर विदेशी प्रभाव नहीं पड़े थे। और बावजूद इसके कि ईरानियों, यूनानियों, सिदियनों और मुसलमानों के हमलों की लहरें एक के बाद एक आती रहीं और ये लोग विजय पाते रहे, भारतीय आर्य जाति की जिन्दगी और साहित्य का कौमी विकास अंग्रेजों के अधिकार के वक्त तक बिना रुकावट और अटूट क्रम से चलता रहा। इंडो-यूरोपियन जाति की किसी शाखा ने, अलग रहते हुए, ऐसे विकास का अनुभव नहीं किया। चीन को छोड़कर कोई ऐसा मुल्क नहीं, जो अपनी भाषा और साहित्य, अपने धार्मिक विश्वास और कर्मकांड और अपने सामाजिक रीति-रिवाजों का तीन हजार वर्षों से ज्यादा का अटूट विकास का सिलसिला पेश कर सके।”

लेकिन इतिहास के इस लम्बे जमाने में हिन्दुस्तान बिलकुल अलग-थलग नहीं रहा है और उसका निरन्तर और जीता-जागता सम्पर्क ईरानियों, यूनानियों, चीनियों, मध्य एशियायियों और औरों से रहा है। अगर उसकी बुनियादी संस्कृति इन सम्पकों के बाद भी कायम रही, तो जरूर खुद इस संस्कृति में कोई बात कोई भीतरी ताकत और जिन्दगी की समझ-बूझ रही है, जिसने इसे इस तरीके पर जिन्दा रखा है, क्योंकि यह तीन-चार हजार बरसों का संस्कृति का विकास और अटूट सिलसिला एक अ‌द्भुत बात है। मशहूर विद्वान और प्राच्यविद् मैक्समूलर ने इस पर जोर दिया है और लिखा है- “दरअसल हिन्दू विचार के सबसे हाल के और सबसे पुराने रूपों में एक अटूट क्रम मिलता है और यह तीन हजार से ज्यादा तक बना रहा है।” बहुत जोश के साथ उन्होंने (इंग्लिस्तान की कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी में दिये गए व्याख्यानों में, सन् 1882) में कहा है-“अगर हम सारी दुनिया की खोज करें, ऐसे मुल्क का पता लगाने के लिए कि जिसे प्रकृति ने सबसे सम्पन्न, शक्तिवाला और सुन्दर बनाया है-जो कुछ हिस्सों में धरती पर स्वर्ग की तरह है- तो मैं हिन्दुस्तान की तरफ इशारा करूँगा। अगर मुझसे कोई पूछे कि किस आकाश के तले इनसान के दिमाग ने अपने कुछ सबसे चुने हुए गुणों का विकास किया है, जिन्दगी के सबसे अहम् मसलों पर सबसे ज्यादा गहराई के साथ सोच-विचार किया है और उनमें से कुछ के ऐसे हल हासिल किये हैं, जिन पर उन्हें भी ध्यान देना चाहिए, जिन्होंने अफलातून और कांट को पढ़ा है- तो मैं हिन्दुस्तान की तरफ इशारा करूँगा। और अगर मैं अपने से पूहूँ कि कौन-सा ऐसा साहित्य है, जिससे हम यूरोपवाले, जो बहुत-कुछ महज यूनानियों और रोमनों और एक सेमेटिक जाति के, यानी यहूदियों के विचारों के साथ-साथ पले हैं, वह इसलाह हासिल कर सकते हैं, जिसकी हमें अपनी जिन्दगी को ज्यादा मुकम्मिल, ज्यादा विस्तृत और ज्यादा व्यापक बनाने के लिए जरूरत है, न महज इस जिन्दगी के लिहाज से, बल्कि एकदम बदली हुई और सदा कायम रहनेवाली जिन्दगी के लिहाज से, तो मैं हिन्दुस्तान की तरफ इशारा करूँगा।”

करीब-करीब आधी सदी बाद, रोमां रोलां ने उसी लहजे में लिखा है-” अगर दुनिया की सतह पर कोई एक मुल्क है, जहाँ कि जिन्दा लोगों के सभी सपनों को उस कदीम वक्त से जगह मिली है, जब से इनसान ने अस्तित्व का सपना शुरू किया, तो वह हिन्दुस्तान है।”

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