आपको हमारी परछाई से क्या दिक्कत है क्या समस्या होती है आपको आपसे पहले किसी पथ से गुजर जाने से आपको हमारी घुड़चढ़ी से क्या दिक्कत है क्या समस्या आती है आपको हमारे नई पोशाक पहनने से आपको हमारे अंगुठों से क्या दिक्कत है क्या समस्या आती है आपको अम्बेडकर की उँगलियों से आपको हमारी गर्दन से क्या दिक्कत है क्या समस्या आती है आपको हमारी मूछों से चलो छोड़ो!! अच्छा सच बताओ- आपको क्या दिक्कत आती है हमारे होने से ??
2. सर्विस बुक
3 बजकर पैंतीस मिनट्स पर घंटी बजते ही हम इकट्ठा हो जाते थे चाय के लिए स्टाफ़ रूम में
जिसको जो कप मिला उठाया धोया और चाय डालकर पीनी शुरू.. स्नैक्स में भी वही उलझन जिसके हाथ में मिला छीन लिया...
हूबहू लंच करना... एक दिन विद्यालय प्रमुख का आदेश आया सर्विस बुक चेक करने की अनुमति मिली उसमें लिखी थी मेरी सबसे ख़ास निशानी ठीक उसी निशानी की तरह जिसको पहचान लिया था भगवान राम ने सिया माता की दी अँगूठी...
उन्होंने भी पकड़ ली मेरी जात सर्विस बुक ने मुझसे मेरी पहचान छीन कर एक नई पहचान दी कम अंक वाला कोटा से आया हुआ ख़ैरात खाया हुआ शेड्यूल कास्ट।
3. यूं ही तो नहीं
यूं ही तो नहीं फूंकी होंगी तुम्हारी बस्तियां यूं ही तो नहीं उजाड़े होंगे गांव के गांव तुमने उनके जैसा रहना, खाना और पहनना शुरू किया होगा।।
यूं ही तो नहीं काटी होंगी गर्दनें यूं ही तो नहीं कलम किए होंगें अंगूठे यूं तो नहीं कटती होंगी अम्बेडकर की उंगलियों तुमने पढ़ने का प्रयास किया होगा।।
यूं ही तो नहीं मार दिया था पाश अपने ही घर में यूं तो नही मारा होगा गौरी लंकेश को यूं ही तो नहीं हुआ होगा घर से लापता स्वदेश दीपक जरूर कुछ सपने देखे होंगें।
यूं ही तो नहीं चले होंगे वॉटर टैंक, आँशु गैस, लाठियां गोलियां यूं ही नहीं पसरा होगा सन्नाटा शहर में तुमने इंकलाबी नारे लगाए होंगे।।
4. ‘जाति’
मनु ने बनाई? उनसे / इससे पहले थी ? उत्तर वैदिक काल के बाद आई? या इससे भी पहले थी? ब्राह्मणों ने बनाई? जो भो हो कोई तो होगा जिम्मेदार हमारी इस स्थिति का! या फिर तुम भी यही कहोगे- भगवान की मर्ज़ी है...
5. मां का सन्दूक
मां के संदूक की लोहे की पत्तियां हाथ काटने लगीं हैं उलझ जाती है अंदर पड़े कपड़ों में ही रद्दी में पड़ी दरी बिछौने,कांसी के बर्तन। कपूर की गोलियां अब बेअसर हो गई है मग़र असरकारक है एक कोने में पड़ी बही आज भी जिंदा हैं उसमें लगें हैं अंगूठे मेरे पिताजी के एक के बाद एक उसी अनुपात में जिस अनुपात में आढ़ती के सिग्नेचर हैं। मेरे पिताजी बेशक न रहे मगर रह गए हैं बही में लगे अंगूठे देनदारी के।
डॉ. ईशम सिंह दिल्ली सरकार में अंग्रेजी अध्यापक के रूप में कार्यरत हैं।
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“मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही, हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए” -दुष्यंत कुमार
तमाम साहित्यिक जनों का साधुवाद मेरे शब्दों और भावनाओं को आपने मूल्य दिया और देश-हरियाणा पत्रिका के सम्पादक मंडल का ख़ासतौर से..????????
आपका-ईशम सिंह
ये सदियों का संताप है जो विद्रोह के ज्वालामुखी पर बैठा है । सामाजिक विडंबनाओं के साथ साथ कवि बहुत सचेत रूप में भाषा का प्रयोग करता दिखाई दे रहा है । यह सुखद है कि हमारे बहुत नजदीक ऐसी विकसित काव्यदृष्टि है ।
वर्तमान एवं भावी पीढ़ी को जागरुक करने का बेहतरीन प्रयास। क्योंकि जब तक जागरुकता नहीं होगी,लोग मानसिक गुलामी से स्वतंत्र नहीं हो पायेंगे।खुद के बाद औरों को जागरुक करना बहुत जिम्मेदारी का कार्य है। जो आप अपनी कविताओं व अन्य साहित्य के माध्यम से कर रहे हैं।बात यह नहीं कि सफ़लता कितनी मिलेगी,जरूरी यह है कि प्रयास में कोई कमी न रहे। ????
डॉक्टर ईशम सिंह की कविताएं अंदर तक झकझोर देती है एक दर्द उभरता है गैर बराबरी की व्यवस्था से लड़ने के लिए, एक मुट्ठी बांधकर फिर से आवाज लगाई जाए , हां मैं लडूंगा
“हड्डी गलने में समय लगता है”ईशम जी ने कविताओं के माध्यम से दलित समुदाय के संघर्ष, उत्पीड़न को शब्दों के माध्यम से सुंदर जामा पहनाया है। कविताओं से गुजरते हुए महसूस हुआ की कविताएँ पूरे समाज का प्रतिनिधत्व करती है।
मैं शुरू से ही लेखक को भगवान मानता हूं…क्योंकि वही है जो हजारों सालों से पड़े उन्हीं शब्दों को नए अर्थों में जन्म देता है… सचमुच आप मेरी प्रेरणाओं में से एक हैं ||
ईशम सिंह की कविताओं में सदियों का दर्द दबा हुआ है।
“मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही, हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए” -दुष्यंत कुमार
तमाम साहित्यिक जनों का साधुवाद मेरे शब्दों और भावनाओं को आपने मूल्य दिया और देश-हरियाणा पत्रिका के सम्पादक मंडल का ख़ासतौर से..????????
आपका-ईशम सिंह
इन कविताओं से गुजरते हुए एक साफ आइना दिखता है जिसमे हर पीड़ित अपनी वास्तविकता और इन पारंपरिक सड़ी गली मानसिकता को महशूस कर सकता है ।
ये सदियों का संताप है जो विद्रोह के ज्वालामुखी पर बैठा है । सामाजिक विडंबनाओं के साथ साथ कवि बहुत सचेत रूप में भाषा का प्रयोग करता दिखाई दे रहा है । यह सुखद है कि हमारे बहुत नजदीक ऐसी विकसित काव्यदृष्टि है ।
वर्तमान एवं भावी पीढ़ी को जागरुक करने का बेहतरीन प्रयास। क्योंकि जब तक जागरुकता नहीं होगी,लोग मानसिक गुलामी से स्वतंत्र नहीं हो पायेंगे।खुद के बाद औरों को जागरुक करना बहुत जिम्मेदारी का कार्य है। जो आप अपनी कविताओं व अन्य साहित्य के माध्यम से कर रहे हैं।बात यह नहीं कि सफ़लता कितनी मिलेगी,जरूरी यह है कि प्रयास में कोई कमी न रहे। ????
डॉक्टर ईशम सिंह की कविताएं अंदर तक झकझोर देती है एक दर्द उभरता है गैर बराबरी की व्यवस्था से लड़ने के लिए, एक मुट्ठी बांधकर फिर से आवाज लगाई जाए , हां मैं लडूंगा
इंसान को चुपचाप दर्द सहन नहीं करना चाहिए, यही संदेश देती हैं डॉक्टर ईशम सिंह जी की कविताएं
“हड्डी गलने में समय लगता है”ईशम जी ने कविताओं के माध्यम से दलित समुदाय के संघर्ष, उत्पीड़न को शब्दों के माध्यम से सुंदर जामा पहनाया है। कविताओं से गुजरते हुए महसूस हुआ की कविताएँ पूरे समाज का प्रतिनिधत्व करती है।
मैं शुरू से ही लेखक को भगवान मानता हूं…क्योंकि वही है जो हजारों सालों से पड़े उन्हीं शब्दों को नए अर्थों में जन्म देता है… सचमुच आप मेरी प्रेरणाओं में से एक हैं ||