लेखक को अपनी बौद्धिकता का रुख जनाभिमुख रखना चाहिए

बाबा नागार्जुन और विजय बहादुर सिंह

विजय बहादुर सिंह ने बाबा से यह बातचीत साल 1971 में की थी। बतौर रचनाकार बाबा नागार्जुन ने इस संवाद में लेखकीय राजनैतिक दायित्त्वों, शिल्प निर्माण, लेखक के साथ जुड़े विशेषणों, सामयिक विषयों पर लिखी गई रचनाओं और विवेचकों के महत्त्व तथा ओशो रजनीश आदि के संबंध में सधे हुए महत्वपूर्ण जवाब दिए हैं। यह साक्षात्कार वाणी प्रकाशन द्वारा वर्ष 2009 में प्रकाशित पुस्तक “नागार्जुन संवाद” से साभार लिया गया है।

बंगलादेश के मुक्ति संघर्ष के आखिरी दिनों में कवि श्री नागार्जुन मेरे अतिथि थे। बंगलादेश की मुक्ति की ऐतिहासिक घटना का समाचार उन्होंने यहीं सुना और इतने पुलकित हुए कि चैतन्य महाप्रभु की तरह दोनों हाथ उठा कर नाचने लगे। वे जाड़े के दिन थे और बाबा अपनी कुलही, बढ़ी हुई दाढ़ी, गेरुई लुंगी और खैरे रंग के कुरते में काफी छबीले लग रहे थे। मिथिला की मिट्टी, मालवा की आबो-हवा में बंगलादेश के मुक्ति समाचार पर इतनी मगन थी कि उसे पुलकित होकर नृत्य करने के अलावा और कुछ सूझ ही नहीं रहा था। उन दिनों उन्हें डॉ. लोहिया की वह भविष्यवाणी याद आ रही थी जिसमें बंगलादेश की नियति की राजनीतिक विवेचना की गई थी। बाबा नागार्जुन बारह दिन यहाँ रहे और रोज रेड़ियो की सुई को बंगलादेश से जोड़ते रहे। वहाँ की हरियाली, वहाँ की नदियाँ, लोकगीत-सब उनको याद आते रहे। एक दिन उन्होंने मुझसे कहा कि इस बार कलकत्ता से ढाका जरूर जाऊँगा। उन्हीं दिनों बाबा ने इंदिरा शतक भी लिखा, जो बाद में ‘उत्तरार्ध’ के कुछ अंकों में प्रकाशित हुआ । ‘मन्त्र’ कविता भी लिख ली गई थी तब तक, पर ‘कल्पना’ को भेजी नहीं गई थी। एक घरेलू गोष्ठी में उन्होंने वह कविता सुनाई थी और हिन्दुस्तान के ‘चितकबरे विकास’ को लेकर बेढब टिप्पणी भी कसी थी।

एक लेखक के नाते उनकी चिन्ता यह थी कि हमारे राजनेता जनता की ओर से बिलकुल उदासीन हैं और वे उसे झांसे पर झांसे देते चले जा रहे हैं। उसी सिलसिले में उन्होंने व्यापक जनान्दोलन का सपना देखना शुरू किया और कहा था कि भारतीय राजनीति में सही बुद्धिजीवी के लिए अब बहुत कम गुंजाइश है। या तो वह जाति या गोत्र का सुरमा लगा कर चुनाव लड़ ले या फिर जातिवाद का विरोध करता हुआ राजनीति से निरन्तर बाहर रहे। इतना ही नहीं, उन्होंने बहुत साफ शब्दों में कहा था कि आज की राजनीति का मुख्य कार्य विष्टाशोधन है। आदर्श राजनेता को हर क्षण इस कार्य में लगे रहना चाहिए।

नागा बाबा की उन दिनों की मुखरता और उत्साह का लाभ मैंने व्यवस्थित बातचीत के जरिए लेना चाहा। इसके पहले कि उन्हें अपने सवालों की सीध में लाऊँ मैंने स्वयं भी उन पर एक प्रसन्न लेख तैयार कर लिया था और वे उसे एकाध पत्रिकाओं में भेजने की सलाह भी दे चुके थे। पर अपनी आदत के मुताबिक उस लेख को भी भेज नहीं सका और इस बातचीत को भी।

बाबा से बात करना जितना आसान है, उसी मूड में उसे जारी रखना उतना ही कठिन भी। वे विचारों में बहते-बहते उबलने लगते हैं। उफनते हैं और कोई आश्चर्य की बात नहीं कि इसी बीच उनका बरसों पुराना साथी दमा न उठ खड़ा हो। फिर तो धनुष-बाण रख ही देना पड़ता है। इस टूट गए सूत्र को जोड़ने में काफी मशक्कत करनी पड़ती है। चाय, कॉफी, पकौड़े और न जाने कितनी पान-सुर्ती की दुकानों का चक्कर लगाना, लगवाना पड़ता है तब कहीं जाकर देवता थान पर आते हैं। यह बातचीत भी ऐसे वातावरण के बीच, कई दिनों में की गई थी। मुझे याद है, वह अक्सर चार बजे शाम का समय हुआ करता था और दोपहर की नींद से उठ कर चाय पीने के बाद बाबा टहलने लगते थे। मैं अपना सवाल, कलम, कागज और कुर्सी लेकर उनके सामने उठा-बैठी करता, उन्हें अपनी ओर मुखातिब करने के करतब किया करता था। आज उस घटना को बीते काफी समय हो गया है, तब भी यह बातचीत नागार्जुन के विचारों को समझने और उन्हें नये सिरे से जानने के काफी रास्ते खोलती है।

वि.- बाबा, आपकी कविताओं में क्रम-विकास कैसे खोजा जाए…

बा.- गद्य में यह समस्या नहीं है। गद्य का मार्केट बहुत अच्छा है। कहानियों और निबन्धों के एक-एक संकलन हो सकते हैं। पर यह नहीं हो सका क्योंकि मैंने कुछ इसकी उपेक्षा की। कविताओं में बहुत कुछ ऐसा है जिसे संकलनों में नहीं लाया जा सका।

(खैखारना और लघुशंका जाना। लौट कर वाक्य पूरा करना)

…खासकर राजनीतिक रचनाएँ असंकलित रह गई हैं।

वि.-आप कविता कब लिखते हैं?

बा.- कविताएँ जब गुस्सा आता है तब लिखता हूँ और तब बहुत मूड में होता हूँ।

वि.- गुस्सा किस पर…

बा.-समाज या व्यवस्था पर। कविता का औसत साल में मुश्किल से पन्द्रह-बीस या पच्चीस तक ही हो पाता है।

वि.- बाबा! आपकी कुछ कविताओं पर संस्कृत काव्य का प्रभाव बहुत है।

(वे थोड़े उत्तेजित हुए। स्वर कुछ तीखा और तेज हो गया)

बा.-रात-दिन जो अंग्रेजी पढ़ेगा उस पर कौन-सा प्रभाव पड़ेगा? मैं तो मूलतः संस्कृत का आदमी हूँ। वैसे अकाल वाली कविता पर विपन्न अंचल का असर है। मन्त्र वाली कविता विडम्बनाओं वाली परिस्थितियों की उपज है।

वि.- (बातचीत को मोड़ देकर मैंने पूछा) मुक्त छन्द के बारे में आपका क्या ख्याल है?

बा.- मुक्त छंद के कई स्तर और लेयर होते हैं और जिस व्यक्ति की संगीत में अभिरुचि है, उसके जो वाक्य खण्ड होंगे, वे गीत शैली में ढले-ढलाये अनजाने में भी निकलते रहते हैं। शमशेर में यही बात हम देखते हैं। परन्तु उनके तो मुक्त वाक्य खण्ड हैं। वे उर्दू नज्मों और ग़ज़लों के टुकड़ों की छाया का आभास देते हैं क्योंकि उनका निकट से उन्हीं से परिचय रहा है। लयात्मकता की दृष्टि से मुक्तिबोध की पंक्तियाँ अक्सर ऊबड़-खाबड़ प्रतीत होती हैं। बचपन से ही पदों को गुनगुनाने की लत पड़ जाने पर किस प्रकार गीत शैली अभिव्यक्त होती चलती है इसका उदाहरण हमें जानकी वल्लभ शास्त्री में मिलता है।

वि. लयात्मकता के बारे में आपका क्या ख्याल है?

बा. लयात्मकता हमारी परम्परा में गुंफित होकर उतरती है तो ज्यादा पहचान में आती है। कल्पना कीजिए, कोई तरुण कवि जो कॉनवेन्ट में बरसों गुजार कर कॉलेज की देहरी पर आया है और महानगर के उच्च मध्य तरुण सर्कल में आता-जाता है, उसकी अभिव्यक्ति पर रॉक एण्ड रॉल, जॉज या पॉप शैली का प्रभाव अनायास देखा जा सकता है।

वि. तो क्या कवि की समूची शैली का निर्धारण वातावरण करता है?

बा.- वातावरण…? (चुप्पी)

पिछले बीस-पच्चीस वर्षों में फिल्मी गीतों का ढाँचा जिस क्रम में बदलता आया है, उससे सूर, तुलसी, मीरा के पद गायन का क्या लगाव रह गया है? फिल्म वाले तो कभी-कभी सीधे गद्य को भी गा देते हैं। एक गद्य पंक्ति को दो सौ संगीतकारों की पंक्ति जब गाती है, तब चमत्कार उत्पन्न हो जाता है। यह चमत्कार हमारे शास्त्रीय कलाकार भी करते हैं। यानी ‘चलत राजकुमारी’ को कम से कम बीस छन्दों में गा कर दिखा देते हैं।

वि.- बाबा! क्या प्रगतिशील या वाद नाम आपको अपने सन्दर्भ में पसन्द है?

बा.- कैसा भी विशेषण हो, कवि को सीमित कर देता है और कालक्रम में विशेषण झड़ते चलते हैं। फिर भी उसका शब्द-शिल्प, भावात्मक भास्वरता के चलते सही कवि को कवि बनाए रखता है। अर्थात् लगातार साठ वर्षों तक नाना प्रकार के विशेषणों से अलंकृत रहने पर भी अस्सी की आयु वाला वृद्ध कवि, महाकाल की निर्मम छंटनी के बाद कवि के रूप में यदि शेष रह जाए तो यह उसकी बहुत बड़ी उपलब्धि होगी।

वि.- ऐसे में नितान्त सामयिक विषयों पर लिखी गई रचनाओं का क्या महत्त्व है?

बा.- नितान्त सामयिक कह कर जिन रचनाओं को हम छाँट देते हैं या हमारे मित्रों की दृष्टि में जो गौण होती हैं, हो सकता है ऐतिहासिक सन्दर्भ में आगे चल कर उनमें से कुछ रचनाएँ विशिष्ट मान कर ऊपर उठा दी जाएँ। उदाहरण के लिए भारतेन्दु की सामान्य पंक्ति “का सखि साजन, ना सखि पुलिस” को उनकी प्रगतिशीलता बताने के लिए ‘कोट’ किया जाता है। अर्थात् सौ वर्ष बाद बहुजन समाज का जीवन सुखमय हो जाने की स्थिति में हमारी निर्णायक स्थिति में हमारे वंशधरों की विवेचनाशक्ति एक और अभिनव वर्चस्विता से निर्देशित होगी। उस हालत में आज के तथाकथित बहुविज्ञापित कवि सम्भवतः पीछे छूट जाएँ। यह कसौटी नहीं है कि किन्हीं विशिष्ट कारणों से बड़े प्रकाशक जितने अनेकानेक संकलन आज धड़ल्ले से छाप रहे हैं और विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में किन्हीं कारणों से, जिन्हें इन दिनों अपनाया जा रहा है, सौ वर्ष बाद भी उतने ही भाग्यशाली रहेंगे?

वि.- आपके इस सोचने का कोई आधार भी है?

बा.- बिल्कुल स्पष्ट है और सब जगह होता है। एक उदाहरण नज़ीर अकबरबादी का हमारे सामने है। कुछ दिनों पहले तक उर्दू शायरी में उनका कोई विशेष स्थान नहीं था। परन्तु अब उनकी कविताओं के संकलन कई स्थानों से प्रकाशित हो रहे हैं।

वि.- किसी कवि को उभारने वाले तत्व स्वयं कवि में होते हैं या बाहर?

बा.- प्रत्येक युग में चेतना सम्पन्न पीढ़ियों में से भी एक प्रखरतर विवेचक वर्ग उभरता रहता है। इसका श्रेय उसी को होता है।

वि.- हर युग में क्या कई प्रकार की समझ विद्यमान रहती है?

बा.- चाहे हम कितना ही कहें, शासक वर्ग से जुड़ा हुआ बौद्धिक वर्ग अपना एक दायरा बना कर चलता है। उस दायरे में समकालीन और दिवंगत प्रतिभाधर प्रवेश पाते चलते हैं।

वि.- शासक वर्ग से आपका क्या आशय है?

बा.- बहुजन समाज का पक्षधर जो शासक वर्ग है… वह।

प्रखरता, साफगोई और युग-दृष्टि के कारण मुक्तिबोध की उपेक्षा नहीं की जा सकेगी और कवि के रूप में ‘कृष्णायन’ के रचयिता की कोई स्थिति नहीं रहेगी। और फिर यह भी समकालीन विवेचक वर्ग- जो अध्यापक वर्ग में है- उसका काम है कि वह यह करे। एक कवि जब स्वयं अपने बारे में कुछ नहीं कहता तब वह दूसरे साथी कवि के बारे में क्या कहेगा। यह बीमारी तो प्रयोगवादियों में है कि वे एक-दूसरे के बारे में कहते हैं।

वि.- आदर्श कवि के बारे में आपकी क्या धारणा है?

बा. – एक अच्छे कवि की अपेक्षा एक अच्छे नागरिक को हम कहीं अधिक अच्छा और महत्त्वपूर्ण मानते हैं।

वि. – तब क्या आप अपने को कवि नहीं मानते?

बा.- (सांस खींच कर, जोर देकर) भाई।

कविता की हमने कभी परवाह नहीं की है और इस सवाल के पूछने के हम सही पात्र नहीं हैं। एक पंक्ति मेरे दिमाग में गूँजती रहती है- ‘फरिश्ते से इंसान बनना है बेहतर मगर इसमें पड़ती है मुश्किल ज्यादह”

वि.- इस मुश्किल को आपने कितना आसान कर लिया है?

बा.- हम तो ऐसे लोगों में से हैं- याने साधू का लबादा छोड़ने पर भी जो एक अच्छा पति नहीं बन सका, एक अच्छा पिता नहीं हो सका, वह भला अच्छा कवि और अच्छा नागरिक कैसे होगा? प्रत्येक प्रकार के बन्धन से छुटकारा पाने की कोशिश में, किसी प्रकार के दायित्व को न निभा पाने की निराशा में आहिस्ता-आहिस्ता औघड़ बन जाना ही में अपने लिए सहज मानता आया हूँ। मुझे इस बात की कभी परवाह नहीं रही कि मेरी तारीफ में किसी मित्र ने कुछ कहा है या नहीं? जन साधारण के बीच निर्बाध-निर्द्वन्द्व होकर विचरना ही मेरे लिए तुष्टि का, ताजगी और जीवन्तता का सबसे बड़ा आलम्बन रहा है।

वि.- फिर ‘भस्मांकुर’ आप कैसे लिख गए?

बा.- ‘भस्मांकुर’ लिखना मेरी प्रकृति के अनुरूप नहीं है। पर अगर लिखना पड़े तो में लिख कर दिखा सकता हूँ, क्योंकि मेरी अध्ययन की परम्परा रही है। प्रकाशक के कई वर्षों के अनुरोध के बाद मैंने वह काम किया। अब मुझे लगता है कि स्वान्तः सुखाय मुझको अव्यावसायिक खण्ड काव्य लिखना चाहिए।

वि.- ऐसी क्या मजबूरी थी आपके साथ कि आपको यह कार्य करना पड़ा?

(वे क्षुब्ध हो गए, आवाज का स्तर ऊँचा हो गया। फर्श पर पाँवों की चहल-कदमी तेज हो गई। लगभग हकलाने से लगे। लगा, जैसे कहीं और खो गए हों और सचमुच उनका उत्तर देने का मूड खत्म हो गया हो। पर नहीं वे मोर्चे पर डटे ही रहे। आवेश तीखा और गहरा हो गया था। लगता है, बहुत देर शायद यही सोचते रहे कि अगली बात कहें या नहीं। फिर स्वयं बोलने को आतुर हो गए।)

बा. किसी भी साहित्यकार को अत्यन्त पुलकित नहीं होना चाहिए कि कोई प्रकाशक हमें छापेगा। प्रकाशक एक प्रकार का चिकवा होता है। चिकवा का काम होता है, हर बकरे के पुटूठे और टाँगों को टटोल कर गोश्त का अन्दाजा लगाना और खरीदना। साहित्यकार की स्थिति इससे कुछ भिन्न नहीं होती। वह जब भी किसी प्रकाशक द्वारा छापा जाता है, तब उसे या प्रकाशक को मुगालते में नहीं रहना चाहिए। घर-परिवार और समाज के अधिकांश लोग बकरियों की तरह होते हैं। जैसे बकरियाँ हर नये दूसे को दूंगती रहती हैं, लोग भी हर नई सम्भावना को खाने और पचाने का शौक करते हैं। प्रतिभा वाले काजी नजरूल इस्लाम का गूंगा हो जाना या निराला जी का विक्षिप्त हो जाना समझ में आता है। कोई भी संवेदनशील आदमी इन सामाजिक विडम्बनाओं के बीच कभी भी हो सकता है।

बाबा देर तक दाँत चियार कर हँसते रहे। जैसे उन्होंने कुछ कहा ही न हो। फिर भी उनके चेहरे पर अभिव्यक्ति का संतोष था।बुद्धिजीवी कहलाने वाले प्राणियों की अच्छी तरह पहचान रखने वाले औघड़ कवि ने समूची व्यवस्था को अहं की व्यवस्था करार देते हुए एक कविता सुनाई-

हजार फन फैलाए 
बैठा है मार कर गुंजलक
अहं का शेषनाग
लेटा है मोह का नारायण
वो देखो नाभि
वो देखो संशय का शतदल
वो देखो स्वार्थ का चतुरानन
चाँप रही चरण-कमल लालसा-लक्ष्मी
लहराता है सात समुद्रों का एक
समुद्र
दूधिया झाग
दूधिया झाग…

(अब तक वे काफी थक चुके थे। दमा उठ ही जाता अगर कुछ देर और बोलते रहते। मैंने कागज-कलम एक किनारे सरका दिया। वे जाकर लेट गए। शाम के 4 बजे मैंने अपना हथियार फिर सम्हाला। वे ताड़ गए। मैं सवाल करता, इसके पहले ही बोलने लगे)- “इघर मैंने एक शैली अपनाई, जो मुझे बहुत तिक्त कहना रहता है, उसे छन्दों में डाल कर कहता हूँ- बरवै, दोहा, बच्चन, दिनकर के गीत और मुक्तछंद तथा आख्यानक प्रगीत व मुक्तछन्द सब में लिखता हूँ। कहीं-कहीं प्रोजाइक भी हो गया हूँ। विचार प्रेरित कविताएँ लिखने से ऐसा हो ही जाता है। मैंने लोकगीतों की अनुभूति भी अपनी कविताओं में ढाली है। असल में लेखक को अपनी बौद्धिकता का रुख जनाभिमुख रखना चाहिए।”

(मैंने उनके ‘जनाभिमुख’ शब्द को पकड़ा और अगला सवाल उसी के बारे में रख दिया। उनके चेहरे पर एक अपूर्व तेजस्विता आ गई। ऐसा लगा, जैसे वे इसी सवाल के इंतजार में थे।)

कैसी भी बात हो उसे हम इसी कसौटी पर कसेंगे जो बहुजन समाज की तात्कालिक आवश्यकताओं को पूरा करने की दिशा में हो। रूस में लेनिन के पहले ऐसे लेखक हुए थे जिनसे जारशाही काँपती थी और उन्हें साइबेरिया भेज देती थी। अपने यहाँ रजनीश बहुत बिकते हैं पर उनकी बौद्धिकता जनाभिमुख नहीं है। हमारा मन वहाँ भटक जाता है। सुनते हैं, वहाँ कार वाले ही इकट्ठा होते हैं। रजनीश मजदूरों में जाकर क्यों नहीं बोलते? क्या कारण है कि पैसे वाला वर्ग ही बदुर-बदुर कर उनके आस-पास इकट्ठा होता है। बड़े वर्ग वाले इसी प्रखरता के कारण निराला को बदनाम करते थे। उनके विरुद्ध पैसे वालों और पौराणिकों का एक मोर्चा था। निराला जी के भक्तों का वर्ग रजनीश के भक्तों का नहीं है। रजनीश में सुगन्धित आडम्बर है। इसके विपरीत सामान्य जनता के लिए ही जो संगठन है, हम उसी को आशीर्वाद देंगे। यहाँ के बौद्धिक अपने को देवता मानने के रोग से ग्रस्त होते हैं। सार्ज वगैरह ने भी तो रूढ़ियाँ तोड़ी हैं। दूसरे, वहाँ की सामाजिकता यह नहीं है कि आप क्या खाते हैं, बल्कि आप किसके साथ खड़े हैं और क्या बोलते हैं। सार्ज ने विद्यार्थियों का साथ दिया।

वि.- अपने यहाँ ऐसा कोई नहीं है?

बा.-चर्वित चर्वण वाली पुस्तकें आ रही हैं। इसका एक कारण होता है। अपने यहाँ का जो बौद्धिक वर्ग है, वह जातिवादी कुसंस्कारों से लदा होता है। फल यह कि जो अस्सी प्रतिशत श्रमिक वर्ग होता है, वह उसके पैरों के नीचे छूट जाता है।

वि.- लोहिया के बारे में आपका क्या ख्याल है?

बा. बहुत अच्छा है। वह आदमी अगर बेईमान होता तो वह बहुत बड़ा न होता। उसकी कसौटी वही है। वह उसकी बौद्धिकता ही थी कि उसने कोई संगठन इस प्रकार का तैयार नहीं किया।

वि.- पर वे खुद को तो गाँधी की परम्परा में मानते थे?

बा.- गाँधी परम्परा कई टुकड़ों में बँट गई है। मठी, परम्पराबद्ध और कुजात। लोहिया बिगड़े हुए, कुजात गाँधीवादी थे और वही अपने को कहते थे। कार वाले छिप-छिप कर उससे मिलना चाहते थे, वह भगा देता था। (बाबा रौ में बहते गए) और एक चमत्कार देखो, नया अभिजात्य और पुराना अभिजात्य दोनों मिल कर रहते हैं, क्योंकि पुरानों को ऐसों से कोई खतरा नहीं होता। रजनीश नये अभिजातवादी हैं। अपने यहाँ श्रमविमुख चिन्तनपूर्ण संस्कृति रही है। इसी आधार पर वे दोनों एक हो जाते हैं। इसी में से उनका पुरोधा निकल आता है। जैसे दूल्हा बनने के लिए आँखों में काजल लगाना पड़ता है, वैसे ही भारतीय अभिजात का प्रतिनिधि बनने के लिए ढोंग का सहारा लेना पड़ता है।

वि.- श्रमविमुख से आपका क्या तात्पर्य है?

बा.- कौन वर्ग श्रम करता है। आपने एक पूरा का पूरा वर्ग श्रम के लिए तय कर दिया है। वैसे तो सटोरिया अठारह घण्टे चिन्ता में रहता है, श्रम तो वह भी करता है। श्रम से हमारा मतलब था कि हमारे पूर्वजों ने श्रम करने के लिए छोटे-छोटे कटघरे कायम कर दिए। मोटी वास्तविकता पर आओ। सम्पूर्ण देश में भंगियों की संख्या क्या होगी? सबसे घृणित श्रम है, जिसे कोई करना नहीं चाहता। अपने यहाँ की सामाजिकता, सामन्तशाही और पुरोहिती शैली की संयुक्त सामाजिकता रही है और उसमें कोई फर्क नहीं आ रहा है। इतने दिनों में किसी ने इसको छुआ नहीं। केवल एक नेता रहा, वह था लोहिया। उसने ग्वालियर में एक मेहतरानी को खड़ा कर दिया रानी के खिलाफ। हरिजन, मुसलमान और औरत के लिए उसने जीवन भर संघर्ष किया। जानते हो, अभिजात-प्रधान चिन्तन, प्रमुखतः जो वर्णाश्रम का ढाँचा है, उसके कारण ही हजारों मुसलमान बन गए।

वि.- अपने यहाँ के बौद्धिकों की क्या भूमिका है?

बा.- प्रखर बौद्धिक जो होगा उसे भी दुम कटा कर किसी न किसी दल से लड़ना होगा। उसकी राजनीति इलेक्शनमुखी राजनीति होगी। इसलिए विरोधी दलों की भूमिका भी लद्धड़ भूमिका है। यानी पूँछ कटाइये और उनके साथ दस बार मॉस्को हो आइये। दस बार लन्दन हो आइये। अपने यहाँ तो सौ वर्ष पहले जो बौद्धिक हुए उनकी भूमिका देखिए और हम में जो हुए उनकी भूमिका देखिए ।

वि.- क्या आपका मतलब राजा राम मोहन राय, दयानन्द और विवेकानन्द से है?

बा. यह ठीक है कि वे बहुत व्रतबद्ध और संकल्पदीप्त लोग थे, उनके मन में रहा होगा कि मध्य वर्ग को ठीक कर लेंगे तो समूचा समाज ठीक हो जायेगा, क्योंकि यही ‘जेनरेट’ करता है। इस कसौटी पर गाँधी जी बिल्कुल अलग पड़ जाते हैं। यानी लन्दन का पढ़ा-लिखा बैरिस्टर लंगोटी लगा कर या घुटने तक धोती पहन कर देहातियों के साथ रहने लगता है। गांधी जी को बाद में पूँजीपतियों ने यूटीलाइज कर लिया। दरअसल हमारे यहाँ का निम्न वर्ग इतना कुचला हुआ है कि उसमें गोर्की नहीं पैदा हो सकता। दक्षिण भारत के राजनीतिक दलों के नेता पंचम वर्ग के हैं संजीवैया, कामराज, अन्नादुराई, करुणानिधि। अपने यहाँ एकाध की छोड़ कर और कौन है? उत्तर भारत में बहुजन समाज के हितों की बात करने वाला वामपंथ भी पंगु वामपंथ है। हमारे आचरण सोशलिज्म से इतनी दूर चले जा रहे हैं कि वह एक फैशन हो गया है। इमरजेंसी लगा रखी है पर मन्त्रियों ने अपने वेतन कम नहीं किए हैं। बिजली का खर्च कम नहीं किया। व्यक्तिगत पैमाने पर ठेकेदारी से पैसा बचा-बचा कर अपना बंगला बना लेने का कोई औचित्य नहीं। वेतन की, शिक्षा की, आवास की समानता सोशलिज्म है। इस दृष्टि से लगता है कि बहुत बड़ी उथल-पुथल अभी होनी है। समता और समाजवाद के कारणों से कहीं अधिक इस बीच विषमता और असमाजवाद के कारण अधिक उभर आए हैं। भावनात्मक एकता केवल शब्दों से नहीं होती। उसके लिए आचरण जरूरी है। यह तो ऐसा ही है कि कोई कोढ़ी आदमी चन्दन लेप ले और घर से निकले ।

बाबा काफी मानसिक तनाव में आ गए थे और उन्हें उत्तेजित करना मुझे इसके बाद सर्वथा अन्यायपूर्ण लग रहा था।
(1971)

More From Author

तेंदुआ- अमित मनोज

कविताएँ – ईशम सिंह

3 thoughts on “लेखक को अपनी बौद्धिकता का रुख जनाभिमुख रखना चाहिए

  1. यह इंटरव्यू एक धरोहर है जो बाबा नागार्जुन के साहित्यिक रूप के साथ साथ उस समय की प्रमुख राजनीतिक – सांस्कृतिक समझ को हमारे सामने रखता है ।

  2. शानदार लेख ।
    इतनी गहनता से बाबा के विचारों से लिप्त ये लेख
    और उतनी ही खूबसूरती से बाबा से पूछे गए सवाल ,
    बाबा के साथ जो संवाद हुए जिस आक्रामकता के साथ बाबा ने उन्हें सुलझाया , चाहे रजनीश में सुगंधित आडम्बर हो , आभिजात्य वर्ग के प्रश्न हो , उनकी कविता पर संस्कृत का प्रभाव हो या बौद्धिक लोगो के द्वारा अपने आप में देवत्व देखना ।

  3. बाबा की जनाभिमुखता जीवन से कविताओं में आई, किताबों से नहीं… शुरू से लेकर आखिर तक इंटरव्यू में जन को लेकर ही चिंतित रहे बाबा….ऐसी प्रतिबद्धता ही उन्हें जनकवि बनाती है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *