सामान्य पाठक के तौर पर जब मुझे पुस्तकें पढ़ने का शौक हुआ तो मुझे अलग- अलग तरह की बैचेनी पैदा हुई जिन्होंने मेरे दिमाग में उथल- पुथल मचा दी। हालांकि जब हम नये सवालों व नई समस्याओं से टकराते है तो वह निस्सदेंह ही हमारे दिमाग़ में लगी जंग को हटाने व सोचने समझने की दृष्टि विकसित करती है। हम अपने आस पास घट रही घटनाओं के प्रति सचेत हो जाते हैं। एफ. आर. लीविस ने ठीक ही कहा है कि ” साहित्य में वास्तविक दिलचस्पी का अर्थ है मनुष्य, समाज, और सभ्यता की दिलचस्पी।
“दलित कविता, प्रश्न और परिप्रेक्ष्य” का अध्ययन सही में ही कठिन सवालों से गुजरना था। जैसे कि दलित विमर्श अपने आप में बहुत उलझा हुआ प्रश्न है और उसको सुलझाने की कोशिश विभिन्न माध्यमों से हो रही है। बहराल सवाल उठता है कि क्या दलित समस्याएँ आज भी मौजूद है, क्या उनमें परिवर्तन हुआ या फिर वह ज्यों की त्यों बनी हुई हैं या बनी रहेंगी।
आत्मसम्मान और गरिमा जैसे प्रश्नों के आधार पर दलित विमर्श निर्मित हुआ है। जैसे लेखक ने इस ओर इंगित किया है ” आत्मसम्मान या गरिमा का प्रश्न दलित विमर्श में केन्द्रीय रहा है। इस प्रश्न को लेकर दो खेमे बनें। एक खेमा पुरानी पहचान से छुटकारा है नयी सामाजिक स्वीकृति को बहाल कर सकती है। दूसरा खेमा इसे आर्थिक स्थिति से जोड़कर देखता है।”
यहाँ दो खेमे वाला बिन्दु महत्वपूर्ण है। जिस प्रकार पुराने स्थापित मूल्यों के समानांतर समाज के नवनिर्माण की कोशिश हो रही है क्या उसमें दलित समस्याएँ व दलित विमर्श से जुड़े सवालों, गरिमा या आत्मसम्मान की कोई जगह है। वहीं दूसरा प्रश्न आर्थिक हालातों से जुड़ा हुआ है; क्या महज आर्थिक क्षमता आने से दलितों की गरिमा या आत्मसम्मान की रक्षा की जा सकती है? यह दृष्टिकोण एकांगी है- केवल आर्थिक क्षमता ही दलितों की गरिमा नही होती, वह तो केवल जीवन जीने का एक सहारा हो सकती है।
लेखक का नजरिया है कि “डिग्निटी को आर्थिक स्थिति से जोड़कर देखने वाली राजनीति को हाशिये पर ढकेल दिया गया वहीं संस्कृति पहचान वाली राजनीति गरिमा विमर्श को ढँक देती है।” वर्तमान दौर में यह प्रश्न काफी प्रांसगिक है कि क्यों आर्थिक राजनीति को हाशिये पर ढेल दिया। अगर हम इसको स्पष्ट शब्दों में ब्यान करे तो यह हिस्सेदारी का मसला है। यदि विभिन्न संसाधनों का जब समान वितरण होगा तो आर्थिक रुप से उलझे हुए सवाल सुलझते हुए दिखाई देंगे। यदि हम केवल सांस्कृति गरिमा को ही ढोते रहेंगे तो न्याय के सवाल ज्यों के त्यों बने रहेंगे। वहीं स्वतंत्रता, बंधुत्व, न्याय के सवालों को भी ठेस पहुँचेगी। इसलिए आर्थिक भागीदारी एक महत्वपूर्ण पहलु हो सकता है लेकिन यह अपने आप में पूर्ण गरिमा की गारंटी नहीं देता। लेखक द्वारा चुनी गई सभी कवियों की कविताओं में यह सवाल बहुत तल्खी तरीके से दिखाई देते है। जैसे जयप्रकाश लीलवान कहते है-
समता, स्वतंत्रता, न्याय
और बंधुत्व जैसे विचारों को
अब बाज़ार में बुला लिए गए
भेड़ियों के
आनंद-वन में बने वध-स्थलों में
अपनी पेशी लगाने
बुला भेजा है
और न्यायाधीश
अब नंगई के इस उत्तेजक नाच के
मनोरंजन का
लुत्फ़ लूटने को
सरेआम
लार टपका रहे हैं..
आर्थिक स्थिति व हिस्सेदार को लेकर दलितों के सबसे बड़े नेता का अम्बेड़कर जी का नजरिया काफी सीधा व स्पष्ट था वे ” अम्बेड़कर देश के संसाधनों का जल- जमीन-खनन, बैकिंग, भारी उघोगों छोटे किन्तु राष्टीकरण चाहते थे किंतु उदार व बुद्धिजीवि इसको निजी हाथों में समर्थन देना चाहते थे। अम्बेड़कर का विचार काफी स्पष्ट है कि देश की संपति को सरकारी हाथों में ही रखना चाहते थे । वही मध्यकालीन संत रविदास का समय सांमतवादी समस्या था जो आगे चलकर पूंँजीवाद के रुप में स्थापित हुआ । संत रैदास सभी को समान देखना चाहते थे। इस सन्दर्भ में उनका प्रचलित दोहा भी है- “ऐसा चाहूं राज मैं, जहां मिले सबन को अन्न, छोट बड़ा सब संग बसे रैदास रहे प्रसन्न।” जैसे राज्य की कल्पना संत रैदास करते थे, कुछ कुछ वैसे ही राज्य की कल्पना अंबेड़कर जी भी लोकतंत्र के रूप में कर रहे थे पंरतु आज के समय में भी भूख , गरीबी, असमानता, स्वतंत्रता का प्रश्न वहीं खड़ा है। हाल ही में प्रकाशित ग्लोबल हंगर सूचकांक पर गौर करने से से पता चलता है भारत 125 देशों में से 111 वे स्थान पर है। ये काफी चिंताजनक विषय है। अब यह सवाल कौंधना स्वाभाविक है कि कौन लोग हैं जिनको आज भी भूखा रहना पड़ रहा है? जाहिर है कि उनकी भी पहचान होना जरुरी है।
जैसे-जैसे पुस्तक आगे बढ़ती है प्रश्नों की गहराई भी बढ़ती जाती है। लेखक मानवीय पक्षों का समर्थन करती हुई कविताओं के माध्यम से कुछ जरूरी सवालों को चिन्हित करते है। वर्तमान दौर मे जब सत्ता दिन- प्रतिदिन तानाशाह होती जा रही तो सभी बुद्धिजीवी वर्ग जो मानवता व मानवीय मूल्यों के पक्ष में खड़ा है चाहे वह कम्यूनिस्ट हो या फिर दलित हो या स्त्रियाँ उन सभी को एक साथ मिलकर संघर्ष करना पडे़गा क्योंकि संघर्ष सभी का साझा है। लेखक इस विंडबना की तरफ ध्यान दिलाता है कि ऐसे बहुत से कवि हैं जिनको मुख्यधारा में शामिल करने की बजाय एक विमर्श विशेष से बांधकर देखा गया, बहुत से कवियों को सांप नाथ इत्यादि की संज्ञा दे दी गई.. यदि ये सभी मिलकर आवाज उठाते हैं तो जाहिर है उसमें अधिक दम होगा।
‘अमृत महोत्सव में जल – विमर्श’ में लेखक की दूरदृष्टि काफी दूर कर ले जाती है। वह अतीत व वर्तमान दोनों जगह पर पानी के संघर्ष को याद दिलाते है। पानी का संघर्ष विशेष वर्ग के लिए काफी कष्टदायी रहा है जिसकी झलक अब भी देखने को मिलती है। पिछले दिनों राजस्थान में हुई घटना की याद ताजा हो जाती है। एक मासूम को पानी की मटकी छूने की वजह से उसकी जान ले ली जाती है। यह शीर्षक उस घटना से सीधे तौर पर जुड़ता दिखाई देता है। ” अम्बेड़कर जी ने 20 मार्च 1927 को महाराष्ट्र के चावदार तालाब में पानी को लेकर आदोंलन किया था जिसमें उन्होंने कहा ” इस पानी को पीने से हम अमर नहीं हो जाएंगे लेकिन इससे साबित होगा हम भी इंसान है।” लेखक ने पानी जैसी प्राकृतिक वस्तु को लेकर भी लिखा है कि पूँजीवादी व्यवस्था ने हर चीज पर एकाधिकार कर लिया बड़े- बड़े शहरो में पानी की सप्लाई की समस्या निरंतर बढ़ती जा रही है जोकि आने वाले समय में भंयकर विकराल रुप लेगी जिसकी तरफ किसी का भी ध्यान नहीं जाता।
परिवर्तन नए मूल्यों को स्थापित करता है। हर व्यक्ति की इच्छा होती है कि परिवर्तन होना चाहिए। ऐसे ही जब सांमतवादी दौर था या कही कि विशेष वर्ग को उनके अधिकारों से वंचित रखा जाता था तो वह सोचते थे कि पूँजीवादी व्यवस्था ठीक रहेगी जिसमें सभी को समान अवसर उपलब्ध होंगे। संसधानों का सभी वर्ग के व्यक्ति प्रयोग कर सकेंगे। सभी दलित लेखको की यह जिज्ञासा थी जिनमें शरणकुमार लिम्बाबे भी ऐसा मानते थे। पंरतु पूँजीवादी व्यवस्था ने समस्याओं को घटाने की जगह और अधिक बढ़ाया ही है ।
यदि हम किसी भी समस्या या तानाशाही रवैये को खत्म करना चाहते हैं तो हमें आंदोलन की जरुरत पड़ती है। वह भी सिर्फ विशेष जाति या वर्ग के आंदोलन नहीं, सांझे आंदोलन की जरुरत पड़ती है। लेखक ने इस आंदोलन की संरचना पर भी विचार किया है जोकि काफी सोचनीय विचार है “जब अम्बेड़कर आंदोलन कर रहे थे उसमें उनके सहयोगियों में गैरदलित भी शामिल थे। नये दलित आंदोलन में ऐसे लोगों की कोई जगह न रही।” यह काफ़ी महत्वपूर्ण सवाल है जिसकी हमें पड़ताल करनी होगी कि क्यों गैर-दलितों की दलित आंदोलनो में भागीदारी नहीं है? इसके असल कारण क्या हैं?
दूसरी पुस्तक- “भारत और उसके विरोधाभास।”
भारत और उसके विरोधाभास पुस्तक का शीर्षक ही प्रभावी है। सामान्य मनुष्य जो प्रतिदिन इन विरोधाभास से संघर्ष करता है, वह शायद इन विरोधाभास के सम्बन्ध में निजी तौर पर बातचीत भी करता है किन्तु वह सार्वजनिक तौर पर इन सवालों पर विस्तार से बातचीत नहीं करता है। जब हम भारत के विरोधाभास की पहचान करें तो यह कोई यह कोई नया विचार नहीं बल्कि हमारे आस-पास के ही केन्द्रीय मुद्दे है जिनपर प्राय: ही विस्तरित चर्चा होती है। जैसे:- शिक्षा, स्वास्थ्य, भूखमरी, गरीबी, जातीय संरचना, सामाजिक संरचना। यह पुस्तक आर्थिक दृष्टिकोण को केंद्र में रखकर लिखी गई लेखक ने विभिन्न सर्वेक्षणों व डाटा के माध्यम से मुद्दों को काफी स्पष्ट ढंग से उठाया है।
बहराल पुस्तक ज्यां द्रेज व अमर्त्य सेन के साझा संघर्ष व विस्तरित शोध का परिणाम है। दोनो ही विद्वान अर्थशास्त्र विषय से संबंधित है। निरंतर अर्थव्यवस्था सम्बन्धी विभिन्न सवालों को उठाते हैं। वर्तमान का विश्लेषण भी काफी विस्तृत फलक पर किया है जैसे भारत में वो कौन सी केंद्रीय समस्याएँ हैं जिनकी वजह से विकास की गति प्रभावित हुई है या हो रही है। मौजूदा दौर मे अगर हम अर्थव्यवस्था की बात करें तो वह विश्व स्तर पर काफी वृद्धि कर रही है। जिसका गुणगान भी प्रचुर मात्रा में हो रहा है वहीं अगर हम प्रति व्यक्ति आय की ओर नजर करते है तो उसमें कुछ खास वृद्धि नहीं दिखाई पड़ती। विश्व स्तर के साथ यदि यह वृद्धि प्रति व्यक्ति के स्तर पर भी हो तो तब हम इस वृद्धि को सही मायने मे वृद्धि मान सकते है क्योंकि सवाल यही है वृद्धि उच्च स्तर पर निचले स्तर पर भी जरुरी है।
जाति व जातीय संरचना भी विकास की गति को प्रभावित करते हुए गति को धीमा करती है। लेखक ने लोहिया के दृष्टिकोण को संदर्भित करते हुए जाति व जातीय संरचना को व्याख्यित किया है “जाति अवसरों को बाधित करती है। अवसरों के बाधित होने से ही क्षमता बाधित होती है। क्षमता बाधित होने से अवसर और ज्यादा सीमित होते हैं। जहाँ जाति हावी होती है वहाँ अवसर और क्षमता चंद लोगों के दायरे में सीमित हो जाते है। यह प्रश्न सदियों से बना हुआ है कि जाति की संरचना ने विभिन्न प्रतिभाओं को नष्ट किया है। यदि जनसंख्या के हिसाब से अवसरों का सीमित होना आँका जाए तो शायद वह वह और भी चिंताजनक होगा।
आर्थिक वृद्धि और जीवन इन दोनों को हम अलग करके नहीं देख सकते। ये दोनों ही एक नदी के दो छोर हैं जैसे ही आर्थिक वृद्धि की गति चलयामान होती है वैसे ही जीवन शैली में भी परिवर्तन होता है। या यूँ कहें कि जीवन में सुगमता आती है लेकिन इसमें उपलब्धियों की महत्वपूर्ण भूमिका है कि हमने क्या प्राप्त किया है व क्या छोड़ दिया है। भारत के विभिन्न राज्यों व विश्व स्तरीय स्तर पर अनेकों विरोधाभास है जिनको लेखक ने भारत के संदर्भ में तुलनात्मक तरीकें से विश्लेषित किया है। स्वच्छता से जुड़ा सवाल अति जरुरी है जिसमें भारत की स्थिति काफी चिंताजनक दिखाई पड़ती है। प्रस्तुत रिपोर्ट के आधार पर अगर हम भारत और बंगलादेश की तुलना करें तो बंगलादेश जैसे गरीब देश ने स्वच्छता जैसे कार्यक्रम मे बहुत आगे तक कदम बढ़ाया है। भारत में आज भी खुले मे शौच जाने वाला की आबादी 50% है। लोगों के घरों में स्वास्थ्य की सुविधा नहीं है। इससे सबसे ज्यादा महिलाओं को समस्या होती है क्योंकि या तो वे रात को शौच जाती है या फिर सुबह भौर में जो की उनकी सुरक्षा के लिहाज से महत्वपूर्ण प्रश्न है।
स्वास्थ्य पुस्तक का केद्रीय विषय रहा है। भारत की स्वास्थ्य सुविधाओं की तरफ भी ध्यान जाना आवश्यक है। सबसे पहले तो जनसंख्या का प्रश्न महत्वपूर्ण हो जाता है। भारत में जनसंख्या का अनुपात बहुत ज्यादा है। अगर देखा जाए तो चीन में भी जनसंख्या भारत के समान ही दिखाई पड़ती है पंरतु यहाँ तुलना का विषय यह हो जाता है कि भारत में डाक्टर और मरीजों का अनुपात समान नहीं दिखाई देता। हालांकि स्वास्थ्य सुविधाओं में पहले से परिवर्तन तो हुआ है किन्तु स्थिति उसके बाद भी चिंताजनक ही है। यहाँ अंतर भारत और चीन में यह देखने को मिलता है कि चीन अपने सकल घेरलू उत्पाद का अच्छा खासा हिस्सा स्वास्थ्य सुविधाओं पर खर्च करता है। वहीं भारत में यह हिस्सा जनसंख्या के हिसाब से काफी कम दिखाई पड़ता है।
स्वास्थ्य सुविधाओं में अक्सर निजी बीमा कंपनियों के बढ़ते चलन से भी काफी समस्या उत्पन्न हुई है। लोग सावर्जनिक सुविधाओं के अभाव में निजी सुविधाओं की ओर अग्रसर हुए हैं। जिससे लूटपाट का सिलसिला बढ़ता गया। दूसरा लोग दवाईयों के बारे में कम जानकारी रखते हैं। 10 रुपये की लागत वाली दवाई 300 रुपये में मिलती है। निजी स्वास्थ्य बीमा कंपनियों का सही तरीके से कार्य ना करना भी स्वास्थय संबंधित मामलों की एक तरह से अनदेखी ही है।
शिक्षा से ही सभी समस्याओं का हल किया जा सकता है। यदि किसी व्यक्ति को अच्छी व सुगम्य शिक्षा मिले तो वह जरुर परिवर्तनकारी साबित होती है। शिक्षा के द्वारा ही मनुष्य जीवन जीने के संसाधन उत्पन्न करता है। लेकिन भारत में शिक्षा से संबंधित स्थिति भी गर्व करने लायक नहीं है। लेखक यू.पी. राज्य की विस्तृत रिपोर्ट के माध्यम से बताता है कि स्कूलों में मूलभूत सुविधाओं की बात तो दूर लेकिन शिक्षा ही सुचारु रुप से नहीं दी जाती। स्कूलों में शिक्षक नहीं हैं। शिक्षक व विद्यार्थियों का अनुपात भी सही नहीं है। कई स्कूलों में तो पीने के पानी या शौचालय जैसी मूलभूत व्यवस्थाएं भी नहीं हैं।
ये सभी विषय सार्वजनिक विषय हैं, हम इन विषय पर अपना निजी विचार रखते है या फिर दूसरी संभवानाओं की ओर रुख कर लेते हैं। जब तक ये सभी समस्याएँ सार्वजनिक विमर्शों में नहीं आएंगी तब तक इनमें सुधार की गुजाइंश नहीं देखी जा सकती ।
गौरव ने हाल ही में कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग से एम. ए. किया है।
1. बजरंग बिहारी तिवारी 'दलित कविता प्रश्न और परिप्रेक्ष्य'
2. ज्यां द्रेज़, अमर्त्य सेन 'भारत और उसके विरोधाभास'
शानदार पुस्तकों से गुजरते हुए ,एक शानदार लेख