बेहतर व्यवस्था के लिए जूझता नुक्कड़ नाटक -अरुण कुमार कैहरबा

अरुण कुमार कैहरबा

नाटक पुराने कला रूपों में से एक है। इसमें सभी कलाओं का समावेश होता है। आदिम युग में संभवत: भाषा का विकास भी नहीं हुआ होगा, तब भी अभिनय के माध्यम से ही लोग अपनी भावाभिव्यक्ति करते होंगे। शिकार करके आए व्यक्ति अपने परिजनों और समुदाय के लोगों को शिकार के संघर्ष का विवरण बताने के लिए इसी माध्यम का प्रयोग करते होंगे। बाद में भी दिन भर की कड़ी मेहनत के बाद शाम को खाना बनाते व खाते हुए कबीले में रहने वाले लोग अपना मनोरंजन करने के लिए गीत, नृत्य, उपलब्ध वाद्यों को बजाने और सजने-संवरने का सहारा लेते होंगे। इन सभी कलाओं के साथ संवाद और अभिनय को मिलाकर पहले नाटक का जन्म हुआ होगा। मनोरंजन के लिए प्रयोग किए गए इस कलात्मक उपकरण को ही आज नुक्कड़ नाटक का  नाम दिया जाता है। चौक-चौराहे, गली, गेट पर कहीं भी बिना किसी तामझाम के खेला जाने वाला नाटक नुक्कड़ नाटक है। 

आज भले ही महानगरों में बड़े-बड़े प्रेक्षागृह बन गए हैं। स्टेज डेकोरेशन, डिजाइन, सेट, वेशभूषा, मेकअप तथा तकनीकी उपकरणों का प्रयोग करते हुए भव्य नाटक खेले जाते हैं। ऐसे नाटकों को तैयार करना और देखना दोनों ही जेब पर भारी पड़ते हैं। नगरों-महानगरों में ही प्रेक्षागृह होते हैं, जिस कारण सिर्फ शहरों के कुछ ही दर्शक इसका आनंद उठाते है। स्टेज नाटक दर्शकों को छांटता है। कला के अन्य रूपों से नाटक सबसे महंगा माध्यम है। लेकिन नुक्कड़ नाटक अपने कथ्य और शिल्प के चलते अभिव्यक्ति का सशक्त औजार बना रहेगा। नुक्कड़ नाटक के लिए ना तो स्टेज की जरूरत है और ना भारी-भरकम संसाधनों की। रंगकर्मी कहीं भी खड़े होते हैं। बाजार के चौक पर अपने काम-धंधों में लगे लोगों को तालियों, ढ़ोलकी व आवाज से लोगों को कुछ पल ठहरने और नाटक देखने का न्योता दिया जाता है। इस तरह से यह नुक्कड़ नाटक आम जन को अपने केन्द्र में रखता है। उनकी जरूरतों और सामाजिक समस्याओं को केन्द्र में रखकर नाटक का ताना-बाना बुना जाता है। नुक्कड़ नाटक शिक्षित करने, संगठित करने और संघर्ष करने के लिए प्रेरित करता है। नाटक के दौरान कलाकारों और आम दर्शकों का जीवंत और सक्रिय संबंध होता है। नुक्कड़ नाटक मामूली से खर्चे में जिस तरह समसामयिक मुद्दों को उठाकर समाज में अपना प्रभाव पैदा करता है, उसका मुकाबला ना तो अन्य विधाएं ही कर सकती हैं और ना ही नाट्य का कोई अन्य रूप। 

भारत में अंग्रेजी शासन के दौरान अंग्रेजों की काली करतूतों से अवगत करवाने और लोगों को आजादी के संघर्ष में कूदने की प्रेरणा देने के लिए नुक्कड़ नाटकों का प्रयोग किया गया। स्वतंत्रता आंदोलन में  प्रभात-फेरियों, विरोध प्रदर्शनों में क्रांतिकारी युवाओं और इंडयन पीपल थियेटर एसोसिशन के कलाकारों ने इसका प्रयोग किया। नुक्कड़ नाटकों के प्रयोग के मामले में भारत में बंगाल और बांगला अग्रणी रहती है। हालांकि भारत में वर्तमान रूप में नुक्कड़ नाटकों का इतिहास ज्यादा पुराना नहीं है। यदि हिन्दी के पहले नुक्कड़ नाटक की बात की जाए तो भारतेंदु हरिश्चंद्र के अंधेर नगरी को इस पहला नुक्कड़ नाटक कहा जा सकता है। इस नाटक का पहला मंचन 1881 में दशाश्वमेध घाट बनारस पर खुले में हुआ था। 

हिन्दी भाषी क्षेत्र में आजादी के बाद लोकप्रिय बनाने और उसमें नए प्रयोग करने का श्रेय सफदर हाश्मी को जाता है। जन नाट्य मंच के संस्थापक सफदर हाश्मी गरीबी, महंगाई, भ्रष्टाचार व शोषण जैसी समस्याओं के बढ़ते जाने की स्थिति को शिद्दत से देखते हैं। वे इन समस्याओं को लेकर समाज में चर्चा और संघर्ष पैदा करने के लिए नुक्कड़ नाटक को संभावनाशील हथियार के रूप में पहचानते हैं। तत्कालीन समस्याओं को चर्चा के केन्द्र में लाने के लिए उसने अपनी जीवन साथी मल्यश्री हाश्मी के साथ बस में यात्रा करते हुए और बाजार से गुजरते हुए ऐसे प्रयोग किए कि लोग उनकी तरफ ध्यान दें और समसामयिक स्थितियों को लेकर संवाद करें। उनका नाट्य मंच मशीन, औरत, मोटेराम का सत्याग्रह, दुश्मन सहित अनेक नाटकों का जगह-जगह जाकर मंचन करता है। 1जनवरी, 1989 को दिल्ली में साहिबाबाद के झंडापुर गांव में मजदूरों के बीच में हल्ला बोल नाटक खेलते हुए टीम के ऊपर कुछ लोग हमला कर देते हैं। इस हमले में सफदर की मौत के बाद उत्तरी भारत में नुक्कड़ नाटक का आंदोलन तेज होता है। सफदर की हत्या के विरोध में कलाकार जगह-जगह पर नाटक खेलते हैं। नाटक टीमों का गठन किया जाता है। नुक्कड़ नाटक को लेकर सफदर की रचनाशीलता व सक्रियता के प्रभाव को देखते हुए ही उनकी जन्मतिथि (12 अप्रैल) को नुक्कड़ नाटक दिवस के रूप में मनाया जाता है। सफदर ने गांव-गांव व गली-गली में नाटक टीमों के गठन का सपना देखा था। उन्होंने संघर्ष के हथियार के रूप में नुक्कड़ नाटक को तराशा भी और नया रूप भी दिया। 

समस्याओं को लेकर लोगों में जागरूकता फैलाना और संभव हो तो उन्हें संघर्ष के लिए खड़े करने की अपनी क्षमता के विपरीत आज नुक्कड़ नाटक को प्रचार का माध्यम मान लिया गया है। चुनाव जीतने  के लिए राजनैतिक दल चुनावों में इसका जमकर प्रयोग करते हैं। इसी तरह से निजी कंपनियां भी अपने उत्पाद का प्रचार करने के लिए नुक्कड़ नाटकों का प्रयोग करती हैं। योजनाओं के प्रचार-प्रसार के लिए सरकारें व प्रशासनिक विभाग भी नुक्कड़ नाटक का प्रयोग करते हैं। इससे नुक्कड़ नाटक की संभावनाएं तो स्पष्ट ही हैं। लेकिन राजनैतिक, आर्थिक व सामाजिक उथल-पुथल के दौर में आज नुक्कड़ नाटक व रंगकर्मी उदासीन से बने हुए हैं। या फिर प्रचारात्मक नाटकों में काम करते हुए रोटी-रोजी के चक्कर में उलझ गए हैं। मौजूदा नुक्कड़ नाटक के सामने आज अनेक प्रकार की चुनौतियां हैं। विषय-वस्तु और प्रस्तुतीकरण को लेकर प्रयोगशीलता और नए पन को अपनाए जाने की जरूरत है। सादगी और सहजता में भी नुक्कड़ नाटक के सौंदर्यशास्त्र को विकसित करने की जरूरत है।

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