उस दिन पहली बार उसने हमें यह कविता सुनाई थी-
प्राइवेट बस का ड्राइवर है तो क्या हुआ
सात साल की बच्ची का पिता तो है!
सामने गियर से ऊपर
हुक से लटका रक्खी हैं
काँच की चार चूड़ियाँ गुलाबी
बस की रफ्तार के मुताबिक
हिलती रहती हैं....
‘बाबा नागार्जुन की कविता है यह तो!’ हम सब जने एक साथ बोले थे। वह बोला-‘हाँ, मैंने पाँचवीं कक्षा में याद किया था इसे। बड़े भैया की किताब से। और सुनाता हूँ। सुनो-
और वह अपनी मस्ती में जोर-जोर से सुनाने लगा-
झुककर मैंने पूछ लिया
खा गया मानो झटका
अधेड़ उम्र का मुच्छड़ रोबीला चेहरा
उसने अपनी छोटी-छोटी काली मूँछों पर हाथ फेरा था
आहिस्ते से बोला- हाँ साब,
लाख कहता हूँ, नहीं मानती है मुनिया
टाँगे हुए है कई दिनों से
अपनी अमानत
यहाँ अब्बा की नजरों के सामने
मैं भी सोचता हूँ
क्या बिगाड़ती हैं चूड़ियाँ।
‘अरे क्या आज ही सुनाओगे सारी कविता?’ हममें से एक जने ने कहा था! लेकिन वह माना ही नहीं। बोला-
‘हाँ, सुनाऊँगा। पूरे हिंदी साहित्य में यही एक कविता तो मुझे पसंद है। इसमें सीधापन है। कोरा शब्दजाल नहीं है। सीधी यहाँ उतरती है- यहाँ।’ उसने अपने कलेजे को हाथ लगाया और वह कविता का बचा भाग भी उसी उत्साह से सुनाने लगा-
किस जुर्म पे हटा दूँ इनको यहाँ से?
और ड्राइवर ने एक नज़र मुझे देखा
और मैंने एक नज़र उसे देखा
छलक रहा था दूधिया वात्सल्य
बड़ी-बड़ी आँखों में
तरलता हावी थी सीधे-सादे प्रश्न पर
और अब वे निगाहें फिर से हो गईं
सड़क की ओर
और मैंने झुककर कहा-
हाँ भाई, मैं भी पिता हूँ
वो तो बस यूँ ही पूछ लिया आपसे
वर्ना ये किसको नहीं भाएँगी?
नन्हीं कलाइयों की गुलाबी चूड़ियाँ।
कविता पूरी कर उसने अपने बैग से गुलाबी रंग की चूड़ियाँ निकालकर हाथ में लहराई और बोला-‘सपना था मेरा तभी से। पाँचवी क्लास से कि मेरी शादी होगी। मुनिया होगी और मैं कभी उसके लिए गुलाबी चूड़ियाँ लाकर दूँगा। आज मेरा सपना पूरा हो गया।’ इसी के साथ वह एक लम्बी किलकारी मार कर जोर की हँसी-हँसा था-हा हा हा। उसकी किलकारी दुबई की ऊँची-ऊँची अट्टालिकाओं के बीच देर तक गूँजती रही थी।
उस दिन के बाद तो जाने कितनी बार संयम ने यह कविता हमें सुनाई है। इतनी बार कि यह हमें भी कंठस्थ हो गई है और जब संयम इसे सुनाता है तो हम भी साथ-साथ बोलने लगते हैं।
कविता सुनने के बाद सबका हाल एक जैसा होता है। सबकी आँखें भीग जाती हैं और हम उन गीली आँखों को कई बार पोंछते हैं इसलिए कि कविता के साथ हमें भी अपने बच्चे याद आ जाते हैं। हम सब इंडिया के हैं और यहाँ दुबई में एक कंपनी में काम करते हैं। कंपनी का काम पाइप लाइनें बिछाने का है। हम सब तपती दुपहरी में नीले-पीले हेलमेट ओढ़े काम में लगे रहते हैं।
हमारा मन नहीं किया था यहाँ आने को। पर इंडिया में जो अपना देश है, जिसकी मिट्टी में हमने जन्म लिया है, हमारा गुज़र-बसर नहीं हो सकता था। हम सब वहाँ दिहाड़ीदार मज़दूर थे। दो रोटियाँ मिलने में वहाँ भारी क़िल्लत थी। हमें वहाँ दस दिन काम मिलता था तो बीस दिन हम ठाल्ली रहते थे। लेबर चौक पर हम घंटों खड़े रहते थे, फिर कई बार यूँ की यूँ लौट आते थे। हम नए लड़के थे। लोगों के दिमाग़ में यही एक बात होती थी-कहाँ कर पाएँगे ये ठीक से काम। कम उम्र के छोकरे हैं। बिना अनुभव के।
हम घर जाते और खाली हाथ लौटकर बीड़ियाँ फूँकते! बीड़ियाँ भी हमें एक-दूसरे से माँगनी पड़तीं। ताश खेलते। कभी-कभी ऐसा भी होता कि हम सब यार लोग बेरोज़गारी में भी जश्न मनाते। जिस दिन दिहाड़ी मिलती, उसमें से सब दस-दस रुपए मिलाकर दारू खरीदते और उसे सूखी ही चढ़ा जाते। हम दारू पीकर फिर अपनी घरवालियों को पीटते और जब वे हमसे पिटती तो हम खुश होते कि आखिर हम भी कुछ हैं।
फिर भी हमारी बीवियाँ हम से अच्छी थीं। उन्होंने ही हमें यहाँ भिजवाया था। हमें यहाँ आने के लिए उनके जेवर तक बेचने पड़े हैं। अपनी थोड़ी-बहुत हिस्से की जमीन को जो उपजाऊ तो है पर पानी के बिना उसमें कुछ पैदा नहीं होता, भी हम उनके यहाँ गिरवी रख आये हैं।
हम यहाँ एक-एक कर आए हैं। पहले हमारी टोली का करतार आया था। हमने उसे पैसे इक्कठे करके दिए थे। करतार अच्छा आदमी है। उसने एक-एक कर सबको यहाँ इस कंपनी में बुला लिया था। करतार आज इस कंपनी में स्टोरकीपर है। वह ए.सी. रूम में रहता है। हम यहां धूप में अपने बाल सफेद कर रहे हैं। इसमें करतार का कोई दोष नहीं है। उसने इसके लिए बहुत मेहनत की है।
इस अमीर महानगर में, पराये महानगर में, पराये देश में हमारा कोई नहीं है। फिर भी हम यहाँ रह रहे हैं। हम यहाँ भी गोरे लोगों के नीचे काम करते हैं। कंपनी भी यह विदेशी ही है। वे कई बार हमारे सामने आने पर नाक-भौं भी चढ़ाते हैं। पर हमारी मजबूरी है। हम यहाँ अपने परिवारों के भूखे पेट भरने आए हैं।
संयम पहले हमारी टोली में नहीं था। वह है तो इंडिया का ही। पर हमारे यहाँ से उसकी जगह बहुत दूर है। यहाँ जब कंपनी ने हमें यह हॉल दिया तो संयम को भी इसी हाल में पलंग अलॉट हुआ था। यहीं आकर संयम से हमारी दोस्ती हुई थी। पक्की दोस्ती।
संयम अपनी बेटी से बहुत प्यार करता है। हमें दो साल होने को आए हैं । संयम हमारे से पहले वाले बैच में है। वह अपने देश लौटने वाला है। इसलिए वह खुश-खुश हुआ फिरता है।
संयम अच्छे स्वभाव का है। उसकी कई आदतें वैसे की वैसी हैं। जैसे वह दो चीजें कभी नहीं भूलता। एक बाबा नागार्जुन की कविता और दूसरी अपनी बेटी। हमें भी सुनकर अच्छा लगता है। यह बात अलग है कि उसकी ये दोनों ही चीजें हमें रुलाती हैं। हम नागार्जुन की कविता सुनकर अपने बच्चों को याद कर-कर कई-कई बार बिस्तर में रोते-रोते सोए हैं। संयम आज भी बाजार गया था। सुबह जब कोई काम न था तो वह साहब से पूछकर पीला हैट ओढ़े-ओढ़े ही शोरूम में चला गया था और वहाँ से पाँच दिरहम खर्च करके गुलाबी चूड़ियाँ लेकर आया था। संयम ने चूड़ियों को एक सख्त डिब्बे में पैक कर बैग में डाल लिया था।
संयम की छुट्टियाँ मंजूर हुई तो वह अपने देश चला गया। हमने भी उसे कुछ सामान दिया था जो वह हमारे घर पहुँचाकर आएगा।
हम कंपनी में पहले की तरह जुटे रहे। भयंकर गर्मी में हैट ओढ़े पाइप लाइनें बिछाते रहे। खाइयाँ खोदते रहे। पसीना टपकाते रहे।
हम संयम को भूलने से लगे थे। उसका कभी कोई फोन नहीं आया था और न ही हमने कभी किया था। फिर कंपनी का काम ही ऐसा है कि और चीजों के लिए फुर्सत ही नहीं मिलती। फोन के भी एक-दो रुपए नहीं लगते। चिट्ठियाँ लिखते ही कब? काम से लौटकर आते तो थककर सो जाते। कभी-कभी दारू-वारू का प्रोग्राम भी कर लेते। यह सब जानते हुए कि हम यहाँ गुलछर्रे उड़ाने नहीं आए हैं।
ऐसा लगता था जैसे हम बँधुआ मजदूर हैं। कभी-कभी अपने आपको हम कोल्हू का बैल भी समझते हैं। भयंकर गर्मी में भी हम लगे रहते हैं। हमारे माथे पसीनों से चूते हैं तो हम उन्हें अपनी उँगलियों से साफ कर फिर से काम में लग जाते हैं। फिर भी हमें कभी शाबाशी नहीं मिलती। शाबाशी माँ के सिवाय किसी ने दी ही नहीं। वह भी तब मिली थी जब मैंने बर्फ बेच-बेचकर अपनी इकलौती बहन की शादी की थी। तब ही माँ ने मुझे अपनी बाँहों में भर कर कहा था- वाह रे, मेरे लाल! यही पहली और आखिरी शाबाशी थी। उसके बाद माँ चल बसी थी।
यहाँ हम अच्छी तरह से काम करते हैं। बड़े साहबों को सलाम ठोकते हैं। फिर भी यहाँ किसी के भी माथे की त्योरियाँ कम नहीं पड़तीं। न ही कभी कोई भूल से हमें ‘वैरी गुड-वैरी गुड’ कहता है। हममें से कुछ जने अच्छी जगह शिफ्ट हैं। वे ए.सी रूमों में बैठकर काम करते हैं। उनकी जान-पहचान हमसे अधिक है। उनकी तनख्वाह हमसे अधिक है। उनकी मौज हमसे अधिक है। उनसे अधिक हम पापड़ बेलते हैं।
हमें भी अपने देश इंडिया की याद सताती है। खेत-खलिहान याद आते हैं। गाँव के लोग याद आते हैं। पर हमारी मजबूरी है। सच्ची कहता हूँ, यहाँ रहकर हम बिल्कुल भी खुश नहीं हैं। हमें भी पंकज उधास की ग़ज़ल याद आती है। हमें भी उसका मतलब पता है। पर अकेले ग़ज़ल से पेट नहीं भर सकता न! ग़ज़ल कितनों को रोटी दे सकती है। मुझे याद है, जब संयम ने पंकज उधास की ग़ज़ल ‘चिट्ठी आई है…….’ पहली बार हमें अपने वाकमैन से सुनाई थी तो हम सब जन बहुत रोये थे। रोना ही हमारा सहारा था। हम और कुछ तो कर नहीं सकते थे। रोना हमारे बस में था। हम रो सकते थे और रोते थे। कई जनों ने यह ग़ज़ल सुनकर अपनी तैयारी कर ली थी इंडिया जाने की। पर मैंने ही रोका था उन्हें। इसी एक समय मैं रोया नहीं था। मैंने सबको डाँटा था- ‘‘यहाँ यह ग़ज़ल तुम्हें रोटी दे देगी? क्या खिलाओगे परिवार को, कर्ज़ की रोटी, यह ग़ज़ल?
एक दिन जब हम काम से लौटकर अपनी कंपनी के क्वार्टरों में गए तो हमने देखा कि हमारे हॉलनुमा कमरे में संयम आया हुआ बैठा है। उसका मुँह रुआँसा-सा है। मैंने उससे पूछा- ‘‘कब आ गए तुम? बात क्या है और यह क्या हो गया तुम्हें?’’
तब तक कमरे में और भी बचे लोग आ गए थे। संयम मेरे गले से लग रोने लगा। मैंने फिर पूछा-‘‘बात भी तो कोई हुई होगी, संयम?
संयम थोड़ा सा नॉर्मल हुआ। वह बोला-‘‘मेरी बिटिया चली गई। तुमने बताया तक नहीं। कमाल है, संयम! कब, क्या कैसे हुआ…….? ‘‘मैं एक साँस में बोला। एक जने ने उसे पानी का ग्लास लाकर दिया। मैंने कहा-‘‘ हाथ मुँह धो लो यह क्या हुलिया बना रखा है तुमने।’’ संयम ने पंलग पर बैठे-बैठे ही मुँह धो लिया और तौलिए से उसे पोंछ लिया।
रात के नौ बज गए थे और यह हमारे खाने का समय था। दो जने मेस में जाकर खाना ले आए थे। हम चारों जने संयम के पास ही बैठे थे।
खाना पहुँचने पर हम खाने लगे। संयम का खाना यूँ का यूँ रखा था। मैंने कहा थोड़े से चावल तो खा ले यार।’’ मेरे कहने से उसने एक चम्मच मुँह में डाल लिया था पर वह खा नहीं पाया। शायद बिटिया की याद आ गई थी उसे। हम भी और दिनों से कम खा पाए थे।
जैसे-तैसे खाना खाकर हम फ्री हुए थे। और दिनों हम इस समय तक चित हो जाया करते। पर आज ऐसा नहीं था। मैंने संयम को कहा- ‘‘ अब बताओ क्या हुआ था बिटिया को।’’
संयम ने लंबी दास्तान सुनाई- ‘‘जिस दिन घर लौटा था, बिटिया बड़ी खुश हुई थी। आस-पड़ोस वालों ने मुझे आँखे फाड़ कर देखा था। मैंने सबसे पहले जाते ही बैग से चूड़ियाँ निकाली थी। चूड़ियाँ बिटिया ने पहनी तो वह बड़ी खुश हुई थी। मुहल्ले भर में वह अपनी चूड़ियाँ दिखाती फिरी थी।’’
‘‘लेकिन दसेक दिन बाद ही मरे साथ वह हुआ जिसकी मैं सोच भी नहीं सकता था। मुझे गाँव की राजनीति के बारे में कुछ नहीं पता था। जब मेरी हालत इतनी कमजोर थी तो तब किसी ने मुझसे आकर यह न पूछा था कि संयम तुमने खाना खा लिया। माँगने पर एक पैसा तक नहीं देते थे। मजदूरी करके पेट पालना कितना मुश्किल होता है, यह तुम अच्छी तरह से जानते हो। भारी कर्ज लेकर यहाँ आया तो लोग जलने लगे थे मुझसे और जाने कहाँ से यह बात उसके दिमाग में घुस गई कि संयम मुसलमानों के देश में रहकर खुद मुसलमान हो गया है। मानो मुसलमान होना इस धरती पर बहुत बड़ा गुनाह है। लोग कहते कि अब तो यह धरती पर भी पैर नहीं टेकता। आते ही जमींदार के सारे पैसे खट्-खट् करके उतार आया है। कल तक भीख माँगने वाला आज सुख से कैसे रहने लगा है।’’
हुआ तो मेरे साथ ऐसा आते टाइम भी था। मुझे लोगों ने, आस-पड़ोस वालों ने खूब मना किया था। सबने यह कहा था, यहीं कमा लो। क्या करोगे वहाँ जाकर। मुसलमानों के देश में जाकर अपना धर्म ही भ्रष्ट करोगे। वहाँ गाय का मांस खाओगे। पर मैंने उनकी एक न सुनी थी। इसीलिए कई लोग मेरे विरुद्ध हो गए थे। मेरा भाई भी जो एक संगठन से जुड़ा है, मेरा पक्का दुश्मन बन गया था। उसे कई लोगों ने बहका भी दिया था। लोग यह भी कहते थे कि एक भाई तो कितना पवित्र हिंदू और दूसरा….. छीः…… छीः…..!
एक दिन मै दोपहर में सोया ही था कि मुझे फफेड़ कर जगाया गया। मैं एकदम घबरा गया। मैंने देखा कि मुझे मेरी पत्नी जगा रही है और उसके बाल बिखरे हुए हैं। यह चीखे जा रही है।
मेरी समझ में कुछ नहीं आया। यह बार-बार चिल्लाए जा रही थी। मैं लुट गई, संयम। लुट गई।
मुझे समझ में नहीं आ रहा कि यह रो क्यों रही है। लुट भी कैसे गई। मैंने पूछा- ‘‘किसने लूट लिया।’’
उसने अपने दोनों हाथों में मेरी बुश्शर्ट को पकड़ा और बोली- ‘‘समीक्षा नहीं मिल रही। ढूँढ़ कर लाओ उसे। ‘‘ उसने मुझे झकझोरा भी।
मैंने अपने बिखरे हुए बालों को हाथ मार कर थोड़ा ठीक किया। अँगड़ाई तोड़ी और बोला- ‘‘ क्या हुआ।’’
‘‘समीक्षा नहीं मिल रही।’’ उसकी आवाज में गुस्सा, रूदन और प्रार्थना तीनों सम्मिलित थे। पत्नी यह कह कर तो रो ही पड़ी। उसकी आवाज सुनकर पड़ोस की औरतों की भीड़ लग गई। जो भी आती, यही पूछती – क्या हुआ। मेरी पत्नी थक चुकी थी। किस-किसको कहती-समीक्षा नहीं मिल रही। मैंने कहा- ‘‘ बिटिया इधर-उधर हो गई है, आपने देखा है उसे।’’
सब मना कर गए। कोई कहे-कल देखी थी। कोई कहे-सुबह घर आई थी। पर बात डेढ़ घंटे पहले की थी। तब से किसी ने नहीं देखा था। बिटिया आखिर गई तो कहाँ गई।
पत्नी रोती जाए और कहती जाए ‘‘दिन में मैं बी.एड. की प्रैक्टिकल बना रही थी। समीक्षा आती और मेरी गोदी में माटी की मुट्ठी भरकर डाल जाती। इसलिए मैंने डांट भी दिया था उसे। काफी देर तक वह नहीं आई तो मैं उसे बाहर देखने गई, पर वह कहीं नहीं मिली मुझे। ‘‘ पत्नी कहकर हिचकियाँ बाँध रोने लगी।
मैं समीक्षा को ढूँढ़ने बाहर निकला। वैसे तो पूरे मोहल्ले को पता लग गया था कि समीक्षा खो गई है। फिर भी मैं घर-घर जाकर देख रहा था। मैंने यहाँ-वहाँ सब जगह जाकर देखा था उसे। यहाँ तक की स्कूल और चौपाल भी। कई बार समीक्षा बच्चों के साथ इन जगह भी चली जाती थी। पर समीक्षा वहाँ भी नहीं मिली।
मेरा दिल जोर से धड़कने लगा था। मुँह पर रुलाई छा गई थी। जीभ तालू से चिपक गई थी। मैं जोर से चीखना चाहता था। पर चीख नहीं पाया।
मैंने अपनी शक्ति बटोरी। खूब जोर लगा कर चीखा…..टैंक। फिर हम सब टैंकों में देखने लगे। किसी टैंक में समीक्षा नहीं मिली।
तीसरे नंबर के भाई ने सलाह दी थी- रामदीन वाले प्लॉट में तो देख लो! रामदीन मेरा ही सगा भाई था जो आज दुश्मन बन गया है। मैं, छुटका और सरला तीनों आगे-पीछे भागकर भाई वाले प्लॉट में गए। टैंक का ढक्कन ढका हुआ था। छुटके ने टैंक पर चढ़कर ढक्कन साइड में किया। टैंक में पानी आधे से कम था छुटके ने घुटनों के बल नीचे बैठकर देखा। उसे कुछ नहीं दिखाई दिया। मैं भागकर टॉर्च लेकर आया। बाकी जगह में टॉर्च की जरूरत नहीं पड़ी थी। इसलिए कि वे सब छोटे टैंक थे। भाई का यह टैंक लम्बा-चौड़ा और गहरा बनवाया हुआ था। छुटके ने टॉर्च से पानी में देखा। छुटका रो पड़ा था। मैं समझ गया था। सरला भी रो पड़ी थी।
समीक्षा का शव पानी में तैर रहा था। छुटका टैंक में उतरने के लिए लगाई गई सिलपट्टियों पर पैर रखकर नीचे गया और समीक्षा का शव ऊपर निकाल लाया। उसकी नब्ज देखी। उसका पेट फूला हुआ था। नब्ज में कोई हलचल नहीं थी।
छुटका मेरे कहने से मोटरसाईकिल निकाल लाया। हम उसे महेंद्रगढ़ लेकर गए। डॉक्टर ने उसे मृत घोषित कर दिया। मैं फिर भी नहीं माना। मुझे विश्वास था, समीक्षा जिंदा है। वह एक बार जरूर बोलेगी-पापा और मैं कहूँगा-बेटा । मैंने छुटके को नारनौल चलने को कहा। उसी डॉक्टर के पास घरवाले ले जाया करते थे। मुझे भी डॉक्टर पर पूरा भरोसा था। पर डॉक्टर ने मेरा भरोसा तोड़ दिया। डॉक्टर बोला था-समीक्षा मर गई है। मैं यह सुनकर टूट चुका था। भीतर तक। मेरा मन तार-तार रोने लगा था। बुक्का फाड़कर नहीं। भीतर ही भीतर। मैं सारा का सारा भर आया था।
छुटका मुझे बैठाकर गाँव ले आया। वहाँ सब उत्सुक थे। हमारे पास आते ही सबने हमें घेर लिया। मेरे हाथ सुन्न थे। छुटके ने मोटरसाईकिल का हैंडिल किसी को पकड़ा कर पहले मेरे हाथों से बिटिया का शव लिया। फिर मुझे चेत कर जगाया।
अब तक सरला भी भीतर से आ चुकी थी। सब रोने लगे। औरतें गला फाड़कर। मर्द भीतर ही भीतर मेरी तरह, क्योंकि समीक्षा सभी की लाडली थी।
फिर यह चर्चा उड़ने लगी कि समीक्षा को टैंक में गिराया गया था। गिराने वालों में मेरा सगा भाई भी था। मेरी खुशियाँ उसी की वजह से तार-तार हुई थीं। समीक्षा को जो आदमी घर से बहला-फुसलाकर लेकर गया, वह मेरा भाई ही था। उसे गाँव के ही जमींदार ने उकसाया था। गाँव का जमींदार धर्मांध था और उसकी नजर हमारी जमीन पर थी। मेरे यहाँ आने से उसे डर लग रहा था कि अब हम उससे अपनी जमीन छुड़ा लेंगे।
भाई अपने ही प्लॉट में उसे लेकर गया था। और जाकर सीधे ही उसे टैंक में डाल दिया था। समीक्षा चिल्लाती रही थी पर वह चिल्लाहट भाई का हृदय पिंघलाने में विफल रही थी। बिटिया ने थोड़ी देर बाद चिल्लाना बंद कर दिया था।
मैंने श्मशान घाट में बिटिया को दबाते वक़्त उसके हाथों से चूड़ियाँ निकाली थीं। भाई भी उस वक़्त साथ खड़ा था। उसने यह दृश्य देखा तो वह रो पड़ा और मेरे पैर पकड़कर बोला-‘‘गलती हो गई मुझसे। जमींदार के बहकावे में आ गया था।’’
मेरी खुशियाँ तो छीन ली गई थीं। भाई माफी माँगे या कुछ और करे। मुझे क्या। मुझ पर कोई असर नहीं पड़ा। मैं पत्थर का हो गया था। संयम सच में ही रो पड़ा-‘‘मेरी बिटिया को छीन लिया। क्या गुनाह था मेरा? क्या यही कि मैं रोजी-रोटी के लिए इस देश में आया?’
संयम की आवाज दूर तक जा रही थी। हमें लग रहा था कि उसकी यह पीड़ा भरी आवाज सोयी हुई दुबई को जगा देगी।
मैं अपने पलंग से उतरा। मैंने संयम को कलेजे से लगा लिया। संयम और तेज़ सुबकने लगा।
मैंने उसके आँसू पोंछे।
वह शांत हुआ। उठा।
उसने चारपाई के नीचे एक झोला टटोला। यह औजारों का झोला था। उसमें से एक हथौड़ी और एक कील निकाली। वह बिस्तर पर चढ़ घुटनों के बल दीवार की तरफ मुँह करके बैठ गया। उसने एक हाथ में पकड़ी हुई कील का नुकीला सिरा दीवार पर लगाया। दूसरे हाथ से कील के माथे पर हथौंड़ी से चोट मारने लगा। उसकी चोटों की आवाज़ से लग रहा था जैसे वह सारी दुबई को जगा रहा हो। पर चकाचौंध करती दुबई कभी सोती नहीं।
कील आधी गड़ चुकी थी। उसने एक हथौड़ी नीचे से ऊपर की ओर मारी। कील ऊपर की दिशा में मुड़ गई।
फिर वह पलंग से नीचे उतरा और खूँटी पर टँगे अपने बैग में से कुछ निकालने लगा। उसके हाथ में वही गुलाबी रंग की चूड़ियाँ थीं जो वह अपनी बिटिया के लिए लेकर गया था।
मैंने कहा- ‘‘चूड़ियाँ क्यों निकाली तुमने?’’
वह बोला- ‘‘बिटिया नहीं, चूड़ियाँ तो हैं। उसकी यादें।’’
चूड़ियों को संयम ने एक मोटे धागे में पिरोया। धागे के दोनों सिरों को गाँठ मारकर जोड़ दिया।
वह फिर पलंग पर चढ़ा और चूड़ियों को कील से लटका दिया। वह नीचे बैठकर चूड़ियों को देखने लगा। देखता रहा। देर तक।
वह देखते-देखते सो गया। मैंने उस पर चादर डाल दी। थोड़ी-सी ठंड हो गई थी। रात भी काफ़ी हो चुकी थी। तीनेक बजे मेरी आँख फिर खुली, यूँ ही। मैंने देखा। देखा क्या सुना कि कोई बोल रहा है। धीरे-धीरे। मैंने खड़े होकर बल्ब जलाया। रोशनी पूरे कमरे में बिखर आई। सबको देखा। संयम को भी। मैंने देखा कि संयम सोया हुआ है। लेकिन वह नींद में ही बोल रहा हैं। मैंने ध्यान देकर सुना। वह बोल रहा था-
हाँ भाई!
पिता तो मैं भी था कभी
एक तीन साल की बच्ची का।