योगेश – आपकी कविताएँ शानदार हैं। इतनी बढ़िया कविताएँ एक अरसे बाद पढ़ी हैं। आपकी कविताओं के सम्बन्ध में मेरी कुछ जिज्ञासाएं हैं।
सपना भट्ट– आपको कविताएँ भली लगीं यह मेरा सौभाग्य है। हम कविताओं के संदर्भ में बातचीत कर सकते हैं।
योगेश – आपका जवाब देखकर अच्छा महसूस हुआ। पहले पहल तो मैं यह जानना चाहता था कि काव्यगत सम्प्रेष्ण के लिए आपने इतनी समृद्ध भाषा कैसे विकसित की? क्या आपकी कविताओं में पहाड़ी भाषा के शब्द आते हैं?
सपना भट्ट – मेरी काव्यभाषा समृद्ध है ऐसा कहना या मानना मेरे लिए मुश्किल है इसलिए जो उत्तर दे रही हूँ वह यह मानते हुए कि अपनी काव्यभाषा के बनने पर मुझे कुछ कहना है। मेरी काव्यभाषा या मेरी अभिव्यक्ति की भाषा उसी सार्वत्रिक ढंग से बनी होगी जिससे सारी और सबकी भाषाएं बनती हैं। इसके मानक स्वरूप में हिंदी से की गई स्नातकोत्तर पढ़ाई का कुछ योगदान देखती हूँ और अधिक योगदान है मेरी पहाड़ की संस्कृति जिसमें यहाँ के लोकगीत, मुहावरे, फसक, परम्पगत किस्से और अन्य अभिव्यक्तियाँ शामिल हैं। यह तो हुई संरचनागत बातें।
काव्यभाषा के बारे में मेरा विचार यह है कि कविता अपने प्रकटन के लिए अपने अनुरूप शब्द, लय और पंक्तियाँ हमारी उपलब्ध शब्द संपदा से ख़ुद चुन लेती है। यह एक ऐसी प्रक्रिया है जो मेरे लिए भी ऐसी स्पष्ट नहीं है कि यांत्रिक विश्लेषण से कुछ कह सकूँ। कविता में मेरे कुछ कहने में मेरा संसार, मेरे सुख-दुख और मेरी इच्छाएँ चली आती हैं। शायद इसमें अभ्यास का तत्व भी अंतर्निहित हो।
मेरी कविताओं पहाड़ के शब्द वैसे ही स्वाभाविक रूप से आते हैं जैसी वह मेरी बोली बानी में आते हैं। पहाड़ी (या किसी भी क्षेत्र/संस्कृति का व्यक्ति होने पर) हम बहुत सचेतन ढंग से मानक भाषा का उपयोग नहीं कर सकते, यह एक कृत्रिम कोशिश होगी। पहाड़ी मौसम, बर्फ, यहाँ की वनस्पतियाँ, फूल, हवा और दीगर संज्ञा, सर्वनाम, क्रियाएँ मेरी भाषा में हैं और मेरी ओर से उनका हार्दिक स्वागत है।
योगेश– आपकी विनम्रता आपके बड़प्पन की परिचायक है। खैर, आपके जवाब से ( कविता अपने प्रकटन के लिए अपने अनुरूप शब्द,लय और पंक्तियाँ हमारी उपलब्ध शब्द संपदा से ख़ुद चुन लेती है) एक प्रश्न जहन में यह उभरा है कि क्या आपकी कविता की भाषा में और दिनचर्या की भाषा में आप किसी तरह का द्वैत का अनुभव करती हैं, या यह एक सहज प्रक्रिया है? इसके अलावा मैं आपकी कविताओं की निर्मित्ति में पहाड़ के लोक दर्शन का भी प्रभाव जानना चाहता हूँ।
सपना भट्ट– कविता की भाषा और रोजमर्रा की भाषा में द्वैत होने ना होने के आपके प्रश्न के उत्तर से पहले हमें यह सोचना होगा कि कविता और उसकी भाषा कैसे काम करती है। कविता में आप किसी भी घटना या अभिव्यक्ति को बहुत संकेतात्मक रूप से लिखते हैं। उसमें रूपक होते हैं प्रतीक और बिम्ब होते हैं जिनका समझा जाना या यह कहें कि जिनकी अभिव्यक्ति की पूर्णता पाठक के द्वारा पढ़े और समझे जाने से संपन्न होती है। इसलिए अगर देखा जाए तो कविता में जो लिखित शब्द है वह पाठक के पास जाकर अपना आकार पूरा करता है। कवि अपनी अभिव्यक्ति के लिए रोजमर्रा की भाषा का उपयोग बहुत कम करते हैं क्योंकि इसमें संपूर्ण वाक्य, संपूर्ण विवरण वृतांत या एक ऐसी गद्यात्मकता होती है जिसमें घटनाओं को पूरा कहा जाना लगभग आवश्यक होता है। इससे अलग कविता कई बार वाक्य को बीच में छोड़ देती है। पंक्तियों को बीच से तोड़कर नीचे ले आती है और एक बात कहते हुए एक आंतरिक संगति के आधार पर दूसरी बात कहने लगती है, तीसरी बात कहने लगती है। यह अलग बात है कि यह सारे विखंडित टुकड़े अंततः कवि की बात, उसकी भावनाओं, विचारों और उसके सामाजिक, आत्मिक समझ को ही संप्रेषित करते हैं।
जरा कल्पना कीजिए कि हम काव्य भाषा में अपने आसपास के लोगों से बात करने लगें जिनका कविता से परिचय प्रायः बहुत कम होता है तो जो अभिव्यक्ति संबंधी संकट और प्रतिक्रियाएं सामने आएंगे वह किसी भी तरह से बोलने वाले और सुनने वाले के लिए स्वीकार्य नहीं होगा और संवाद का हास्यास्पदीकरण ही होगा।
जो बोल चाल की भाषा है उसमें आप बहुत शास्त्रीय और तत्सम पदावली का प्रयोग नहीं करते हैं क्योंकि वह कृत्रिम मालूम पड़ता है। बोलने की भाषा में क्षेत्रीय भाषा के शब्द भंगिमाएं और आपस में समझे जा चुके संकेत और रेफरेंस शामिल होते हैं प्रायः यह होता है कि जिस घटना की बातचीत हो रही होती है उसकी एक पूर्व पीठिका मौजूद होती है और उसी से संदर्भ लेकर इस बातचीत को आगे बढ़ाया जाता है। इसमें लम्बे अंतरालों से भी खास फ़र्क नहीं पड़ता इस तरह से हम देखते हैं कि कविता की भाषा और दैनंदिन उपयोग की जो भाषा है वह अलग-अलग शब्द और वाक्य समूह से बनी होती है, इस भिन्नता के बावजूद मैं इसमें कोई द्वैत महसूस नहीं करती। मेरे लिए कविता लिखते समय उपलब्ध सहज भाषा और बातचीत करते समय उपलब्ध सहज भाषा दोनों मेरी ही अभिव्यक्ति का विस्तार हैं। यह कह सकते हैं कि यह एक ढंग का विधागत चयन है जिसमें अलग ढंग की अभिव्यक्तियां बातचीत में होती हैं और अलग ढंग की अभिव्यक्तियां कविता में होती हैं। साहित्य में हम साहित्यिक शब्दों, पदवालियों का प्रयोग कर सकते हैं लेकिन बातचीत में हम ऐसी शब्दावली और ऐसी पदवालियों का उपयोग करना नहीं चाहते और कई बार सायास और कई बार अनायास उसे बचते हैं लेकिन फिर भी इन भिन्न भाषा समूहों और संकेतों के बावजूद मेरे लिए यह किसी दुविधा या द्वैत का विषय कभी नहीं रहा दोनों क्षेत्र मेरे लिए एक जैसे सहज हैं।
पहाड़ी या किसी लोक दर्शन पर जब मैं सोचती हूं तो यह चीज बिल्कुल स्पष्ट रूप से सामने आती है कि जो शास्त्रीय या राजनीतिक सामाजिक दर्शन हमारे सामने मौजूद है जिन्हें विश्वविद्यालय में पढ़ाया और समझा जाता है और जिसमें विधिवत दुनिया को बदलने या खुद को बदलने की कोशिश होती है। इन दोनों के स्वभाव में मूलभूत अंतर यह होता है कि लोक दर्शन के जो तत्व होते हैं वह किसी जगह पर स्पष्ट दर्ज नहीं किए गए होते। वह लोक संस्कृति और लोक व्यवहार में अन्तर्निहित होते हैं जैसे किसी लोक विशेष में किन देवताओं की पूजा की जाती है। उनमें प्रकृति से संबंधित देवता कितने हैं, इच्छापूर्ति के देवता कितने हैं, जो माँगल गीत या शोक गीत गाए जाते हैं उनकी प्रकृति क्या है, वह क्या प्रस्तावित करते हैं या मांगते हैं या किन चीजों का उत्सव मनाते हैं, लोक कथाएं क्या कहती हैं ! कैसी फसले हैं और उन फसलों को उगाने और काटने के सांस्कृतिक कर्म क्या है। तो लोक दर्शन जो है वह इन्हीं कार्यवाहियों और स्मृतियों के बीच से अपनी बात करता है और जाहिर है कि एक ही प्रदेश में ऐसी कई लोक संस्कृतियों और लोक दर्शन एक साथ काम करते रहते हैं और उस समाज के भीतर रहने वाले व्यक्ति के अवचेतन और सचेतन के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
जहां तक मेरा सवाल है मेरे जीवन की परिस्थितियां ऐसी रही कि आज तक स्कूल और कॉलेज की पढ़ाई से लेकर नौकरी के इन 20 वर्षों के दौरान मैं इस लोक संस्कृति और लोक दर्शन के भीतर ही रही हूं। एक ढंग से कह सकते हैं कि मैं इनका अभिन्न हिस्सा हूं क्योंकि मेरा बचपन एक ग्रामीण परिवेश में पशुपालन और कृषि आधारित घर में बीता है और अभी जहां मै नौकरी कर रही हूं वह क्षेत्र भी ऐसा ही है तो यह अगर मेरे परिपेक्ष्य में देखा जाए तो मैं लोक जीवन और लोक दर्शन के बाहर के जो तत्व हैं अर्थात शहरी जीवन उसकी तकनीकी और संपत्ति संबंधी जो उपलब्धियां है जो आधुनिकता है उससे द्वैत अनुभव करती हूं। उसका सहज स्वीकार मेरे जीवन में नहीं है यह मैं स्पष्ट रूप से देखती हूं लेकिन जो लोक जीवन और लोक दर्शन है वह मेरे भीतर अन्तरविन्यस्त है और मैं उनके भीतर अंतर विन्यस्त हूं। तो अब अगर मैं यह कोशिश करूं कि मेरे लेखन पर इसका क्या प्रभाव पड़ा तो इसे अलग कर देख पाना बहुत मुश्किल होगा क्योंकि जो सोचने का तरीका है वही लोक का तरीका है, प्रतिक्रिया देने का तरीका भी लोक का ही तरीका है। तो जाहिर है कि लिखने और काव्य अभिव्यक्ति का तरीका भी कहीं ना कहीं भीतर से लोक से जुड़ा हुआ है। अगर मैं बहुत यत्न करूं तो पहाड़ के लोकगीतों से अपनी कविता के विन्यास का कुछ सम्बंध खोज पाऊं, अपने बिंबो और चित्रों को लोक से जोड़ पाऊं लेकिन मुझे नहीं लगता कि यह मेरा काम है या मुझे यह करना या प्रस्तावित करना चाहिए। तो लोक दर्शन और लोक जीवन के भीतर पूरी तरह रहते हुए मेरी कविताएं रची गई है। मैं यह मानती हूं कि उनके बनने में या मेरी प्रत्येक अभिव्यक्ति में यह पूरी तरह से विन्यस्त है।
योगेश – आपने जो कविता की भाषा के बारे में और कविता में गुम्फित लोक दर्शन के बारे में लिखा वह बहुत महत्वपूर्ण है। मेरा भी यह मानना है कि किसी भी कविता के पाठ में कवि के लोक को जरुर ध्यान में रखा जाना चाहिए। उसी के समानांतर दुनिया के तमाम दुसरे दर्शन से उसका अंतर्संबंध (यदि कोई है तो) खोजना चाहिए। खैर!
आपने बिम्बों की बात की। आपकी कई कविताओं में किसी प्रिय से बिछोह का स्वर है। आपकी कविताओं में बिम्ब प्रायः इसी के इर्द गिर्द निर्मित हुए हैं। यह अपने आप में अनूठा है कि किसी अमूर्त चीज के इर्द गिर्द लम्बे बिम्ब निर्मित किए गए हों जैसे ‘यहीं रखे थे’ कविता में। कई बार कविताओं में दुःख का अतिरेक लगता है। क्या आपकी कविता विरह की कविता है?
सपना भट्ट– बिम्ब भी अमूर्त ही होते हैं वे वास्तविक वस्तुओं और क्रियाओं का शाब्दिक प्रतिनिधित्व ही करते हैं तो अमूर्त भाव के लिए ये बिम्ब मुझे सहज लगते है। विनम्रता से कहना चाहूँगी कि मेरी कविताएँ कई अलग अलग मनोभावों और विषयों के इर्द गिर्द लिखी गई हैं जिन्हें आसानी से चिन्हित किया जा सकता है। इन अलग अलग ढंग की कविताओं में बिछोह का भी स्वर है ठीक वैसे ही जैसे आसपास की स्त्रियाँ, घटनाएँ आदि। इस लिहाज से विरह का एक ज़रूरी और प्रिय हिस्सा मेरी कविताओं में हैं लेकिन इतर कविताएँ भी कुछ कम मनोयोग से लिखी गई हों ऐसा नहीं है, और वे भी पर्याप्त संख्या में भी हैं।
योगेश– बिम्ब का जिक्र मैंने इसलिए किया कि वे अपनी प्रवृत्ति में एन्द्रिक होते हैं और प्रायः भौतिक दृश्यों से प्रेरित होते हैं। आपकी दूसरी बात से मैं भी सहमत हूँ। स्त्री के मुश्किल दिनों को चित्रित करती आपकी कविताओं में बलवती आशा का एहसास होता है। यह कई मायनों में खास है। आपने स्त्री पक्ष में होते हुए भी व्यापक मनुष्यता की संज्ञा का चुनाव किया है। छद्म स्त्रीवाद के समय में यह बहुत विकसित नजरिया लगता है। आपने यह नजरिया किन लेखकों-कवियों को पढ़ते हुए विकसित किया?
सपना भट्ट– जीवन से सीखते हुए, इस परिवेश का हिस्सा होते हुए जो भी देखा या अनुभव किया है वह स्वतः ही कविता में उतर आया है। स्त्री की कठिनाइयों और संघर्षों का जो भी थोड़ा बहुत पक्ष रख सकी हूँ वह अपने आसपास की स्त्रियों की ही व्यथा-कथा है।
आपने लेखकों कवियों के विषय मे पूछा है । यद्धपि किसी कवि से प्रेरित होकर मेरी कविताओं में स्त्री चेतना की लहर नहीं उठती किन्तु प्रिय कवि जिन्हें पढ़ती रही हूं उनमें नवनीता देवसेन, शिम्बोर्स्का, अनिता वर्मा, आन येदुरलुंड, मारिया स्वेताइवा और सौमित्र मोहन आदि कवि हैं।
योगेश – आपने अच्छी बात कही। आपने शिम्बोर्स्का का जिक्र किया। आपकी कविताओं से गुजरते हुए मुझे उनका भाषा के बारे में लिखा हुआ कुछ याद आता रहा है – “माना कि अपनी रोजमर्रा की बातचीत में हम हर शब्द सोच विचार कर नहीं बोलते। ‘साधारण दुनिया’ आम जीवन’, ‘सामान्य स्थितियां’ जैसे तमाम जुमलों का हम धड़ल्ले से इस्तेमाल करते हैं। पर कविता में जहां हर शब्द का वजन है, कुछ भी सामान्य या साधारण नहीं होता न कोई पत्थर, न उस पर हुआ एक बादल का टुकड़ा, न कोई दिन, न उसके बाद आने वाली रात और न ही कोई अस्तित्व, चाहे वह दुनिया में किसी का भी अस्तित्व हो। ऐसा लगता है कि इस दुनिया में कवियों के पास हमेशा वे काम होंगे जो केवल उन्हीं के लिए बने होंगे।” स्त्री होने के नाते स्त्री चेतना की उपस्थिति आपकी कविताओं में नैसर्गिक हो सकती है, और कहना होगा कि यह अधिक व्यापक भी है।
खैर, आपसे यह बातचीत अच्छी रही। धन्यवाद।
नोट- यह बातचीत ईमेल के माध्यम से हुई है।
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