प्रख्यात सर्जन, प्रोफेसर, सामाजिक कार्यकर्ता और लेखक डॉ. रणबीर सिंह दहिया का उपन्यास मलबे के नीचे हरियाणा की सामाजिक व्यवस्था की सर्जरी करने का सफल प्रयास है। उपन्यास स्वास्थ्य व्यवस्था, अस्पताल में काम करने वाले कर्मचारियों के आपसी संबंधों, नर्सों के जीवन और समस्याओं को यथार्थपरक ढ़ंग से उजागर करता है और व्यापक सामाजिक बदलाव के लिए मानवीय रिश्तों और आंदोलनों की भूमिका को स्थापित करता है। बेहतर समाज की स्थापना के लिए संघर्ष करने की जरूरत रचना का मूल संदेश है।
बदलाव की सोच रखने वाला डॉक्टर रमेश और बेहद कठिन परिस्थितियों से गुजरते हुए नर्स बनने वाली उपमा उपन्यास के मुख्य किरदार हैं। इन दोनों के मौजूदा स्थिति तक पहुंचने की कहानी को बहुत ही दिलचस्प तरीके से वर्णित किया गया है। उनके विचारों में क्रांतिकारी बदलाव लाने में साहित्य और संघर्ष महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इससे प्रेरित होते हुए और आत्मसंघर्ष की प्रक्रिया से गुजरते हुए वे बदलाव के लिए कार्य करते हैं। दोनों शहीद भगत सिंह के विचारों और भावना से लैस हैं। हरप्रीत को बार-बार याद आने वाले उपमा द्वारा कहे शब्द हैं-जो लोग निर्भीक होकर मौत को चुनौती देते हैं, मौत की आँखों में आँखें डालकर उसे ललकारते हैं, उनकी मौत आम आदमी की मौत नहीं होती है..ऐसे लोगों की मौत अच्छे जीवन के लिए संघर्ष करने वालों के वास्ते एक मिसाल बन जाती है।
उपन्यास की शुरूआत बेहद तनावपूर्ण माहौल से होती है। मीना पर यौन हिंसा और उसकी मौत के बाद मेडिकल कॉलेज की नर्सों व चिकित्सकों के प्रदर्शन पर पुलिस द्वारा गोलीबारी की जा चुकी है। मोहिनी को सिर में गोली लगी और वह मारी गई। उपमा को भी गोली लगी है और उसकी हालत बेहद चिंताजनक है। वह जिंदगी और मौत के बीच झूल रही है। उसे बचाने के लिए ऑप्रेशन की तैयारियाँ हो रही हैं। आज तक कभी भी रक्तदान नहीं करने वाली नर्सें उसके जीवन को बचाने के लिए रक्तदान कर रही हैं। नर्सों ने सांकेतिक हड़ताल का फैसला किया है। मैट्रन सहित अधिकारी उन्हें ड्यूटी पर जाने के वास्ते धमका रहे हैं। प्रांत के सबसे बड़े अस्पताल का जीवंत चित्रण करते हुए बताया गया है कि ऑपरेशन थियेटर के बाहर भी एसपी राव की अगुवाई में पुलिस का पहरा है। सारे वातावरण में आतंक का साया है। ऑपरेशन थियेटर और अस्पताल में अव्यवस्थाएं भी हैं, जिनको लेकर चिकित्सक और नर्स खुद परेशान रहते हैं। अस्पताल में काम करते हुए उनके सामने लोगों के अभाव और दुख भी उजागर होते हैं। जिन चिकित्सकों को आम तौर पर लोग बेहद संवेदनहीन मानते हैं, उनकी संवेदनशीलता को भी उपन्यास में उजागर किया गया है।
बाहर धारा 144 लगा दी गई है। डीसी और डीआईजी खुद निगरानी कर रहे हैं। चारों तरफ से आकर लोग जुलूस की शक्ल अख्तियार कर रहे हैं। नारे लगने लगे हैं- गर यूं ही दमन का दौर रहेगा, सडक़ों पर फिर खून बहेगा। सच कहना अगर बगावत है, कह दो हम भी बागी हैं। हरप्रीत आंदोलनकारियों को जोशिला भाषण देती है। हरप्रीत तथा अन्य नर्सों को बार-बार ऑप्रेशन थियेटर में बेहोश पड़ी उपमा के विचारों और व्यक्तित्व की याद आती है। पोस्टमार्टम रूम में आए पुलिस की गोलियों से मारी गई मोहिनी के माता-पिता और छोटे भाई का दुख असहनीय है। अगले दिन की हड़ताल के लिए हरप्रीत शहर में जाकर प्रो. रमाकांत के सहयोग से महिला मंच की नेता नीलिमा से मिलती है। पर्चे छपवाए जाते हैं। रातों रात उन्हें शहर व कॉलेज में जगह-जगह दिवारों पर लगवा दिया जाता है। चारों तरफ सीआईडी का जाल बिछा है। इसके बावजूद संघर्ष की राह तैयार की जा रही है।
उपन्यास के भाग दो में रमेश की पारिवारिक पृष्ठभूमि की कहानी है। मूल रूप से रोहतक जिला के गांव धनाना से है उसका परिवार। रमेश के पिता का नाम जय सिंह है। खेती-बाड़ी और पशुपालन से जुड़े परिवार में जय सिंह पढऩा चाहता है। पिता गोधू पशुओं के चराने के साथ कोई समझौता नहीं कर सकते। पढ़ाई के काम को पूरा करने के लिए जब जय सिंह अपने पिता से पशु चराने के काम से छूट चाहता है तो गोधू का गुस्सा सातवें आसमान में पहुंच जाता है और वह जमकर उसकी पिटाई करता है। आखिर पास के घर से एक व्यक्ति बीच-बचाव करता है। जय सिंह अपने गांव के स्कूल से पांचवीं पास करने के बाद मामा के गांव में जाकर वहां से तीन मील दूर के स्कूल में आठवीं सबसे अधिक अंक लेकर पास करता है। इससे पूरे गांव में जय सिंह चर्चा का विषय बन जाता है। हाई स्कूल नजदीक नहीं होने, मामा के आसामयिक देहांत और पिता की पढ़ाई में रूचि नहीं होने के कारण उसके लिए मुसीबत बढ़ जाती है।
बोर्ड से घर आए पत्र से सूचना मिली कि जय सिंह को छात्रवृत्ति मिली है, जिससे फिर से उम्मीद जाग जाती है। लोगों के कहने पर गोधू को अहसास होता है कि उसे अपने बेटे को पढ़ाना चाहिए। परिवार का आर्थिक सामथ्र्य नहीं होने के कारण वह अपनी जमीन में बुजुर्गों द्वारा दबाए गए घड़े को निकालता है और बेटे को पढ़ाई के लिए रोहतक के स्कूल में भेजता है। जय सिंह वहां पर भी प्रथम श्रेणी में दसवीं पास करता है। फिर लाहौर में पढ़ाई के लिए जाता है। बीच में तार के माध्यम से पता चलता है कि उसके पिता का देहांत हो गया है। इससे उसकी पढ़ाई भी छूट जाती है। गांव की अपनी समस्याएं थीं। आखिर जय सिंह की एग्रीकल्चर सब इन्सपैक्टर की नौकरी लग गई। इससे पहले ही उसकी शादी हो गई थी। पत्नी गांव में थी। नौकरी के दौरान वह अपनी पत्नी को शहर ले जाता है। उसका बड़ा बेटा महावीर और बेटियां होती हैं। महावीर की असामयिक मौत हो जाती है। इसी बीच देश का बंटवारा होता है। फिर रमेश का जन्म होता है। रमेश को सिरसा के एक स्कूल में मेहनती व ईमानदार हैडमास्टर की देखरेख में पढऩे का मौका मिलता है। फिर मैडिकल में उसका दाखिला हो जाता है। वह डॉक्टर बनता है। कुछ लोग राजनेताओं के आगे माथा रगड़ कर डॉक्टर नियुक्त भी हो जाते हैं, लेकिन रमेश का ऐसा मिजाज नहीं है। आखिर सत्ता परिवर्तन के बाद वह रजिस्ट्रार नियुक्त होता है। वह चिकित्सकों की शराबखोरी व अन्य बुराईयों से बुरी तरह आहत है और उन्हें बदलना चाहता है।
तीसरे भाग में उपमा की कहानी है। उपमा का बचपन का नाम बोड़ी है। वह दबंग व्यक्तित्व की धनी है। छोटी उम्र में लडक़ों के साथ जोहड़ में नहाती है। आठवीं के बाद किसी तरह माता-पिता आगे की पढ़ाई के लिए तब राजी होते हैं, जब गांव का स्कूल अपग्रेड होता है। दसवीं करने के बाद जेबीटी करने का अरमान पूरा नहीं होता। इससे पहले ही उसे शादी करके विदा कर दिया जाता है। लेकिन ससुराल का जीवन हाड़-तोड़ मेहनत, सास व ननद की जली-कटी बातें और गालियों, पति मनफूल की उपेक्षा, मारपीट से बुरी तरह आहत हो गया। एक बार तो वह आत्महत्या का निर्णय कर लेती है। लेकिन ऐसा नहीं करती। एक बार पति उसे बुरी तरह मारता है। मारपीट के बाद वह बिस्तर पर आ जाती है। उसका इलाज भी नहीं करवाया जाता। उपमा पड़ोस की महिला के माध्यम से अपने मायके खबर पहुंचाती है। भाई उसे लिवा ले जाता है। उसे मेडिकल में दाखिल होना पड़ता है। यहां पर सिस्टर नगीना के साथ उसकी बातचीत होती है। नगीना की बातचीत से उसे अच्छे जीवन की उम्मीद जगती है। लेकिन यह उम्मीद शिक्षा व आत्मनिर्भरता के भरोसे ही साकार हो सकती थी। नगीना उसे नर्सिंग का कोर्स करने का सुझाव देती है। यह बात उसके दिल में बैठ जाती है। यहां से स्वस्थ होने के बाद आखिर फिर वह मानसिक व शारीरिक यंत्रणाओं के केन्द्र ससुराल जाती है। यहां पर ननद की शादी के लिए सास उससे उसके गहने लेना चाहती है। वह ऐसा करने से बिल्कुल मना कर देती है। फिर से पति हाथ उठाता है। उपमा फिर ससुराल में लडक़र अपने मायके आ जाती है। अब वह आगे पढ़ाई के लिए संकल्पबद्ध थी। वह अपनी मां को ससुराल जाने से पूरी तरह मना कर देती है। इसको लेकर गांव-गांव में तरह-तरह की बातें होती हैं। भाई के साथ नगीना से मिलती है और उसके सहयोग से नर्सिंग में दाखिला ले लेती है। बीच-बीच में विवाहित जीवन के संबंध बाधा बनते हैं। एक बार वह फेल भी हो जाती है। लेकिन हार नहीं मानती। दूसरी तरफ तलाक की प्रक्रिया के लिए उपमा को कोर्ट के चक्कर लगाने पड़ते हैं। आखिर तलाक हो जाता है।
अब उसके जीवन में अलग प्रकार के भाव आते हैं। वह खूब सिनेमा देखती है। जिस वार्ड में उसकी ड्यूटी थी, उस वार्ड में एमडी कर रहे डॉक्टर रति मोहन के साथ उसकी प्रेम की पींगें चढ़ती हैं। लेकन शादी के तरह-तरह के वादे करने वाला मोहन काम वासना पूरी करने के बाद बदल जाता है। इससे उपमा को फिर से गहरा आघात लगता है। दूसरी बार उसकी भावनाओं का महल धराशायी हुआ था। पहली बार शादी से लेकर तलाक तक। दूसरी बार यह मानसिक आघात उसे लगा। टूटन व घुटन से वह बेचैन रहने लगी। तरह-तरह से सोचते हुए वह इस नतीजे पर पहुंचती है कि ‘अब जिस्म दे ही चुकी तो क्यों न उसके बल पर एंज्वाय करे। जिंदगी के अभावों की पूर्ति करे।..मौज मस्ती की रफ्तार तेज हो गई।’ नैतिकता के सारे बंधन टूट गए। कईं वार्डों में ड्यूटी करते हुए करीब डेढ़ साल तक यही कुछ चलता रहा।
आखिर डॉ. रमेश के साथ उसकी मुलाकात होती है। उपमा उसे भी उन्हीं विचारों वाला नवयुवक डॉक्टर मानती थी, जैसे उसे आज तक मिले थे। लेकिन रमेश उपमा की दुखती रग को छेडऩा आरंभ करता है। पहले तो रमेश उसके गले में पहने ताबीज की बात शुरू करके उसे सोचने पर मजबूर करता है। बाद में उपमा द्वारा पढ़े जा रहे उपन्यास-उलझन को लेकर टिप्पणी करता है, जिससे वह ‘क्या पढऩा है?’ पर भी सोचने लगती है। फिर उसे लाईबे्रेरी का रास्ता दिखाता है। नर्सिंग कॉलेज में लाईबे्ररी की कितनी उपेक्षा हो रही है। यह दृश्य पाठकों को भी सोचने पर मजबूर कर देता है। फिर पुस्तकालय के इस्तेमाल की राह भी खोली जाती है। उलझन नावल पर रमेश की टिप्पणी से उपमा के मन में द्वंद्व खड़ा होता है- ‘जिसने भी उलझनें सुलझाने की कोशिश की वह और अधिक उलझा गया। मैं सुलझाती रही और उलझनें उलझती रही। अब तो धागों की गूंथी हुई लट के माफिक सारी समस्याएं गुथ-मुथ हो चुकी हैं।’
रास्ता दिखाती किताबें शिव वर्मा द्वारा लिखी गई-संस्मृतियां और भगवत शरण उपाध्याय की- ‘खून के छींटे-इतिहास के पन्नों पर’ रमेश उपमा को पढऩे के लिए देता है। उपमा जब किताबें पढ़ लेती है तो भगत सिंह की साम्यवादी विचारधारा और नास्तिकता के इर्द-गिर्द दोनों की बात होती है। विज्ञान व भौतिकवाद में यकीन होने और साम्यवादी विचारधारा अपनाने के बाद व्यक्ति को किसी आडंबर की जरूरत नहीं होती। इसके बाद भी किताबों के आदान-प्रदान और विचार-विमर्श का सिलसिला चलता रहा। एक रात तो उपमा के जीवन की पूरी तरह से भिन्न रात रही, जिसमें रमेश और उपमा के बीच गहन विचार-विमर्श हुआ। उपमा के जीवन की राह बदल गई। उसने फिर टालस्टॉय का ‘पुनरूत्थान’ और गोर्की का ‘मां’ नावल सहित कईं अच्छी किताबें पढ़ी। अखबार पढऩा रोजाना का नियम हो गया। इससे आगे नर्सिंग पेशे की समस्याओं पर मांग पत्र तैयार किया जाता है। एसोसिएशन को मजबूत बनाते हुए आंदोलन की राह तैयार की जाती है। उसमें डॉक्टरों व चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों सहित सामूहिक एकता के लिए प्रयास किए जाते हैं। आखिर विभिन्न धमकियों व मुश्किलों के बावजूद नर्सों की ड्रैस को एसोसिएशन व संगठित प्रयासों से बदल दिया गया। यह बहुत बड़ी जीत थी। इसी प्रकार की कईं मांगों को लेकर नर्सों ने निर्णायक संघर्ष किया और जीत हासिल की। महिला मंच के प्रयासों से जागरूकता के लिए सेमिनार व मार्च आदि आयोजित किए जा रहे थे। उपन्यास के भाग-5 में उपमा को होश आ गया है। उपमा और रमेश के रिश्तों को लेकर कईं तरह की चर्चाएं चल रही हैं। उपमा और हरप्रीत के साथ बातचीत में रमेश इस रिश्ते को समाज में चले आ रहे रिश्तों से अलग मित्र व साथी के रूप में देखता है। यह रिश्ता पत्नी, बहन व मां के रिश्ते से भिन्न है। यह मानवीय रिश्ता है। इसी के साथ ही उपन्यास महिला-पुरूष के बने-बनाए रिश्ते से इतर एक नई परिभाषा प्रदान करता है।
संघर्ष की दिशा खोलने का प्रयास-
जब भी आगे का रास्ता खोजना मुश्किल हो जाता है, तो ऐसे में भी उपन्यास संघर्ष का रास्ता खोजने और खोलने का प्रयास करता है। मीना की मृत्यु, मोहिनी के बलिदान और उपमा के जख्मी होने के बाद जब हरप्रीत को कुछ नहीं सूझता और वह निराशा की बात करती है तो रमेश उससे कहता है- ‘यह बात सिर्फ फायदे या नुकसान की नहीं है। ढ़ंग से जिंदा रहने में अपने बुनियादी अधिकार की भी है। .. एक मिनट को सोचो हरप्रीत कि कुछ लोग अपनी कुर्बानी देकर यदि आम लोगों में यह धारणा पैदा कर पाएं कि अन्याय के खिलाफ सिवाय एकजुट होकर लडऩे के और कोई दूसरा रास्ता नहीं है। हर कस्बे, हर शहर और गांव में इस प्रकार की जागृति आ पाए तो फिर वह दिन दूर नहीं जब मीना जैसी लड़कियों का बेमौत मरना बंद हो जाएगा।’
निराशा के समय में भी रमेश सोचता है- ‘नि:संदेह यहां ऐसे भी कुछ लोग हैं जो सच्चाई की तलाश में हैं। ईमानदारी से जिंदगी बसर करना चाहते हैं। मानवीय गुणों को जिन्होंने पूर्णतया तिलांजलि नहीं दी है।’
जिस्मानी आनंद से वैचारिक और बौद्धिक पहचान प्राप्त करने के बाद उपमा किताबों की दुनिया में प्रवेश करती है। अलग तरह से चीजों को देखना शुरू करती है। लेकिन एक साल की अवधि के बाद भी जब वह कोई बड़ा बदलाव होता हुआ नहीं देखती तो निराश हो जाती है। फिर उसे रमेश जो शब्द कहता है, वे द्रष्टव्य हैं-
‘इस समाज को बदला जा सकता है, बदलना भी है और यह बदलेगा भी। एक ऐसा समाज जहां जंगल का राज न हो, जहां लोग एक दूसरे को खा जाने वाली नजरों से न घूरें, जहां एक-दूसरे को तबाह न किया जाए, जहां सास बहू की दुश्मन न हो, जहां लोगों की नजरों में क्रूर चमक न हो, जहां किसी के चेहरे पर भीख, याचना व गिड़गिड़ाहट के भाव न हों, जहां दूसरे के प्रति ईष्र्या, उपेक्षा तथा परायापन न हो, जहां चालाकी न हो, जहां इन्सान अपने आत्माभिमान को चूर-चूर होता हुआ न देखे, जहां दिन की रोशनी और रात के अंधेरे में अन्याय व अत्याचार न हों, जहां लोग नर्सिज को बदनाम न करें, जहां पति पत्नी को न पीटे, पत्नी पति को ना कोसे, जहां चांदी के चंद सिक्कों के बदले किसी का कत्ल न किया जाए, जहां औरत को वस्तु समझकर उसकी खरीद-बेच न की जाए, जहां इन्सान अपने आपको धोखा न दे, दूसरों को धोखा न दे।’
उपमा कहती है- ‘मैं तहेदिल से चाहती हूँ कि ऐसा समाज स्थापित हो। और इसके लिए मुझे जान की बाजी भी लगानी पड़े तो मैं तैयार हूँ। मगर यह समाज?’
उपन्यास में नर्सों के आंदोलन, महिला मंच के सक्रिय सहयोग, आंदोलन में विभिन्न वर्गों को जोडऩे का प्रयास संघर्ष की राह दिखाता है। आंदोलन के सामने सत्ताधारियों, प्रशासन व अपने ही भीतर विभिन्न प्रकार की मुसीबतें आती हैं, लेकिन जब योजना और बलिदानी भावना के साथ आंदोलन को आगे बढ़ाया जाता है तो बदलाव का रास्ता दिखाई देता है। नर्सों की जायज मांगों के पूरा होने की दिशा में कईं सफलताएं देखने को मिलती हैं। इन संघर्षों की सफलता मानवीय रिश्तों पर आधारित होती है।
शिक्षा संस्थानों का जीवंत चित्रण-
मलबे के नीचे उपन्यास में विभिन्न शैक्षिक संस्थानों का जीवंत चित्र खींचा गया है। गांवों, शहरों के स्कूल, कॉलेज व मेडिकल कॉलेजों का एक समय का नहीं बल्कि विभिन्न दौर के चित्र देखने को मिलते हैं। गांवों में स्कूल नहीं होने के कारण बहुत से बच्चे पढ़ नहीं पाते थे। जो बच्चे पढ़ते थे, उन्हें पढऩे के लिए काफी संघर्ष करना पड़ता था। रमेश के पिता जय सिंह को अपने पिता से पढऩे के लिए मार खानी पड़ी। उपमा के लिए पढऩे का संघर्ष आसान नहीं था। वह पढऩे के जिद पकड़े हुए थी। लेकिन घर के सदस्य पढऩे के लिए तैयार नहीं हुए। आखिर गांव का स्कूल अपग्रेड हुआ तो भी मां को घर की टूम-टेकरी बेचनी पड़ी, तब कहां वह स्कूल में दाखिल हो पाई।
सिरसा में रमेश के स्कूल में चौ. हरिराम हैडमास्टर की मेहनत और अनुशासन का चित्रण देखने लायक है। सिर पर सफेद साफा, थोड़ा गोलाई लिए हुए और हाथ में बैंत हैडमास्टर की खास पहचान थी। हैडमास्टर साहब सुबह चार बजे उठकर होस्टल में पहुंच जाते। चारपाई से बैंत लगाकर सभी प्यार से उठाते और विद्यार्थी पढऩे लग जाते। हालांकि कुछ विद्यार्थियों को ऐसा करना बुरा भी लगता था। हैडमास्टर साढ़े पांच बजे फिर से हॉस्टल आते और यदि कोई पढ़ता हुआ नहीं दिखता तो उसे दो बैंत लगाते। हैडमास्टर साहब एक्स्ट्रा क्लास भी लेते। सर्दियों में सुबह स्कूल लगने से पहले आठवीं को अंग्रेजी पढ़ाते। फिर दसवीं कक्षा को हिसाब करवाते। इसी प्रकार शाम को छुट्टी के बाद भी पढ़ाते थे। क्लास से गैरहाजिर रहने वाले विद्यार्थियों से उन्हें खास चिढ़ थी, उन्हें वे सजा देते। खेलों में विशेष रूचि लेते। मेहनती अध्यापकों के प्रति अन्य अध्यापकों का ईष्र्याभाव भी देखने को मिलता है। मैनेजमेंट के सदस्यों की चाकरी करके वे लोग हैडमास्टर का पत्ता साफ करवाने का षडय़ंत्र रचते रहते थे। आखिर यही होता है। रिश्तेदार को एडजस्ट करने की गरज से मैनेजमैंट के सदस्य हैडमास्टर को तंग करना शुरू कर देते हैं।
कॉलेज में सीनियर विद्यार्थियों द्वारा रमेश को तंग करने, एक लडक़े द्वारा लडक़ी की हत्या और फिर खुद को चाकू से गोदने का दर्दनाक दृश्य दिखा गया है। डॉक्टर बनाने के कोर्स में चौथे साल भी भावी डॉक्टरों को टीका लगाना नहीं आता है। गांव में गए रमेश को उस समय महसूस होता है, जब बहन के बीमार होने पर पिता उसे टीका लगाने की बात कहते हैं। मेडिकल कॉलेज के हॉस्टल में सुविधाओं की कमी और एक-एक कमरे में दो या तीन नर्सों के रहने की स्थितियों पर भी प्रकाश डाला गया है।
लड़कियों के प्रति भेदभाव-
समाज में लड़कियों के साथ भेदभाव अनेक रूप में मौजूद है। समीक्ष्य उपन्यास में दहेज के लिए माता-पिता द्वारा अपनी जमीन बेचने की मजबूरी एक भयावह स्थिति को दर्शाने वाली है। उपन्यासकार बताता है-
‘बोड़ी की दो बड़ी बहनें थी। उन दोनों की शादी हो चुकी थी। छोटा भाई सातवीं में हो चुका था। घर की जमीन छह एकड़ थी। मगन बहनों की शादी के बाद तीन एकड़ ही रह गई थी। दो हजार रूपये एक रूपया सैंकड़ा ब्याज पर उधार भी लिया गया था। जिसका मूल बकाया चल रहा था।’ इसी तरह बोड़ी को विदा करते हुए भी एक एकड़ जमीन भी विदा हो जाती है।
हाई स्कूल में लडक़े ज्यादा थे। लड़कियां कम थी। लड़कियां अपने आप में सिमटी रहती। शुरू-शुरू में उन्हें कुछ अजीब सा लगा। लडक़े कईं बार फिकरे कसते। एक आध बार छेड़छाड़ भी कर देते थे। लड़कियां हैडमास्टर को शिकायत करती, मगर कब तक।
गांवों में लडक़े और लडक़ी का आपस में बात करना भी खतरे से खाली नहीं होता, इसका उपन्यास में जीवंत चित्रण किया गया है। जब बोड़ी सरपंच के बेटे से जेबीटी के फार्म मंगवाने के बारे में बात करती है तो नंबरदारनी इसी को मुद्दा बनाकर उछाल देती है। जिससे गांव में जातीय संघर्ष की पृष्ठभूमि बन जाती है।
मेडिकल कॉलेज में नर्सों के प्रति डॉक्टरों का भी उपभोक्तावादी दृष्टिकोण दर्शाया गया है। रमेश व कुछ ही डॉक्टर ऐसे हैं, जोकि स्वस्थ नजरिया रखते हैं। बाकी किसी भी तरह से उनका यौन शोषण करने की कोशिश करते हैं। उपन्यासकार शरीफ डॉक्टर द्वारा रोजी के शोषण की कहानी बयां करता है, जिससे मानसिक रूप से रोजी विक्षिप्त हो जाती है और फिर खुद ही करंट की चपेट में आकर आत्महत्या कर लेती है। बहुत सी नर्सों ने तो खुद को इस आग में झोंक दिया है। जिंदगी को मेन्टेन करे और एंज्वाय करने के लिए वे जिस्म का प्रयोग करती हैं। उपमा भी जब इसी राह पर चल पड़ती है तो रमेश उसे झिंझोड़ता है। उसकी शक्ति और प्रतिभा को उसके समक्ष रखता है, जिसका प्रयोग महिलाओं के लिए एक बेहतर दुनिया के निर्माण में किया जाना चाहिए, लेकिन अनगिनत लड़कियां भेदभाव और शोषण के किले की पहरेदारी मे जुटी हुई हैं।
उपन्यास में नर्सिंग पेशे की विसंगतियों व भेदभाव को भी गहनता से उजागर किया गया है। एक अंग्रेजी लेख के संदर्भ में उपमा और रमेश में होने वाली चर्चा बताती है कि नर्सिंग औरतों द्वारा अपनाए जाने वाले सबसे अधिक पुराने व्यवसायों में से एक है। शुरू-शुरू में अस्पताल बड़े-बड़े शहरों व कस्बों में स्थापित हुए, इसलिए देश के आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक ढ़ांचे की सारी बुराइयां सेंध लगाकर इस व्यवसाय में भी घुस गईं। इस व्यवसाय की सबसे बड़ी विडंबना यह भी रही है कि सालों तक सेवा के नाम पर इस व्यवसाय में आई लड़कियों को शादी करने के अधिकार से वंचित रखा गया तथा उनके साथ मनमाना खिलवाड़ किया गया। आज आर्थिक जकड़ को कम करने वाला व्यवसाय होने के बावजूद सामाजिक दृष्टि से इस व्यवसाय को हेय समझा जाता है।
अंधविश्वास पर कटाक्ष-
उपन्यास में अंधविश्वास और टोने टोटकों पर करारे कटाक्ष किए गए हैं। उपमा द्वारा गले में डाले गए ताबीज पर जब डॉ. रमेश टिप्पणी करता हुआ इसे अंधविश्वास बताता है तो उपमा इसके बारे में सोचने पर मजबूर हो जाती है। यह ताबीज उपमा को उसकी मां ने सिद्ध से बनवाकर दिया था। उस समय मां ने कहा था- ‘ले बेटी तू ताबीज बांध ले। तेरे घर आले का दिमाग जरूर ठीक हो ज्यागा।’
रमेश के कटाक्ष पर उपमा के दिमाग को झटका लगा- ‘क्या वास्तव में यह ताबीज टूटते ब्याह की कडिय़ां जोड़ पाया?’ बल्कि जोडऩे की बजाय संबंध विच्छेद ही हो गया। कितने ही लोगों ने इस ताबीज की प्रशंसा की थी। लेकिन वास्तव में तो ताबीज अंधविश्वास का ही प्रतीक है।
दूसरी तरफ खेत में पानी को लेकर हुए झगड़े में युवक करतार सिंह के सिर में जब गहरी चोटें लग गई तो उसके ताऊ ने जूती फूंक कै बांधने का सुझाव दिया। उस पर अमल करते हुए करतार के छोटे भाई ने हुक्के की चिलम से आगे लेकर बाएं पैर का जूता जला दिया और राख घाव में भर दी गई। ऐसे टोटकों से करतार सिंह की जान को खतरा बढ़ गया। आखिर में उसे अस्पताल लेकर आया गया।
हरियाणवी रागनियों का प्रयोग-
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान बर्मा के बॉर्डर पर डॉ. शशांक ने अपने डॉक्टरी के शुरू के दिनों में कितने ही सैनिकों के शरीर से गोलियां निकाली थी और सैनिकों की जान बचाई थी। लेकिन एक सैनिक की जान नहीं बचाई जा सकी थी। सैनिक के तकिए के नीचे एक कॉपी मिली थी, जिसमें कईं कविताएं और रागनी थी। उनमें से एक मेहर सिंह की रागनी इस प्रकार थी-
साथ रहनियां संग के साथी मेहर मेरे पै फेर दियो।
जान फूंक दी देस की खातिर लिख चिट्ठी में गेर दियो।।
इस पूरी रागनी को भावनात्मक चिट्ठी के जरिये डॉ. शशांक ने सैनिक के घर भेजा था। घर से भी बहुत भावनात्मक जवाब मिला था। डॉ. शशांक आज भी सैनिक के परिवार से जुड़ा हुआ है। रात को अस्पताल के बाहर मरीजों के तीमारदारों की सांस्कृति संध्या में एक से एक रागनियां चलती। सत्यावान सावित्री के किस्से में से उदाहरण देखिए-
सत्यावान के घरां चाल दुख भरया करैगी सावित्री, हो मेरी जान।
जंगल के मां बोलैं शेर बघेरे, डरया करैगी सावित्री, हो मेरी जान।
नल दमयंति के किस्से में- मैं मरज्यां तै मेरे बच्चां नै मतना दुख भरतार दिए।
गरीब और धनवान के जीवन पर आधारित रागनी-
मुफ्तखोर का कुटुंब रहै ना आलीशान मकान बिना।
काम करणियां फिरैं भटकते टूटी झोंपड़ी छान बिना।।
ऑप्रेशन थियेटर और ऑप्रेशन प्रक्रिया का बारीक चित्रण-
उपन्यास में अस्पताल ही नहीं ऑप्रेशन थियेटर और उस दौरान चिकित्सकों की मनोदशा का भी बारीकी से चित्रण किया गया है। उपमा का ऑप्रेशन करते हुए डॉ. शशांक सहयोगी नर्सों व डॉ. रमेश के सहयोग से कैसे तैयारी करता है। ऑप्रेशन के बारे में-
‘नश्तर चला दिया गया। वही सधे हुए हाथ। खून बाहर निकालती नसों को डियाथर्मी से बंद किया जा रहा है। पेट खोल दिया गया है।..डॉ. रमा के चेहरे पर भी पसीने की बूंदें चमक रही हैं। खून निकलने के कारण ब्लड प्रैशर कम हो गया है। खून निकलना जरूरी बंद होना चाहिए। मगर खून के सिवाय कुछ दिखाई भी नहीं देता।
शशंक बुड़बुड़ाता है- लगता है गोली तिल्ली में लगी है। उसी क्षण हाथ डालकर तिल्ली बाहर निकाल ली जाती है।
रमा ने बीअरर को बाहर भेजा है और खून के इंतजाम के वास्ते।.. शशांक दूसरे पल तिल्ली को काट कर निकाल बाहर करने का फैसला ले चुका था। तिल्ली निकाल दी गई।’
ऑपरेशन थियेटर में बुनियादी सुविधाओं की कमी भी परेशान करने वाली होती है। ऑपरेशन करने वाले डॉक्टर को गीले कपड़े मिलते हैं। ऑपरेशन करते हुए रमेश को कोटरी खराब मिलती है। मूविंग लाइट की जगह फिक्स की हुई लाइट मिलती है। ऐसे में डॉ. रमेश का सभी को फटकार लगाने का मन करता है।
भाषा एवं शैली-
‘’उपन्यास की भाषा बहुत ही सशक्त, परिवेश, पात्र एवं प्रसंग के अनुकूल है। सीधी-सपाट विवरणात्मक शैली के साथ-साथ विभिन्न पात्रों में होने वाले सटीक व तीखे संवाद कथा के विकास में सहायक होते हैं। संवादों की भाषा भी सहज ही पाठक को अपनी ओर आकर्षित करती है। डॉक्टरों व नर्सों की भाषा जहां हिन्दी भाषा का प्रयोग किया गया है। मैट्रन व हरप्रीत जैसे कुछ ऐसे भी पात्र हैं, जोकि पंजाबी का प्रयोग करते हैं। डॉक्टरों की आपस में अंग्रेजी भाषा का भी प्रयोग होते हुए देखते हैं। वहीं रमेश व उपमा के गांवों का परिवेश जीवंत करने के लिए हरियाणवी भाषा का सशक्त प्रयोग किया गया है। विभिन्न भाषाओं के कुछ उदाहरण देखकर उपन्यास के भाषाई रंगों को आसानी से समझा जा सकेगा।
हरियाणवी के उदाहरण-
जुलूस पर गोलियां चली तो एक दुकानदार के मुंह से अनायास निकला-
‘किसे की भी इज्जत महफूज कोन्या।’
एक व्यक्ति- ‘पुलिस इसी के पागल हो रही सै, किमे नै किमै तै बात हुई ए होगी लाला जी।’
‘अरै किसी बात करै सै चौधरी। ये आज काल के नेता आप तै मरैंगे, हमनै भी गैले मरवावैंगे।’-लाला जी थान मैं से कपड़ा नापते हुए कहने लगा था।
बोड़ी के बारे में माँ द्वारा पिता के साथ की जा रही बातों का उदाहरण देखिए-
‘आठवीं तै पास कर ली इस रंडों नै। आगै के विचार सै। .. दस का स्कूल भी कोन्या। बरपाना गाँव चार कोस सै। एकली छोरी क्यूकर जावैगी?..मैं तो कहूं थी के करैगी पढक़ै। पर रंडो न्यूं बोली ना मां मैं तै और भी पढूंगी। किमै बतवै नै के करणा चाहिए।’
पढ़ाई के नाम पर बोड़ी धमकाने के बाद राम सिंह सोचता है- ‘साढू नैं तै टिड्डी खागी। सामनू मैं ना राम बरस्या, ना नहर आई। क्यूकर काम चालैगा? छोरी बी खामखा धमका दी। पर आगै पढ़ावण की भी तै आसंग कोन्या।’
उपमा के ससुराल नहीं जाने पर औरतों की बातें पढि़ए-
‘फलाणे की छोरी तै अपणे सासरे तैं रूस कै आगी।
ऐ देख सुसरा लेवण आया था जिब बी नाह् गई।
मां-बाप के घरों के सारी उमर कट्या करै?
किसके घर मैं मारपीट नाह् होती? मरद माणस तै बीरबानी पै हाथ ठा ए दिया करै।’
पंजाबी के उदाहरण-
हरप्रीत रमेश को कहती है- ‘उपमा दे आउट ऑफ डेंजर होण तों पहलां मेरे वास्ते तां कुछ सोचना बड़ा मुश्किल हैगा।’
कोर्स के दौरान उपमा को कहे मैट्रन के शब्द- ‘हरामजादी! खसमा नूं खाणी! बटण वी बंद करके नई रख सकदियां। ज्यादा जवानी आई ऐ तेरे ते? मरीजा दी सेवा खाक करेगी?..जमीन ते पैर रख के चल्लो। जवानी दे ढ़ाई दिन सब चे आंदे ने।’
नर्सों के लाईब्रेरी के कार्ड पर हस्ताक्षर करवाने के चक्कर में मिलने गए डॉ. रमेश से मैट्रन ने कहा- ‘क्यों डॉक्टर तेरियां की लगदीयां ने ऐह् कुडिय़ां? इन्नां दा पीछा छड दे। बडिय़ां हरामजादियां ने। उन्हां नूं लोड़ होवेगी तां मेरे कोल आपे आणगियां।’
उर्दू के उदाहरण-
जय सिहं के बेटे महावीर द्वारा गफ्फूर के साथ की गई मारपीट के बाद दाढ़ी वाले महाशय का कथन द्रष्टव्य है- ‘मोहतरमा! इस सारे वाकयात में गफ्फूर का कोई कसूर नहीं है। आपके लख़्ते जिगर से इसकी कोई रंजिश नहीं है। यह तो वह है ना संघ का प्रचारक रामदास उसके बीज बोए हुए हैं।’
अंग्रेजी के उदाहरण-
मेडिकल कॉलेज में दाखिला होने के बाद रमेश का सैकिंड ईयर के लडक़ों के साथ सामना होता है-
‘ए मिस्टर! व्हाट इज यूअर नेम?
ब्लडीफूल कांट यू स्पीक?
व्हाई यू हैव नॉट विस्ड?
आर यू डैफ एंड डैंब?
दैन व्हाई डोंट यू स्पीक?
आर यू लोकल?
यस सर।’
यही नहीं, उपन्यास में अखबार में आए अंग्रेजी लेख की रोमन लिपि और अंग्रेजी भाषा में कईं पंक्तियों का प्रयोग हूबहू किया गया है। ये पंक्तियां भारत में नर्सिंग पेशे पर 1954 में शैटी आयोग की सिफारिशों की याद दिलाते हुए स्थितियों की भयावहता को दर्शाती हैं और बदलाव के लिए क्रांति की जरूरत रेखांकित करती हैं। हर दृष्टि से हम कह सकते हैं उपन्यास अपने मकसद में कामयाब होता है।
लेखक अरुण कुमार कैहरबा समीक्षक एवं हिंदी प्राध्यापक हैं।
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