डॉ. लक्ष्मण यादव द्वारा लिखित पुस्तक ‘ प्रोफेसर की डायरी’ शिक्षा व्यवस्था व एडहॉक की नौकरी की व्यवस्था को समझने में बहुत मदद करती है । यह पुस्तक जरूर पढ़नी चाहिए । कैसे एक शिक्षक से शिक्षा के अलावा सभी काम करवाये जाते हैं। यह पुस्तक शिक्षा व्यवस्था के चरमराने का पर्दाफाश करती है। ‘हमारा देश किस दिशा में जा रहा है’ इससे लेखक का गहरा सरोकार है। व्यकित सोचता है कि परमानेंट नौकरी मिल जाये तो वह कुछ नया सोच सकता है पर उसको इतने ऐसे कामों में उलझाया जाता हैं कि वह छात्रों को पढ़ा न सके। जो एडहॉक पर नौकरी कर रहे हैं वो इसी उलझन में उलझ रहे हैं कि कब पक्की नौकरी मिलेगी और कब इंटरव्यू देने से छुटकारा मिलेगा। कितना मुश्किल होता है उस पाँच मिनट के समय मे अपने आपको काबिल बता पाना जिसमें यह भी पता होता है कि सलेक्शन की लिस्ट पहले ही तैयार हो चुकी है । व्यक्ति इसी उलझन को ही सुलझाता रह जाता है। एक नेता, एक ठेकेदार या शिक्षा माफिया के धंधे में भाड़े पर रखे गए गुरु इस देश को विश्वगुरु बना रहे हैं यह आज के विश्वगुरु की सच्चाई है। मनुष्य नौकरी लगने के बाद कितने अरमान लगाकर रखता है पर इंटरव्यू देने की भागदौड़ में वह किन-किन चीजों का सामना करता है। एडहॉक व परमानेंट से एक वाकया ओर जुड़ा है। हमारे जीवन के कितने फ़ैसले ऐसे होते है जो हमारी नौकरी से जुड़े होते हैं। कहते हैं कि शादी एक बार ही होती है, कितने अरमान सजा रखे थे मगर ऐसी शादी होगी कभी सोचा नहीं था। मेरी सलाह याद रखना या तो परमानेंट होकर शादी करवाना या फिर छुट्टियों में।
आप जैसे लोग बचेंगे तो हमें भी बचा लेंगे। भगतसिंह कोई एडहॉक थोड़े न थे, उन्हें कोई ईएमआई की किश्त नहीं भरनी होती थी, उनके बीवी बच्चे भी नहीं थे। उन्होंने भी तो देश के लिए कुर्बानी दी थी। शिक्षा का क्षेत्र बहुत व्यापक है। परिवार, स्कूल, कॉलेज से लेकर विश्वविद्यालयों तक फैला हुआ। हर अस्थायी शिक्षक की दास्तान हू-बू-हू ऐसी नहीं होगी पर किसी महिला शिक्षिका के किस्से इससे कहीं ज्यादा त्रासद होंगे।
कैरियर ओर मातृत्व में से अगर किसी महिला को चुनना पड़ जाए तो वह मातृत्व को चुनेगी। यह समस्या उन महिलाओं के साथ आती है जो अस्थायी नौकरी पर लगी होती हैं क्योंकि उनको मेट्रनिटी छुट्टियां नहीं मिलती हैं। इसी बीच में एक भावुक वाकया आता है जिसमें अर्पणा कहती है कि “मैंने एक बहुत बड़ी गलती कर दी कि मैंने माँ बनने का ख्वाब देख लिया।”
विमला को एडहॉक से परमानेंट होने के लिए टी आई सी ने कहा कि आज रात यहीं रुक जाना। जब टी आई सी की बात नहीं मानी गई तो इन सबमें विमला की नौकरी तो चली गई, मगर वह जो कुछ अपने साथ बचाकर ले जा सकती थी, लेकर अपने पति के घर में गृहिणी बनने मुंबई चली गई। फिर न विमला लौटी और न उसका किस्सा।
पुस्तक में शिक्षा व्यवस्था से सम्बंधित बहुत सारे अध्याय हैं जिनमें शिक्षा के बदलते स्वरूप को बहुत ही शानदार तरीके से दर्शाया गया है। कैसे निजीकरण बढ़ रहा है, पक्की नौकरी पाने के लिए क्या- क्या प्रयास करना पड़ता है। यह एक शिक्षक के साथ-साथ उच्च शिक्षा की भी कहानी है। विश्वविद्यालय ज्ञान और धोखे की जटिल जगह है। विश्विद्यालय सिखाता है, नियंत्रित करता है और हेर-फेर भी करता है। इस पुस्तक को पढ़ते- पढ़ते जब अंतिम अध्याय में आते हैं तो वह बहुत विचलित कर देता है क्योंकि जब चौदह साल नौकरी करने वाले प्रोफेसर को नौकरी से निकाल दिया जाए तो उस समय उस पर क्या बीती होगी “लगभग चौदह साल पढ़ाने के बाद मुझे मेरे कॉलेज से निकाल दिया गया। मुझसे मेरी धड़कन छीन ली गई। परिंदे से उसका शज़र नहीं छीनना चाहिए।”