तानाशाही मानसिकता को बेपर्दा करता उपन्यास ‘गोरी हिरनी’

सुरेश बरनवाल (समीक्षक)

लेखकः गुलजार सिंह संधु
हिंदी अनुवादकः गुरबख्श मोंगा और वंदना सुखीजा
प्रकाशकः गार्गी
पृष्ठः 134
मूल्यः रू. 120

यह बेहद उत्सुकता की बात हो सकती है कि कोई तानाशाह किस प्रकार अपनी विचारधारा से जनसंख्या के एक बड़े भाग को प्रभावित कर लेता है। किसी भी तानाशाह की ताकत उसके प्रसंशक ही होते हैं जिनके दम पर वह एक भ्रम रचता है और उस भ्रम की ताकत से सारी व्यवस्था को अपने शिकंजे में ले लेता है। और क्या होता है जब उसका नशा लोगों के जेहन से उतर जाता है। किसी पात्र के माध्यम से यह जानना समझना बहुत रूचिकर भी हो सकता है और भविष्य के लिए एक सबक भी।

गोरी हिरनी एक ऐसा ही उपन्यास है जो हिटलर युग के सत्य को एक पात्र के माध्यम से सामने लाने का काम बखूबी करता है। उस पात्र के सहायक पात्र उस युग के सत्य को अपनी अपनी भूमिका से सामने लाते हैं, कुछ इस तरह कि पाठक के सामने सूक्ष्म स्तर की जानकारियां और परिस्थितियां सामने आती हैं।

कहानी का शीर्षक भी बताता है कि ऐसी परिस्थितियों में तानाशाह का समर्थन करने वाली एक स्त्री किस प्रकार छली जाती है। इस पुस्तक का मुख्य पात्र मारथा को कहा जा सकता है हालांकि पूरी कहानी मारथा के परित्यक्त बेटे माईकल के माध्यम से आगे बढ़ती है। हिटलर की बातों और उसके प्रोपेगंडा मंत्री गोएबल्स के लेखों के माध्यम से प्रेरित मारथा जर्मनी के लिए स्वस्थ आर्य बच्चे देने के लिए युवा ब्रिगेड में कूद पड़ती है और हिटलर के लिए गांवों में काम भी करती है। इस प्रण के चलते वह अपने बेटे माईकल और बेटी मोनिका को तज देती है जो कि अनाथाश्रम में पलते हैं। वहीं से दो दंपतियों द्वारा गोद ले लिए जाते हैं। तब हिटलर का युग खत्म हो गया था, पर दावानल के बाद सुलगती कितनी ही चिंगारियां लोगों के जीवन में अब भी आग लगा रही थीं। मोनिका बहुत से संकटों का सामना करती है और डिप्रेशन में चली जाती है। माईकल को पालक मां बाप तो अच्छे मिले परन्तु मानसिक रूप से वह कभी भी संतुष्ट नहीं रह पाया। माईकल गोद लिए जाने के बाद भी इतना बड़ा था कि वह अपनी मां और बहन को नहीं भूला था जबकि मोनिका इतनी छोटी थी कि उसे ध्यान तक नहीं था कि उसका कोई भाई भी है। माईकल अपनी बहन को तलाश करने के लिए हमेशा प्रयासरत रहता है और अंततः उसे तलाश कर भी लेता है। हालांकि मोनिका की हालत उसे और दुखी कर देती है। मोनिका के जीवन के माध्यम से जर्मनी की युवा लड़कियों की जिंदगी को सामने तो रखा ही गया है, उसके साथ जुड़े कुछ पात्र जो कि भारतीय और पाकिस्तानी पंजाब के थे, के माध्यम से भी प्रवासन के संकटों को सामने रखा गया है।

माईकल न सिर्फ अपनी बहन को वरन् अपनी मौसी और उसकी बेटी को भी तलाश करता है। अपनी मां की एक सहेली को भी तलाश करता है। उसकी यह तलाश अंततः उसकी मां के लिए भी होती है। उपन्यास में हिटलर के साथ जुड़े जर्मनों के भ्रम के साथ यह भी दिखाया गया है कि सभी जर्मन हिटलर की बातों में नहीं आए थे। बहुत ऐसे भी थे जो कि हिटलर द्वारा रचे जा रहे नाजी नफरत की सच्चाई और भयावहता को जानते थे। मारथा की बहन यानि माईकल की मौसी बारबरा ऐसी ही स्त्री थी। वह ताउम्र अपनी बहन से इसलिए नफरत करती रही क्योंकि मारथा हिटलर का साथ देने के लिए हद तक चली गई थी। उपन्यास में कुछ डायरियों का जिक्र है जो बताता है कि नाजियों के साथ क्या कुछ किया गया था। हालांकि अगर लेखक को अपने जर्मनी प्रवास के दौरान शोध में ऐसी कुछ डायरियां हासिल हुई थीं तो उसपर कुछ और चर्चा की जानी थी।

कहानी बहुत तेजी से आगे बढ़ती है और कहानी के अंत में मारथा सामने आती है। वह अपने बच्चों का सामना नहीं करना चाहती परन्तु माईकल की समझदारी से उसे मना लिया जाता है। मारथा द्वारा अपने बच्चों का सामना नहीं कर पाना यह दर्शाता है कि उसने भी हिटलर के दौर में की गई गलतियों को समझ लिया था। वह एक प्रायोजित भ्रम द्वारा छली गई थी। उपन्यास का शीर्षक भी उसके इस छले जाने को इंगित करता है। लेखक एक इस पात्र के माध्यम से यह बात रखने में सफल है कि हिटलरी जुनून के उतरने के बाद उसके अनुयायी क्या महसूस करते हैं।

इस उपन्यास की शैली आख्यान शैली है, जो कि बहुत तेजी से कहानी को भगाती चलती है। पाठक कहीं रूक नहीं पाता, इसे कहानी की ताकत भी कहा जा सकता है और कमजोरी भी। परन्तु इतना अवश्य है कि सौ से अधिक पृष्ठों में सिमटी इस कहानी के लिए यदि यह शैली नहीं अपनाई जाती तो इसके पृष्ठ संख्या बहुत अधिक हो जाने थे।

इस उपन्यास के माध्यम से जर्मनी के गांवों को भी जाना जा सकता है और हिटलर के जाने के बाद जर्मनी के समाज को भी। इतिहास और साहित्य में यही फर्क होता है कि इतिहास जानकारियों को इस तरह सामने रखता है कि उसके साथ अहसास नहीं जुड़ पाते जबकि साहित्य ऐतिहासिक जानकारियों को भी आम आदमी के अहसासात् के साथ जोड़ देता है। इस लिहाज से हिटलर के बाद के जर्मनी को समझना हो तो यह पुस्तक आपके लिए रूचिकर हो सकती है।

अनुवाद अच्छा हुआ है। अनुवादक गुरबख्श मोंगा जी और वंदना सुखीजा ने पूरा प्रयास किया है कि उपन्यास की शैली और सहजता बनी रहे। इसमें वह सफल भी रहे हैं। हालांकि इसमें पंजाबी का पुट बनाए रखने के लिए कुछ शब्द सायास ऐसे रखे गए हैं जो कुछ रूकावट का हल्का सा अहसास देते हैं परन्तु यह खलते नहीं।

इसमें शक नहीं कि गुलजार सिंह संधू ने बहुत सूक्ष्म स्तर तक जाकर जर्मनी के समाज को देखा समझा है। उन्होंने हर पात्र के साथ न्याय किया है और पात्रों के माध्यम से वास्तविक स्थिति का प्रभावी तरीके से चित्रण किया है। मेरे विचार से यह उपन्यास इसलिए भी अवश्य पढ़ा जाना चाहिए ताकि हर दौर में उभरते हिटलरों के पिछलग्गुओं को सचेत किया जा सके।

सुरेश बरनवाल
सिरसा हरियाणा

One Comment

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  • बजरंग बिहारी

    March 30, 2024 / at 4:53 amReply

    इस समीक्षा ने उपन्यास पढ़ने की ललक पैदा कर दी है। हालात ऐसे हैं कि दुनिया में हिटलर की कई प्रतिकृतियाँ इस समय मौजूद हैं। बड़ी संख्या में उनके अनुयायी या अंधभक्त भी हैं। अंधभक्तों से संवाद संभव नहीं लेकिन जो लोग अंधभक्ति की राह पर बढ़ रहे हैं उन्हें बेशक सावधान किया जा सकता है।
    लेखक और अनुवादक-द्वय बधाई व धन्यवाद के योग्य हैं।

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