हिमाचल में कई सालों से भाषा और बोलियों को लेकर बहस छिड़ी हुई है। अधिकतर लेखक, विद्वान, पढ़े-लिखे, बुद्धिजीवी, पत्रकार, सरकारी अधिकारी इस बात पर जोर दे रहे हैं कि हमारी भाषा हिंदी है, यही हमारी राष्ट्रभाषा है और यहां तक बढ़ गये हैं कि यह मातृभाषा के रूप में विकसित हो रही है। वह कहते हैं कि हमारे यहां पर हर जिले में और हर जिले से भी आगे बढ़कर हर इलाके में अलग-अलग ‘बोलियां’ मौजूद हैं, इसलिए यहां पर ‘एक भाषा’ विकसित नहीं हो सकती। इसलिए इनको नहीं बचाया जा सकता, हिंदी को अपनाया जाना चाहिए, हिंदी लिपि को ही अपनाया जाना चाहिए, कि हम एक दूसरे की भाषा को समझते नहीं, इसको सीखना मुश्किल है। कुछ कहते हैं कि हिंदी और अंग्रेजी के बिना हमारे बच्चे पिछड़े रह जाएंगे, हम ‘राष्ट्रीय’ पहचान नहीं बना पाएंगे। कुछ कहते हैं कि स्थानीय ‘बोलियो’ के पाठक नहीं हैं। हिंदी व अंग्रेजी के पाठक हैं तो हमें उसी में लिखना चाहिए। कुछ कहते हैं कि बाजार की मांग के हिसाब से ही लेखकों को चलना चाहिए। लेकिन एक छोटा तबका है जो कहता है ‘पहाड़ी भाषा या हिमाचली भाषा’ को राजभाषा का दर्जा मिलना चाहिए। वह इसके लिए कुछ समय से प्रयासरत भी है। लेकिन इन दोनों की बहस और जूतम-पैजार से अलग हिमाचल की 70 लाख आबादी भी है जो बहुत चाव, प्यार और गर्व के साथ अपने-अपने क्षेत्र की बोलियों\भाषाओं को बोलती है, समझती है, अपने रोजमर्रा के व्यवहार में इस्तेमाल करती है। वह अपने खेतों में, बागिचों में, घरों में बात करती है, गाने सुनती है, कहानियां कहती है। सोशल मीडिया पर भी कुछ लोग हैं जो गर्व के साथ कहते हैं कि – हमने बोलियों को यहां तक नहीं पहुंचाया, हमें बोली ने यहां तक पहुंचाया है। तो आओ हिमाचल में जारी बहस के अंदर शामिल होते हुए कुछ सवालों के जवाब तलाशने की कोशिश करें…
भाषा क्या है?
भाषा की साधारण परिभाषा बिल्कुल आसान है कि भाषा वाक्यों का ऐसा समूह होती है जिसके जरिये एक इंसान दूसरे इंसान को अपनी भावनाओं, इच्छाओं, विचारों से अवगत करवा सकता है। इसके कई रूप हो सकते हैं जैसे आवाज निकाल कर यानी बोल कर, शरीर के विभिन्न अंगों के जरिए इशारे कर के, किसी चीज से चित्र बना कर, लिख कर आदि। लेकिन भाषा का मूल रूप मौखिक होता है यानी बोलना है। इसलिए भाषा का मतलब किसी क्षेत्र में, उस क्षेत्र के लोगों के समूह द्वारा एक दूसरे को अपनी भावनाएं, विचार, इच्छाएं व्यक्त करने के लिए बोली जाने वाली बोली है।
भाषा कम्युनिकेशन का एक जरिया है। और हर कम्युनिकेशन एक संदेश होता है जो एक प्राणी दूसरे प्राणी को देता है। कम्युनिकेशन की उत्पत्ति भी उतनी ही पूरानी है जितना जीव। संसार में मौजूद कोई भी चीज या पदार्थ परिवर्तनशील, गतिशील और एक दूसरे से संबंधित है। हर चीज एक दूसरे से जुड़ी हुई और एक दूसरे से स्वतंत्र है। यानी एक दूसरे पर परस्पर निर्भर हैं। जब किसी प्राणी को किसी चीज की जरूरत होती है, कोई भाव आता है तो वह उसको प्रकट करने की चेष्टा करता है। इस चेष्टा में शरीर के अंदर बहुत सारी क्रियाएं होती हैं, इस क्रिया में शरीर के अंगों की हलचल होती है, कोई पाँव पटकता है, कोई सिर हिलाता है, कोई आँख बंद करता है, कोई आँख दिखाता है, कोई गले से आवाजें निकाल कर गुर्राता है, चिलाता है, हिन्नाता है, रांभता है, रोता है, हंसता है। ये प्राणियों की कम्युनिकेशन व्यवस्था है। हर प्राणी की अपनी स्वतंत्र कम्युनिकेशन व्यवस्था होती है, इसमें से कुछ हम समझ सकते हैं कुछ नहीं समझ सकते। जैसे कुत्ता जब भौंकते हुए पीछे भागता है तो इसका मतलब इंसान व अन्य जानवरों को समझ आता है कि वह हम पर गुस्सा है, वहां से हमें भगाना चाहता है। शेर जब आँख निकाल कर, किसी के सामने गुर्राता है तो इसका मतलब वह हमला करने के लिए तैयार है। भैंस और गाय जब रांभती है तो वह पानी या चारा मांग रही होती है और जब विशेष रूप से लगातार रांभ रही होती है तो उसका बच्छा-बच्छी या कट्टा-कट्टी उसको दिखाई नहीं दे रहे वह सोचती है वह कहीं गुम हो गये। कुत्ते जब गुर्राते हुए अपने पाँव से मिट्टी खुर्च रहे हो तो उसका मतलब है वह दूसरे कुत्ते के लिए लड़ने के लिए तैयार है और कमजोर कुत्ता उस समय यह समझ कर भाग खड़ा होता है, वहीं जब कोई कमजोर कुत्ता अपने इलाके से बाहर निकलता है और कुत्ते आ जाएं तो वह दुम दबा लेता है। जिसका मतलब होता है कि मुझे आराम से जाने दो मैं कुछ नहीं कर रहा।
इंसानी भाषा और पशुओं की भाषा में क्या अंतर है?
यह बात सच है कि हर प्राणी का संचार सिस्टम है, लेकिन अब तक की खोजों के अनुसार भाषा नामक संचार व्यवस्था केवल मनुष्य के पास है। पशु या अन्य जीव अपनी ध्वनियों से शब्द और शब्दों के वाक्य बनाकर अपनी बात दूसरे को नहीं समझा सकते। उनके पास बेहद सीमित ध्वनियां हैं, जिसके जरिये वह बेहद सीमित तरीके से अपनी भावनाएं एक दूसरे को व्यक्त कर पाते हैं। जैसे भैंस के पेट में दर्द होने से वह ये नहीं बता सकती कि ‘उसके पेट में दर्द है’। लेकिन मनुष्य तुरंत कह देता है कि मेरे मेट में दर्द है। जबकि भैंस केवल रांभती रहेगी। क्योंकि मनुष्य के पास संचार व्यवस्था में मौजूद स्वर ग्रंथी एक ऐसा अंग है जो बेहद जटिल से जटिल ध्वनियां निकालने में समर्थ है, जो अनगिनत ध्वनियां निकाल सकता है, उसके शब्द बना सकता है। इसलिए मनुष्यों की भाषा का इतिहास है, उसकी उत्पत्ति है, उसके अंदर परिवर्तन है, उसका विकास है जबकि पशुजगत अपनी उत्पत्ति से लेकर अब तक अपनी ध्वनियों, संचार व्यवस्था में कोई गुणात्मक परिवर्तन या विकास नहीं कर पाया है। बंदर खिर-खिर-खिर ही करता है और बिल्ली म्यायूं-म्यायूं और कव्वा कां-कां से आगे नहीं बढ़ा। और वह जानवर किसी देश या इलाके के हों, उनकी ध्वनियों में मौलिक परिवर्तन नहीं आता।
भाषा की उत्पत्ति कैसे हुई ?
आधुनिक मनुष्य का इतिहास पशुजगत से अलग होकर मनुष्य बनने तक का इतिहास है। वह समय भी था जब मनुष्य के पूर्वज चार पाँव पर चलते थे, पशुओं की तरह पेड़ों पर रहते थे। उस समय उनके पास वर्तमान की तरह स्वर ग्रंथी विकसित नहीं थी। वह पशुओं की तरह ही कुछ तरह की आवाजें या कहें ध्वनियां निकालते थे। जैसे-जैसे मनुष्य के अन्य शारीरिक अंगों का विकास हुआ वैसे-वैसे उसकी स्वर ग्रंथी भी विकसित हुई। जिस से वह वर्तमान की तरह जटिल ध्वनियां निकालने या बोलने में समर्थ हुआ। वह पुरातन ध्वनियां ही वाक्यों के रूप में संचार की पद्धति बनी और उन वाक्यों का समूह भाषा बना।
भाषा इंसानी चेतना के रूप का एक अंग है। और चेतना की उत्पत्ति जरूरत से होती है। और इंसान की मौलिक व प्राथमिक जरूरत भोजन है, इस प्रकार भोजन के संग्रहण और उत्पादन के लिए इंसान का समूह में होना आवश्यक था और भाषा की उत्पत्ति इंसानों के ऐसे समूहों की उपज है जो किसी तरह के उत्पादन में लगे हुए थे। या कह सकते हैं कि जिस तरह से उत्पादन, उसके लिए बने औजारों, तकनीक में विकास होता गया, मनुष्य की भाषा भी विकसित होती गयी। दार्शनिक रूप से अगर इसको समझना हो तो Valentin Nikolaevich Voloshinov के शब्दों का सहारा लेना होगा कि चिन्ह/चेतना/भाषा केवल और केवल अंतर व्यक्तिगत सीमा के अंदर पैदा हो सकती है। इस सीमा को मात्र शब्द के अर्थ के आधार पर ‘प्राकृतिक’ नहीं कहा जा सकता। चेतना या शब्द केवल दो प्राणियों (होमोसेपियंस) से पैदा नहीं हो सकते। इसके लिए व्यक्तियों का सामाजिक रूप से संगठित होना आवश्यक है, उनका एक समूह बनना जरूरी है (सामाजिक इकाई), इससे उनके अंदर शब्दों या चिन्हों का निर्माण होता है। केवल व्यक्तिगत चेतना किसी भी चीज को परिभाषित करने में अक्षम है, इसके लिए उसको सामाजिक, वैचारिक माध्यमों की जरूरत पड़ती है।
इसको कुछ व्यावहारिक अनुमानों के जरिए समझने की कोशिश करते हैं। आदि मानव समूह में रहता था। जब भोजन नहीं रहा और भूख लगी तो किसी एक को विचार आता होगा कि खाने के लिए कुछ जमा करने या शिकार करने के लिए निकला जाए, उस समय वह व्यक्ति बाकियों को अपनी बात बताने के लिए कुछ आवाज निकालता होगा, कुछ इशारा करता होगा, कुछ हथियार, औजार उठा कर दिखाता होगा, कुछ अभिनय कर दिखाता होगा कि भूख लगी है चलो शिकार करने जाते हैं, तो यह उस समय उसकी भाषा होगी। उसका अनुकरण करते हुए अगली बार फिर कुछ लोग वही आवाजें, इशारे, अभिनय करते होंगे तो उनके उस खास समूह में कुछ मानक स्थापित हो गये होंगे कि इस आवाज का मतलब भूख है, इस का मतलब फलां औजार है, इस आवाज का मतलब चलना है, इस आवाज का मतलब हमला है, यह बातें आवाज और इशारों को जरिए की जाती थी, क्योंकि शिकार आदि के समय आवाज का इस्तेमाल हमले से पहले कम होता है इशारों का ज्यादा होता है। तो इस तरह आवाज और इशारों ने मिलकर अलग-अलग भौतिक वस्तुओं के लिए मानक शब्द और वाक्यों के समूह बनाए होंगे।
आदि मानव अलग-अलग समूहों में रहता था, अलग-अलग कबीलों में रहता था, अलग-अलग भौगोलिक संरचनाओं, वातावरण में रहता था इसलिए विभिन्न वस्तुओं, भावनाओं, इच्छाओं के लिए उसके शब्द भी विभिन्न तरह के बने जिस कारण भाषाओं में भी विविधता पाई जाती है।
जैसे मच्छी शब्द को लो, हिंदी में इसे मच्छी कहते हैं, संस्कृत में मीन कहते हैं, तेलुगू में चाप्ल, मराठी में माशा, छत्तीसगढ़ी में मछरी, गोंडी में मीनकू या कीके आदि कहते हैं, विदेशी भाषाओं की बात करें तो अंग्रेजी में फिश, कुर्दिश में मासी, रूसी में रेयूबा कहते हैं, विभिन्न भाषाओं में इसके लिए अलग-अलग शब्द हैं, एक ही वस्तु के लिए अलग-अलग शब्द का मतलब यही है कि ऐतिहासिक रूप से विभिन्न भाषाओं को बोलने वाले लोग अलग-अलग जगह रहते थे। लेकिन कुछ शब्द हैं जो विभिन्न भाषाओं में भी एक हैं, जैसे पंजाबी, हिंदी, उर्दू में बहुत सारे शब्द अरबी, फारसी और संस्कृत के हैं। लाहौल, किन्नौर, स्पिति की भाषाओं में बहुत सारे शब्द तिब्बत, बर्मा, मुंडा भाषाओं से हैं। इसका मतलब ये भी है कि लोग एक जगह से दूसरी जगह बसते रहे हैं, पलायन करते रहे हैं और एक दूसरे की भाषा से शब्द ग्रहण करते रहे हैं। इसलिए तमाम भाषाएं परिवर्तनशील होती हैं, गतिशील होती हैं। बहुत सारे पूराने शब्द छूट जाते हैं और नए शब्द आते रहते हैं। और जो परिवर्तनशील नहीं रहती वह भाषाएं खत्म हो जाती हैं। कबीर सही लिखते हैं – संस्कृत कूप जल, भाखा बहता नीर…। संस्कृत कुएं के जल के समान है, एक जगह रहता है और भाषा नदी की तरह बहती है तो वह आगे बढ़ते हुए बहुत सारे शब्दों को अपने में जोड़ते जाती है और उसका दायरा बढ़ता रहता है।
भाषा और बोली में क्या अंतर है
अगर वैज्ञानिक ढ़ंग से देखा जाए तो भाषा और बोली एक ही चीज है। अपने गठन और उद्देश्य के रूप में बोली वहीं कार्य करती है जो भाषा का है और भाषा भी वही कार्य करती है जो बोली का है। यानी ये एक ही है। लेकिन सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनीतिक रूप से प्रभुत्वशाली वर्ग अपनी बोली को अपनी राजनीतिक व आर्थिक आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए जब भिन्न बोली बोलने वाले समूहों पर थोपता है तो उसको विशेष रूप से, उनके ऊपर स्थापित करने के लिए ‘भाषा’ का नाम दे देता है। किसी भी बोली के अंदर किसी भी तरह की परिस्थितियों, जरूरतों, भावनाओं, इच्छाओं को अभिव्यक्त करने के लिए शब्द, वाक्य, मुहावरे, लोकोक्तियां, संज्ञा, सर्वनाम, क्रिया, विशेषण सब कुछ होता है और यही भाषा के अंदर भी होता है। और यही किसी भी बोली, भाषा और संचार व्यवस्था का मुख्य उद्देश्य होता है। लेकिन वह कौन हैं, जो किसी बोली को बोली और किसी बोली को भाषा तय करते हैं? वह कौन से मानक हैं, जो किसी बोली को भाषा तय करते हैं? और सबसे जरूरी वह कौन हैं, जो इन मानकों को तय करते हैं? भाषायी विज्ञान के अनुसार भाषाओं का अध्ययन भाषा और उपभाषा के रूप में किया जाता है। इस विज्ञान के अनुसार विभिन्न समूहों द्वारा बोली जाने वाली उन बोलियों का समूह भाषा कहलाता है जो उक्त समूहों द्वारा एक दूसरे को समझ आती हों, इनके अंदर उच्चारण और थोड़ा बहुत व्याकरण के हिसाब से फर्क हो सकता है। यह वर्गीकरण भाषा विज्ञान के हिसाब से तो ठीक है लेकिन राजनीतिक रूप से देखें तो सदा ही एक राजनीतिक रूप से प्रभुत्वशाली वर्ग ने अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए अपनी भाषा को विशाल उत्पीड़ित-शोषित जनता के समूह पर थोपा है और उनकी भाषाओं को हीन, अविकसित, असभ्य माना है। कुछ विद्वान भाषा का मानक लिपि और लिखित साहित्य को मानते हैं कि किसी भी भाषा के पास यह होना किसी भी भाषा की पूर्व शर्त है और इस पूर्व शर्त के नीचे विभिन्न इलाकों की बोलियों का दमन किया जाता है।
लिपि व साहित्य और भाषा का संबंध
यह तर्क कि हमारी बोली की लिपि नहीं है इसलिए यह भाषा नहीं है और यह विकसित नहीं हो सकती, या फिर इसकी लिपि बनेगी तभी विकसित होगी, अपनी भाषा को कमतर आंकने का तर्क है, यह सरकारों द्वारा विशेष भाषा थोपने के लिए गढ़ा गया तर्क है और हम उनके ही जाल में फंस कर इस तर्क का प्रचार प्रसार करते हैं। लिपि की समस्या को समझने के लिए हमें भाषा के विकास को समझना होगा।
होमो सेपियंस बनने में इंसान को लाखों साल लगे हैं। होमो सेपियंस बने भी हमें 40 हजार साल हो गये हैं। लेकिन लिपियों का आविष्कार चंद हजार साल पुराना ही है। हड़प्पा सभ्यता लगभग 3500 साल ईसा पूर्व में लिपि का इस्तेमाल करती थी। खोरष्ठी और ब्राह्मी की इस्तेमाल लगभग 2500, 2800 साल पहले दिखाई देता है। देवनागरी, गुरुमुखी, टांकरी, भोट यानी तिब्बती लिपियां भी लगभग 1500 साल के दौरान विकसित हुई हैं। और पढ़ी जाने योग्य आधुनिक लिपियों का इतिहास तो बहुत की कम पुराना है। तो इसका मतलब यह नहीं है कि पहले इंसानों की कोई भाषा ही नहीं थी। जैसे हम पहले देख चुके हैं कि भाषा का मूल तत्व बोल कर, आवाज या ध्वनियों द्वारा अपनी बात को दूसरों को समझाना और दूसरों से समझना है। जब इंसान छोटे समूह में, सीमित इलाके में रहता था और एक कबीले से दूसरे कबीले के साथ संबंध स्थापित करता था, या आने वाली पीढ़ियों के लिए उस संदेश को सुरक्षित रखना चाहता था तो उसका काम बोल कर चल जाता था या फिर वह कथा-कहानी, गीत, नृत्य के जरिए अगली पीढ़ियों को सौंप देता था। बहुत जगह पर गुफाओं में चित्र भी मिले हैं जिसको हम किसी संदेश को सुरक्षित रखने का यत्न कहते हुए उसे आरंभिक लिपियों का रूप मान सकते हैं। कुल मिलाकर कहा जाए तो किसी शब्द और वाक्यों के समूह के संदेश को चिन्हों के जरिए लिख कर, चित्र बनाकर दूसरों तक प्रेषित करना लिपि है।
इसका विकास भी सामाजिक विकास के साथ जुड़ा हुआ है। आदि मानव काल में इसके पुरातन रूप चित्र लिपियों में मिलते हैं। भारत में सबसे पुरातन लिपि रूप हड़प्पा और महोनजोदाड़ो से प्राप्त मुहरों पर खुदी हुई चित्र लिपि के रूप में मिलते हैं। आधुनिक या कहें सभ्यता के युग में मानव द्वारा उच्चारित ध्वनियों के लिए अलग-अलग संकेत चिह्न विकसित हुए। इनकी प्राथमिक जरूरत शायद धार्मिक अनुष्ठानों में बनाए जाने वाले प्रतीकों को उकेरने के लिए और इसके बाद धार्मिक आज्ञाओं, गण आज्ञाओं और फिर राज आज्ञाओं को स्थायी रूप से लोगों को संदेश देने के लिए, शिलालेखों, व्यापारिक, गण और राज घरानों की मुहरों के लिए हुआ। कभी-कभी तो लगता है कि लिपि शोषक वर्ग के लिए शोषण के हथियार के रूप में विकसित हुई है न कि आम जन मानस की भाषा-बोली के लिए। आम जन मानस अपनी संस्कृति, परंपरा, रीति-रिवाजों को मुहावरों, लोकोक्तियों, लोक गीतों, लोक नाट्यों, त्योहारों के जरिए जीवित रखे हुए था, लेकिन शोषक वर्गों ने उनका संरक्षण करने की बजाए अपने राज के लिए आवश्यक दिशा-निर्देश, धार्मिक उपदेश, संहिताएं लिपिबद्ध करके लोगों के लिए नियम बनाए और उनको प्रचारित, प्रसारित किया। वेद, पुराण, मनुस्मृति जैसे धार्मिक ग्रंथ तो पूरी तरह से शोषक वर्ग ही पढ़ और लिख सकते थे, आम जन मानस को वह लिपि और भाषा तक सीखने की आज्ञा नहीं थी, सीखना तो दूर सुनने तक की आज्ञा समाज के एक बड़े तबके को नहीं थी।
बरहाल लिपि के बिना भी भाषाएं रही हैं और अभी भी हैं और वह उतनी ही सक्षम हैं जितनी की कोई लिपि वाली भाषाएं। भाषाओं में समय के साथ शब्दों, उचारणों में परिवर्तन आता है, वह दूसरी भाषाओं से शब्द ग्रहण करती है, चाहे वह लिपि वाली भाषाएं हों या बिना लिपि वाली दोनों की यही प्रवृति है। यह कहना गलत होगा कि लिपियों के बिना भाषा विकसित नहीं हो सकती, हां लिपि अगर हो तो यह और अच्छा है।
पहाड़ी या हिमाचली भाषाएं व लिपि का सवाल?
वर्तमान युग में भावना, इच्छा, जरूरत को अभिव्यक्त करने के लिए, इतिहास, साहित्य, विज्ञान के ज्ञान के लिए भाषा व्यवस्था में बोलने के अलावा बहुत सारे अंग जुड़ चुके हैं जिसमें लिपि, प्रिंटिंग प्रैस, आडियो-वीडियो तकनीक, चित्रकारी, इमोजी आदि। लेकिन पारंपरिक रूप से अभी भी लिपि का महत्व अधिक समझा जाता है।
किसी भी भाषा का मूल रूप बोलना यानी उच्चारण है। जैसे घर, इसको अलग-अलग बोली-भाषाओं वाले लोग अलग-अलग ढ़ंग से बोलते हैं जैसे वरयाम सिंह जी कहते हैं सराज वाले इसको घ़ोर कहते हैं, मंडियाल इसको घर यानी एक ही शब्द का के उच्चारण में फर्क है। इस तरह से बहुत सारे शब्दों के साथ होता है कि अलग-अलग भाषाएं वालों के उच्चारण में फर्क होता है। तमाम शब्दों के विश्लेषण के बाद अपनी-अपनी भाषा की मौलिक ध्वनियों को चिह्नित करना पड़ता है और उसके लिए चिन्ह बनाने पड़ते हैं जिसको हम लिपि कहते हैं। लिपि के अंदर स्वर, व्यंजन होते हैं और यह अलग-अलग भाषाओं के मौलिक उच्चारणों पर आधारित होते हैं। अगर हम हिंदी की तुलना अन्य भाषाओं से करें तो पता चलता है कि जैसे हिंदी में ए, ऐ, ओ, औ हैं लेकिन तेलुगु भाषा की लिपि में कुछ विशेष ध्वनियां अलग हैं जैसे ए व ऐ के बीच एक और ध्वनि होती है और ओ व औ के बीच भी एक ध्वनि होती है। मराठी के व्यंजनों में विशेष रूप से ल के साथ ळ ध्वनि होती है। हिंदी भाषियों में संस्कृत की तुलना में अपने लिए ढ़, ण जैसी ध्वनियां जोड़नी पड़ी। वहीं पंजाबी भाषा में हिंदी की तुलना में आधी ही ध्वनियां हैं। अधिकतर उच्चारण आधा होता है जैसे हिंदी में भगत सिंह को भगत सिंह ही बोला जाता है लेकिन पंजाबी में भगत सिंह लिखने के बावजूद पग़त् सिंह बोला जाता है। पंजाबी व अंग्रेजी की वर्णमाला बहुत छोटी है जिस कारण बहुत सारी ध्वनियों को शुद्ध रूप में लिखने में असमर्थ है।
इसलिए हिमाचल की भाषा-बोलियों के उच्चारणों में भिन्नताएं हैं, इनके लिए कोई भी लिपि बनाई जाए उसको अपनी भाषा के हिसाब से ढालना होगा, उसमें कुछ फेरबदल ऐसे करने होंगे जो हमारी मूल ध्वनियों, उच्चारणों को सही तरीके से अभिव्यक्त कर सकें। लिपि कोई भी अपनाई जा सकती है। लेकिन कोशिश यह होनी चाहिए जो लिपि सही तरीके से हमारे उच्चारण को अभिव्यक्त करें। जल्दी सीखी जा सके और जिसके हम ज्यादा अभ्यस्त हों। हमारा इशारा नागरी लिपि की तरफ है। क्योंकि इसके हम अभ्यस्त हैं, लेकिन इसके स्वर और व्यंजनों को हमारी भाषाओं के अनुरूप बनाया जाए। जैसे मराठी नागरी में लिखी जाती है कई और भाषाएं जो इस लिपि को अपना रही हैं। हम रोमन को इसलिए नहीं सुझा रहे क्योंकि रोमन के अंदर मात्र 26 ध्वनियां हैं जो हमारी भाषाओं की ध्वनियों के लिए उचित नहीं हैं। बहुत सारे विद्वानों का विचार टांकरी को पहाड़ी भाषाओं की लिपियां बनाने का है। लेकिन टांकरी की समस्या भी वही कि इसमें तमाम ध्वनियों के लिए संकेच चिन्ह नहीं है। अगर इसको विकसित किया जाए तो स्थानीय भाषाओं के लिए सही ही होगा। लेकिन व्यावहारिक रूप से नागरी लिपि को पहाड़ी भाषाओं के अनुरूप ढाला जा सकता है।
इसके अलावा भाषा व्यवस्था का एक और अन्य व नया माध्यम यानी आडियो-वीडियो सबसे सशक्त माध्यम के रूप में सामने आया है। यह एकमात्र ऐसा माध्यम है जिसके जरिए किसी भी भाषा की ध्वनियों, उच्चारण, शारीरिक भाव-भंगिमाओं को एक साथ अभिव्यक्त किया जा सकता है। जबकि लिपि के अंदर यह संभव नहीं हो रहा था। बिना लिपि की भाषा-बोलियों के लिए यह एक शानदार आविष्कार है। इसका इस्तेमाल जितना हम अपनी भाषा-बोलियों में कर पाएंगे उतना ही हम अपनी बोलियों-भाषाओं का विकास कर पाएंगे। इस माध्यम ने परंपरावादी लिपि के झंडबरदारों की नींद छीन ली है जो बोलियों के खात्मे का इंतजार कर रहे थे। बहुत सारे आम लोग, छात्र, कलाकार, कमेडियन इस का इस्तेमाल कर रहे हैं जबकि पहले केवल साहित्यकार ही भाषाओं के बचाने का दंभ भरते रहते थे और रोना रोते रहते थे कि अब तो हमें राष्ट्रीय भाषा में ही लिखना होगा। अब कहानियां, कविताएं, गीत, नाटक, फिल्म भाषाओं को जिंदा रखने का बढ़िया माध्यम बनती जा रही है। इनका इस्तेमाल किया जाना चाहिए।
भाषा-बोलियों पर राजनीतिक हमले
अर्थव्यवस्था में एकाधिकार पूंजीवाद की प्रवृत्ति जिस तरह से छोटे-छोटे उद्योग धंधों, दस्तकारों, छोटे व्यापारियों, दुकानदारों को तबाह कर के पूंजी का केंद्रीकरण चंद हाथों में कर देती है उसी तरह से राजनीतिक क्षेत्र में साम्राज्यवादी तानाशाही, फासीवाद छोटी-छोटी राष्ट्रीयताओं, धर्मों, रीति-रिवाजों, पंरपराओं, पूजा-पद्धतियों, संस्कृतियों, पहनावे, रहन-सहन यानी हर चीज को खत्म कर एक विशेष धर्म, संस्कृति, भाषा, राजनीति को थोपता है। वह बहुसंख्या, श्रेष्ठता, शुद्धता के नाम पर बाकियों को खत्म कर देता है। वह विकास के सपने दिखाता है। और वास्तव में बहुत सारी शानदार, प्यारी चिजों का विनाश कर डालता है। यही वह भाषा-बोलियों के साथ करता है। एक विशेष भाषा की श्रेष्ठता स्थापित कर दूसरी बोली बोलने वालों के अंदर हीन भावना पैदा करता है। उन बोली-भाषाओं के लिए आर्थिक-राजनीतिक अवसर खत्म करता है। उनके अंदर लिखना-पढ़ना, बोलना, गाना-बजाना हतोत्साहित करता है।
भाषाई तानाशाही के खिलाफ बोली-भाखाओं के प्रतिरोध की परंपरा बेहद पूरानी है। कबीर जब संस्कृत को कुएं का पानी कहते हैं कि वह एक जगह सड़ रहा है तो वह बोलियों के प्रतिरोध की अभिव्यक्ति है। संस्कृत कर्मकांड, धार्मिक शास्त्रों, पुराणों, भेदभाव पूर्ण संहिताओं की भाषा के रूप में जब शासक वर्ग की सेवा करने लगी, जब इसके पढ़ने-लिखने पर पाबंदी लगी तो महावीर जैन, महात्मा बुद्ध आदि ने जन भाषा प्राकृत और पाली को अपनाया और ब्राह्मणवादी पाखंड का पर्दाफाश किया। आम जन की भाषा में जटिल गुप्त रहस्य पूर्ण श्लोकों की जगह साधारण, सहज समझ आने योग्य जातक कथाओं ने ले ली। फिर जोगियों, सिद्धों और नाथों ने अपभ्रंश के रूप में इस परंपरा को कायम रखा। इसके बाद भक्ति काल के संतों और सूफी फकीरों ने आम जन मानस की भाखा को जिंदा रखा। विभिन्न अपभ्रंशों से मिलकर हिंदवी का विकास हुआ, हिंदुस्तानी अस्तित्व में आई। उर्दू जैसी मिठी जूबान लोगों को मिली।
भारतीय भाषाओं पर सबसे बड़ा हमला अंग्रेजी साम्राज्यवाद के समय हुआ। अंग्रेजों को अपने राज व्यवस्था चलाने के लिए कर्मचारियों, अधिकारियों की जरूरत थी। नई-नई मशीनों को चलाने के लिए कुशल मजदूरों की जरूरत थी। इसके चलते उन्होंने आधुनिक शिक्षा की नींव रखी और अंग्रेजी पढ़ानी शुरू की। शुरूआत में इस से भारतीय सामंती परिवारों, राजाओं, पुरोहितों, साहूकारों के लड़कों को विदेशों में पढ़ने के अवसर मिले, फिर उनके लिए देश में आधुनिक स्कूल, कॉलेज खोले गये। इन्होंने सबसे पहले अपनी-अपनी मातृभाषाओं का तिरस्कार करना शुरू किया और कहा कि अंग्रेजी के बिना देश का विकास नहीं होगा। अंग्रेजों ने अपनी अदालतों, दफ्तारों में अंग्रेजी को बढ़ावा देकर, अंग्रेजी सीखना देश की जनता की मजबूरी बना दी। और आज हाल यह है कि देश का कोई राज्य ऐसा नहीं है जो इसके प्रभुत्व को स्वीकार नहीं करता हो।
1947 के बाद भारतीय शासक वर्गों ने अंग्रेजी को कोई चुनौती नहीं दी। उन्होंने देश की स्थानीय भाषाओं, बोलियों का विकास करने की बजाए अंग्रेजी में अपना काम काज जारी रखा। इसके साथ-साथ उन्होंने हिंदी को देश के तमाम गैर हिंदी भाषा-भाषियों पर थोपने की कोशिश की। इसके खिलाफ देश भर में अलग-अलग राज्यों में भाषा के आधार पर राज्य बनने के मांग तेज हुई और पंजाब, आंध्र प्रदेश, ओड़िशा, गुजरात, महाराष्ट्र, तमीलनाडू, केरल जैसे राज्य अस्तित्व में आए।
लेकिन पहाड़ी राज्यों की राजनीतिक ताकतों ने केंद्र सरकार के आगे घुटने टेक दिये। उन्होंने हिंदी को ही अपनी भाषा मान लिया। उतराखंड को यूपी के साथ जोड़ दिया, हिमाचल पहले से पंजाब के साथ जुड़ा हुआ था। तो यहां की भाषा-बोलियों के लिए किसी ने आवाज नहीं उठाई न ही पश्चिम पहाड़ी भाषा परिवार के आधार पर कोई राज्य बनाने का आंदोलन ही हुआ। जबकि गढ़वाल से लेकर जम्मू तक पश्चिम पहाड़ी भाषा का क्षेत्र है। राज्य सरकारों के हिंदी को बढ़ावा देने वाले प्रयासों के चलते आज पश्चिमी पहाड़ी भाषाएं उस अधिकार को प्राप्त नहीं कर सकी जिसकी वह हकदार थी। पहाड़ी भाषा के नाम पर जो कुछ पंजाब हरियाणा गठन के समय हुआ वह भाषाई चिंता के कारण नहीं बल्कि राजनीतिक सत्ता प्राप्ति, राजनीतिक फायदे के लिए अधिक हुआ था। अन्यथा असल तो अंग्रेजों के समय ही, जब गढ़वाल प्रजामंडल से शिमला प्रजामंडल आंदोलन अलग हुआ, राजनीतिक लोलुपता तभी पनप चुकी थी। पहाड़ी इलाकों के अंदर बने भाषा-कला-संस्कृति विभाग मात्र हिंदी भाषा प्रचार विभाग बन कर रह गये हैं। वह स्थानीय भाषाओं की बजाए हिंदी के लिए दिन रात एक किए हुए हैं। स्थानीय लोक गीतों, नाटकों, गाथाओं का संरक्षण, उन पर शोध आदि सब हिंदी या अंग्रेजी में किया जाता है। शोध और संरक्षण में भी राजनीतिक पक्षपात साफ तौर झलकता है। इसके चलते शोध की मौलिकता भी प्रभावित हो रही है। और गीत, लोक नाट्यों और गाथाओं के बिगड़े स्वरूप सामने आ रहे हैं।
आम जन की भाषा को शासक वर्गों से संरक्षण और विकास की उम्मीद और वह भी ऐसे दौर में बिल्कुल भी नहीं की जा सकती। यह कार्य जनता को खुद अपने हाथ में लेना होगा। स्थानीय बोलियों में लिखने, पढ़ने, आडियो-वीडियो माध्यमों का प्रयोग करने के अभियान चलाने होंगे। हिंदी भाषी पाठकों, साहित्य अकादमियों, सरकारी संस्थानों, इनामों को नजर में रख कर लिखने वालों को अपनी स्थानीय बोली के पाठकों, श्रोताओं को ध्यान में रख कर अपनी भाषा-बोली में रचनाएं रचनी होंगी। लेखकों को यह ध्यान रखा चाहिए कि अपनी बोली के पाठक लाखों की संख्या में हैं और उनकी किताबें 300 से 500 के बीच ही बिकती हैं, वह हिंदी की बजाए इतनी किताबें अपनी बोली में भी बेच सकता है, हां नुकसान ये है कि उनको इसके लिए शायद अकादमियों के आवार्ड न मिलें। लेकिन अपनी मां बोली के आशीर्वाद से बढ़कर कोई आवार्ड नहीं हो सकता।
कुछ और बातें
1. हर लेखक पहले अपनी मां बोली में सोचता है, अपनी मां बोली में सपने लेता है, कल्पना करता है, लेकिन जब वह लिखने बैठता है तो किसी दूसरी प्रतिष्ठित भाषा का सहारा क्यों लेता है। वह अपनी बोली वालों को अपने पाठक क्यों नहीं मानता।
2. जितने भी फेसबुक, यूट्यूब, वाट्सएप या अन्य किसी भी सोशल मीडिया माध्यम में सक्रिय है कम से कम उन्हें हफ्ते में एक बार अपनी मां बोली के अंदर कुछ न कुछ लिखना, पढ़ना, सुनाना चाहिए। कम से कम एक वीडियो तो जरूर अपनी मां बोली में तैयार कर डालनी चाहिए।
3. अपने-अपने घर, गांव, क्षेत्र की सबसे बुजुर्ग महिलाओं, पुरुषों के पास जाकर उनसे बात करो, उनसे बात कर पुराने शब्दों को नोट करो और अपनी बातचीत का हिस्सा बनाओं।
4. स्कूलों, कालेजों व अन्य शिक्षण संस्थानों में किये जाने वाले नाट्य उत्सवों में हमें अपनी-अपनी बोली-भाखा में प्रस्तुतियां देनी चाहिए। अच्छे नाटकों का अपनी-अपनी भाषा में अनुवाद करना चाहिए।
5. अपने-अपने इलाके की बोली-भाखा में मौजूद दादा-दादी की कहानियों, भारथाओं, गानों, नाटियों को लिपिबद्ध करना चाहिए। उन पर आडियो-वीडियो प्रस्तुतियां दी जानी चाहिएं। उनको लिख कर उनकी पुस्तकें प्रकाशित करनी चाहिए। विश्व साहित्य की क्लासिकल रचनाओं को अपनी-अपनी भाषा में अनुवाद कर प्रकाशित करना चाहिए।
6. पहाड़ी भाषाओं के विकास, प्रचार-प्रसार और संरक्षण के लिए, विभिन्न सामाजिक संस्थाओं, संगठनों और बुद्धिजिवियों को मिलाकर स्वतंत्र संस्थान का गठन किया जाए। अपने इलाके के सार्वजनिक व्यक्तियों, नेताओं, एमएलए, एमपी आदि से आग्रह करना चाहिए वह अपनी स्थानीय बोलियों का प्रयोग सार्वजिक मंचों से करें।
7. सराजी कहता है कांगड़ी नहीं सीख सकता, चंबियाल कहता है सिरमौरी नहीं सीख सकता। सुकेती कहता है चुरही नहीं सीख सकता। लाहौल-किन्नौर वाले कहते हैं हंगरंग वालों की समझ नहीं आती, इसलिए नहीं सीख सकते। लेकिन ये सारे हिंदी सीखने के लिए जोर लगा देते हैं, अंग्रेजी सीखने के लिए तो हजारों रुपये भी खर्च करने के लिए तैयार हैं। लेकिन अपनी पड़ोसी भाषाओं से मुंह फेर लेते हैं। क्यों, क्योंकि हिंदी-अंग्रेजी पैसा कमाने की चीज है, हिंदी अंग्रेजी ‘प्रतिष्ठित’ ‘इज्जतदार’, स्टेटस सिंबल की बात है। शहर में अपनी भाषा बोलने वाले को गंवार और अनपढ़ कहा जाता है। क्यों इस पर हमें शर्म नहीं आती। क्यों हम अपनी मां बोली का तिरस्कार करते हैं।
8. क्या किसी को इसलिए अपनी भाषा बोलना बंद कर देना चाहिए कि वह सामने वाले किसी दूसरी भाषा के बंदे को समझ नहीं आ रही। अगर हमारी बोली उसको समझ नहीं आ रही तो उसको शर्म आनी चाहिए, हमें नहीं। पता नहीं क्यों जो भी चंडीगढ़ जाता वह अपनी भूल जाता है और दूसरी बोलने लगता है और गजब यह कि अपने घर आकर भी वह बाहर सीख कर आयी बोली ही बोलता है। किसी की भाषा सीखना, दूसरी भाषा सीखना, एक से अधिक भाषा सीखना बहुत अच्छी खूबी है, इंसान यह कर सकता है और उसको करना चाहिए। लेकिन इसका मतलब यह नहीं वह अपनी भाषा को छोड़ कर, अपनी भाषा को खत्म कर, या अपनी भाषा को हीन मान कर दूसरों की सीखना शुरू करे।
गगनदीप जी का शोध तथ्य पर आधारित है तथा भाषा व बोलियों का सही विज्ञानिक विश्लेषण करता है। स्थानीय बोलियों का सरक्षण अति आवश्यक हैं । मनुष्य की मातृभाषा उसकी स्थानीय बोली ही होती है जो सबसे पहले नवजात के कानों में उसकी माँ द्वारा डाली जाती है। सम्प्रेषण की भाषा के लिए हम अन्य भाषाओं और बोलियों को भी सीख सकते है परंतु अपने आस पास की बोलियों और भाषाओं उनके शब्दों को लुप्त न होने देना हमारा कर्तव्य है। अभी हम देखते हैं की बहुत से पहाड़ी शब्दों का लुप्तिकरण हो गया है जिनको लोग अब प्रयोग में नहीं लाये जैसे नुहारी, कलारी और बैली यह शब्द खाना खाने के समय को बताते हैं और भी बहुत हैं बाकी फिर कभी। गगन दीप जी को शुभकामनाएं।