मनुष्यत्व की कवायद करती सपना भट्ट की कविताएँ – योगेश

योगेश
सारी नदियाँ अगर हैं मीठी 
तो समंदर कहाँ से लाता है अपना नमक?

-पाब्लो नेरुदा

सपना भट्ट की कविता पहाड़ के भाषागत स्पंदन से लबरेज है। “भाषा में नहीं” काव्य संग्रह की कविताओं को पढ़ते हुए भाषाई समतलपन के समानांतर ‘ठेठ गंवई दूधबोली’ की पहाड़ जैसी ही एक वैकल्पिक उपस्थिति महसूस होती है। सपना भट्ट की कविता में तत्परता का ऐसा अभाव है कि वह शिल्प को सुगठित करता चलता है। शब्दों के चयन और प्रयोग में गज़ब की प्रवीणता है। ओक्तोवियो पाज़ ने लिखा है – “कोई भी तब तक कवि नहीं है जब तक उसे अपने भीतर भाषा को नष्ट करने और एक दूसरी भाषा को सिरजने के आकर्षण ने लुभाया नहीं है, जब तक उसने अर्थ शून्यता के आकर्षण को और अभिव्य्यक्त न किए जा सकने वाले अर्थ के भयावह अनुभव को जिया नहीं है।” जिस भाषाई तमीज के साथ सपना भट्ट अपने प्रबल भावावेग को कविता में तब्दील करती है वह इस सदी की कविता के मुहावरे में नवाचार संचरित करता है; कविता के पाठक के साथ साथ कविता घटित होने की प्रक्रिया को भी जिजीविषा से भर देता है। वह अपने लिए एक शिल्प तैयार करती हैं। मुक्तिबोध ने शमशेर की कविता के बारे में बात करते हुए कहा था कि “अपने स्वयं के शिल्प का विकास केवल वही कवि कर सकता है जिसके पास अपने निज का कोई ऐसा मौलिक विशेष हो; जो यह चाहता हो कि उसकी अभिव्यक्ति उसी के मनस्तत्वों के आकार की, उन्ही मनस्तत्वों के रंग की, उन्ही के स्पर्श और गंध की हो।” सपना भट्ट की कविता में कुछ ऐसा मौलिक है जिससे उनकी कविता का शिल्प वर्तमान कविता में कुछ अलग दिखाई देता है। अभिव्यक्ति के लिहाज से कठिनतम समय में भी गाढ़ी और गहरी अनुभूतियों से पुष्ट सपना भट्ट की कविता प्रदीर्घ वितान की कविता है जोकि शोर भरे एकालाप का तिलिस्म तोड़कर पाठक को संवादीय आग्रह के साथ एप्रोच करती है।

काव्य संग्रह की शुरुआत स्त्रीत्व के पक्ष में होती है। जिस मनुष्यत्व की संज्ञा से स्त्री को बेदखल किया गया है कवयित्री का अंतर्बोध जानता है कि वह प्रेम में ही प्राप्य है। स्त्रीत्व के पक्ष में उतरते हुए कविताएँ मनुष्यत्व के दायरे का बराबर ख्याल रखती हैं। यह प्रेम महज काव्य-वस्तु में ही नहीं बल्कि भट्ट की कविताओं के शिल्प में भी दृष्टिगोचर होता है। मनुष्यत्व के पक्ष में उतरकर भट्ट अपनी कविता को, स्त्रीवादी कविता को अधिक व्यापकता की तरफ ले जाती हैं।

रमणिका गुप्ता ने एक बार कहा था कि हर विमर्श का एक दायरा होता है। सपना भट्ट कविता पर ‘वादी किस्म’ के हमले होने के भावी खतरों से बाकायदा वाकिफ हैं।  नैतिक मूल्यों पर बात करते हुए, वैश्विक मंचों पर कविता की समझ और विचार पर व्याख्यान देते हुए लोगों की बातों पर भी भट्ट की कविता के कान लगातार सटे हुए हैं। इसके प्रति वे काव्यगत सजगता से भरी हुई कहती हैं-

इधर मेरी कविताओं की कृतघ्नता
उनकी साहित्यिक आलोचना में न समाती थी
वे कविताएँ जहाँ प्यार का दुःख
निजी क्षतियों की तरह छाती में पिराता हुआ
ठेठ गंवई दुधबोली में लरजता था (समकालीनता)

सपना भट्ट की कविताएँ लीक की कविताएँ नहीं है। उनका दुःख सबके दुःख जैसा होकर भी विशिष्ट है। उसकी विशिष्टता इस बात में है कि उसकी निजी क्षति कुंठा का कारण नहीं बनती बल्कि स्त्री की छाती में भरे हुए दूध की तरह सहजता से ठेठ भाषा का सहारा लेती हैं और कविता की निर्मिति करती हैं। कविता के रूप में वह अपनी निजी क्षतियों की उपादेयता को प्राप्त करती हैं।

स्त्री की माहवारी के पाँच दिनों को उदारता-उपयोगिता और इंकलाब की दृष्टि से देखना हो या माँ के चले जाने के गहरे भाव बोध से उपजा सूनापन हो, रुदन की भाषा हो या अपने कमरे में चुम्बन की आजादी का एहसास, उनकी कविता की भाषा में चिपका प्रेम कभी नहीं चूकता। पाँच दिन की माहवारी में बहते रक्त के प्रति घृणा के पूर्वग्रह को सख्ताई से तोड़ती हुई वे कहती हैं –

यह घृणा नहीं अनुराग का रंग है
मेरी धमनियों में इसी रंग की उठान ने
पहले प्रेम की मृसण गाढ़ी स्मृतियाँ बोयी (इंकलाब का रंग)

प्रेमचंद याद आते हैं, कहते थे कि ‘जब पुरुष में नारी के गुण आ जाते हैं तो वह महात्मा बन जाता है’, सपना भट्ट की कविता में गहनता से गुम्फित ‘मृसण गाढ़ी स्मृतियों’ से सृजित हुई संवेदना ही वो गुण है जो यदि पुरुषों में आ जाए तो शायद वह महात्मा बन सकता है।

निजी क्षतियों से भाषा गढ़ने वाली सपना भट्ट की कविता स्त्री के कठिनतम क्षणों में भी सकारात्मकता का संधान करती हैं। कवयित्री माहवारी के दिनों को पहले प्रेम या संसर्ग से जोड़कर समानता की गुंजाइश खोजती है। वह प्रेम और इंकलाब में बुनियादी समन्वय की तरफ ध्यान दिलाते हुए स्त्री की कमजोरी के मिथ पर तगड़ा प्रहार करती है। वह जानती है कि इंकलाब प्रथमतः तो सहज होने से ही शुरू होता है। इसका प्रमाण देते हुए वह एक अन्य कविता में भोगी हुई वर्जनाओं को याद करते हुए एक अन्य कम उम्र स्त्री को इस कीमती समय का महत्व सहजता से समझाते हुए कहती  है-

उससे कहती हूँ
‘इस कीमती समय में
तुम्हें रोना नहीं चाहिए मेरी बच्ची’
अपने झोले से मक्सिम गोर्की की किताब
उसे सौंप, मैं आशवस्त होकर मुस्कुरा देती हूँ
लगता है जैसे
उसके वर्जित पाँच दिनों का शोक
उत्सव में बदलकर लौट रही हूँ (पाँच दिनों का शोक)

शोक को उत्सव में बदलना सहज नहीं होता, उसके लिए एक सटीक दिशा का भान अनिवार्य कसौटी है। गोर्की का साहित्य अपने आप में एक प्रतीक है। मक्सिम गोर्की को पढ़ने वाले समझ सकते हैं कि उनकी किताब देना कवयित्री की लेखकीय दायित्व के प्रति संजीदगी का द्योतक तो है ही साथ ही साथ पाठक से एक कवि के उस आग्रह का सूचक भी है कि वह कविता के बहुत करीब तक पहुंचकर, शब्दों के बीच के अर्थ को भी खोजे।

शोक जीवन में पाँच दिनों के लिए ही नहीं आता कभी कभी वह लम्बी योजना के साथ प्रवेश करता है। लोर्का ने लिखा है- “मृत्यु! वह हर चीज में बस जाती है। स्थितिप्रज्ञता, मौन और निर्भरता उसके पूर्वाभ्यास हैं। मृत्यु चारों तरफ है। वह एक महान विजेता है।” माँ की कमी कवयित्री को पूरी नहीं होती किन्तु वह इसे महज अभाव में ही नहीं चीन्हती। रिक्तता को क्या कभी सूने पन से भरा जा सकता है भला? जाहिर है कि कवयित्री का अंतर्मन इससे वाकिफ है। वह सार्थकता में इसका ही इसका उपाय पाती है। सपना भट्ट की कविता मातृत्व को एहतियातन स्त्री की नैसर्गिक शक्ति के रूप में उद्घाटित करती है। वह इसको किसी कमजोरी के रूप में नहीं देखती और ना ही विक्टिम होने का कोई तुच्छ नैरेटिव तैयार करती हैं। अपने ममत्व के सहारे उस रिक्तता को भरने की कोशिश करते हुए सकारात्मकता से ओत प्रोत एक इच्छा जाहिर करती है-

तुम दो बरस बाद जाती
तो देख पाती
कितनी सुंदर कविताएँ लिखने लगी मेरी बेटी तुम पर (माँ)

स्त्रीत्व के साथ रुदन जैसे समय की शुरुआत से जुड़ा हुआ है, स्त्रियों के रुदन से किसी को हैरानी नहीं होती! यद्यपि भट्ट के यहाँ ‘रुदन की भाषा’ में दुःख के शाश्वत होने का संजीदा एहसास बैठा हुआ है तथापि कवयित्री इसको भी एक मजबूत पक्ष की तरह ही बरतती है। एक तरफ वह पाँच दिनों के शोक में स्त्री को रोने से किनारा करने को कहती हैं वहीं सपना भट्ट का कवि मन यह भी जानता है कि गहन अशांत और संतप्त स्मृतियों के क्षणों में रुदन की भाषा ही साथ देती है। प्यार से अलगाव के समय भी यही भाषा ही काम आएगी-

ओ प्यार !
जब संसार की सब भाषाएँ
हो जाएंगी मेरे लिए अबूझ और अजानी
मैं इसी अंतिम भाषा में कहा करुँगी फिर फिर
कि तुमसे प्यार करती हूँ... (रुदन की भाषा)

रो लेना सपना भट्ट की कविताओं में इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि रो लेने से व्यक्ति मनुष्य होने के अधिक नजदीक होता है। व्यापक अर्थों में ‘रुदन’ अपनी तुच्छता को स्वीकार करना, विनम्र होना है। मनुष्य दम्भी होने से बच जाता है। यह एक ऐसी कुदरती क्रिया है जिसने पुरुषों के भीतर स्त्रियों के प्रति सबसे अधिक द्वैत का भाव भरा है। पुरुष का बड़ा होने का दंभ उसके आँख के पानी को सुखा देता है- सोचता है रोने से पौरुष चला जाएगा। इस प्रक्रिया में उसे मनुष्यत्व के ह्रास की, संवेदनाओं के क्षय की कोई परवाह नहीं! रोना साहस का काम है। भट्ट इसके पक्ष में अकाट्य दलील प्रस्तुत करती हैं-

तुम जो मुझे कायर समझकर
अक्सर फेर लेते हो मुँह हिकारत से
समझ नहीं सकोगे कभी
कि मुझे कितना बंधना पड़ता है मन
यह बाँध खोलने के लिए (वही)

‘अपना कमरा’ सुनते ही वर्जिनिया वूल्फ का याद आना स्वाभाविक है किन्तु ध्यातव्य है कि नारी सम्बन्धी विमर्श अब वर्जिनिया वुल्फ के स्त्री साहित्य सम्बन्धी सवालों से आगे बढ़ चुका है। वर्तमान मुख्यधारा के साहित्य में महिलाओं का निरंतर प्रभावशाली हस्तक्षेप है। अपना कमरा एक सघन बिम्ब होते हुए एक सशक्त प्रतीक के रूप में स्थापित हो चूका है।

इधर एक कविता सपना भट्ट ने इसी शीर्षक से इस संग्रह में लिखी है-

यहाँ चूम सकती हूँ किसी को बेधड़क
अबाध लिख सकती हूँ कविता
कर सकती हूँ
प्यार
यहाँ कोई अजनबी दस्तक नहीं देता (अपना कमरा)

कविता पढ़कर इसका सहज एहसास होता है कि भारतीय समाज में एक रचनात्मक स्त्री अपने कमरे को किस तरह बरतती है। एक स्त्री की आजादी के लिए चार बंद दीवारें भी उतनी ही अपरिहार्य है जितनी दीवारें रहित कोई दुनिया। दिनोदिन बेपरवाही से अति सोशल होते समाज में कोई संवेदनशील व्यक्ति ही अपने कमरे में अदृश्य होना चाहेगा ताकि वह हर मौसम में आजादी के मीठे गीत गा सके, किसी को बेपरवाही से प्यार कर सके। खैर! अब स्त्री के पास अपना कमरा तो है लेकिन कुछ समस्याएं ज्यों की त्यों बनी हुई हैं। स्थूल रूप से सोशल होते समाज में परिवार के भीतर संवाद अवरुद्ध हुआ है। मशीन खाने के आसन तक पहुँच गई हैं। ऐसे दुरूह समय में सपना भट्ट पिता पुत्री के रिश्ते को चित्रित ही नहीं करती बल्कि एक बहुत बड़ा प्रश्न भी विकसित हो रही सोसाइटी को प्रेषित करती हैं-

मैंने पिता को ही दी
पहले प्रेम की सूचना
पहली बार हृदय टूटने पर
पिता की ही छाती से लगकर रोयी

               …

फिर यह हुआ कि
मैंने दुःख नहीं कहे पिता से ब्याह के बाद (मैंने दुःख नहीं कहे पिता से)

यह सवाल इस काव्य संग्रह में पूछे गए सबसे क्रूर तम सवालों में से एक है। आखिर इस बेढंगी समाज में ऐसा क्या है कि स्त्री अपने पिता से ब्याह के बाद अपने दुःख नहीं कह सकती ? निर्मला पुतुल की कविता है ‘उतनी दूर मत ब्याहना बाबा।’ यह कविता एक आदिवासी लड़की का अपने पिता से मर्मस्पर्शी संवाद है। उसमें भी बराबर वही दुःख है। पुतुल कहती हैं कि बाबा उतनी दूर मत ब्याहना जहाँ तुमसे मैं अपने दुःख ना कह सकूं। पुतुल मन के गहरे कोने में ब्याह पश्चात् पिता के साथ संवाद समाप्ति का भय पसरा हुआ है। इसी के समानांतर सपना भट्ट अपने पिता से शादी  के बाद के दुःख नहीं कह पाती। समाज के ढांचे में ही कुछ ऐसा है कि दो-दो घर होने के बावजूद स्त्री किसी को दुःख नहीं कह पाती। दरअसल इस सवाल को अगर घुमाकर देखें तो हमें एहसास होगा कि हमारा समाज संवेदनशील पुरुषों का निर्माण करने में भी बड़े स्तर पर विफल रहा है। संवेदनशील पुरुष इस समाज में शीघ्र ही ‘मिसफिट’ महसूस करने लगते हैं और लापता हो जाते हैं। ऐसे ही एक संवेदनशील साहित्यकार ‘स्वदेश दीपक’ के जीवन की त्रासदी को याद करते हुए सपना भट्ट लिखती हैं-

अवसाद मस्तक पर सूर्य सा जलता हो तो भी
इसी भंगुर और आवर्त संसार के
निःशब्द कोलाहल में सीखने होते हैं
भग्नाशा की प्रेतबाधा से मुक्ति के औघड़ मन्त्र (स्वदेश दीपक के लिए)

अपने से बड़े किसी साहित्यकार को याद करते हुए लिखी गई कविताओं में से यह सबसे मार्मिक कविता है। स्वदेश दीपक के लापता होने का दुःख साहित्य से जुड़े हर व्यक्ति को है लेकिन इतनी आत्मीयता से उस दुःख का सम्प्रेषण और कहीं लगभग अप्राप्य है। स्वदेश दीपक के बहाने सपना भट्ट शायद इस समाज के हर संवेदनशील व्यक्ति को अवसाद से लड़ने का गुर सिखा रही है-

शिल्प न भी बचे,
बची रहती है कलाएँ
बचा रहता है जीवन
असंख्य अपरिमित विघ्न-बाधाओं में भी (वही)

ऐसे समय में जब नई पीढ़ी नए मूल्यों के पक्ष में उतर रही है, जीवन के प्रति ऐसी सघन आस्था की वर्तमान समय को सबसे अधिक दरकार है। अपरिमित विघ्न बाधाओं में आस का बने रहना मनुष्य को जीवन से जोड़े रखता है। स्वदेश दीपक के बहाने मौके की सबसे प्रासंगिक कविताओं में से एक यह कविता है।

स्त्री के निहायत निजी क्षणों में किसी प्रिय का बिछोह, उसकी स्मृतियाँ उसकी देह की गंध और इन सब से उपजा दुःख भट्ट की कविताओं में बराबर पुनरावृति पाता है। यह दुःख आवृत नहीं है। क्षणिक होने के भी विपरीत है। चाहे वह माहवारी से उपजा हो, मृत्यु की अनुभूति से या स्मृति से भरे हुए तरल एकांत से; इस संताप में एक विशेष किस्म का ठहराव है जो रूप बदल-बदल कर उसकी कविताओं का आधार बनता है-

रजस्वला के दिनों में
पेट में उठती ऐंठ कि तरह दुःख आएगा
दुःख की कविताएँ जानेगा (दुःख कहाँ जाएगा)

रस छंद और अलंकारों की नाटकीयता से ऊबकर अचानक
कागज़ पर स्याही उलट देता है कवि
कविता शोकगीत के धवल वस्त्र पहन लेती है। (मृत्यु भी प्रबोधन है)

बस स्मृतियाँ ही अपना स्वरूप नहीं बदलेंगी
वे दुःख ही रहेंगी (दुःख का पानी)

जीवन के
झंझावतों से थकी
इस जूठी बसी देह को दुखों के कीट कुतर गए (तुम्हें अर्पण करती हूँ)

सपना भट्ट की कविताओं में दुःख शाश्वत है। एक निरंतर प्रतीक्षा है जिसके समानांतर यह गूंजता रहता है। यह दुःख कवयित्री का निजी होते हुए भी व्यापक है। संवेदनशील मनुष्य होने की त्रासदी से उपजा दुःख, गाढ़े निश्चल प्रेम की अनिश्चित प्रत्याशा से उपजा दुःख। अतएव यह दुःख सामान्य प्रतीत होते हुए भी विशिष्ट है। वह जानती है कि जैसे कुछ भी इस दुनिया में नित्य नहीं है वैसे ही यह दुःख भी एक दिन चला जाएगा लेकिन जाएगा जीवन के साथ ही। इससे निबाह करना ही इससे बचे रहने का एकमात्र उपाय है। इसलिए वह इसको उपजाऊ भूमि की तरह बरतती है जिससे वेदना नहीं बल्कि प्रगाढ़ भावों की कविता उपजती है। वह इससे उकताती नहीं है बल्कि लम्बे अंतराल में वह कवयित्री के साथी के रूप में परिणत हो गया है-

कोई करवट बदलूं
साथी दुःख मेरी ओर ही मुँह करके सोते हैं (उजाले का दाग)

प्रायः तो यह दुःख किसी प्रिय की स्मृति से ही सम्बद्ध है। यह स्मृति कभी कवयित्री के लिए कोई पुकार बन कर उभरती है तो कभी उसका मन इसे किसी दरवाजे में बंद करने का करता है। वह इस स्मृति में मधुरता के अलावा छिपी हुई उस हिंसा से वाकिफ है जो आत्मा पर बजर की तरह गिरती है-

यह जो स्मृतियों की
छाया से निर्वात है पुरातन
आत्मा के इसी प्राचीन शुन्यगार में
उसकी आवाज की उष्ण आवृत्तियाँ गूंजती थीं (कोई पुकारता है मेरा नाम)
उधर विस्मृति के देवता
मधुर स्मृतियों के सब चिह्न धो देते हैं (भूल जाती हूँ)
कौन नहीं जानता
कि सुख वाली स्मृतियों में भी
एक भोली भाली हिंसा छिपी होती है
जिसे याद कर जब तब जख्मी हो जाती है आत्मा (विरक्ति के काले सागर में)

 उस प्रिय की अमूर्त स्मृति से भट्ट अपनी कविताओं में कुछ बिम्ब निर्माण करती हैं। इनकी कविताओं में अमूर्त चीजों से बने बिम्ब स्पष्ट नहीं होते लेकिन इसके बरक्स ये बिम्ब कोरे एन्द्रिक भी नहीं हैं। गहरे भावबोध के साथ इन बिम्बों में संलग्न अकेलेपन की उदासी को सृजनात्मकता के पक्ष में बरतने की कवायद और हर विपत्ति में मनुष्य बने रहने की जद्दोजहद को महसूस किया जा सकता है –

यहीं राग, विराग और हठ थे
यहीं थे त्वरा और शैथिल्य भी
जब पावस ऋतु के
आदिम रंध्रों की झिसियों से अविराम भिजती थी धरा
कँपकँपाते गात की सिहरन यहीं रखी थी (यहीं रखे थे)

महज ऋतु और तापमान के अनुमान से काम नहीं चलेगा। मनुष्य के स्वभाव पर ऋतुओं के सूक्ष्म प्रभाव का एहसास भी होना चाहिए। जिसने अपने जीवन में केवल शीत से ही गात में सिहरन महसूस की है उनको ये बिम्ब संप्रेषित ना होंगे। इस कंपकपाते गात की सिहरन को महसूस करने के लिए पाठक से ‘आकंठ प्रेम से भरे हुए मन’ की अपेक्षा होगी। भट्ट की कविताओं के बिम्ब एकांत से उपजे सघन भावावेग को चित्रित करते हैं।

भले ही तनहाई को फनकार का मुकद्दर कहा जाए लेकिन रचनाशील व्यक्ति के लिए सबसे बड़ा श्राप है बात करने के लिए कोई ना होना। संवाद का अभाव रचनाशीलता पर पक्षाघात की तरह गिरता है। कवयित्री इससे वाकिफ भी है और इसका शिकार भी-

जहाँ डाकिये
साईकिल की घंटी बजाते हुए न गुज़रते हों
ऐसे अभागे स्थान पर रहकर क्या लाभ
आत्मा ‘प्रिय’ जैसे मृदुल
संबोधनों को तरसती हो जहाँ
ऐसी अप्रिय जगह हरगिज़ न रहना चाहिए (कोई चिट्ठी)

ग्लोबल होती दुनिया में नौकरी जीवन को बड़े स्तर पर प्रभावित करती है। बहुधा यह प्रेम में पड़े दो लोगों को दूर रखती है। वर्तमान समय में चिट्ठी की दरकार नहीं रह गई है लेकिन वर्चुअल संदेशों के विपरीत यह यह प्रिय की भौतिक उपस्थिति का सशक्त प्रतीक है। पहाड़ पर सब कुछ सुन्दर ही सुन्दर नहीं है। उसका एक पक्ष बीहड़ और दुरूह स्थान भी हैं जहाँ नौकरी करती हुई कवयित्री की आत्मा ‘प्रिय’ जैसे मृदुल संबोधन को तरसती है। ओह! यह पेट और आत्मा का अंतर्विरोध, संवेदनशील मनुष्य होने की सबसे बड़ी त्रासदी! लगभग सारा जीवन अंततः इसी जद्दोजहद में व्यतीत होता है और मध्यांतर में दूब की उपजता है दुःख।

सपना भट्ट की कविताएँ मनुष्यत्व की संज्ञा के लिए लड़ने का उद्घोष ही नहीं करती बल्कि इसके पक्ष में ठोस प्रमाण प्रस्तुत करती हैं। उनकी कविताओं में टंकार के साथ उपस्थित पहाड़ का जीवन, निरंतर गुंजायमान पहाड़ी शब्द, अदम्य प्रेम की स्मृतियाँ और उनसे उपजी उदासी/ दुःख, स्त्री के कठिनतम क्षणों को उपयोगी और सृजनात्मक समय में तब्दील करने की उनकी बलवती आशा, पहाड़ के प्रति उनकी चिंताएं आदि आदि सब मिलकर इस कठिन समय में उनके ‘मनुष्य’ होने की तस्दीक़ करती हैं।

योगेश शर्मा कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र के हिंदी विभाग में शोधार्थी हैं और पिछले पाँच वर्षों से देस हरियाणा पत्रिका टीम का हिस्सा हैं। नई सदी के पहले दो दशकों की हिंदी कविता को भाषा बोध और दर्शन के परिप्रेक्ष्य में समझने के लिए शोधरत हैं। संपर्क- kaushikyogesh09@gmail.com

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3 thoughts on “मनुष्यत्व की कवायद करती सपना भट्ट की कविताएँ – योगेश

  1. बहुत सुंदर समीक्षा की है योगेश । कविता को समझने के लिए जो दृष्टि चाहिए वो आप बेहतर ढंग से अर्जित कर रहे हैं ।

  2. लगता है कविताओं की बेतरतीब बावड़ी में उतरकर समीक्षा लिखी गई है। कविताओं की मार्मिकता समीक्षा में भी उतर आई है। कवयित्री की भाषा के साथ साथ समीक्षक की भाषा भी एक सृजनात्मक आवेग की तरह है।
    बधाई!!

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