मैं जब तुमसे बात नहीं कर रहा होता
तुम्हारी ही बात कर रहा होता हूँ
खुद से, खुद के साथ।
मैं खुद से तुम्हारी बात करते वक्त हिदायत लिखता हूं
एक सीमित दूरी की
कि नजदीक आने के लिए चीजों को दूर से देखना जरूरी है
जैसे आंखों से सीमित दूरी पर रख
पढ़ी जाती है कोई किताब
जैसे हर ख़ूबसूरती निहारी जाती है
दूर खड़े होकर,
बकौल जॉर्ज ऑरवेल, मैं लिखता हूँ कि
'इंसान को अच्छा होना चाहिए, पर बहुत अच्छा नहीं और हर वक्त नहीं।'
मंदिर के दो स्तम्भों को याद कर
मैं लिखता हूँ
कि इतनी दूरी जरूरी है हमारे बीच भी
जिस पर टिकी रह सके कोई इमारत,
करीब आना
और बहुत करीब आना एकदम
हो सकता है खतरनाक
किसी के लिए भी, कभी भी।
मुकम्मल उपन्यास के प्राक्कथन सी
जो उतरने लगी हो तुम मुझमें,
गीत से पूर्व जैसे कोई गवैया झनझनाता है
बेसबब वीणा के तार
ठीक ऐसे ही उतरना चाहिए कोई रिश्ता
प्रेम की तलहटों के भीतर
कि बचा रहे उसका स्पर्श,
कंसर्ट से पहले के बोल
नाटक से पूर्व का भाषण
या जैसे जाम से पूर्व कोई ससुर
टेबल पर देता है अपने दामाद को ऊबभरी नसीहतें
वैसी ही ऊब जरूरी है हमारे भीतर भी
ताकि पक सकें हम ऊबों में भी
संदली न हो सके रिश्तों की दीवाल
और बनाते रहें हम ख़ूबसूरत चित्र तमाम उम्र
प्रेम की खूबसूरत दीवार पर।
2. भीड़ शीर्षक से कविताएँ
भीड़ ने कहा मारो-मारो-मारो...
आदमी मार दिया गया,
आदमी चिल्लाता रहा बार-बार
मैं मुस्लिम नहीं हूँ- मैं मुस्लिम नहीं हूँ-
मुझे छोड़ दो... प्लीज। मुझे मत मारो-मत मारो मुझे
भीड़ को कहाँ सुनाई देते हैं ऐसे शब्द
भीड़ का अपना कोई धर्म थोड़े ही होता है
2
भीड़ बढ़ रही है सरेराह
रास्ते बिछ गए हैं खूनों से, लाशों से
खूनी गन्ध से भर गई है गलियाँ,
लाशों के गले में भगवा साफे हैं और कपड़ों पर खून के धब्बे
भीड़ बढ़ रही है मुसलसल
भीड़ ने भी पहन रखे हैं गले में भगवा साफे
3
मरने के बाद आदमी की लाश ने पूछा
आखिर क्या कसूर था मेरा? क्यों मारा मुझे?
घर में मेरी पत्नी है, माँ है, बच्चे हैं
वे सब अकेले हो गए हैं। क्या बिगाड़ा था उन्होंने तुम्हारा?
भीड़ बोली-
किसी को मारने के लिए
उसका कसूर देखना जरूरी थोड़े ही है!
4
भीड़ के पास नहीं होता
कोई तर्क, कोई मुद्दा या कोई समाधान
भीड़ का नहीं होता कोई धर्म
भीड़ की जात भी नहीं होती
भीड़-भीड़ होती है साहेब, भीड़ मारना जानती है सिर्फ
5
धर्म भीड़ नहीं होती और न ही भीड़ धर्म,
भीड़ को धर्म कहने से बचना चाहिए
ताकि किसी धर्म को आतंकवाद न कहा जा सके
धर्म काफी है जगत में
भीड़ सिर्फ कुछ
6
मज़हब पर हो रही सियासत से जन्मती है भीड़
भीड़ लील लेती है
कई-कई जिंदगियाँ एक साथ
भीड़ नहीं जानती अपना उद्गम स्थल
भीड़ को करना होता है अपना काम बिना पते
बिना पहचान के,
भक्षण के बाद हो जाना होता है गायब भीड़ को
मौतों के रुदन की चीत्कार ढूँढती रहती है
भीड़ के पैरों के निशान
3. दारू-दारू खेलते बच्चे
कुछ बच्चे खेल रहे हैं शराब पीने का खेल
खाली बोतल में पानी भरकर रखा जाता है
एक बच्चा दूर से आता है
रेट पूछता है
निकलता है जेब से कागज की पर्चियों के बनाये पैसे
और खरीद लेता है शराब।
बच्चा पीता है शराब और लाता है बीड़ियों के टुकड़े
चबूतरों-चौपालों के पास से
जहाँ गिरा देते हैं बूढ़े-बुजुर्ग
इन बच्चों के घरों में नहीं है टेलीविजन
कोई रेडियो या किसी वैज्ञानिक की तस्वीर
न ही लगती इनके आसपास कोई आंगनवाड़ी या स्कूल।
मुझे जिज्ञासा होती है
मैं पूछता हूँ एक बच्चे से
कि क्या काम करते हैं उसके पिता!
बच्चा जवाब देता है
कि वे रिक्शा चलाते हैं और शराब पीते हैं।
4. फादर्स-डे पर लड़कियों की चिट्ठियाँ
कुछ लड़कियाँ रो रही हैं
उन्होंने कभी नहीं चाहा वैसे पिताओं को, जैसे कि उन्हें मिले...
लड़कियों ने सुबककर आँसू पौंछे हैं
और चिट्ठियाँ लिखी हैं अपने पिताओं के नाम
वे लिखती हैं कि हे क्रूर पिताओं!
तुम नहीं जानते एक लड़की होना, उसका बढ़ना और फलना-फूलना
तुम्हारे नाम की बार-बार जलती चिता सुकून देती है
हे पिताओं! लौट चलो अपने देश
हमें नहीं मनाने तुम्हारे नाम के दिवस,
नहीं करनी तुम्हारी देखभाल, नहीं रखना तुम्हें स्मृतियों में,
हे गुलाम पिताओं तुम नहीं जानते आजादी के स्वर-व्यंजन
और खुली साँसों की वर्णमालायें,
तुम नहीं दे सकते
एक चिड़िया को उड़ने के लिए खुला आकाश
वो आकाश, जो सबका है,
सबके लिए है...
और सब चिड़ियाएँ उड़ना चाहती है उसमें
हे गंदे पिताओं! आने वाली कई नस्लें नहीं चाहेंगी
तुम्हारे जैसा पिता होना,
बेटियाँ नहीं चाहेंगी पिताओं जैसे पति,
वे गुड्डे-गुड़ियों के खेल खेलेंगी और नकार देंगी
किसी भी मिट्टी के पिता को तुम्हारे जैसा बनाने से,
या तुम्हारे जैसा पिता वे बार-बार बनाएँगी
और मिटा डालेंगी उसे,
लड़कियाँ जलायेंगी तुम्हारे नाम का दशहरा...
हे विक्षिप्त पिताओं!
तुम्हें नहीं होना चाहिए था हमारा पिता...
हम तमाम उम्र इस प्रायश्चित में रहेंगी
कि अपनी ही सत्ता के ढोल पीटने वाले
राक्षस पिताओं ने हमें कभी आगे नहीं बढ़ने दिया...
लड़कियाँ आँसू पोंछती है
अपने दिल को समझाती हुई लिखती हैं कि शायद
तुम्हारे जैसे क्रूर पिताओं की वजह
हमारे भीतर धधकती हुई ज्वालायें पन्नों पर उतर पाईं
और बता पाईं आगे की दुनिया को
अपनी दबी अभिव्यक्तियाँ
जो छीन रखी थीं तुमने...
5. अधिकतर लोग
वे जो बोल नहीं रहे
उनके बच्चों की स्कूल-वैन कभी लेट नहीं हुई अभी,
वे जो गूंगे हैं उन्होंने दुबकाये रखा हुआ है अब तलक
बहुओं को, बेटियों को भीतर---- घरों में
ये कहकर कि बाहर समाज ठीक नहीं
वे जिनके चेहरों से संवाद गायब है
अभी चढ़ा नहीं उनकी पीने की टंकियों में सीवर का पानी,
वे जो बगावती नहीं हुए
बचपन में ही बना दिया गया था उन्हें नामर्द,
वे जो राह-जाकर राह आने की बात कहते हैं उन्हें पता ही नहीं
रास्ते क्या हैं और उन्हें कैसे लांघा जाना है,
वे जिनके घरों में अभी हुए नहीं हमले
वे जिन्होंने बेघर होने का स्वाद अभी चखा नहीं
वे खुद के लिए ही करने में जुटे हैं प्रयोग
वे अभी जानते नहीं पूँजी का बारीक खेल
वे नहीं जानते कि कैसे कोई देश खत्म होता है
कैसे सड़क पर लाया जाता है
निहायत बेगुनाह लोगों को।
एस.एस.पंवार
कथा-समय, आजकल, कथेसर, दोआबा एवं दस्तक सहित विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कविताएं और लेख प्रकाशित। पहली कहानी 'अधुरी कहानी' नाम से साल 2013 में हरियाणा ग्रंथ अकादमी की पत्रिका 'कथा समय' में प्रकाशित व पहली कविता 2009 में हरियाणा साहित्य अकादमी की पत्रिका 'दस्तक' में प्रकाशित।
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मोबाईल- 9017738638
प्रतिरोध दर्ज करती मार्मिक कविताएं