अशोक बैरागी : अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि के विषय में कुछ बताइए?
डॉ. अशोक भाटिया : मेरी पारिवारिक पृष्ठभूमि 1947 के भारत-पाक विभाजन की त्रासदी से जुड़ी है। मेरे पिता जी पश्चिमी पाकिस्तान से लुटे-पिटे खाली हाथ भारत आए थे। शुरू में रोटी के लिए उन्होंने कई रोजगार बदले और कई जगहें बदली। फिर पिताजी ने एक दुकान करके अपने आप को स्थापित किया। हम पांच भाई बहन थे। हम सबको माता-पिता ने अच्छे ढंग से शिक्षित किया। हमने मेहनत और ईमानदारी खासतौर पर स्वाभिमान उन्हीं से सीखा। मेरी माँ हालाँकि चार पढ़ी थी पर उनमें दूरदृष्टि और यथार्थपरक सोच थी। पिताजी भी दस पढ़े पर उस माहौल में यहाँ नौकरी मिलना बड़ा मुश्किल था। अतः संघर्ष की शुरुआत हमने अपने बचपन से और घर से ही की थी। वही जीवन मूल्य आज तक हमें रोशनी देते हुए हमारे साथ चल रहे हैं।
अशोक बैरागी : आपकी निगाह में वर्तमान परिप्रेक्ष्य में साहित्य का उद्देश्य क्या होना चाहिए?
अशोक भाटिया : दरअसल, परिप्रेक्ष्य तो परिवेश को देखने का एक दृष्टिकोण होता है और साहित्य का लक्ष्य कमोबेश हमेशा एक ही रहता है। 1947 से पहले, आजादी प्राप्त करना था। जिस दौर में माखनलाल चतुर्वेदी ने ‘पुष्प की अभिलाषा’ लिखी, उसी से प्रेरित होकर हजारों युवा सरकारी नौकरी छोड़कर स्वाधीनता के आंदोलन में कूद पड़े थे। मैथिलीशरण गुप्त उपदेश और मनोरंजन की बात भी कहते हैं। ‘केवल मनोरंजन न कवि…। ‘ लेकिन अब कुछ चीजें बदल गई हैं। मनोरंजन तो दूरदर्शन के हिस्से आ गया। प्रगतिशील लेखक संघ के सम्मेलन (लखनऊ,1936) में प्रेमचंद ने साहित्य का उद्देश्य बताया कि बेहतर साहित्य वह है पाठक में जो गति और बेचैनी पैदा करें, सुलाए नहीं। यह गति और बेचैनी उनके राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य की सोच थी। उनका साहित्य सब वर्गों की संवेदना को जगाता है, उसे विस्तार देता है और व्यावहारिक समझ को बढ़ाता है।
वास्तव में जो साहित्य स्वतन्त्रता, समानता व न्याय जैसे मूल्यों को प्रतिष्ठित करने के लिए जद्दोजहद करता है, मैं समझता हूँ वह साहित्य श्रेष्ठ साहित्य है। और साहित्य का यही लक्ष्य होना चाहिए।
अशोक बैरागी : कहते हैं साहित्य जनता के लिए लिखा जा रहा है। इसमें गरीब किसान-मजदूर का दुख दर्द भी है। मैं पूछना चाहता हूँ कि एक किसान जो दिन-रात खेतों में काम करता है, मजदूर दिहाड़ी करता है और घरेलू औरत दिन-रात कामकाज में पिसती है। ऐसे में क्या हाशिए पर पड़े अंतिम व्यक्ति तक साहित्य पहुँच रहा है?
अशोक भाटिया : दरअसल आपका यह प्रश्न साहित्य की आदर्श स्थिति से जुड़ा है। साहित्य अंतिम व्यक्ति तक पहुँचना चाहिए पर ऐसा नहीं हो रहा। इसके लिए लेखकों की भी कुछ सीमाएँ हैं। वास्तव में आजकल साहित्य के केंद्र बड़े शहरों में सिमट गए हैं। पहले बनारस और इलाहाबाद थे। अब दिल्ली है। मुझे काशीनाथ की एक कहानी ‘अपना रास्ता लो बाबा’ याद आ रही है। एक बुजुर्ग गाँव से शहर में डॉक्टर के पास आता है। जो उसी गाँव का है। लेकिन डॉक्टर और उसके बच्चे उसे टाल देते हैं। ठीक वही स्थिति यहाँ है। हमने गाँव को टालकर उसे अपने रास्ते और अपनी हालत पर छोड़ दिया है। और जो लेखक हैं वह शहरों में विराजमान हो रहे हैं। ग्रामीण चेतना निश्चित रूप से साहित्य में कमतर हुई है। आप आश्चर्य करेंगे कि पंजाबी साहित्य में किसानों की आत्महत्याओं को लेकर दो बड़े शानदार उपन्यास आए। लेकिन हिंदी में कुछ साल पहले केवल संजीव का ‘फांस’ उपन्यास आया था। जहाँ तक मजदूर की बात है वह असंगठित क्षेत्र है। पिछले दिनों कोरोना के कारण उनकी पीड़ा हम सब ने देखी। पर उनकी कोई आवाज कहीं भी बुलंद नहीं हुई। तो साहित्य में भी आमजन पूरी तरह उपेक्षित है। साहित्य मोटे तौर पर मध्यवर्ग के हाथों में है फिर भी वह जहाँ अपनी सीमाएँ तोड़ता हुआ जन-जन तक पहुँचता है तो अपनी छाप भी छोड़ता है। लेखक को समाज में निकलकर लोगों से सक्रिय संपर्क-संवाद करना होगा तभी उसका साहित्य विविधतापूर्ण और समृद्ध हो पाएगा।
अशोक बैरागी : एक लेखक और प्रकाशक के संबंधों को आप किस प्रकार देखते हैं?
अशोक भाटिया : देखिए, वैसे तो इनके संबंध सौहार्दपूर्ण होने चाहिएँ क्योंकि दोनों को ही एक दूसरे की जरूरत है। इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि प्रकाशन एक व्यावसायिक उपक्रम है। जब प्रकाशक अपना लाभ अधिक देखता है तो लेखक के हित को दरकिनार कर देता है। तब दोनों के हितों में टकराव होता है। ऐसी स्थिति में दोनों को एक दूसरे के हितों और स्थितियों को जानना और समझना चाहिए। अब कई बार लेखक और प्रकाशक के बीच देर-सबेर और खींचतान वाली स्थिति तो बन जाती है क्योंकि नए लेखकों को पता नहीं होता कि प्रकाशक उसकी रचना को कितने समय में छापेगा या नहीं छापेगा? वह टालता रहता है। मैंने देखे हैं अच्छे-अच्छे लेखकों की किताबें सात-सात, आठ-आठ साल तक पड़ी रहती हैं क्योंकि उनके सक्रिय संपर्क नहीं है, वे आईएएस ऑफिसर नहीं हैं या वे विश्वविद्यालयों में नहीं पढते-पढ़ाते। तो रिश्तो में टकराहट तो स्वाभाविक है, पर एक-दूसरे के हितों को समझ कर चलना चाहिए। नए लेखकों को भी प्रकाशक-जगत की स्थिति, संघर्ष को जानने और बहुत कुछ नया सीखने के लिए बाहर निकलना चाहिए। फणीश्वरनाथ रेणु के आंचलिक उपन्यास ‘मैला आंचल’ को पहले प्रकाशकों ने छापने से मना कर दिया था। आज वही हिंदी के सर्वश्रेष्ठ आंचलिक उपन्यासों में माना जाता है।
अशोक बैरागी : आलोचना और समीक्षा में मुख्य अंतर क्या है?
अशोक भाटिया : देखिए अशोक जी, आलोचना अपने आप में एक विधा है। जैसे कथा, कहानी और नाटक हैं। हाँ, आलोचना एक अलोकप्रिय विधा है क्योंकि इसमें सारे विचार हैं, इसमें चिंतन है इसमें विश्लेषण है। और इस तरफ ध्यान भी कम ही दिया गया है। हाँ, समीक्षा को हम आलोचना की एक शाखा कह सकते हैं। जब हम एक पुस्तक अथवा रचना पर केंद्रित होकर अपनी कोई टिप्पणी तैयार करते हैं तो वह समीक्षा है। जबकि आलोचना में साहित्य की एक पूरी धारा, विधा या प्रवृत्ति उसके केंद्र में रहती है। लेकिन कई बार समीक्षा करते-करते आलोचना वाली चीजें उसमें शामिल हो जाती हैं। मोटे तौर पर आलोचना का दायरा और परिप्रेक्ष्य समीक्षा से बड़ा होता है। लेकिन एक बात दोनों में रहती है वो है पाठक को रचना के युगबोध और साहित्यिक सरोकारों से परिचय कराना।
अशोक बैरागी : कहते हैं साहित्य यथार्थ की अनुभूति से उपजता है लेकिन छायावादी काव्य कल्पना प्रसूत है जिसे आधुनिक साहित्य का ‘स्वर्णयुग’ भी कहते हैं। इनमें से कौन-सा साहित्य समाज के लिए अधिक प्रासंगिक है?
अशोक भाटिया : दरअसल मैं दो-तीन बातें पहले स्पष्ट कर दूँ कि एक तो हिंदी में कुछ निर्णयात्मक वक्तव्य या टिप्पणियाँ की जाती रही हैं। जैसे ‘सूर सूर तुलसी ससी,…। ‘ अब सूरदास को सूर्य और तुलसी को चंद्रमा किस आधार पर मानें? प्रश्न तो उनके परिवेश और परिप्रेक्ष्य का है। उनके साहित्य के सूक्ष्म विश्लेषण से ही अंतिम निर्णय निकलेगा। अब दूसरी बात छायावाद को ‘स्वर्णयुग’ भी कहा गया। वास्तव में अपने यहाँ एक चलन है कि हम एक को उभार कर, दूसरे को कमतर नजर से देखने लगते हैं। आप थोड़ा पीछे देखिए भारतेंदु युग में भारतेंदु हरिश्चंद्र और उस युग के जो दूसरे लेखक थे, बालकृष्ण भट्ट, प्रतापनारायण मिश्र, अंबिकादत्त व्यास ठाकुर जगमोहन सिंह आदि, उन्होंने हिंदी को आधुनिक भावभूमि पर प्रतिष्ठित किया, उसे यथार्थ की ओर लेकर आए, रीतिकालीन छाया से और ब्रज के प्रभाव से बाहर निकाला। ऐसे में क्या उनका महत्व कम है? आप उसे स्वर्णयुग कहें ना कहें… भारतेंदु हरिश्चंद्र का नाटक ‘अंधेर नगरी’ जैसा तीखा राजनीतिक व्यंग्य किसी और नाटक में कहाँ मिलता है।
अब प्रासंगिकता की जो बात आपने कही बड़ी वाजिब है कि जो जीवन के अनुभवों से निकला साहित्य वही ज्यादा उपयोगी होगा। अब हमें कुछ छायावादी काव्य के संदर्भ देखने होंगे। आप निराला की कुछ कविताएँ देखिये जैसे ‘भिक्षुक’, ‘विधवा’ या ‘दीन’ ये कविताएँ यथार्थ के कठोर धरातल से निकली हैं। ये कल्पना की उपज नहीं है। ‘परिमल’ संग्रह में शामिल और दूसरी कविताएँ भी अपने युगबोध से जुड़ी हुई हैं। अब ‘कुकुरमुत्ता’ की आवाज आज भी उतनी ही प्रासांगिक है जितनी उस समय थी। इसमें गुलाब के माध्यम से किस तरह पूंजीवादी चरित्र को उभारा है। ‘अबे, सुन बे, गुलाब…इतरा रहा है कैपीटलिस्ट।’
अब आपकी कल्पना प्रसूत वाली बात भी वजनदार है। प्रसाद ‘कामायनी’ में यह प्रश्न उठाते हैं कि जो देव थे वे विलासी हो गए और विनाश शुरू हो गया। लेकिन उन्होंने भी श्रद्धा के जरिए मानवतावादी संस्कृति को उभारने का प्रयास किया है। लेकिन यह बात पाठक तक क्यों नहीं पहुँच पाती, इसके भी कई कारण हैं। एक तो अधिक कल्पना प्रसूत होना। यह फैंटेसी की रचना है और फैंटेसी भी एक विशेष किस्म की कल्पना ही होती है। रूपक का अधिक प्रयोग और कश्मीरी शैव दर्शन पर पूरी तरह से खरा उतरने का प्रयास करते हुए ‘कामायनी’ लिखी गई है। तो उसमें बाकी कई चीजें तिरोहित हो जाती हैं जिनको उभारना चाहिए था। लेकिन जब दार्शनिकता हावी हो जाती है तब ऐसी दिक्कत आती है। सुंदर कल्पना ने ‘कामायनी’ को महाकाव्य तो बना दिया, लेकिन साधारण पाठक से दूर चला गया।
मैं यह भी मानता हूँ कि आज हम छायावादी भाषा में नहीं लिख पाएंगे लेकिन उस युग में भी सब चीजें देखनी होती हैं। अब पंत जी की ‘परिवर्तन’ कविता अपने युगबोध को व्यक्त करती है। तो जो हमें बेहतर साहित्य मिलता है उसकी श्रेष्ठता और सकारात्मक पक्षों को रेखांकित करना आलोचक और इतिहासकार का प्रथम दायित्व होता है।
अशोक बैरागी : लोकविश्वास और अंधविश्वास में कैसे अंतर किया जाए। माने इनकी कसौटी का आधार क्या है?
अशोक भाटिया : देखिए,
लोकविश्वास हमारे जीवन और कार्य व्यापार में घुले मिले रहते हैं। वे हमारे रीति रिवाज, हमारी संस्कृति और जीवनशैली का हिस्सा भी हैं। यह जीवन से नीरसता को हटाकर उसमें उमंग भरते हैं।
हमारे जीवन को सुंदर बनाते हैं। अब जैसे मुंडेर पर कौवा बोले या रसोई में गृहणी के हाथ से गीला आटा गिर पड़े तो यह मानना कि घर में कोई पाहुन आने वाला है, कभी पूर्व में ऐसा संयोग रहा होगा तो यह विश्वास प्रचलन में आ गया। ऐसा लोकविश्वास कोई हानिकारक नहीं है। लेकिन कभी-कभी लोकविश्वास भी विवेकहीनता के कारण अंधविश्वास में धकेल देता है। उससे बचने की जरूरत है।
दरअसल भारतवर्ष अशिक्षा और पिछड़ेपन के कारण आकंठ अंधविश्वास में डूबा रहा है। अब इस संकट के कई पहलू हैं। एक तो यह कि एक पढ़ा-लिखा आदमी भी अंधविश्वासी है। उन पर गर्व करता है। दूसरा इससे भी बड़ा पहलू हमें पता ही नहीं कि ये अंधविश्वास है। तो इसके खिलाफ लड़ेंगे कैसे? अब तीसरा पहलू भी है कि हम उससे लड़ना भी नहीं चाहते। हम उसके आनंद में डूबे हैं। मेरे एक मित्र ने कहा था कि ‘जिंदगी से तर्क गायब हो गया, जानवर से फर्क गायब हो गया। ‘ अब अगर हम विवेक और तर्क के आधार पर चलेंगे तो हम इनसे बच पाएंगे। अंधविश्वास के बारे में मोटे तौर पर कह सकते हैं कि जहाँ प्रमाण होने पर भी किसी बात को न मानना या बिना प्रमाण किसी बात को मान लेना ही अंधविश्वास है। यह एक सामाजिक बीमारी है। पिछले दिनों एक मेरी पुस्तक आई है, ‘अंधविश्वास: रोग और इलाज’। यह अंधविश्वास के विभिन्न पहलुओं पर सूक्ष्मता से विचार करती है।
अशोक बैरागी : मुझे लगता है अपने समाज में कुछ जाति विशेष भी हैं जो जाति और धर्म के नाम पर लोगों को गुमराह करके अपने स्वार्थ सिद्ध कर रही हैं। वे अपनी श्रेष्ठता के नाम पर लोगों में अंधविश्वास फैलाते हैं।
अशोक भाटिया : हाँ बिल्कुल। प्रेमचंद की एक पंक्ति देखिए, ‘सांप्रदायिकता हमेशा संस्कृति की दुहाई दिया करती है। उसे अपने असली रूप में निकलने में शायद लज्जा जाती है।’
अशोक बैरागी : सर, विमर्श आधारित साहित्य क्यों आवश्यक है, क्या मुख्यधारा के साहित्य में विमर्श नहीं है? जैसे प्रेमचंद, नागार्जुन, मुक्तिबोध, निराला…आदि के साहित्य को देखें तो…।
अशोक भाटिया : देखिए, विमर्श तो साहित्य में हमेशा ही रहा है। विमर्श का अर्थ है – किसी स्थिति, प्रवृत्ति या विचार के पक्ष-विपक्ष को समग्रता से देखना। विमर्श को हम आलोचना से जोड़ सकते हैं। प्रेमचंद, नागार्जुन या मुक्तिबोध आदि के साहित्य में क्या खूबी है, यह तो विचार विमर्श करने से ही पता लगेगा। दलित या स्त्री विमर्श की आवश्यकता इसलिए भी है क्योंकि यह दोनों सदियों से ही दोयम दर्जे के माने जाते रहे हैं और अब भी संघर्षरत हैं। अभी आगे भी बहुत बेहतर परिदृश्य होने की संभावना भी नहीं है। राजेंद्र यादव ने ‘हंस’ के अपने संपादकीयों में मुख्य रूप से इनकी इसी स्थिति को उभारा है। विमर्श ही साहित्य की श्रेष्ठता को हमारे सामने रखता है और रचना संबंधी हमारी समझ को बेहतर बनाता है। यह हमारे मन मस्तिष्क की धुंध और जाले साफ करता है। इस समय भी हम साहित्य को लेकर विमर्श ही कर रहे हैं क्योंकि इसके बिना चीजें स्पष्ट नहीं होती।
अशोक बैरागी : क्या केवल दलित ही दलित विमर्श का साहित्य लिख सकते हैं?
अशोक भाटिया : देखिए, दलित के लिए पहले ‘शूद्र’ शब्द का प्रयोग होता था। यह वर्ग समाज में सदियों से पीड़ित, उपेक्षित और अपमानित रहा है। सन 1818 तक स्थिति यह थी कि कोई भी शूद्र घर से निकलता था तो उसे गले में एक मटकी डालकर रखनी होती थी ताकि थूक आए तो उसमें ही डाले। उससे पहले भी आप जानते हैं कि वेद की वाणी अगर उसके कानों में पड़ जाए तो उसके कानों में पिघला शीशा…। इससे बड़ी पीड़ा की बात और क्या होगी? 19वीं शताब्दी में तो श्रावणकोर (तमिलनाडू) के राजा ने दलित स्त्रियों के स्तन ढकने पर भी प्रतिबंध लगा रखा था ताकि राजा की विलासिता और कामुकता कायम रहे। यह स्थिति थी हमारे समाज की। प्रेमचंद का साहित्य स्वाधीनता से पूर्व भारतीय समाज का प्रतिनिधित्व करता है। इसमें सभी जाति, धर्म संप्रदाय आ जाते हैं। अब ‘ठाकुर का कुंआ’ का जोखू, ‘सद्गति’ का दुखी चमार, ‘कफन’ के घीसू-माधव या ‘गोदान’ की सिलिया ये सब दलित पात्र हैं और उस समय के समाज के सच को सामने रखते हैं। समाज के किसी अन्य वर्ग या पक्ष पर कोई भी लेखक कलम चला सकता है किन्तु दलित सैकड़ों वर्षों से अपमान, जलालत और पीड़ा का भुक्तभोगी रहा है। इसलिए उसकी कलम से निकला साहित्य ही ज्यादा प्रामाणिक होगा।
अशोक बैरागी : भाटिया जी, अपने यहाँ दलित साहित्य की शुरुआत कैसे…?
अशोक भाटिया : दलितों को सैकड़ों वर्षों तक हिंदू समाज व्यवस्था में सबसे निचले पायदान पर होने के कारण न्याय, शिक्षा, समानता और स्वतंत्रता आदि मौलिक अधिकारों से वंचित रखा गया। हिंदी में दलित साहित्य की शुरुआत उधर मराठी साहित्य से हुई। जब दया पवार ने अपनी आत्मकथा ‘अछूत’ लिखी। हालाँकि इससे पहले भी मराठी में दलित साहित्य लिखा जा चुका था। शरण कुमार लिम्बाले ने ‘अक्करमाशी’ नाम से आत्मकथा लिखी और इनका प्रभाव यह पड़ा कि इधर हिंदी लेखकों में भी छटपटाहट और उत्तेजना पैदा हुई। अब ये खुलकर आत्मकथाएँ लिखने लगे। मोहनदास नैमिशराय की ‘अपने-अपने पिंजरे’ हो, ओमप्रकाश बाल्मीकि की ‘जूठन’, सूरजपाल चौहान की ‘तिरस्कृत’, तुलसी राम की ‘मुर्दहिया’ हो या सुशीला टाकभौरे की ‘शिकंजे का दर्द’ सभी ने अपनी आत्मकथाओं में अपने साथ हुए अन्याय, अत्याचार, शोषण, जातीय भेद, और पाखंड को निर्भीक होकर लिपिबद्ध करना शुरू कर दिया। अब तो आत्मकथाओं के अलावा हिंदी की अन्य विधाओं में भी दलित साहित्य बड़ी सशक्त उपस्थिति दर्ज करा रहा है। और वो भी पूरी प्रामाणिकता के साथ।
अशोक बैरागी : दलित साहित्य पर कुछ आक्षेप भी लगाए जाते हैं, क्यों?
अशोक भाटिया : हाँ, एक तो आक्षेप यह लगाया जाता है कि इनके साहित्य में वह कलात्मकता नहीं है जो होनी चाहिए। दूसरा, उसमें करुणा और पीड़ा तो है पर वह कोमलता या लालित्य नहीं है, पर उसका कारण भी स्पष्ट है, क्योंकि वे जिस आक्रोश, पीड़ा, शोषण, और घुटन को जी रहे हैं, उसी को लिख रहे हैं। जब कभी समाज की स्थितियाँ बदलेंगी और उनका आक्रोश ठंडा होगा तो उनमें वह कलात्मकता और वो दूसरी चीजें भी निश्चित रूप से आएँगी।
अशोक बैरागी : व्यक्ति के साहित्यिक संस्कार अभ्यास है या वरदान?
अशोक भाटिया : देखिए, संस्कार तो घर के परिवेश से ही मिल जाते हैं। हम उन्हें वरदान भी कह सकते हैं। इसमें हम प्रतिभा की भी बात किया करते हैं, लेकिन प्रतिभा को निखारने के लिए कुछ चीजों की आवश्यकता होती है। केवल वरदान या प्रतिभा से बात नहीं बनती। अगर अपने दृष्टिकोण का विकास करना है तो उसके लिए साहित्य का अध्ययन जरूरी है क्योंकि भारतीय और वैश्विक साहित्य की जानकारी तो अध्ययन से ही मिलेगी। लेकिन लेखन की भाषा में कुशलता निरंतर अभ्यास से ही आती है। अब प्रेमचंद के पहले उपन्यास ‘वरदान ‘ और अंतिम उपन्यास ‘गोदान’ की भाषा देखिए, दोनों में जमीन-आसमान का अंतर है। प्रेमचंद की भाषा में लगातार परिष्कार होता गया। हाँ, इसमें मैं एक शब्द ‘अवसर’ और जोड़ना चाहूँगा क्योंकि अगर प्रतिभावान को भी अवसर नहीं मिलेगा तो उसकी प्रतिभा कुंठित हो जाएगी। प्रतिभा को अधिक प्रखर होने या निखरने के लिए अवसर की उपलब्धता अनिवार्य है।
अशोक बैरागी : लघुकथा, कहानी और उपन्यास में कौन से तत्व हैं जो इन्हें एक-दूसरे से अलग करते हैं?
अशोक भाटिया : मैं समझता हूँ अगर हम इनको तत्वों की बजाय फलक के आधार पर देखें तो चीजें ज्यादा अच्छी तरह से स्पष्ट होंगी। देखिए, फलक का विस्तार उपन्यास में सबसे ज्यादा होता है और उसमें जीवन के एक पक्ष का बड़ा भाग और उसके विविध आयाम रहते हैं। ऐसा भी नहीं है कि इसमें पूरे का पूरा जीवन ही आ जाए, अगर ऐसा होता तो उपेंद्रनाथ अश्क को ‘गिरती दीवारें’ या ‘गर्म राख’ क्यों लिखने पड़ते। और चेतन एक पात्र है, जो एक उपन्यास से दूसरे उपन्यास में उतरता है फिर भी वह अधूरा है। इस तरह उनके छह उपन्यास हैं। फिर उपन्यास में जीवन के एक बड़े भाग और उसके विविध आयामों को सामने लाने के लिए इसमें हम उपवृतांत या उपकथाएँ बुनते हैं। जबकि लघुकथा का फलक आमतौर पर छोटा होता है। आमतौर पर छोटा इसलिए कि हम बड़े फलक वाली लघुकथाएँ भी लिख सकते हैं, पर यह लेखक के कौशल पर निर्भर करता है। अगर मैं तुलनात्मक दृष्टि से कहूँ कि उपन्यास एक भरा पूरा वृक्ष है तो लघुकथा एक खिला हुआ पुष्प है और कहानी इनके बीच की स्थिति में है, जिसका अनुमान आप लगा सकते हैं। कई बार एक प्रसंग, स्थिति या विचार सूत्र भी पर्याप्त होता है, जिसे हम अपने कौशल द्वारा रचनात्मक परिणति तक पहुँचा देते हैं। आप टालस्टाय का उपन्यास ‘वार एंड पीस’ देखें, उसमें कई पीढ़ियों की कहानी है और सौ से भी ज्यादा पात्र हैं। अब लघुकथा में तो ऐसा नहीं हो सकता और शायद यह कहानी में भी संभव नहीं है।
अशोक बैरागी : सुनने में आ रहा है कि लघुकथा अपनी स्वर्णजयंती मना रही है। माने वह 50 वर्ष की हो गई है। क्या 50 वर्ष (1970 से ) पहले लघुकथा नहीं थी? थी तो किस रूप में?
अशोक भाटिया : हा…हा..हा…। (पहले खूब हंसे फिर बोले) देखिए, गीत और कथाएँ विश्व में शुरू से ही मौजूद रहे हैं। और यह कहना कि कथाएँ थी ही नहीं…यह गलत है। ऐसा कहना परंपरा को नकारना बल्कि मानव अस्तित्व को नकारना है। कई बार हम अपने कार्य या मत का महत्व बताने के लिए अंतर्विरोधों का भी सहारा ले लेते हैं। एक तरफ तो हम 1876 के आसपास भारतेंदु हरिश्चंद्र की हास्य-व्यंग्य रचना ‘परिहासिनी’ को लघुकथा संग्रह बता रहे हैं और दूसरी तरफ 1971 से लघुकथा का आरंभ मानकर 2021 में उसकी स्वर्णजयंती मना रहे हैं। यह एक अंतर्विरोध ही है। अगर हम सही ढंग से देखें तो लघुकथा की इधर की 50 वर्ष की यह यात्रा समकालीन लघुकथा की है।
सन् 1973 में ‘सारिका’ का लघुकथा विशेषांक आया। ‘सारिका’ क्योंकि कहानी की केंद्रीय और व्यावसायिक पत्रिका भी थी, इसका दूरगामी प्रभाव यह हुआ कि अब देखते ही देखते लघुकथा साहित्य के पटल पर छा गई। ऐतिहासिक दृष्टि से देखें तो लघुकथा के सूत्र वेदों-पुराणों में से भी निकाल सकते हैं। उसे लघुकथा का वैदिक या पौराणिक रूप भी कह सकते हैं। दूसरी तरफ, इसे आठवें दशक की उपज कहें तो यह भी एक अति है। वास्तव में बीसवीं सदी के आरंभ में लघुकथा यथार्थ के साथ जुड़कर नए रूप में सामने आने लगी थी। 1901 में माधवराव सप्रे की रचना ‘एक टोकरी भर मिट्टी’ (इसे हिंदी की पहली कहानी भी माना जाता है) को पहली लघुकथा माना जाता है।
मैं आपको 1970 से पहले लेकर जाना चाहता हूँ। जहाँ से लघुकथा सक्रिय रूप में सामने आई। वह समय था बीसवीं सदी के चौथे दशक का। उस समय के प्रमुख कथाकारों ने लघुकथा के क्षेत्र में रचनात्मक और सकारात्मक भूमिका निभाई थी। सबसे पहले प्रेमचंद का नाम लेते हैं फिर प्रसाद, सुदर्शन, माखनलाल चतुर्वेदी, कन्हैयालाल मिश्र, विष्णु प्रभाकर, इन्हीं में बाद में आनंद मोहन अवस्थी भी जुड़े। उसके बाद फिर हरिशंकर परसाई, श्यामनंदन शास्त्री, रामनारायण उपाध्याय आदि भी लघुकथा लेखन से जुड़े। सबसे पहले लघुकथा बोध कथा या नीति कथा के रूप में प्रचलित थी और लघुकथा उससे जद्दोजहद कर रही थी, फिर उन तत्वों को छोड़कर यथार्थ के कठोर धरातल पर आई। अब प्रेमचंद और परसाई तो शुरू से ही यथार्थ की भावभूमि पर लिख रहे थे जबकि जगदीशचंद्र मिश्र ने अंत तक बोध और नीति का धरातल नहीं छोड़ा। इस तरह लघुकथा अनेक पड़ावों को पार करते हुए यहाँ तक पहुँची है। यह विवरण मैंने अपनी पुस्तक ‘नींव के नायक’ में भी लिखा है। क्योंकि हम अपनी परंपरा पर टिके हैं, जड़ हैं, तो वृक्ष है, नहीं तो वृक्ष का क्या अस्तित्व है।
अशोक बैरागी : भाटिया जी, हम कई बार पढ़ते हैं कि अमुक रचना में कालदोष है। यह क्या होता है? और कब आता है?
अशोक भाटिया : आजकल इसका खूब आतंक है। वास्तव में कालदोष का आतंक फैलाया गया है। दरअसल जब रचना की मूलभूत जानकारी नहीं होती तो ऐसे गैरजिम्मेदार प्रत्यय उछाले जाते हैं। और इससे उस विधा को हानि होती है। अब देखिए, नाटक में समय, स्थान और परिवेश की एकरूपता की बात होती है। मान लो सन् 1950 का कोई नाटक है तो उसके पात्र, वेशभूषा, भाषा, रंगमंच सज्जा, और परिवेश उसी समय के अनुकूल होगें। वैसे ही लघुकथा को आप चाहें तो एक कालखंड से आगे भी ले जा सकते हैं। लेकिन कुछ लोगों ने यह समझा कि लघुकथा भी एक ही कालखंड की होनी चाहिए और अगर एक ही समय और क्षण की हो तो उसमें कालखंड दोष नहीं होता। जबकि ऐसा नहीं है। यह तो रचनाकार के सामर्थ्य और उसके कौशल पर निर्भर करता है कि वह रचना की जरूरत के मुताबिक कितने बड़े कालखंड को या कितनी पीढ़ियों को रचना में समेटता है। मधुदीप की एक लघुकथा है ‘समय का पहिया घूम रहा है’, इसमें रचनाकार का कौशल देखने योग्य है। इसमें चार अलग-अलग समयों को लिया है और उद्देश्य की दृष्टि से उसमें गजब की एकान्विति है। कालदोष नाम की कोई चीज नहीं होती। आधुनिक लघुकथाकारों को चाहिए कि उनकी रचना में जो कथा प्रसंग हैं, पात्र हैं और जो भाषा है, उनमें तारतम्य हो, कहीं बिखराव न हो।
अशोक बैरागी : आज लघुकथा एक सशक्त विधा के रूप में प्रतिष्ठित हो चुकी है। तो ऐसे में क्या लघुकथा को शब्द सीमा में बांधा जा सकता है?
अशोक भाटिया : जब हम रचना को यथार्थ की भावभूमि में डूब कर वहाँ से रचना निकालते हैं तो वहाँ शब्द सीमा का कोई प्रश्न नहीं उठता। वास्तव में किसी भी गद्य रचना को शब्द सीमा में नहीं बांधा जा सकता। काव्य में भी वहाँ, जहाँ छंदबद्ध रचना हो। गीत-नवगीत में वर्ण और अक्षरों की मर्यादा रहती है। मुक्तछंद की कविता में दो पंक्तियों से लेकर दो हजार तक की पंक्तियाँ कितनी भी हो सकती हैं। यह लेखक के सामर्थ्य पर निर्भर करता है। उपस्थित रचनाओं के आधार पर ही सिद्धांत और निष्कर्ष निकलते हैं, फिर दूसरी रचनाओं के आधार पर यही निष्कर्ष अमान्य भी हो जाते हैं। बाहर के सिद्धांत या निष्कर्ष कभी पूर्णरूप से किसी रचना पर लागू नहीं होते। नाटक को लेकर अरस्तू ने जो भी सिद्धांत दिए, उन पर शेक्सपियर के नाटक खरे नहीं उतरते। अब शेक्सपियर को बाहर तो नहीं कर सकते।
लघुकथा दो-चार वाक्यों से लेकर हजार शब्दों की सीमा भी पार कर जाती है। सबसे छोटी लघुकथा रमेश बत्तरा की है देखिए, “ए रफीक भाई, सुनो! उत्पादन के सुख से भरपूर, नींद की खुमारी लिए जब मैं घर पहुँचा तो मेरी बेटी ने एक कहानी कही- एक लाजा है, वो बहुत गलीब है। ‘ दूसरी तरफ, अरुण कुमार की कहानी ‘गाली’ (कथादेश द्वारा पुरस्कृत) और अरुण मिश्र की ‘पावर विंडो’ जैसी लघुकथाएँ हजार शब्दों के पार जाती हैं। तो लघुकथा में जो स्पेस है हम उसे खुद ही कम क्यों करें। आठवें दशक में जो लघुकथाएँ ‘सारिका’ और दूसरी पत्रिकाओं के माध्यम से आई वे आमतौर पर दो सौ-ढाई सौ शब्दों तक हैं। अब शब्दाकार बढ़ रहा है। इसका मतलब यह है कि रचनाकार को स्पेस की जरूरत है ताकि यथार्थ के बड़े हिस्से को अधिक सशक्त ढंग से रचना में अभिव्यक्त कर सके। और किसी रचना के बाह्याकार को लेकर उदार होना रचना के हित में ही होता है।
अशोक बैरागी : लघुकथा के क्षेत्र में आप बहुत ही अनुशासित और प्रतिबद्ध लेखक हैं। आपका कार्य जितना परिमाणगत विस्तृत है, गुणवत्ता में भी उतना ही उच्चकोटि का है। आप नए लघुकथाकारों को भी खूब पढ़ते होंगे। इनकी रचनाओं के बारे में आपके क्या विचार हैं?
अशोक भाटिया : पिछले पंद्रह-बीस वर्षों से नए-नए लघुकथाकार आ रहे हैं, जिनमें महिलाओं की संख्या भी काफी है। इस संदर्भ में यह एक अच्छा लक्षण है कि महिलाएँ समाज और परिवार के बारे में क्या और किस तरीके से सोचती हैं? इससे लघुकथा के परिदृश्य में विविधता और रचनात्मकता के नए आयाम भी सामने आएँगे।
कुछ नए लेखक तो वर्तमान यथार्थ को बड़े खुलेपन से, बिना किसी संकोच के और कलात्मक स्पर्श के साथ अभिव्यक्त कर रहे हैं। ये हमारी पीढ़ी से बिल्कुल अलग हैं और आगे हैं। यह कहने में मुझे कोई संकोच नहीं है। इतना खुलापन हमारी पीढ़ी में नहीं है। इन नए रचनाकारों में हरभगवान चावला, दीपक मशाल, कांता राय संध्या तिवारी, कुमार संभव जोशी, चित्रा राणा राघव और महेंद्र कुमार की रचनाएँ शामिल हैं। और भी नाम हैं, जो इस समय नहीं सूझ रहे। इनकी रचनाओं का ताना-बाना, सोच, भाषाई ताजगी साथ ही साहित्यिक और कलात्मक स्पर्श भी बहुत सुन्दर है।
इन्हीं कारणों से इनकी रचनाएँ अलग से नजर आती हैं और ध्यान खींचती हैं। इधर कुछ जल्दबाजी वाले रचनाकार भी हैं, जो धड़ाधड़ किताबें निकाल रहे हैं। वे प्रशंसा चाहते हैं और उन्हें ऐसे पीठ थपथपाने वाले लोग भी मिल जाते हैं। ऐसे में श्रेष्ठ साहित्यिक और कलात्मक संभावनाओं के द्वार बंद होने लगते हैं।
अशोक बैरागी : आप लघुकथाकार के रूप में प्रतिष्ठित हैं। इसके अलावा आपने और किन-किन विधाओं में क्या-क्या लेखन किया है?
अशोक भाटिया : सर्वप्रथम मैंने भी कविताएँ लिखी और 1979 में ‘नवागत’ (संपादित) नाम से काव्य संकलन निकाला। फिर लघुकथा मुझे अपने साथ उड़ाकर ही ले गई और कविता पीछे रह गई। मेरा पहला काव्य-संग्रह ‘सुखे में यात्रा’ (2003) और दूसरा ‘कठिन समय में हम’ (2021) आया। अस्सी के दशक में व्यंग्य को लेकर मैं खूब छपा। प्रेम जनमेजय और मधुसुदन पाटिल ने मेरे व्यंग्यओं को खूब सराहा और छापा। लेकिन मेरा पहला व्यंग्य-संग्रह ‘लोकल विद्वान’ 2016 में आया। कुछ बाल उपयोगी पुस्तकें – ‘समुद्र का संसार’ 1990 में आई, जिसे हरियाणा साहित्य अकादमी ने ‘कृति पुरस्कार’ दिया। फिर दो भागों में ‘हरियाणा से जान पहचान’ आई। इधर बाल साहित्य में मैंने एक नया प्रयोग किया है। ‘बालकांड’ नाम से बाल लघुकथाओं की पुस्तक लिखी है। जिसके केंद्रीय पात्र बच्चे ही हैं, घोड़ा, खरगोश, चिड़िया आदि नहीं। इसका दूसरा भाग ‘ताना-बाना’ नाम से आ चुका है। आलोचना के क्षेत्र में भी पुस्तकें आई हैं जिनमें -‘ समकालीन हिंदी कहानी का इतिहास’ ( 2000 तक की हिंदी कहानी पर केंद्रित), ‘सूर काव्य: विविध आयाम’ आई। इसे एनबीटी ने वर्ष 2012 की चुनिंदा 51 पुस्तकों में शामिल किया। इसके अलावा एक समाजोपयोगी पुस्तक है ‘अंधविश्वास: रोग और इलाज’। पर सच तो यह है अशोक भाई, लघुकथा ने मुझे कभी नहीं छोड़ा।
अशोक बैरागी : आपके सृजन के मुख्य सरोकार क्या-क्या हैं?
अशोक भाटिया : किसी साहित्यकार के लिखने का उद्देश्य ही तय करता है कि उसके सरोकार क्या हैं। आचार्य मम्मट ने प्रयोजन बताए थे ‘काव्यं यशस्येअर्थकृते …। ‘ यहाँ यश और अर्थ की प्राथमिकता के संदर्भ में मेरी विनम्र असहमति है। मेरा मानना है कि साहित्य लेखन व्यावहारिक ज्ञान, अकल्याणकारी तत्वों के क्षय हेतु, बेहतर समाज की सोच और सपनों को साकार करने के लिए लिखा जाता है। सौंदर्य और चेतना का विस्तार भी इसी से जुड़े हैं। मानवीय संवेदना को विस्तार देने वाला साहित्य ही श्रेष्ठ होता है। मेरा भी यही प्रयास रहता है कि न्याय आधारित और समतामूलक समाज की स्थापना के मद्देनजर मेरे साहित्य से समाज में नई सोच और प्रगतिशील मूल्यों को संरक्षण मिले। मेरी रचनाओं से पाठक का संवेदनागत और चेतनागत विस्तार हो और उन्हें एक सही दिशा मिले तो लगेगा कि मेरा उद्देश्य पूरा हो गया।
अशोक बैरागी : आप अपनी रचना प्रक्रिया के विषय में कुछ बताइए?
अशोक भाटिया : यह बड़ा जटिल प्रश्न है। कई बार तो ऐसा होता है कि आपने सोचा और उसमें कल्पना आदि दूसरी चीजें जुड़ी, संवेदना का स्पर्श हुआ और रचना कागज पर आ गई। मेरी ‘रंग’ लघुकथा ऐसी ही है, जिसमें मैंने कोई संशोधन नहीं किया। जब हम न्याय आधारित बेहतर और समतामूलक समाज का सपना देखते हैं तो जाहिर है कि हमारी रचना प्रक्रिया में भी वही चीजें काम करती हैं। मेरे विचार से हमारी रचना प्रक्रिया लेखन से पहले की प्रक्रिया ज्यादा है और लिखने के बाद की कम। लिखने के लिए रचना का उत्स या सूत्र किसी स्थिति, किसी पात्र, किसी घटना, दृश्य, विचार से भी हो सकता है। या कभी-कभी निपट काल्पनिक यथार्थ से भी आ सकता है। अब देखना यह है कि जो सूत्र आपने पकड़ा है उसमें रचनात्मक प्रवृत्ति की संभावना कितनी है। मेरी कविता की एक पंक्ति है- ‘हर बादल में नहीं होता भार सहने का माद्दा।’ यह आपके दृष्टिकोण पर निर्भर करता है कि उस रचना सूत्र में आप कविता, कहानी या लघुकथा में से किस की संभावना देखते हैं।
रचना प्रक्रिया कई द्वन्द्वों से होकर गुजरती है। इसमें यह भी जरूरी है कि पाठक और समाज अगर हमारे सामने रहेंगे तो रचना का स्वरूप अधिक बेहतर होगा। अन्यथा रचना केवल हवा हवाई भी हो जाती है, जो पाठक पर अपना असर नहीं छोड़ती। हालाँकि पाठक भी कोई तयशुदा चीज नहीं है। वह किस वर्ग का, किस समय का, कहाँ का और कितना पढ़ा लिखा होगा। जर्मन के प्रमुख कवि बर्तोल्त ब्रेख्त कहते हैं, ‘लेखक को रूप के बारे में सोचते हुए उसके वस्तु और विचार पक्ष पर ही ध्यान देना चाहिए, क्योंकि रूप या विधा तो एक माध्यम है, महत्वपूर्ण तो विचार है। ‘ कई बार ऐन मौके पर लिखते समय भी रचना में बदलाव हो जाता है लेकिन लिखने के बाद काट-छांट करना रचना प्रक्रिया का बहुत जरूरी अंग है। इसमें संकोच और मोह नहीं करना चाहिए।
अशोक बैरागी : एक बार आपने कहा था कि रचना को लिखने के बाद उसे बड़ी निर्ममता से काटना चाहिए।
अशोक भाटिया : बिल्कुल, आपने जो ‘निर्ममता’ शब्द कहा इसमें मैं एक बात और जोड़ दूँ कि रचना को लिखने के बाद उसे छोड़ दें और फिर महीने-दो महीने बाद उसे सिर्फ पाठक की दृष्टि से पढ़ें। यह एक कठिन काम है क्योंकि हमारा रचनाकार, हमारा आलोचक और हमारा मोह बीच में घुसेगा। जब हम रचना को नि:संग होकर पाठक की दृष्टि से पढ़ेगें तो उसमें बहुत-सी चीजें बेहतरी की माँग करती नजर आएंगी।
अशोक बैरागी : आजकल हर चीज अपनी समग्रता या दीर्घता को छोड़कर लघुता में सिमट रही है। चाहे वह विचार हों, संस्कार, व्यक्तित्व, संस्कृति, और चाहे भाषा भी। क्या लघुकथा भी इसी साहित्यिक क्षरण की उपज है?
अशोक भाटिया : समय और स्थितियाँ होती हैं। कभी समय था हमारे यहाँ महाकाव्य खूब लिखे जाते थे। भक्तिकाल के सोलहवीं सदी में ‘पद्मावत’ और ‘रामचरितमानस’ से लेकर बीसवीं सदी के ‘साकेत’ और ‘साकेत संत’ तक महाकाव्यों की एक समृद्ध परंपरा रही है, लेकिन अब वो समय नहीं रहा। ललित निबंधों की धारा भी क्षीण हो गई, तो क्या इस बदलाव को साहित्यिक क्षरण कहा जाए?…नहीं! शायद यह ठीक नहीं होगा। हाँ, चीजें लघुता में अवश्य सिमट रही हैं। इसके पीछे कुछ अस्वस्थ कारण भी हैं। लघुकथा का आज जो स्वरूप है वह सत्तर के दशक की परिस्थितियों की उपज है। उसने आकार तो परंपरा से लिया लेकिन युवा पीढ़ी को अपनी बात कहने के लिए एक सशक्त माध्यम थमा दिया। कमलेश्वर ने ‘सारिका’ का लघुकथा विशेषांक निकाल कर इसकी जमीन पुख्ता कर दी। दरअसल, रचनाओं को लेकर जो धैर्य होना चाहिए वह पहले से कम नजर आता है। अब सब कुछ ही छोटा होता जा रहा हो ऐसा भी नहीं है। राजेंद्र यादव ‘हंस’ में प्राय: लम्बी कहानियाँ देते रहे हैं। अभी पिछले दिनों ज्ञान चतुर्वेदी का एक व्यंग्यात्मक उपन्यास ‘स्वांग’ आया है, जो करीब 400 पृष्ठों का है। दूसरा, योगेंद्र आहूजा बड़े चर्चित कथाकार हैं। अभी उनकी एक लंबी कहानी ‘डॉक्टर जिवागो’ आई है। और फिर उदय प्रकाश तो लंबी कहानियों के लिए ही जाने जाते हैं।
असल प्रश्न तो हमारे ट्रीटमेंट या समाज को देखने के नजरिए का है कि हमारे भीतर समाज के लिए कितना ताप, तड़प और बेचैनी है। उसे कलात्मक परिणति देने में हम कितनी गहराई में उतरते हैं। यानी हमारा सामर्थ्य और कौशल कितना है।
यह जरूर है कि लघुकथा को सरल मानकर भी खूब लिखा जा रहा है और मोटे तौर पर यह साहित्यिक क्षरण की उपज दिखती है पर है नहीं। हालाँकि लघुकथा में भी ऐसे लेखक हैं जिनका कोई सामाजिक विजन नहीं है। और ऐसा लेखन जल्द ही खारिज हो जाता है। किसी कविता की पंक्ति है- ‘सारे बेहतरीन झूठ वक्त के साथ दफन हो जाते हैं। ’ लघुकथा में जो अपने समय का सच है, जिसका वस्तुपरक आधार है, जिसका साहित्यिक और कलात्मक पक्ष है, बचेगा तो बस वही बचेगा।
अशोक बैरागी : आज का युवा साहित्य से कटा-कटा सा रहता है। किताबें पढ़ने की जो एक परंपरा थी, वह खत्म-सी हो गई है। इसका आप क्या कारण मानते हैं?
अशोक भाटिया : आपकी बात तो सही है, पर उसके कारण भी कई हैं। एक तो जीवनयापन लगातार कठिन हो रहा है और रोजगार के लिए संघर्ष का बढ़ते जाना भी इसका एक कारण है। और मैं नि:संकोच कह सकता हूँ कि सत्ता द्वारा साहित्य और नई सोच को पीछे धकेला जा रहा है। दूसरा, लेखकों के कुछ निजी स्वार्थ और सीमाएँ होती हैं। ऐसे लेखक भी बहुत कम हैं जो दूसरों का श्रेष्ठ साहित्य पढ़ते हैं। हालाँकि इंटरनेट पर सब कुछ सुलभ हो गया है। लेकिन फिर भी पढ़ना कम हुआ है। हावी होते सोशल मीडिया द्वारा भी साहित्य को पीछे धकेला जा रहा है। इसका इलाज यह हो सकता है कि छोटी, उपयोगी और कम कीमत की पुस्तकें निकाली जाएँ। लेखकों को भी चाहिए कि वे अपने साहित्य को लेकर समाज में सक्रिय संपर्क करें। दोनों के बीच परस्पर संवाद होने पर ही कुछ परिदृश्य बदलेगा।
अशोक बैरागी : हिंदी की समाहार शक्ति गजब की है। वर्तमान में अनेक भाषाओं के शब्दों का प्रचलन इसमें हो गया है। संकरण की यह जो स्थिति है आप इसे कितना सही या गलत मानते हैं?
अशोक भाटिया : मेरा यह मानना है कि दूसरी भाषाओं के प्रचलित शब्द हिंदी में आएंगे तो इससे अपनी भाषा समृद्ध होगी लेकिन उसे अगर फैशन के रूप में लाएंगे तो भाषा में विकृति आएगी। विश्व की सभी भाषाओं में दूसरी भाषाओं के शब्द मिलते हैं। अंग्रेजी से अगर फ्रेंच, लेटिन और जर्मन भाषाओं के शब्दों को निकाल दें तो वह कहीं भी खड़ी नहीं होगी। वे हर वर्ष विश्व की चुनिंदा भाषाओं के प्रचलित शब्दों को अपने यहाँ शामिल करते हैं और भाषाएँ इसी तरह विकास किया करती हैं। जो ज्यादा शुद्धतावादी दृष्टि से सोचते हैं, वे दरअसल भाषा की जमीनी सच्चाइयों को नहीं जानते। भाषायी विकास के पीछे भौगोलिक और ऐतिहासिक कारण हमेशा रहे हैं। कबीर ने भाषा को ‘बहता नीर’ कहा है क्योंकि जब तक वह बहता है तो उसमें आसपास की वनस्पतियों के गुण उसमें आ जाते हैं। वैसे ही भाषा है।
10 वीं-11वीं शताब्दी तक भारत में संस्कृत व प्राकृत भाषाएं थी, जब मुग़ल आए तो वह अपने साथ फारसी ले आए। फारसी भी स्थापित हो गई। फिर अपने यहाँ अवधी और ब्रज आदि क्षेत्रीय भाषाएँ उभरने लगी। 1574 में जब तुलसीदास ने ‘रामचरितमानस’ लिखा तो उसमें एक हजार से अधिक शब्द फारसी के आ गए, क्योंकि वे शब्द तब प्रचलन में थे। आजकल भी कोर्ट-कचहरी में भी सैंकड़ों शब्द अरबी-फारसी के प्रयोग होते हैं, क्योंकि ये शब्द हमारी संस्कृति में रच बस कर हिंदी के हो गए हैं। ऐसा ही अपने यहाँ अंग्रेजी शासन और अंग्रेजी भाषा के आने पर हुआ। मेरा मानना है कि इससे भाषा की शब्द संपदा समृद्ध होती है। भाषाओं के संकरण के संदर्भ में रामविलास शर्मा ‘नवजागरण और हिंदी’ में एक उदाहरण देते हुए लिखते हैं- ‘टेकब त टेक न त गो’ (लेना है तो लो नहीं तो जाओ)। इससे स्पष्ट है कि अंग्रेजी हमारी क्षेत्रीय भाषाओं में प्रवेश कर रही थी।
इसके लिए तकनीकी संस्थानों, आयोगों हिंदी निदेशालयों के अनुवादकों और अधिकारियों को चाहिए कि हिंदी भाषा को आम जन समाज की भाषा से जोड़कर उसे कृत्रिम शब्दावली से बचाएँ। अब चाय के लिए ‘दुग्ध शर्करा मिश्रित पेय’, साइकिल के लिए ‘द्विचक्रिका’ और रेल के लिए ‘लोहपथगामिनी’ जैसे शब्दों का प्रयोग हास्यास्पद ही लगेगा। जबकि इनके प्रचलित शब्दों का लेखन-पठन हर दृष्टि से सरल और सुविधाजनक है। मुझे शुद्धतावादियों का राग बड़ा ही आधारहीन लगता है। मेरा मानना है कि हिंदी को शुद्ध बनाने की बजाय इसका अधिक से अधिक प्रयोग करें, उसे विमर्श की भाषा बनाएँ, वैज्ञानिक और तकनीकी शब्दावली से जोड़कर रोजगार की भाषा बनाएँ तभी इसका भविष्य बेहतर होगा।
अशोक बैरागी : हिंदी भारत सहित विश्व के सभी देशों में लगातार बढ़ रही है। यह विश्व में तीसरे नंबर की सबसे अधिक बोले जाने वाली भाषा है, फिर भी हिंदी राष्ट्रभाषा और सर्वोच्च न्यायालय की भाषा क्यों नहीं बन पा रही?
अशोक भाटिया : हिंदी बेशक घोषित राष्ट्रभाषा नहीं है परंतु व्यावहारिक रूप से हिंदी लगातार पंख फैला रही है। हिंदी को वैज्ञानिक, प्रशासनिक और प्रौद्योगिकी में पोषण-संरक्षण मिलना चाहिए। आप रेडियो, टेलीविज़न, समाचार पत्र, पत्रिकाएँ, बाजार और सोशल मीडिया कहीं भी देखिए हर जगह हिंदी ही छाई हुई नजर आती है। इससे कह सकते हैं कि हिंदी लगातार बढ़ रही है और बेहद सुंदर भाषा है। लेकिन दिक्कत कहाँ है…?
वास्तव में हिंदी को अतिशुद्धता और कृत्रिमता ने मारा है। जब-जब हिंदी को शुद्धता की जंजीरों में बाँधा गया, तब-तब वह लोकप्रियता के पायदान पर नीचे खिसक गई। जहाँ तकनीकी ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र की बात है वहाँ यह केवल अनुवाद की भाषा बन कर रह गई है। क्योंकि जब वैज्ञानिक तकनीकी शब्दावली आयोग बना तो अनुवादको ने बड़े ही कृत्रिम अनुवाद किए।
देश की सर्वोच्च अदालत में भी हमें अपनी भाषा में न्याय नहीं मिलता, यह भी आम जनता के साथ सीधा-सीधा अन्याय है। एक गाँव-देहात का सीधा-सादा आदमी वहाँ जाकर न बोल पाता है, न ही सुन समझ पाता है। वहाँ अंग्रेजी का बोलबाला है। वहाँ हिंदी भाषा क्यों नहीं बोली जाती जबकि हिंदी हमारी मातृभाषा और संपर्क भाषा है। कारण वही…दृढ़ इच्छाशक्ति का अभाव। जिस दिन यह इच्छाशक्ति आ जाएगी उसी दिन से चीजें बदलना शुरू हो जाएंगी।
संपर्क - 9466549394