कविताएँ – कपिल भारद्वाज

हरियाणा की वर्तमान हिंदी कविता में कपिल भारद्वाज निरन्तर संवादरत हैं। भारद्वाज की इन कविताओं में दिनों दिन घटती जाती संवेदना के बरक्स व्यापक आदमियत का गहरा भावबोध मौजुद है। नदियों, पहाड़ों और समुद्र से दूर समतल धरती के विडम्बनाओं से भरे जीवन में गाढ़े प्रेम से उपजी अनुभूतियाँ भी बराबर नजर आती है।

कपिल भारद्वाज

1. मुझे घर जल्दी पहुँचने की हड़बड़ी नहीं है बाबा

मैं सीधी ट्रेन पकड़ कर 
घर नहीं जाना चाहता बाबा 
मैं बदलना चाहता हूँ तीन या चार ट्रेनें 
कम से कम । 

मुझे घर पहुँचने की कोई हड़बड़ी नहीं है बाबा 
मैं रुकना चाहता हूँ रेलवे स्टेशनों पर 
आते जाते लोगों को देखना चाहता हूँ 
आधी अधूरी रात गुजारना चाहता हूँ 
दो चार सिगरेट पीना चाहता हूँ या फिर किसी अंग्रेजी व्हिस्की का हाफ 
मुझे ऐसी रातें पसंद है बाबा 
जिसमें रेल का हॉर्न दूर तक सुनाई दे । 

मुझे इंतिज़ार है भी; नहीं भी 
मन में है बाहर नहीं है । 
ये जो मन है न बाबा 
बस यही है जिसके कारण 
मुझे घर जल्दी पहुँचने की हड़बड़ी नहीं है
 
मेरे लिए घर से ज्यादा 
स्टेशन पर बिताई शाम ज्यादा दिनों तक स्मृति में रहती हैं ।

(कुँवर नारायण की कविता से गुजरते हुए)

2. कविता का मोगरा फूल

भरी दोपहरी खुशबू देते हैं मोगरे 
आधी रात को आता है विचार/कविता लिखने का 

मार्च का महीना भर देता है उदासी 
दिसम्बर देता है जिंदगी भर तक का दुख 

ब्रहमकमल का क्या करना है हमें सखी 
जो चौदह साल तक उलझाए रखता है पथिक को 
अपने इंतजार में 

केवड़े के फूल को देखने की हैसियत नहीं हमारी 
हम तो बस मोगरे पर काटेंगे अपनी जिंदगी । 

3. एक परदेशी का आखिरी प्रेम सन्देश

प्रिय कांटो
मेरे मन का मृग शावक
शाम होते ही/ कलकलाने लगता है
विचलित हो जाता है
भंवर जाल में फंसा/ विवश अनुभव करता है ।

समय का आर्त्तनाद/ जाने किस पहिये से लिपटा
अनजान दिशाओं में जूझ रहा है
हाशिये पर रखे वर्तमान को ।

तुम्हारा शहर गन्दे नाले से शुरू होता था
भिखारियों और मक्खियों की भिन्नभिन्नाहट
कूड़े के ढेरों पर मगजमारी करते बेसहारा बच्चे
तुम्हारे शहर की शोभा हैं या किसी तरक्की के पैमाने हैं
जो इन धनपशुओं ने हमें उपहार में दिए हैं ।

कोने पर खड़ा एक नीम का पेड़
जिसके नीचे तुमने मेरे होठों पर चुम्बन दिया था
बड़ा कसैला स्वाद था, कच्ची निम्बोली जैसा
लेकिन इतिहास में दर्ज है वो नीम....
जब एक देश के दो देश हो रहे हों
तो स्त्रियों को चुकानी होती है सबसे ज्यादा कीमत ।

अपने ही देश में परदेशी हो जाना
वही जान सकता है इसका दर्द
जो धरती से चूल्हे बनाना जानता हो ।

हम मछलियों जैसे थे.... धार में बहती
और बगुले हमारे सिरों पर मंडरा रहे थे
मैंने उन बगुलों को कई बार देखा/ लेकिन
तुमने जानबूझकर आंखों पर तीन उंगलियां टिका दी थी
बगुलों से खास लगाव बहुत बाद में समझ सका मैं ।

किसी देवता से शापित होना
निराश ही नहीं करता बल्कि जीवन के रस को भी सोख लेता है

4. फूल सन्नाटे का आंनद है

क्या तुम्हें नहीं पता था
कि फूलों के साथ साथ कांटे भी मिलेंगे

कांटे शोर करते हैं 
फूल सन्नाटे का आनन्द है
एक खुरपी यदि गलत दिशा में घूम जाए
तो सन्नाटों को भयावहता में बदल देती है

आकाश में उड़ी खुश्बू को
किवाड़ मूंदकर रोका नहीं जा सकता
लेकिन डब्बे में बंद किया जा सकता है।

मेरे पास साइकिल था
जिसके दो पैडलों पर पूरी दुनिया घूमी जा सकती थी
तुम्हारे साथ, लेकिन
साइकिल की ताड़ियों में डंडा फंसाने वाले लोग
हमारे साथ साथ चल रहे थे

चींटियां एकरेखीय चलती हैं
खाने की तलाश में
लेकिन हम प्रेम की सम्पूर्णता की खोज में थे !

5. जोगी

हम न तो रेगिस्तान में रहने वाले थे 
और न ही पहाड़ों पर कभी बसे थे 
समुद्र तो हमसे हजारों कोस दूर था । 

खेतों की मेड़ों पर टहलकर 
पक्की कृत्रिम नहरों में नहाकर
खट्टे बेरों की गुठलियाँ एक दूसरे पर फेंककर  
रेडियो पर सुनकर किशोर कुमार की आवाज 
गुजारा अपना बचपन । 

जवानी में हमने आवारगी की कविताओ में 
शराब में मिला पहाड़ों की धुंध जैसा आकर्षण 
और प्रेम में पाया जोगी जैसा मन । 

हम रोये तो लगा कि कोई पुकार रहा है बेसबरा होकर  
और जब जब हँसे तो लगा 
दुनिया को मारी है ठोकर । 
कपिल भारद्वाज ने गांधी दर्शन पर आधारित हिंदी नाटकों को अपना शोध विषय बनाया है। हाल फिलहाल हरियाणा में ही एक कोलेज में हिंदी साहित्य पढ़ा रहे हैं। संपर्क - 9068286267

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5 thoughts on “कविताएँ – कपिल भारद्वाज

  1. जीवन को लिखना एक जीवंत यात्रा है सृजन की जिसे इन कविताओं में अनुभव किया जा सकता है। बेहतरीन कविताएं!
    कवि महोदय को बधाई!

  2. बेहतरीन कविताएँ ज़नाब
    यूँ लगा मैं किसी सफर में हूँ
    केवड़े के फूल को देखने की हैसियत नहीं हमारी
    हम तो बस मोगरे पर काटेंगे अपनी जिंदगी ।

    क्या बात क्या कहने इस खुशबू के

    1. बहुत सुंदर अभिव्यक्ति कविताओं के माध्यम से कपिल भारद्वाज जी सामाजिक बदलाव के प्रहरी हैं ये कविता

  3. “हम मछलियों जैसे थे…. धार में बहती
    और बगुले हमारे सिरों पर मंडरा रहे थे…….”
    बहुत खूब प्रिय कपिल भारद्वाज जी। आपकी कविताएं पाठकों के मानसिक पटल पर अमिट छाप छोड़ जाती हैं।
    आपको मेरी तरफ से बहुत बहुत शुभकामनाएं।

  4. युवा कवी कपिल भारद्वाज की कविताओं की पढ़कर लगता है जैसे कि वो अपने प्रिय की अपेक्षा प्रिय के ख्याल में ही रहना पसंद करते हो जैसा उनकी कविता एक परदेशी का आख़िरी प्रेमसदेंश को पढ़कर लगता है।
    हम अपने ख्याल को सनम समझे थे ,
    हम अपने ख्याल को भी कम समझे थे ,
    होना था , समझना न था , क्या शमशेर
    होना भी कहांँ था, वो जो हम समझे थे ।

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